नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ– (हँस कर) नहीं प्रिये, यह जगह ऐसी नहीं है कि गरीबों का गला काटना पड़े। बड़े– बड़े महाजनों से रकमें मिलेंगी और वह खुशी से गले लगायेंगे। मैं जिसे चाहूँ दिन– भर दफ्तर में खड़ा रखूँ। महाजनों का एक– एक मिनट अशर्फी के बराबर है। जल्द– से– जल्द अपना काम कराने के लिए वे खुशामद करेंगे और पैसे भी देंगे।
जालपा– हाँ, तब ठीक है। गरीबों का काम यों ही कर देना।
रमानाथ– वह करूँगा ही।
जालपा– अम्माँ जी से तो नहीं कहा। जाकर कह आओ। मुझे तो सबसे बड़ी खुशी यही है कि अब उन्हें मालूम होगा कि यहाँ मेरा भी कोई अधिकार है।
रमानाथ– हाँ, जाता हूँ, मगर उनसे तो मैं बीस ही बताऊँगा!
जालपा– हाँ जी, बल्कि पन्द्रह ही कहना, ऊपर की आमदानी की तो चर्चा ही करना व्यर्थ है। भीतर का हिसाब वे ले सकती हैं। मैं सबसे पहले चंद्रहार बनवाऊँगी।
रमानाथ– मैंने भी यही सोचा था। बस, अब देखती रहो, पाँच साल में गहनों से लाद दूँगा।
(डाकिया पुकारता है।)
डाकिया– बाबू जी…रमानाथ जी!
रमानाथ– अरे डाकिया है। क्या लाया है; देखूँ? (जल्दी से जाता है।)
जालपा– (स्वगत) तो नौकरी लग गयी। अब अम्माँ जी को पता लगेगा, मैं भी कुछ हूँ। कोई मेरी बात ही नहीं पूछता। सारे दिन अनाथों की तरह पड़ी रहती हूँ, कोई झांकता तक नहीं। इतने रुपये दाब रखे हैं पर मेरे गहने चोरी हो गये तो एक पैसा नहीं निकाला। दो– चार गहने बनवाना कौन बड़ी बात थी। मुहल्ले की स्त्रियाँ मिलने आती हैं, कैसे मिलूँ? यह सूरत तक मुझसे नहीं दिखाई जाती। पर अब सब ठीक हो जायगा…
(रमानाथ का प्रवेश)
रमानाथ– लो, तुम्हारे घर से यह पारसल आया है। देखो इसमें क्या है। कैंची लाओ।
जालपा– (पारसल खोलती हुई) क्या भेजा है?
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