नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रतन—(उछल कर) वाह, तुम कंगन दे दो, तो क्या कहना है, मूसलों ढोल बजाऊँ। छः सौ का था न?
जालपा—हाँ, था तो छह सौ का, मगर महीनों सराफ की दुकान की खाक छाननी पड़ी थी। जड़ाई तो खुद बैठ कर करवाई थी। तुम्हारी खातिर दे दूँगी।
(कहती– कहती जालपा आल्मारी से कंगन निकालती है और रतन के हाथों में पहना देती है। रतन का मुख खिल उठता है। कृतज्ञता से वह दब जाती है।)
रतन—तुम जितना कहो, उतना देने को तैयार हूँ। तुम्हें दबाना नहीं चाहती। तुम्हारे लिए यही क्या कम है कि तुमने इसे मुझे दे दिया। मगर एक बात है। अभी मैं सब रुपये न दे सकूँगी, अगर सौ फिर दे दूँ तो कुछ हरज है!
जालपा—(दृढ़ता से) कोई हरज नहीं, जी चाहे कुछ मत दो।
रतन—नहीं, इस वक्त मेरे पास चार सौ रुपये हैं, इन्हें मैं दिये जाती हूँ। मेरे पास रहेंगे तो किसी दूसरी जगह खर्च हो जायँगे।
जालपा—(डिबिया निकालती है) कोई बात नहीं। लो!
(हाथ बढ़ाती है। आँखों में आँसू भर आते हैं। रतन उसे देख कर ठिठकती है।)
रतन—इस वक्त रहने दो बहन, फिर ले लूंगी, जल्दी भी क्या है।
जालपा—क्यों, मेरे आँसू देख कर कहती हो! तुम्हारी खातिर से दे रही हूँ। नहीं तो यह मुझे प्राणों से भी प्रिय था। वे कितने खुश होते थे? पर तुम्हारे पास देखूँगी तो मुझे तस्कीन होती रहेगी। किसी दूसरे को मत देना; इतनी दया करना।
रतन— किसी दूसरे को क्यों देने लगी? इसे तुम्हारी निशानी समझूँगी। आज बहुत दिन के बाद मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई। केवल दुःख इतना है कि बाबू जी अब नहीं हैं। मेरा मन कहता है कि वह जल्दी ही आयेंगे।
जालपा—बहन, तुम्हारी बात पूरी हो।
रतन—जरूर होगी। वह मारे शर्म के चले गये हैं, और कोई बात नहीं। वकील साहब को भी यह सुन कर दुःख हुआ…
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