नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
जालपा—उसके वादों का क्या ठीक, सैकड़ों वादे तो कर चुका है।
रतन—तो इसके मानी यह है कि अब वह चीज न बनायेगा।
जालपा—जो चाहे समझ लो।
रतन—तो मेरे रुपये ही दे दो। बाज आयी ऐसे कंगन से।
(जालपा झमक कर उठती है और आलमारी से थैली निकालती है।)
जालपा—ये आपके रुपये रखे हैं ले जाइए।
(जालपा थैली रतन के आगे रखती है। रतन का रंग पलटता है, लजाती है। थैली उठाती है, फिर रख देती है और कहती है—)
रतन—अगर दो– चार दिन में देने का वादा करता हो तो रुपये रहने दो।
जालपा—मुझे आशा नहीं है कि वह इतनी जल्दी दे दे। जब चीज तैयार हो जायेगी, तो रुपये मांग लिये जायेंगे।
रतन—क्या जाने उस वक्त मेरे पास रुपये रहें या न रहें। रुपये आते तो दिखाई देते हैं, जाते नहीं दिखाई देते। न जाने किस तरह उड़ जाते हैं। अपने ही पास रख लो तो क्या बुरा है!
जालपा—तो यहाँ भी तो वही हाल है। फिर पराई रकम घर में रखना जोखिम की बात भी तो है। कोई गोलमाल हो जाय तो व्यर्थ का दंड देना पड़े। मेरे ब्याह से चौथे ही दिन मेरे गहने चोरी चले गये। दस हजार की चपत पड़ गयी। कहीं वही दुर्घटना फिर हो जाय तो कहीं के न रहे।
रतन—अच्छी बात है। मैं रुपये लिये जाती हूँ, मगर देखना निश्चिंत न हो जाना। बाबू जी से कह देना, सराफ का पिंड न छोड़ें।
जालपा—कह दूँगी।
(रतन लौट आती है। जालपा गर्व से उसे जाते देखती है। फिर मुस्कराती है। अँगड़ाई लेती और बाहर जाना चाहती है कि तभी रमानाथ आ जाता है। उसे देखते ही जालपा कहती है—)
जालपा—रतन आयी थी।
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