नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
छठा दृश्य
(पुलिस स्टेशन का दफ्तर। परदा उठते ही कुछ व्यक्ति बाहर जाते दिखाई देते हैं। एक गोरे सज्जन, जिनकी बड़ी– बड़ी आँखों में कोमलता की झलक है और शौकीन जान पड़ते हैं टकरौ लफिर मेज के पास बैठ जाते हैं। वे दारोगा हैं। दो क्षण कुछ गंभीरता से सोचते हैं, तभी पाँचवें दृश्यवाला सिपाही वहाँ आता है।)
सिपाही—दारोगा जी, लाइए कुछ इनाम दिलवाइए, एक मुलजिम को शुबहे पर गिरफ्तार किया है। इलाहाबाद का रहने वाला है, नाम है रमानाथ। पहले नाम और सकूनत दोनों गलत बतायी थी। देवीदीन खटिक के घर ठहरा हुआ है।
दारोगा—देवीदान वही है न जिसके दोनों लड़के…
(तभी बाकी सिपाही रमानाथ को ले कर आते हैं। दारोगा साहब उसे सिर से पाँव तक ऐसे देखते हैं मानो मन में हुलिया मिला रहे हों। सहसा कठोर हो कर बोलते हैं—)
दारोगा—अच्छा, यह इलाहाबाद का रमानाथ है। खूब मिले भाई। छह महीने से परेशान कर रहे हो। कैसा साफ हुलिया है कि अंधा पहचान ले। यहाँ कब से आये हो?
सिपाही—अब सब हाल सच– सच कह दो तो तुम्हारे साथ सख्ती न की जायगी।
रमानाथ—(निस्संकोच बनता हुआ) अब तो आपके हाथ में हूँ, रियायत कीजिए या सख्ती कीजिए। इलाहाबाद की म्यूनिसिपैलिटी में नौकर था। हिमाकत कहिए या बदनसीबी, चुंगी के तीन सौ रुपये मुझसे खर्च हो गये। शर्म के मारे घरवालों से कुछ न कहा। नहीं तो इतने रुपयों का इंतजाम हो जाना कोई मुश्किल नहीं था। जब कुछ बस न चला तो वहाँ से भाग कर यहाँ चला आया। इसमें एक हरफ भी गलत नहीं है।
दारोगा—(गम्भीर भाव से) मामला कुछ संगीन है, क्या कुछ शराब का चस्का पड़ गया था?
रमानाथ—मुझसे कसम लीजिए जो कभी शराब मुँह से लगायी हो।
सिपाही—(विनोद से) मुहब्बत के बाजार में लुट गये होंगे, हुजूर।
रमानाथ—(मुस्कराकर) मुझसे फाकेमस्तों की वहाँ कहाँ गुजर?
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