नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ– (उछल कर) हाँ, यह तुमने बहुत अच्छी तरकीब बतायी। कल जरूर लिखूँगा।
जालपा– मुझे पहुँचा कर आना, तो लिखना! कल ही थोड़े लौट आओगे।
रमानाथ– तो क्या तुम सचमुच जाओगी? तब मुझे नौकरी मिल चुकी, और मैं खत लिख चुका। इस वियोग के दुख में बैठ कर रोऊँगा कि नौकरी ढूँढ़ूँगा। नहीं, इस वक्त जाने के विचार छोड़ो। नहीं तो सच कहता हूँ, मैं कहीं भाग जाऊँगा। तुम्हारे सिवा यहाँ मेरा और कौन बैठा हुआ है, जिसके लिए यहाँ पड़ा सड़ा करूँ। हटो तो जरा बिस्तर खोल दूँ।
जालपा– (बिस्तर से खिसककर) मैं बहुत जल्दी चली आऊँगी। तुम गये और मैं आयी।
रमानाथ– (बिस्तर खोलते हुए) जी नहीं, माफ कीजिए, मैं इस धोखे में नहीं आता। तुम्हें क्या, तुम सहेलियों के साथ विहार करोगी, मेरी खबर तक न लोगी; और यहाँ मेरी जान पर बन आयेगी। इस घर में फिर कैसे कदम रखा जायगा?
जालपा– (एहसान जताती है) आपने मेरा बँधा– बँधाया बिस्तर खोल दिया, नहीं तो आज कितने आनंद से घर पहुँच जाती! शाहजादी– सच कहती थी…
रमानाथ– (मुस्करा कर) क्या कहती थी?
जालपा– (हँस कर) कहती थी कि मर्द टोनहे होते हैं।
रमानाथ– (शरारत से) क्या सचमुच होते हैं?
जालपा– होते तो हैं। मन में आज पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे ब्रह्मा भी उतर आयें, किन्तु मैं न मानूँगी। पर तुमने दो ही मिनट में मेरे सारे मन्सूबे चौपट कर दिये। कल खत लिखना जरूर। बिना कुछ पैदा किये अब निर्वाह नहीं है।
रमानाथ– कल नहीं, मैं इसी वक्त जा कर दो– तीन चिट्ठियाँ लिखता हूँ। (जाने को मुड़ता है।)
जालपा– पान तो खाते जाओ।
रमानाथ– (रुकता है) लाओ।
(जालपा शीघ्रता से पान देती है और रमानाथ उसे मुँह में रख कर भागता है। वह बेहद प्रसन्न है। जालपा भी मुस्कुराती है और यहीं परदा गिरता है।)
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