नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
|
9 पाठकों को प्रिय 336 पाठक हैं |
‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ—हां, हैं तो।
देवीदीन—(गिड़गिड़ाकर) तो भैया, आज ही चिट्ठी डाल दो, मेरी बात मानो।
रमानाथ—मैं घर से भाग आया हूँ दादा।
देवीदीन—(मुस्कराकर) यह तो मैं जानता हूँ। क्या बाप से लड़ाई हो गई?
रमानाथ—नहीं
देवीदीन—माँ ने कुछ कहा होगा?
रमानाथ—वह भी नहीं।
देवीदीन—तो फिर घरवाली से ठन गयी होगी। वह कहती होगी, मैं अलग रहूँगी। तुम कहते होगे, मैं अपने माँ– बाप से अलग न रहूँगा। या गहने के लिए जिद करती होगी, नाक में दम कर रखा होगा। क्यों?
रमानाथ—(लज्जित) कुछ ऐसी ही बात थी, दादा। वह तो गहनों की बहुत इच्छुक न थी, लेकिन पा जाती थी तो प्रसन्न हो जाती थी और मैं प्रेम की तरंग में आगा– पीछा कुछ न सोचता था।
देवीदीन—हूँ; सरकारी रकम तो नहीं उड़ा दी
(रमानाथ एकदम काँप उठता है। चेहरे का रंग उड़ जाता है और कोई जवाब नहीं दे पाता।)
देवीदीन—(मुस्कराकर) प्रेम बड़ा बेढब होता है; भाया। बड़े– बड़े चूक जाते हैं। तहकीकात की जाय तो सब का कारण एक ही होगा—‘गहना’। औरत मुँह से तो यही कहे जाती है कि यह क्यों लाये, वह क्यों लाये, रुपये कहाँ से आयेंगे, लेकिन उसका मन आनंद से नाचने लगता है। दस– बीस वारदातें तो मैं आँखों से देख चुका हूँ। और दूसरों की क्या कहूँ, मैं भी तीन साल की सजा काट चुका हूँ।
रमानाथ—(एकदम सिर उठा कर) दादा तुम?
देवीदीन—हाँ मैं! जवानी की बात है। मैं डाकिया था और यह झूमक के लिए जान खा रही थी। कहती थी सोने के लूँगी। मुझ पर प्रेम का नशा छाया हुआ था। अपनी आमदनी की डींगे मारता रहता था। कभी फूलों के हार लाता, कभी मिठाई, आखिर एक दिन मैंने एक मनीआर्डर पर झूठे दस्तखत कर रुपये उड़ा लिये। कुल तीस रुपये थे। झूमक ला कर इसे दिये, बड़ी खुशी हुई, लेकिन एक महीन में चोरी पकड़ ली गयी। तीन साल की सजा हो गयी।
|