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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

पाँचवाँ दृश्य

(वही कमरा। लगभग वही समय। जालपा बैठी हुई है। रमानाथ प्रवेश करता है। उसके हाथ में रुपये से भरी थैली है। जालपा उसे देखकर उठती है। रमानाथ मुस्कराता हुआ थैली को आल्मारी में रखता है।)

जालपा—क्या कंगन नहीं मिला?

रमानाथ—हाँ, अभी तैयार नहीं था, मैंने समझा कि रुपये लेता चलूँ जिससे उन्हें तस्कीन हो जाय।

जालपा—क्या कहा सराफ ने!

रमानाथ—कहता क्या, आजकल करता है। अभी रतनदेवी आयी नहीं?

जालपा—आती ही होंगी। उसे चैन कहाँ?

रमानाथ—अच्छा, रुपये रखे हैं मैं घूम कर अभी आया।

जालपा—अभी तो आये हो; कोई काम है?

रमानाथ—हां, बस जल्दी लौटूँगा।

(रमानाथ जाता है। जालपा कुछ क्षण काम करती रहती है फिर वह भी उठती है कि तभी रतन आ जाती।’)

रतन—(आते ही) कंगन आ गये होंगे!

जालपा—हाँ, आ गये हैं; पहन लो! बेचारे कई दफा सराफ के पास गये। अभागा देता ही नहीं, हीले– हवाले करता है।

रतन—कैसा सराफ है कि इतने दिन से हीले– हवाले कर रहा है! मैं जानती कि रुपये झमेले में पड़ जायेंगे, तो देती ही क्यों! न रुपये मिलते हैं न कंगन मिलता है।

जालपा—आपके रुपये रखे हुए हैं, जब चाहिए ले जाइए। अपने बस की बात तो है नहीं आखिर जब सराफ देगा तभी तो आयेंगे।

रतन—कुछ वादा करता है कि कब तक देगा?

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