नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
|
9 पाठकों को प्रिय 336 पाठक हैं |
‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
दसवाँ दृश्य
(वही जालपा का कमरा। न अब परदा है, न कोई सजावट, सब ऐसे पड़ा है जैसे वहाँ कोई नहीं आया। जालपा स्वयं ऐसी बदल गयी है कि पहचानी नहीं जाती। रोते– रोते आँखें सूज गयी हैं। शरीर का बुरा हाल है, ऊपर से शांत है। इस समय चारपाई पर गुम– सुम बैठी कुछ सोच रही है। सहसा वह चौंक पड़ती है। बाहर पास ही उसके सास– ससुर बातें करते सुन पड़ते हैं।)
दयानाथ—मैं तो इन तकाजों के मारे हैरान हो गया हूँ। जिधर जाओ, उधर लोग नोचने दौड़ते हैं। न जाने कितना कर्ज ले रखा है। न जाने यह बहू कहाँ से सिर पड़ी गयी! इससे पूछो, थोड़ी– सी तो आमदनी थी फिर तुम्हें रोज सैर– सपाटे और दावत– तवाजे की क्यों सूझती थी? क्यों इसने गहने बनवाये थे? मैंने आज सब से साफ कह दिया! मैं कुछ नहीं जानता। मैं किसी का देनदार नहीं हूँ। जा कर मेम साहब से माँगो।
(जालपा सहसा उठ कर पास जाती है।)
जालपा– जी हाँ, आप उन्हें सीधे मेरे पास भेज दीजिए, मैं उन्हें या तो समझा दूंगी या उनके दाम चुका दूँगी।
दयानाथ—(तीखा स्वर) क्या दे दोगी तुम, हजारों का हिसाब है। सात सौ तो एक सर्राफ के हैं। अभी के पैसे दिये हैं तुमने?
जालपा—उसके गहने मौजूद हैं, केवल दो– चार बार पहने गये हैं। वह आये तो मेरे पास भेज दीजिए। मैं उसकी चीजें वापस कर दूँगी। बहुत होगा, दस पाँच रुपये तावान के ले लेगा।
(दयानाथ कुछ जवाब नहीं देते। वे अंदर चले जाते हैं। कई क्षण जालपा फिर मौन हो कर कुछ सोचती है कि रतन का प्रवेश करती है। आते ही जालपा को गले लगा लेती है। आँखें बरस पड़ती हैं।)
रतन—क्या अब तक कुछ पता नहीं चला?
जालपा—(आँसू भरे) अभी तो कुछ पता नहीं चला, बहन!
रतन—यह बात क्या हुई, कुछ तुमसे तो कहा– सुनी नहीं हुई?
|