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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

पाँचवाँ दृश्य

(एक सार्वजनिक सड़क का दृश्य। मोटरादि चल रही है। पटरी पर पैदल लोग आ जा रहे हैं। कोई दस का समय है। इसी समय रमानाथ पगड़ी बाँधे तिलक लगाये इधर– उधर देखता हुआ चौकन्ना– सा आता है। रह– रह कर पीछे मुड़ता है। पीछे तीन सिपाही आ रहे हैं।)

रमानाथ—(स्वगत) ये लोग भी पटरी पर आ गये। कहाँ जाऊँ? दूसरी पटरी पर जाना सँदेह को और बढ़ा देगा। कोई ऐसी गली भी नहीं कि जिसमें घुस जाऊँ (मुड़ कर देखता है) अरे, अब तो वे सब बहुत समीप आ गये क्या बात है, सब मेरी ही तरफ देख रहे हैं। मैंने बड़ी हिमाकत की कि यह पग्गड़ बाँध लिया, और बँधी कितनी बेतुकी। एक टीले– सा ऊपर उठ गया है। यह पगड़ी मुझे पकड़ायेगी। बाँधी थी कि इससे सूरत बदल जायगी। यह उल्टे और तमाशा बन गया।….(फिर मुड़ कर) हाँ, तीनों मेरी ही ओर ताक रहे हैं। आपस में बातें भी कर रहे हैं।

(सिपाही सचमुच उसे देख कर बातें करते हैं।)

पहला—यो मनई चोर न होय, तो तुम्हारी टाँगन से निकल जाई। कस चोरन की नाई ताकत है।

दूसरा—कुछ संदेह तो हमऊ का हुए रहा है? फुरै कह्यो पांडे, असली चोर है।

तीसरा सिपाही—(ललकार कर) ओ जी, ओ पगड़ी, जरा इधर आना। तुम्हारा क्या नाम है?

रमानाथ—(सीनाजोरी के भाव से) हमारा नाम पूछ कर क्या करोगे? मैं क्या चोर हूँ?

सिपाही—चोर नहीं, तुम साह हो, नाम क्यों नहीं बताते?

रमानाथ—(ठिठक कर) हीरा लाल।

सिपाही—घर कहाँ है?

रमानाथ—घर?

सिपाही—हाँ, घर पूछते हैं।

रमानाथ—शाहजहाँपुर।

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