नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ—हाँ
जालपा —मैंने उसके सब रुपये दे दिये।
(यह सुनते ही रमानाथ काँप उठता है। आँखें फैल जाती हैं। माथे पर पसीना चमक उठता है।)
रमानाथ—क्या…क्या कहा; रतन को रुपये दे दिये! तुमसे किसने कहा था कि उसे रुपये दे देना?
जालपा—(चकित– सी) उसी के रुपये तो तुमने ला कर रखे थे। तुम्हारे जाते ही वह आयी और कंगन माँगने लगी। मैंने झल्ला कर उसे रुपये फेंक दिये।
(रमानाथ इसी बीच सँभल जाता है।)
रमानाथ—(सँभल कर) उसने रुपये माँगे तो न थे!
जालपा—माँगे क्यों नहीं! हाँ, जब मैंने दे दिये तो अलबत्ता कहने लगीं, इन्हें क्यों लौटाती हो! अपने पास ही पड़े रहने दो। मैंने कह दिया, ऐसे शक्की मिजाज वालों का रुपया मैं नहीं रखती।
रमानाथ—ईश्वर के लिए तुम मुझसे बिना पूछे ऐसे काम मत किया करो।
जालपा—तो अभी क्या हुआ है! उसके पास जाकर रुपये माँग लाओ, मगर अभी से रुपये घर में ला कर अपने जी का जंजाल क्यों मोल लोगे?
(रमानाथ कोई जवाब न देकर खाट पर बैठ जाता है। कई क्षण बैठा रहा। जालपा कुछ अपराधी– सी उसे देखती रही। सहसा रमानाथ ने उसे देखा, वह फिर सँभल कर बोला—)
रमानाथ—अच्छा। जो हो गया सो ठीक है। तुम चिंता मत करो। (वह उठकर चला जाता है। जालपा कई क्षण उसे देखती है, कुछ समझने की चेष्टा करती है, फिर वह भी चली जाती है।)
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