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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

चौथा दृश्य

(यही जालपा का कमरा। संध्या का समय है। बादलों के कारण अँधेरा है। रमानाथ जाने को तैयार है। जालपा अभी बैठी है कि इतने में रतन वहाँ आ जाती है। उसकी मुख मुद्रा कठोर है। जालपा उस ओर ध्यान न दे कर हर्ष से उसका स्वागत करती हुई कहती है—)

जालपा—तुम खूब आयीं। आज मैं भी तुम्हारे साथ घूम आऊँगी। इन्हें काम के बोझ से आजकल सिर उठाने की फुर्सत नहीं है।

रतन—(निष्ठुरता से) मुझे आज बहुत जल्द घर लौट जाना है। बाबू जी को कल की याद दिलाने आयी हूं।

रमानाथ—(तत्परता से) जी हाँ, खूब याद है। अभी सराफ की दुकान से चला आ रहा हूं। रोज सुबह शाम घंटे– भर हाजिरी देता हूँ, मगर इन चीजों में समय बहुत लगता है। दाम तो कारीगरी के हैं। मालियत देखिए तो कुछ नहीं। दो आदमी लगे हुए हैं पर शायद अभी एक महीने से कम में चीज तैयार न हो, पर होगी लाजवाब। जी खुश हो जाएगा।

रतन—(तिनक कर) अच्छा! अभी महीना– भर और लगेगा। ऐसी कारीगरी है कि तीन महीने में पूरी न हुई। आप उससे कह दीजिए, मेरे रुपये वापिस कर दे। आशा के कंगन देवियाँ पहनती होंगी। मेरे लिए जरूरत नहीं।

रमानाथ—एक महीना न लगेगा, मैं जल्दी ही बनवा दूँगा। एक महीना तो मैंने अंदाज से कह दिया था। अब थोड़ी ही कसर रह गयी है। कई दिन तो नगीने की तलाश करने में लग गये।

रतन—मुझे कंगन पहिनना ही नहीं है भाई। आप मेरे रुपये लौटा दीजिए बस! सोनार मैंने भी बहुत देखे हैं। आपकी दया से इस वक्त भी तीन जोड़े कंगन मेरे पास होंगे, ऐसी धांधली कहीं नहीं देखी।

रमानाथ—(तिलमिला कर) धाँधली नहीं, मेरी हिमाकत कहिए। मुझे क्या जरूरत थी कि अपनी जान संकट में डालता! मैं तो पेशगी रुपये इसलिए दे दिये कि सोनार खुश हो कर जल्दी से बना देगा। अब आप रुपये माँग रही हैं। सराफ रुपये नहीं लौटा सकता।

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