नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
छठा दृश्य
(पहले अंक के दूसरे दृश्य वाली मर्दानी बैठक। लैम्प जल रहा है। रमानाथ अकेला इधर– से– उधर घूम रहा है। बाहर सन्नाटा है पर जान पड़ता है कि उसके अंदर एक शोर मचा है। वह रह– रह कर बड़बड़ा उठता है!)
रमानाथ—(स्वगत) जालपा क्या कर बैठी! उसने रतन को रुपये दे दिये। वे रुपये तो सरकारी थे। (रमानाथ काँपता है) सरकारी….खजांची चला गया और रुपये मुझे लाने पड़े। (रमानाथ फिर कांपता है) हाँ, वह चला गया और चपरासी दफ्तर में रखने को राजी न हुआ, उन्हें घर लाना पड़ा। जालपा ने उन्हें रतन को दे दिया।
(फिर रुकता है, चारों तरफ देखता है)
पर जालपा का इसमें क्या अपराध? जब मैंने उससे साफ कह दिया कि ये रुपये रतन के हैं और इसका संकेत तक न किया कि मुझसे पूछे बगैर रतन को रुपये मत देना….(कई क्षण चुपचाप घूमता है, फिर बोलने लगता है) लेकिन कुछ भी हो रतन से रुपये वापिस लेना अनिवार्य है। अगर मैं खुद यहाँ रहता तो कितनी खूबसूरती से सारी मुश्किल आसान हो जाती। मुझको क्या शामत सवार थी कि घूमने निकला! कोई गुप्त शक्ति मेरा अनिष्ट करने पर उतारू हो गयी है….वह कह रही थी कि रुपये रख लीजिए। जालपा ने जरा समझ से काम लिया होता…(एकदम) मैं भी पागल हूँ, फिर बीती बातें सोचने लगा। समस्या है रुपये कैसे लिये जायँ; (क्षणिक मौन—फिर चुटकी बजा कर)…क्यों न जा कर कहूँ कि मैंने सुना है, रुपये लौटाने से आप नाराज हो गयीं? असल में आपके लिए रुपये न लाया था, सराफ से इसलिए माँग लाया था जिससे वह चीज बना कर दे दे…संभव है वह खुद ही लज्जित होकर क्षमा माँगे और रुपये दे दे। बस, मुझे इसी वक्त जाना चाहिए। इसी वक्त….
(रमानाथ तेजी से बाहर जाने को मुड़ता है तभी जालपा आ जाती है)
जालपा—कहाँ चले? खाना नहीं खाओगे?
रमानाथ—(ठिठक कर) जाता कहाँ? रतन के बंगले पर जा रहा हूँ।
जालपा—इस वक्त क्यों?
रमानाथ—तुम्हारे कारण जाना पड़ रहा है। तुमने सब रुपये उठा कर दे दिये, उसमें आठ सौ रुपये थे। छह सौ रतन के और दो सौ मेरे।
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