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भूतनाथ - खण्ड 7

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8366
आईएसबीएन :978-1-61301-024-2

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

।। बीसवाँ भाग ।।

पहिला बयान


कुएं से निकलने के बाद दारोगा और भूतनाथ अलग-अलग हो गए और दोनों ने दो तरफ का रास्ता लिया, दारोगा ने तो पश्चिम की तरफ को पैर बढ़ाया और भूतनाथ ने जंगल-ही-जंगल पूरब की ओर का रास्ता पकड़ा।

जब दारोगा को विश्वास हो गया कि भूतनाथ दूर निकल गया तो वह रुका और चक्कर काटता हुआ उस जगह पहुंचा जहाँ अपने आदमियों को छोड़ गया था। उसे विश्वास था कि वे लोग अभी तक उसका इन्तजार करते होंगे पर ताज्जुब की बात थी कि उस झाड़ी के अन्दर उन लोगों का कहीं नाम-निशान भी नजर न आया। उसने इधर-उधर तलाश किया पर जब कहीं उन्हें न पाया और न यही समझ में आया कि वे किधर चले गए तो उसने अपनी जेब से जफील निकाली और उसे अपने होठों से लगाया मगर बजाने के पहले ही उसे ख्याल आ गया कि भूतनाथ अभी बहुत दूर न गया होगा बल्कि कौन ठिकाना उसका पीछा करता हुआ लौट आया हो और जफील की आवाज सुन चौकन्ना हो जाए बल्कि सम्भव है कि मेरे काम में विघ्न डाले। अस्तु उसने जफील पुनः जेब में रख ली और एक तरफ को चल पड़ा मगर चारों तरफ की आहट लेते हुए और इस बात का भी बहुत ध्यान रखते हुए कि कहीं भूतनाथ उसका पीछा न कर रहा हो!

बीच का फासला तय कर दारोगा बहुत शीघ्र ही उस जगह पहुंचा जहाँ मनोरमा को छोड़ गया था मगर उसने मनोरमा को भी वहाँ न पाया और बड़े ताज्जुब के साथ हो सोचने लगा कि आखिर ये सब लोग चले कहाँ गए!

तरह-तरह की उधेड़-बुन में पड़ा चिन्तित दारोगा ताज्जुब के साथ न-जाने क्या-क्या सोच रहा था कि यकायक किसी ने पीछे से उसके कन्धे पर हाथ रखा। वह चौंककर घूम पड़ा और साथ ही उसका हाथ उसके कपड़ों के अन्दर चला मगर तुरन्त ही रुक गया जब उसकी निगाह उस आदमी की सूरत पर पड़ी जो उसके पीछे अजीब ढंग से मुस्करा रहा था।

हमारे पाठक भी इस आदमी को देख चुके है। यह वही है जिसने अपना परिचय ‘पहाड़ी भेडिया’१ के नाम से देकर मनोरमा और नागर को लोहगढ़ी के उड़ जाने पर भी भूतनाथ के बचे रह जाने की खबर दी थी। इस समय भी वह उसी रंग-रूप और ठाठ में था अर्थात लाल रंग की बहुत ही लम्बी एक कफनी पहने हुए, हाथ में टेढ़ी-मेढ़ी काले रंग की एक लाठी लिए, सिर पर भूरी जटा का जूड़ा बांधे और चेहरे पर राखी मले हुए था, मगर हाँ, उसकी आंखों में इस समय किसी नशे की-सी मस्ती न थी बल्कि एक विचित्र तरह की चमक मौजूद थी। (१. देखिए उन्नीसवाँ भाग, पहला बयान।)

न-जाने क्यों दारोगा इस आदमी को देखते ही घबरा गया और रुकता हुआ बोला, ‘‘अख्वाह, आप हैं! आप....यहाँ....मेरे....!!’’

