नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
जालपा—जरा भी नहीं, कसम खाती हूँ। उन्होंने नोटों के खो जाने का मुझसे जिक्र ही नहीं किया। अगर इशारा भी कर देते तो मैं रुपये दे देती। जब वह दोपहर तक नहीं आये और मैं उन्हें खोजती दफ्तर गयी, तब मुझे मालूम हुआ, कुछ नोट खो गये हैं। उसी वक्त जा कर मैंने रुपये जमा कर दिये।
रतन—वह तो मैंने सुना है। बड़े बाबू तुम्हारी सूझ– बूझ की दाद दे रहे थे। मैं तो समझती हूँ किसी से आँखें लड़ गयीं हैं। दस– पांच दिन में पता लग जायगा। यह बात सच न निकले, तो जो कहो दूँ।
जालपा—(हकबका कर) क्या तुमने कुछ सुना है?
रतन—नहीं, सुना तो नहीं, पर मेरा अनुमान है।
जालपा—नहीं रतन! मैं इस पर जरा भी विश्वास नहीं करती। यह बुराई उनमें नहीं है, और चाहे कितनी बुराइयाँ हों।
रतन—(हँस कर) इस कला में ये लोग निपुण होते हैं! तुम बेचारी क्या जानो!
जालपा—(दृढ़ता से) अगर वह इस कला में निपुण होते हैं तो हम भी हृदय परखने में कम निपुण नहीं होतीं। मैं इसे नहीं मान सकती। अगर वह मेरे स्वामी थे, तो मैं उनकी स्वामिनी थी।
रतन—अच्छा, मैंने तो वैसे ही कहा था। कहीं घूमने चलती हो? चलो तुम्हें कहीं घुमा लायें।
जालपा—नहीं, इस वक्त तो मुझे फुरसत नहीं है। फिर घरवाले यों ही प्राण लेने पर तुले हुए हैं। तब तो जीता ही नहीं छोड़ेंगे। किधर जाने का विचार है?
रतन—कहीं नहीं, जरा बाजार तक जाना था।
जालपा—क्या लेना है?
रतन—जौहरियों की दुकान पर दो एक चीज देखूँगी। बस, मैं तुम्हारे जैसा कंगन चाहती हूँ। बाबू जी ने भी कई महीनों के बाद रुपये लौटा दिये। अब खुद तलाश करुँगी।
जालपा—मेरे कंगन में ऐसे कौन रूप लगे हैं। बाजार में उससे खूब अच्छे मिल सकते हैं।
रतन—मैं तो उसी नमूने का चाहती हूँ।
जालपा—उस नमूने का तो बना– बनाया मुश्किल से मिलेगा और बनवाने में महीनों का झंझट है। अगर सब्र न आता हो तो मेरा ही कंगन ले लो, मैं फिर बनवा लूँगी।
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