लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

336 पाठक हैं

‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

नवाँ दृश्य

(स्टेशन के पास एक सड़क। रमानाथ तेजी से एक तरफ से आता है और सहसा एक पेड़ को पकड़ कर उसके सहारे लुढ़क जाता है। उसकी अवस्था दयनीय है। मुँह पर हवाइयाँ उड़ रही हैं। मानो वर्षों से बीमार है। धीरे– धीरे बड़बड़ाता है।)

रमानाथ—(काँपता हुआ) ओह! सारा परदा खुल गया! जिन बातों के छिपाने की मैंने इतने दिनों चेष्टा की, इतनी कठिनाइयाँ झेलीं उन सबों ने आज मेरे मुँह पर कालिख पोत दी। ओह! जालपा की सिसकियां, पिता कि झिड़कियाँ और पड़ोसियों की कनफुसकियाँ सुनने की अपेक्षा मर जाना कहीं आसान होगा।…हाय, केवल तीन सौ रुपयों के लिए मेरा सर्वनाश हुआ जा रहा है। जालपा मुझे कितना नीच, कितना कपटी, कितना धूर्त, कितना गपोड़िया समझ रही होगी। क्या मैं उसे अपना मुँह दिखा सकता हूँ….क्या संसार में कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ मैं नये जीवन का सूत्रपात कर सकूँ। जहाँ मैं ऐसे छिप जाऊँ कि पुलिस मेरा पता न पा सके….गंगा की गोद के सिवा ऐसी जगह और कहाँ है। अगर जीवित रहा तो महीने दो महीने में अवश्य पकड़ लिया जाऊँगा। तब मैं हथकड़ियाँ– बेड़ियाँ पहने अदालत में खड़ा हूँगा! सिपाहियों का दल मुझ पर सवार होगा। सारे शहर के लोग मेरा तमाशा देखने आयेंगे। जालपा, रतन, उसके पिता, सम्बन्धी, मित्र सब मेरी दुर्दशा का तमाशा देखेंगे…इससे कहीं अच्छा है, मैं डूब मरूँ…पर…पर जालपा…उसका क्या होगा! हाय मैं उसे भी ले डूबा…हाय, वह घबड़ायी मुझे खोज रही होगी..चारों तरफ मेरी तलाश हो रही होगी…कहाँ जाऊँ…(रेल की सीटी होती है) ओह, स्टेशन पास है….तो….तो…क्यों न कहीं भाग चलूँ!

(सहसा उसमें शक्ति भर उठती है। तेजी से स्टेशन की ओर भागता है। परदा गिरता है।)

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book