वह विचित्र मनुष्य मुस्कराता हुआ बोला, ‘‘घबराओ नहीं यदुनाथ, मुझे देख-कर घबराओ नहीं! मैं एक अनूठी खबर लेकर तुम्हारे पास आया हूँ और उसे सुना तुरन्त ही चला जाऊंगा।’’

दारोगा वैसे ही घबराये हुए ढंग से रुकता-रुकता बोला, ‘‘आप....आप तो जब.... खबर सुनाते हैं....खरा....’’ मगर वह आदमी उसकी बात काटकर कहने लगा, ‘‘अब यह तुम्हारी किस्मत की बात है कि मेरी खबरे तुम्हारे अनुकूल नहीं पड़तीं मगर इतना तो मान ही लोगे कि जो कुछ खबरें मैं सुना जाता हूँ वे अनूठी और एकदम ताजी होती हैं। जिन मामलों का पता तुम्हारे जासूस लाख सिर पीटने पर भी नहीं लगा पाते उन्हीं के बारे में मैं ऐसी सच्ची और पते की खबर देता हूँ कि तुम हजार बरस सिर पीटकर मर जाओ तो भी नहीं जान सकते!’’

दारोगा जिसका खून न-जाने क्यों इस आदमी को देखते ही सूख गया था, अपने पर मुश्किल से काबू करके बोला, ‘‘खैर तो मालूम हो गया कि इस वक्त भी आप कोई वैसी ही खबर लेकर मेरे पास आए हैं। अब आप दया करके कह जाइए कि वह क्या है मगर कृपया थोड़े में और बिना भूमिका के कहिए!’’

विचित्र आदमी : (हंस कर) मालूम होता है कि तुम्हें अपने पुराने दोस्त और प्रेमी को इतने दिनों बाद देखकर भी प्रसन्नता नहीं हुई! खैर इसे मैं सिवाय तुम्हारी बदकिस्मती के और क्या कहूँ? मैंने तो जब भरसक प्रयास किया तुम्हारे फायदे ही का काम किया और हमेशा इसी कोशिश....

दारोगा : बेशक, यह तो बिल्कुल सही है, हाँ, तो आपकी खबर क्या है?

वि० आ० : मालूम होता है कि तुम इस वक्त किसी जल्दी में हो! मगर मेरे यार, तुमसे बार-बार कह चुका हूँ कि जल्दी बुद्धिमानी की दुश्मन। शैतानी की बहिन और मायूसी की मौसी होती है। अपनी जल्दबाजी के सबब से तुम कभी-कभी अपना बहुत बड़ा नुकसान कर डालते हो और फिर पीछे अफसोस के साथ हाथ मलते हो। क्या तुमको ....?

दारोगा : मालूम होता है आपको कहना कुछ भी नहीं हैं और सिर्फ इधर-उधर की बातें बनाकर ही मेरा समय नष्ट करने का इरादा है।

वि० आ० : यह तुमने कैसे कहा कि मुझे कुछ कहना ही नहीं है! अजी मर्दे आदमी, अगर ऐसा ही होता तो मैं तुम्हारे पास आता ही क्यों? भला यह तो कहो कि इस बियाबान जंगल में, आधी रात के पिछले पहर, कोई भला आदमी किसी ऐसी जगह में जहाँ सिवाय उल्लू और गीदड़ों के किसी भले जानवर का भी गुजर मुश्किल से होता होगा, तुम्हारे पीछे-पीछे आयेगा ही क्यों अगर उसे कोई बहुत ही जरूरी बात कहनी न होगी!

दारोगा : मैं चाहे लाख कहूँ या करोड़ बार समझाऊं मगर आप अपनी आदत से भला क्यों बाज आने वाले हैं! आप तो अपनी उसी चाल से चलिएगा और हनुमान की दुम की तरह लम्बी होती जाने वाली आपकी बातें कभी भी खत्म न होंगी।

वि० आ० : बस ....बस-बस! अब मैं प्रसन्न हो गया, क्योंकि तुमने ऐसे तक मेरी बातों की तुलना पहुंचा दी जो मेरे इष्टदेव हैं और नित्य उठकर जिनका नाम तीन बार लेकर तभी मैं तुम्हारे बारे में कुछ सोचता हूँ। जब तुमने अंजनीनन्दन की दुम से मेरी बातों की तुलना कर डाली तो फिर मैं भी प्रसन्न होकर बताए देता हूँ कि इस वक्त तुम्हारे पास किसलिए आ पहुंचा। मगर तब एक काम और करो। यहीं कहीं बैठ जाओ। (एक पत्थर की चट्टान की तरफ इशारा करके) यह शिला तुम्हारे और हमारे दोनों ही के लायक है, इस पर बैठकर तब मेरी बातें सुनो क्योंकि ताज्जुब नहीं कि मेरी बात सुन तुम्हें गश आ जाय और तुम यहाँ की कड़ी जमीन पर गिरकर कुछ चोट-चपेट खा जाओ। आखिर मुझे हर वक्त तुम्हारे फायदे का ही ध्यान तो रखना पड़ता है।

दारोगा : (चट्टान की तरफ बढ़ता हुआ) तब तो साफ मालूम होता है कि आपकी खबर हर दफे की तरह मनहूस और घबरा देने वाली है, खैर लीजिए, मैं बैठ जाता हूँ। अब कह डालिए। (बैठकर) यह क्या, आप बैठिएगा नहीं?

