नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ—फिर…
देवीदीन—फिर क्या! सजा काट कर निकला तो यहां भाग आया। फिर कभी घर नहीं गया। हाँ, पत्र भेज दिया। सो मेरी तो सलाह है कि घर एक खत लिख दो, लेकिन पुलिस तो तुम्हारी टोह में होगी। कहीं पता मिल गया तो काम बिगड़ जायगा। लेकिन हाँ, मैं न किसी से एक खत लिखवा कर भेज दूँ।
रमानाथ—(आग्रहपूर्वक) नहीं दादा! दया करो। अनर्थ हो जायगा। पुलिस से ज्यादा तो मुझे घरवालों का भय है।
देवीदीन—घरवाले खबर पाते ही आ जायेंगे। यह चर्चा ही न उठेगी। उनकी कोई चिंता नहीं, डर पुलिस ही का है।
रमानाथ—मैं सजा से बिलकुल नहीं डरता। तुमसे कहा नहीं, एक दिन वाचनालय में जान– पहचान की एक स्त्री दिखाई दी। एक बड़े वकील की पत्नी है। मेरी स्त्री से बड़ी मित्रता थी। उस देखते ही मेरी नानी मर गयी। चुपके से पीछे के बरामदे में जा छिपा। अगर उस वक्त उससे दो– चार बातें कर लेता तो घर का सारा समाचार मालूम हो जाता, लेकिन मेरी हिम्मत ही न पड़ी। वह किसी से चर्चा भी न करती।
देवीदीन—तो फिर उसी को क्यों नहीं चिट्ठी लिखते।
रमानाथ– चिट्ठी तो मुझसे न लिखी जाएगी।
देवीदीन—तो कब तक चिट्ठी न लिखोगे?
रमानाथ—देखना चाहिए।
देवीदीन—पुलिस तुम्हारी टोह में होगी।
रमानाथ—हाँ, इसकी शंका मुझे हमेशा बनी रहती है। तुम देखते हो मैं दिन को बहुत कम घर से निकलता हूँ, लेकिन मैं तुम्हें अपने साथ नहीं घसीटना चाहता। मैं तो जाऊँगा ही, तुम्हें क्यों उलझन में डालूँ? सोचता हूँ कहीं और चला जाऊँ।
देवीदीन—(गर्व से) मेरे बारे में तुम कुछ चिंता न करो भैया। यहाँ पुलिस से डरने वाले नहीं हैं। किसी परदेशी को अपने घर ठहराना पाप नहीं है! हमें क्या मालूम किसके पीछे पुलिस है। तुम अपने को बचाये रहो। हाँ, कहीं बुढ़िया से न कह देना, नहीं तो उसके पेट में पानी न पचेगा।
(दोनों कई क्षण मौन रहते हैं)
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