नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
(दोनों सो जाते हैं, कुछ देर सन्नाटा रहता है। फिर रमानाथ धीरे– धीरे उठता है। खड़ा हो दो क्षण जालपा को देखता है, देखता रहता है। कमरे की ओर बढ़ता है पर ठिठक जाता है और फिर खाट पर लेटने लगता है। जालपा चौंक कर उठती है।)
जालपा– कहाँ जाते हो? क्या सवेरा हो गया?
रामनाथ– अभी तो बड़ी रात है।
जालपा– तो तुम बैठे क्यों हो?
रमानाथ– कुछ नहीं जरा पानी पीने को उठा था।
जालपा– ऊहूँ, तुम मुझे देख रहे थे। देखो जी, तुम इस तरह मुझ पर टोना करोगे तो मैं भाग जाऊँगी। न जाने किस तरह ताकते हो, क्या करते हो। क्या मंत्र पढ़ते हो कि मेरा मन चंचल हो जाता है। वासंती सच कहती थी कि पुरुषों की आँखों में टोना होता है।
रमानाथ– (गिरा स्वर) टोना नहीं कर रहा हूँ, आँखों की प्यास बुझा रहा हूँ।
जालपा– (लजा कर) बड़े वैसे हो।
रमानाथ– (किसी तरह) सच कहो तो ऐसा वैसा बनाती हो अच्छा, तुम सो जाओ। नींद में तुम ज्यादा सुंदर लगती हो।
जालपा– हटो, हटो, तुम तो मुझे पागल कर दोगे। मुझे तो अब नींद आ रही है।
(रमानाथ जवाब न दे कर लेट जाता है। जालपा भी लेटती है।)
जालपा– देखो जी अब न उठना।
रमानाथ– (नींद में) नहीं…उठूँगा।
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