वि० आ० : नहीं, क्योंकि जो खबर मैं तुमसे कहने वाला हूँ उसे सुनकर तुम्हारे कलेजे से इतनी बड़ी आह निकलेगी कि मुझे डर है कि कहीं मेरे शरीर पर पड़ वह मुझे भस्म न कर डाले।

दारोगा : खैर तो आप खड़े ही रहें मगर कुछ कहें भी तो। आपकी बात सुनने के पहले उसकी भूमिका ही सुनकर मेरे कलेजे में हौल होने लगी है।

वि० आ० : खैर कोई डर नहीं, मेरी भूमिका अब समाप्त हुई और ग्रन्थ आरम्भ होना चाहता है जिसकी प्रथम पंक्ति ही तुम्हारे कलेजे को ऐसा सुखा देगी कि फिर उसमें हौल पैदा ही न होने पायेगी। अच्छा, यह बताओ तुम अभी यहाँ चारों तरफ घूमकर किसे खोज रहे थे?

दारोगा : अपने कुछ नौकरों की तलाश में था जिन्हें यहाँ ही छोड़ गया था।

वि० आ० : (हंसकर) मुझसे छिपाओ नहीं, मैं सब जानता हूँ, साफ-साफ कहो कि अपनी मनोरमा बीबी की तलाश कर रहे थे जिन्हें यहाँ रहने का हुक्म देकर तब तुम भूतनाथ के पीछे गए थे, मगर याद रखो कि अब उससे जल्दी भेंट नहीं होगी और होने पर भी क्या होगा? तुम्हारा मतलब अब उसके जरिये कुछ भी बनने का नहीं!

दारोगा : सो क्यों?

वि० आ० : उसे नागर अपने साथ ले गई।

दारोगा : नागर! वह यहाँ कहाँ? वह तो जमानिया....

वि० आ० : सोई तो, वह जमानिया नहीं जाने पाई। कोई आदमी रास्ते में ही उससे मिला और तुम्हारी सूरत बन धोखा दे उससे वह रिक्तगन्थ ले भागा जो वह तुम्हें देने के वास्ते लिए जा रही थी!

दारोगा : (चौंक और घबराकर) हैं, यह आप क्या कर रहे हैं? नागर से किसी ने रिक्तगन्थ छीन लिया!!

वि० आ० : हाँ, छीन लिया, या यों कहो कि ले लिया, क्योंकि वह तुम्हारी सूरत बना हुआ था और नागर तब तक इसी भरोसे रही कि उसने तुम्हीं को वह खूनी किताब दी है जब तक कि वह यहाँ लौटकर मनोरमा से न मिली और उससे यह न सुन लिया कि आप तो बहुत देर से इसी जगह विराज रहे हैं और उसने किताब जरूर किसी दूसरे को दे दी है, अब वे दोनों फिर उधर ही उसी ‘कुटिया’ की तरफ गई हैं मगर अब वह किताब मिलने वाली थोड़ी ही है!

दारोगा इस अजीब खबर को सुनकर एकदम बदहवास हो गया। कुछ देर तक तो ऐसा मालूम हुआ मानों उसे अपने तन-बदन की होश न रह गई हो। आखिर बहुत मुश्किल से अपने को सम्भाल उसने कहा–

दारोगा : क्या आप इसके बारे में कुछ और भी मुझे बताइएगा? जरूर ही जब आप यह बात मुझसे कह रहे हैं तो सच ही होगी, मगर फिर भी मुझे विश्वास नहीं हो रहा है!

वि० आ० : मैं तो तुम्हें पूरा-पूरा हाल कहता मगर तुम्हारी शुरू-शुरू की जल्दीबाजी में बहुत-सी बातें मेरे दिमाग से उड़ गईं। अब जो कुछ मुझे याद रह गया वह सिर्फ इतना ही है कि तुमने नागर के आदमी को कहा था कि कुटिया पर पहुंचकर ठहरे और....

