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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

तीसरा अंक

पहला दृश्य

(कलकत्ता में एक साधारण सा मकान। दो कोठरियां और उनके आगे एक बरामदा। बरामदे में साक– भाजी की दुकान लगती है। एक कोठरी में खाना बनता है, एक में बरतन भाँड़े और दूसरा सामान पड़ा है। एक कोठरी ऊपर है जिसके आगे छत है। इस समय वहाँ रमानाथ हाथ– मुँह धोने में व्यस्त है। कोई विशेष परिवर्तन तो नहीं है, पर न अब चेहरे पर उत्साह है, न बदन पर सुन्दर वस्त्र। माथे पर तिलक लगा है। इसी समय एक बूढ़ा वहाँ आता है। ६॰–  ७॰ का होगा। माँस तो क्या हड्डियाँ तक गल गयी हैं। मूँछ और सिर के बाल मुँड़े हुए हैं। देखने में गँवार है, पर वैसे मुख पर मस्ती है। वह खटिक है और उसका नाम देवीदीन है। यह घर उसी का है, इस समय उसके हाथ में प्राइमर है।)

देवीदीन—भैया, यह तुम्हारी अंग्रेजी बड़ी विकट है। एस आइ आर ‘सर’ होता है तो पी आई टी ‘पिट’ क्यों हो जाता है बी यू टी ‘बट’ होता है लेकिन पी यू टी ‘पुट’ क्यों होता है? तुम्हें भी बड़ी कठिन लगती होगी!

रमानाथ—(मुस्करा कर) पहले तो कठिन लगती थी, पर अब आसान मालूम होती है।

देवीदीन—जिस दिन प्राइमर खतम होगी, महावीर जी को सवा सेर लड्डू चढ़ाऊँगा। पराई– मर का मतलब है पराई स्त्री मर जाय। मैं कहता हूँ हमारी मर! पराई के मरने से हमें क्या सुख? तुम्हारे बाल– बच्चे तो हैं न भैया?

रमानाथ—(उदासी) हाँ, हैं तो।

देवीदीन—कोई चिट्ठी– चपाती आयी थी?

रमानाथ—न।

देवीदीन—और न तुमने लिखी? अरे! तीन महीने से कोई चिट्ठी भी नहीं भेजी! घबराते न होंगे?

रमानाथ—जब तक यहाँ कोई ठिकाना न लग जाय, क्या पत्र लिखूँ?

देवीदीन—अरे भले आदमी, इतना तो लिख दो कि मैं यहाँ कुशल से हूँ। घर से भाग आये थे, उन लोगों को कितनी चिंता हो रही होगी। माँ– बाप तो हैं न?

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