नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
|
9 पाठकों को प्रिय 336 पाठक हैं |
‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रतन—(तीव्र होकर) क्यों, रुपये क्यों न लौटायेगा?
रमानाथ—इसलिए कि जो चीजें आपके लिए बनायी हैं, उसे वह कहाँ बेचता फिरेगा! संभव है साल– छह महीने में बिक सके। सबकी पसंद एक सी तो नहीं होती।
रतन—(और भी क्रुद्ध) मैं कुछ भी नहीं जानती, उसने देर की है उसका दंड भोगे! मुझे कल या तो कंगन ला दीजिए या रुपये। आपकी यदि सराफ से दोस्ती है, आप मुलाहजा और मुरौवत के सबब से कुछ न कह सकते हों तो मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए। यदि आपको शर्म आती हो, तो उसका नाम बता दीजिए। मैं पता लगा लूँगी। वाह, अच्छी दिल्लगी है! दुकान नीलिम करा लूंगी। जेल भिजवा दूंगी। इन बदमाशों से लड़ाई के बगैर काम नहीं चलता।
(रामनाथ अप्रतिभ होकर जमीन की ओर ताकने लगता है)
जालपा—सच तो है, इन्हें क्यों नहीं सराफ की दुकान पर ले जाते! चीज आँखों से देख कर इन्हें संतोष तो हो जायगा।
रतन—मैं अब चीज लेना ही नहीं चाहती।
रमानाथ—(काँपता– सा) अच्छी बात है। आपको रुपये मिल जायेंगे।
रतन—पूरे रुपये लूँगी। ऐसा न हो कि सौ– दो– सौ रुपये दे कर टाल दे।
रमानाथ—कल आप अपने सब रुपये ले जाइएगा।
रतन—कल किस वक्त?
रमानाथ—दफ्तर से लौटते वक्त लेता आऊँगा।
(कहता– कहता रमा वहाँ से बाहर चला जाता है। रतन भी क्रोध और खिसियाहट से भरी हुई जाती है। जालपा उन्हें देखती है। कुछ सोचती है, फिर जलते लैम्प को देखती है। और कुछ सोच कर उधर ही जाती है जिधर रमानाथ गया है।)
|