नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
देवीदीन—(सहसा) क्यों भैया, कहो तो मैं तुम्हारे घर चला जाऊँ! किसी को कानो– कान खबर न होगी। मैं इधर– उधर से सारा ब्योरा पूँछ आऊँगा।
रमानाथ—कैसे पूछोगे दादा? लोग कहेंगे न कि तुम्हें इन बातों से क्या मतलब?
देवीदीन—(जोर से हँस कर) भैया, इससे सहज तो कोई काम नहीं। एक जनेऊ गले में डाला और ब्राह्मण बन गये। फिर चाहे हाथ देखो, चाहे सुगन विचारो। बुढ़िया भिक्षा ले कर आयेगी। उसे देखते ही कहूँगा, तेरे को पुत्र के परदेश जाने का बड़ा कष्ट है।
रमानाथ—(हँस कर) दादा तुम तो बड़े चतुर हो।
देवीदीन—(रस लेता हुआ) अजी इतना सुनते ही घर– भर के लोग आ जायेंगे। वह भी आयेगी। उसका हाथ देखूँगा। इन बातों में मैं पक्का हूँ भैया। तुम निश्चिंत रहो। कुछ कमा लाऊँगा, देख लेना। माघ– मेला भी होगा। स्नान करता आऊँगा। क्यों सलाह है न?
(रमानाथ प्रसन्न होता है पर झिझकता है)
रमानाथ—कहाँ जायेंगे, दादा! कष्ट होगा।
देवीदीन—माघ का स्नान भी तो करूँगा। कष्ट के बिना कहाँ पुत्र होता है। मैं तो कहता हूँ तुम चलो। मैं वहाँ सब रंग– ढंग देख लूँगा। अगर देखना कि मामला टिचन है, तो चैन से घर चले जाना। कोई खटका मालूम हो तो मेरे साथ ही लौट आना।
रमानाथ—(हँसकर) कहाँ की बात करते हो, दादा! मैं यों कभी न जाऊँगा। स्टेशन पर उतरते ही कहीं पुलिस का सिपाही पकड़ ले तो बस!
देवीदीन—सिपाही क्या पकड़ लेगा, दिल्लगी है। मुझसे कहो, मैं प्रयागराज के थाने में ले जा कर खड़ा कर दूँ। अगर कोई तिरछी आँखों से भी देख ले तो मूँछ मुड़ा लूँ।….रुपयों में बड़ा बल होता है, भैया।
(रमा गंभीर हो जाता है। फिर उसके मन में माँ, बाप, भाई, और जालपा की तस्वीरें उभरती हैं और वह उस मधुर कल्पना में खो जाता है।)
देवीदीन—क्या सोच रहे हो? चलोगे न?
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