नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
पाँचवाँ दृश्य
(वही चौथे दृश्यवाला कमरा। आज सब सामान किंचित करीने से लगा है। परदा उठते ही रामनाथ, वर्षा में भीगता वहाँ प्रवेश करता है। वह बहुत प्रसन्न है। यद्यपि उसके कपड़े भीग गये हैं। तो भी वह उन्हें पहने है। दो क्षण मुस्कराता है।)
रमानाथ– (स्वगत) आखिर नौकरी लग ही गयी। जालपा सुनेगी तो कितनी प्रसन्न होगी। वेतन कम है तो क्या, जगह तो आमदानी की है। और जालपा को तीस नहीं बताऊँगा, चालीस बताऊँगा। वैसे अगर पचास साठ रुपय महीना भी बच जायँ तो पाँच साल में जालपा गहनों से लद जायगी। सबसे पहले चन्द्रहार बनवाऊँगा। कितनी खुश होगी! है भी तो वह गहने पहनने लायक।
(जालपा का प्रवेश)
जालपा– (एक दम) अरे यह भीग कहाँ आये? रात कहाँ गायब थे?
रमानाथ– इसी नौकरी की फिक्र में पड़ा हुआ हूँ। सीधे दफ्तर से चला आता हूँ। म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर में मुझे एक जगह मिल गयी।
जालपा– (चकित) सच?
रमानाथ– (हँस कर) तुम्हारी कसम।
जालपा– (उछल कर) कितने की जगह है?
रमानाथ– (गम्भीर) अभी तो चालीस मिलेंगे, पर जल्द तरक्की होगी। जगह आमदानी की है।
जालपा– (गिरा स्वर) चालीस में क्या होगा? भला, साठ– सत्तर तो होते।
रमानाथ– (सँभल कर) मिल तो सकती थी सौ रुपये की भी, पर यहाँ रोब है और आराम है। पचास– साठ रुपये ऊपर से मिल जायेंगे।
जालपा– तो तुम घूस लोगे? गरीबों का गला काटोगे?
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