दारोगा : हाँ, मैं जमानिया से चलकर बहुत दूर इधर आ गया था जब मेरी नागर के उस आदमी से भेंट हुई जिसे उसने सब समाचार के साथ यह खुशखबरी देकर अपने आगे-आगे मेरे साथ रवाना किया था कि ‘ आपका काम हो गया और मैं वह चीज लेकर जमानिया आ रही हूँ। मैंने उस आदमी से कहा कि अब जमानिया जाने की जरूरत नहीं, तुम नागर से कह दो कि वह ‘कुटिया’ पर पहुंचकर रुक जाय और मैं एक काम निपटाता हुआ सीधे वहीं पहुंचता हूँ। खैर तब? इसके बाद फिर क्या हुआ?

वि० आ० : जिस जगह तुम्हारी उस आदमी से बातें हुई थीं वहाँ ही एक धूर्त ऐयार भी छिपा हुआ था जिसने तुम्हारी बातें सुन लीं। वह उस आदमी के पीछे-पीछे चल पड़ा और तुम्हारा भेष बना नागर से रिक्तगन्थ ले नौ दो ग्यारह हुआ! अब तुम बैठो और अपने करम को झखो, मैं चला।

दारोगा : (विचित्र मनुष्य का हाथ पकड़कर) नहीं, जब आपने इतना बड़ा दुःखदायी समाचार सुना दिया है तो थोड़ी कृपा और भी कीजिए और यह बताइए कि वह अभागा कौन है जो इस तरह से मेरी....(रुककर और अपने बढ़ते हुए गुस्से तथा निराशा को दबाकर) क्या वह भूतनाथ....?

वि० आ० : नहीं-नहीं-नहीं, भूतनाथ तो खुद ही आफत में पड़ा हुआ था, यह काम किसी और ही का है।

दारोगा : (अपने कलेजे को हाथ से दबाया हुआ) किसका?

वि० आ० : अब क्या करोगे सो सब पूछकर! सुनकर तुम्हारा कष्ट बढ़ेगा ही। घटेगा नहीं, अब तुम यह फिक्र तो जाने दो और....

विचित्र मनुष्य उठने लगा मगर दारोगा ने फिर उसे रोका और हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘नहीं-नहीं, जब आपने इतनी बातें बताई हैं तो अब इतना भी बता ही दीजिए ताकि मैं जान जाऊं कि किसकी हिम्मत हुई जो उसने मुझसे बैर बांधा और जिस चीज की मैं बरसों से तलाश में था उसे मेरे कब्जे से निकालने की जुर्रत की। ताकि मैं जल्दी-से-जल्दी उस शैतान को उसकी करनी का फल चखा सकूं।

वि० आ० : (जोर से हंसकर) इस बात की आशा छोड़ो। यह उम्मीद मत करो कि अब रिक्तगन्थ फिर तुम्हारे हाथ आएगा या तुम उस आदमी को ही देख पाओगे जिसकी यह कार्रवाई है, तुम्हें कुछ बसन्त की खबर भी है या यों ही लोगों को उनकी करनी का फल चखाने की हिम्मत बांध रहे हो!

दारोगा : (ताज्जुब से) सो क्या? वह कौन आदमी है? ऐसा कौन है जो मेरा इतना बड़ा नुकसान कर जाय और फिर भी जिससे मैं बदला न ले सकूं?

वि० आ० : तो फिर बता ही दूं? अच्छा तो लो सुनो, लेकिन जरा इस कंकड़ का सहारा ले लो नहीं तो गिरकर चोट खा जाओगे! सुनो कान फटफटाकर अच्छी तरह सुनो और समझो कि तुम्हारे कब्जे से वह तिलिस्मी किताब ले जाने वाला वही था जिसकी बहिन को तुमने हद दर्जे की तकलीफ पहुंचाई और बहनोई को मौत से भी लाख दर्जे बुरी हालत में पहुंचाकर छोड़ा और इस काम में उसका मददगार वही था जिसकी बहिन के आंचल पर गुलामी की दस्तावेज ....हैं, हैं,! यह क्या, तुम्हारा चेहरा पीला क्यों होता जा रहा है! तुम्हारी सूरत पर हवाई क्यों उड़ने लग गई है! सम्भलो-सम्भलो, होश मे रहो, बदहोश मत बनो!

