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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

चौथा दृश्य

(तीसरे दृश्यवाला जालपा का कमरा। अस्त– व्यस्त पड़ा है। आलमारी बंद है। चारपाई पर बिस्तर फैला है। खूँटी पर बेतरतीब कपड़े हैं। हाँ दीवारों की तस्वीरें अभी बदसूरत हैं। रमानाथ नीचे से आता है। उसका रूप ही पलट गया है। लटका हुआ मुँह, निराशा से भारी आँखें। शरीर में जैसे जान ही नहीं। आकर दो क्षण चारपाई पर बैठता है, फिर खड़ा हो कर बोलता है।)

रमानाथ– (स्वगत) तीन हज़ार…तीन हज़ार के गहने कैसे बनेंगे? जालपा तो मानती ही नहीं। न खाती– पीती है, न किसी से हँसती– बोलती है। कुछ पूछता हूँ तो जली– कटी सुना देती है। (साँस खींचकर) ओह वह सुखद प्रेम– स्वप्न कितनी जल्दी भंग हो गया! क्या वे दिन फिर कभी आयेंगे!…

कैसे आयेंगे? कैसे तीन हजार के गहने बनेंगे?…सब पिताजी की करतूत है। वे चाहते तो दो– चार महीने में सब रुपये अदा हो जाते मगर इन्हें क्या फ्रिक़! मुझे बरबाद कर दिया! (फिर गहरी साँस) दिन– भर नौकरी के लिए ठोकरें खाता हूँ…और नौकरी मिल भी गयी तो कौन– सा बड़ा ओहदा मिल जायगा। तीन हजार शायद तीन जनम में न जमा होंगे, पर… कहीं मेरे नाम लाटरी निकल आती, फिर तो जालपा को आभूषणों से मढ़ देता। सब से पहले चन्द्रहार बनवाता; हीरे जड़े होते….

(जागेश्वरी का प्रवेश)

जागेश्वरी– आज तुम दिन भर कहाँ रहे बेटा? चलो हाथ– मुँह धो डालो।

(जालपा का तेजी से प्रवेश)

जालपा– (तीव्रता से) पहले मुझे मेरे घर पर पहुँचा दो, इसी वक्त।

(रमा और जागेश्वरी दोनों चकित हो कर उसे देखते हैं।)

जागेश्वरी– क्या कहती है, बहू?

जालपा– मैं ठीक कहती हूँ। मैं अभी जाऊँगी।

जागेश्वरी– लेकिन इस तरह कहीं बहू– बेटियाँ विदा होती हैं। कैसी बातें कहती हो, बहू!

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