नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
(फिर दोनों सो जाते है, धीरे– धीरे चाँद छिप जाता है। हवा में शीतलता भर उठती है। रमा, जो करवटें बदल रहा था, उठता है। जालपा को देखता है, फिर लेट जाता है। इस तरह कई बार करता है। तभी कहीं चार का घंटा बजता है। रमा शीघ्रता से उठता है और कमरे की ओर बढ़ता है। ठिठकता है, फिर एकदम अन्दर चला जाता है। जालपा सोती रहती है। कुछ देर बाद रमा फिर कमरे से निकलता है। उसके हाथ में जालपा के गहनों की संदूकची है। वह थरथर काँप रहा है। उसके पैर लड़खड़ाते हैं, पर वह रुकता नहीं। नीचे उतरता चला जाता है। छत पर फिर सन्नाटा छा जाता है। जालपा सुखद स्वप्न देखती सोती रहती है। कुछ देर बाद रमानाथ फिर छत पर आता है। उसका मुख विवर्ण है। वह चोरों की भाँति जालपा के पास आ कर देखता है कि कहीं जाग तो नहीं रही। वह अभी भी इस दुनिया से दूर है पर जैसे ही चारपाई पर बैठता है जालपा चौंक कर जाग उठती है।)
रमानाथ– (एकदम) क्या है, तुम चौंक क्यों पड़ीं?
जालपा– कुछ नहीं, एक स्वप्न देख रही थी। तुम बैठे क्यों हो, कितनी रात है अभी?
रमानाथ– (लेटता हुआ) सवेरा हो रहा है। क्या स्वप्न देखती थीं?
जालपा– जैसे कोई चोर मेरे गहनों की संदूकची उठाये लिये जाता हो।
रमानाथ– (काँप कर) क्या…चोर!
जालपा– हाँ।
रमानाथ– (एकदम चीख कर) चोर…चोर…
(उसी क्षण नीचे से आवाज उठती है।)
दयानाथ– चोर…चोर…
जालपा– (पागल– सी) क्या, क्या सचमुच चोर था…मेरे गहने! (भाग कर कमरे में जाती है। आलमारी खोलने की खड़खड़ फिर एक चीख)
जालपा– (चीखकर) मेरे गहने… चोर… चोर… मेरी संदूकची…
(बेहोश हो कर गिरती है। रमानाथ पागल– सा भागता है। नीचे से पिता आते हैं, शोर और अव्यवस्था फैलती है और परदा गिरता है।)
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