सचमुच दारोगा की बुरी हालत हो रही थी। उसका चेहरा एकदम मुर्दों की तरह हो गया था और वह हाथों के बल पीछे की तरफ लटक इस तरह लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा मानों उसे तन-बदन की सुध न रह गई हो, मगर वह विचित्र मनुष्य उसकी यह हालत देख संगदिली के साथ खिलखिलाकर हंस पड़ा और तब बोला, ‘‘मैं कहता न था कि उस आदमी का नाम मत पूछो जिसका यह काम है, पर तुम्हीं ने जिद्द कर मेरे पेट से वह बात निकलवा ली। खैर, अब इतना घबराए क्यों जाते हो! आखिर उस आदमी को भी तो इस खूनी किताब की उतनी ही जरूरत थी जितनी तुमको, वह भी तो अपने प्रेमियों को ति....’’

यकायक विचित्र आदमी रुक गया, उसके तेज कानों में किसी तरह की आहट आई थी जिसे सुन उसने गौर से पीछे की तरफ देखा और अचानक उठ खड़ा हुआ। कुछ देर तक एकटक उस तरफ देखता रहा तब बोल उठा, ‘‘हैं, ये दोनों शैतान की खालाएं यहाँ भी आ पहुंचीं!’’

दारोगा ने उसकी बात सुन ताज्जुब के साथ उस तरफ देखा और साथ ही चौंक पड़ा क्योंकि उसी समय पेड़ों की झुरमुट से निकलकर आती हुई मनोरमा और नागर पर उसकी निगाह पड़ी जिनके पीछे-पीछे दो-तीन आदमी और भी आ रहे थे। इन्हें आता देख अपनी हालत छिपा वह उठ खड़ा हुआ और तब तक मनोरमा भी दौड़ती-दौड़ती उसके पास आकर बोल पड़ी, ‘‘कहिए दारोगा साहब, जल्दी कहिये, आप ही ने न ‘कुटिया’ पर नागर के हाथ से तिलिस्मी किताब ली थी?’’

दारोगा ने ताज्जुब का भाव दिखाते हुए कहा,‘नहीं-नहीं, मैं तो अभी-अभी भूतनाथ के पास से होकर चला आ रहा हूँ और अपने इस दोस्त से बातें करता हुआ ताज्जुब में था कि तुम कहाँ चली गई!!’’

इतना कह दारोगा उस आदमी की तरफ घूमा मगर वह विचित्र मनुष्य वहाँ न था। मनोरमा और नागर को आता देखते ही वह न-जाने कब कहाँ गायब हो गया था। लाचार दारोगा फिर मनोरमा की तरफ झुका जो उसकी बात सुन बदहवास की तरह चट्टान पर बैठ या गिर गई थी और उससे पूछने लगा, ‘‘क्यों, आखिर क्या बात है? तुम्हारे सवाल का क्या मतलब है और यह नागर यहाँ तुम्हारे पास कैसे आ पहुंची!’’

रंज और अफसोस-भरे स्वर में मनोरमा बोली, ‘‘अब क्या बताऊं कि क्या बात है, बस, यही समझ लीजिए कि हम लोगों की बरसों की मेहनत चौपट हो गई और हमारे सब किए-कराए पर पानी फिर गया! कोई शैतान आपकी सूरत बन इन नागर बीबी के पास पहुंचा और इनसे रिक्तगन्थ ले चम्पत हो गया। इन्होंने भी बेबकूफ की तरह धीरे से उसके हाथ पर किताब रख दी और यह भी न पूछा कि आखिर तू है कौन!’’

मनोरमा की बात सुनकर नागर रोआंसा मुंह बनाकर बोली, ‘‘बहिन, मेरी इसमें क्या खता है! मुझसे तो नारायण बोला कि दारोगा साहब ने कहा कि अब जमानिया आने की जरूरत नहीं तुम कुटिया पर रुककर मेरा इन्तजार करो, मैं एक जरूरी काम निपटा बहुत जल्दी वहाँ आकर तुमसे मिलता और तुम्हें मुबारकबाद देता हूँ।

मैं यह बात सुन वहीं रुक रही जहाँ कुछ देर बाद कोई शैतान दारोगा साहब की सूरत बन पहुंचा और मुझसे किताब ले चलता बना। बताओ, अब इसमें मेरा क्या कसूर है? नारायण यह मेरे साथ मौजूद है, पूछो इसी से, इसने मुझसे ऐसी बात कही थी कि नहीं?’’

पीछे वाले आदमियों में से एक कुछ आगे बढ़ आया और बोला,‘‘जी हाँ, मैंने जरूर यह बात कही और ठीक-ठीक कही! सरकार सामने खड़े हैं, पूछिये इनसे कि इन्होंने यही तो मुझसे कहा था कि कुछ और?’’

दारोगा : बेशक नारायण ठीक कह रहा है और इसको मैंने यही बात कहने तुम्हारे पास भेजा था। खैर अब जो हुआ सो हुआ, अब घबराने और रोने-कलपने से गई हुई चीज वापस तो आ नहीं सकती। आओ यहाँ पर बैठ जाओ और संक्षेप में मुझे बताओ कि कैसे क्या हुआ आखिर!

मनोरमा और नागर दारोगा साहब के पास बैठ गईं और उनका इशारा पा बाकी के आदमी पीछे हटकर इधर-उधर हो गए। नागर बोली, ‘‘हुआ यह दारोगा साहब, कि भूतनाथ से मैंने रिक्तगन्थ ले लिया तो इतनी खुशी हुई और उसे आपके हाथ में देने के लिए ऐसी उतावली हो गई कि मनोरमा बहिन से मिलने के लिए भी न रुक सकी, दूसरे मुझे यह भी डर था कि कहीं शैतान भूतनाथ इनके घर न जा पहुंचा हो अस्तु एक आदमी भेज इन्हें तो सब हाल कहला भेजा और इस नारायण को एक तेज घोड़ा दे सरपट मारामार आपको जाकर खबर देने को कहा, तब मैं सीधी वह किताब लिए जमानिया की तरफ आपके पास रवाना हो गई। मगर यह नारायण जमानिया जा भी न पाया, रास्ते ही में इसकी भेंट आपसे हुए और आपने इसे कहला भेजा कि तुम कुटिया पर रुको मैं एक जरूरी काम करके अभी आता हूँ नतीजा यह हुआ कि मैं जमानिया का आधा रास्ता भी तय न कर पाई थी कि यह फिर मुझसे आन मिला और आपका सन्देश कहा। मैं आपके उसी स्थान पर जिसका नाम आपने ‘कुटिया’ रखा है पहुंचकर रुक गई और आपका इन्तजार करने लगी।घड़ी-भर भी न बीती होगी कि आप ही की सूरत-शक्ल बनाये एक ऐयार (जरूर ही वह ऐयार होगा) मेरे पास पहुंचा और बहुत-सी इधर-उधर की बातें कर तथा रिक्तगन्थ मुझसे ले कहीं चला गया, उसके चले जाने के बाद मुझे कुछ सन्देह हुआ और मैं सोचने लगी कि कहीं मैंने धोखा तो नहीं खाया। आपको खोजने निकली, भाग्यवश इस तरफ को निकल आई, यहाँ मनोरमा बीबी का एक आदमी मुझे मिला जिससे मालूम हुआ कि ये यहीं हैं और आप भी अब तक इसी जगह थे और अभी-अभी कहीं गये हैं, सुनकर और भी शक बढ़ा और इनसे मिलकर जब यह सुना कि आप जमानिया से सीधे इधर ही आए हैं रास्ते में न तो कहीं रुके और न मुझसे ही मिले तो और सन्देह बढ़ा सब हाल इनसे कहा और तब इनको भी विश्वास हो गया कि जरूर मैंने धोखा खाया! ये भी मेरे साथ कुटिया तक गईं और सब तरफ खोज की मगर उस पाजी का पता कहाँ लगने को था जिसने मुझको इतना बड़ा धोखा दिया! बस घबराती रोती-रोती कलपती चली आ रही हूँ, इतना ही तो हाल है! हाय रे किस्मत, मेरा करा-धरा सब चौपट हो गया!!’’

बिलखती हुई नागर अपना सिर पीटने लगी और मनोरमा ने भी रोने में उसका साथ दिया मगर दारोगा ने इन दोनों को शान्त किया और दम-दिलासा देकर कहा, ‘‘घबराओ नहीं, अब जो होना था सो तो हो ही चुका। मुझे इन बातों की खबर पहले ही लग गई और मैं यह भी जान गया कि यह कार्रवाई किसकी....’’

मनोरमा : (चौंककर) आपको इस बात की खबर लग गई और आप जानते हैं कि यह काम किसका है!!

नागर : (जल्दी से) जल्दी बताइये कि यह शैतानी किसकी है?

दारोगा : (झुककर और धीरे से) यह कार्रवाई गुलाबसिंह की है और इस काम में दलीपशाह उसका मददगार है।

नागर : (घबराकर) है, यह आप क्या कह रहे हैं?

मनोरमा : (ताज्जुब से) यह कार्रवाई गुलाबसिंह की है! नहीं-नहीं, सो कैसे हो सकता है! गुलाबसिंह तो भूतनाथ के हाथों मारा गया !!१ (१. देखिए भूतनाथ आठवाँ भाग, दसवाँ बयान।)

नागर : मनोरमा बहिन ठीक कह रही है, भूतनाथ ने खुद मानी-मानी में ऐसा मुझसे कबूल किया था, यद्यपि खुलासा तो नहीं था पर जो कुछ उसने कहा उसका साफ माने यही था कि गुलाबसिंह उसके हाथों मारा गया।

दारोगा : हाँ, उस समय सुनने में तो यही आया था मगर अब जो कुछ मैं तुम लोगों से कह रहा हूँ उसकी सच्चाई में भी किसी तरह का शक नहीं हो सकता।

मनोरमा : तो आपको इसका यकीन है कि नागर के हाथों से रिक्तगन्थ लेने वाले गुलाबसिंह और दलीपशाह हैं?

दारोगा : हाँ, पूरा-पूरा।

नागर : अफसोस, मुफ्त को मैं बदनाम हुई, भूतनाथ के हाथों भी बुरी बनी और आपका काम भी न बना! अब भूतनाथ जरूर मेरा जानी दुश्मन हो जायेगा अगर कभी उसको यह पता लगा कि मैंने ही रामदेई का रूप धर कर रिक्तगन्थ उससे लिया था।

मनोरमा : (कुछ सोचती हुई) नहीं, सो बात नहीं, अगर जो कुछ दारोगा साहब कह रहे हैं सही है तो अभी भी हम लोग भूतनाथ को धोखा देकर अपनी तरफ कर ही नहीं सकते बल्कि उससे अपना काम भी निकाल सकते हैं।

दारोगा : (अविश्वास के साथ) भला सो कैसे?

नागर : यह भी क्या मुमकिन है?

मनोरमा : हाँ, है और मजे में है, मुझे एक बात सूझी है, आप लोग भी सुनिये और बताइये कि मेरा ख्याल कहाँ तक सही है।

मनोरमा खसककर दारोगा साहब के पास हो गई और नागर को भी अपनी तरफ खींच उसने धीरे-धीरे कुछ कहना शुरू किया। हम नहीं कह सकते कि उसने क्या कहा या किस बात की उम्मीद दारोगा और नागर को दिलाई मगर यह जरूर है कि जब उसकी बातें खत्म हुईं तो इन दोनों चेहरों की मायूसी और गर्मी बहुत कुछ दूर हो चुकी थी और उसकी जगह पर आशा ने अपनी दमक फैला दी थी।

मनोरमा की बातें खत्म होने पर दारोगा ने मुहब्बत के साथ उनके कन्धे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘बात तो तुमने लासामी सोची! अगर ऐसा हो जाए तो अब भी कुछ बहुत बिगड़ा नहीं है, मगर मानता हूँ तुमको, सूझ तुम्हारी खूब हैं!’’

नागर ने कहा, ‘‘क्या बात है, इनकी सूझ ही तो गजब करती है और तभी तो मैं इनको अपना उस्ताद मानती हूँ! मैं तो समझती हूँ कि अगर इनका ख्याल ठीक निकला और भूतनाथ को हम लोग अपने चंगुल में फंसा सके तो खुद उसी के हाथों दलीपशाह और गुलाबसिंह को चौपट कराकर अपना काम निकाल लेंगे और भूतनाथ को हम लोगों पर रत्ती-भर भी शक न होगा।’’

दारोगा : बेशक यही बात है।

मनोरमा : लेकिन अगर ऐसा करना ही है तो फिर देर न होगी चाहिये।

जितनी जल्दी काम में हाथ लगा दिया जाय बेहतर है,

दारोगा : इसमें भी शक नहीं और देर लगाने की जरूरत भी क्या है? उठो और अपने काम मे लग जाओ।

तीनों आदमी उठ खड़े हुए।

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