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भूतनाथ - खण्ड 7

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8366
आईएसबीएन :978-1-61301-024-2

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान


सिंहासन पर बैठी औरत को देख प्रभाकरसिंह चौंक पड़े और बरबस बोल उठे, ‘‘हैं, मालती! तुम यहाँ!’’

मगर तुरन्त ही उन्हें मालूम हो गया कि उन्होंने मालती को पहचानने में फिर वैसी ही गलती की जैसी पहली कई बार करके शर्मिन्दगी उठा चुके थे, क्योंकि सिंहासन पर वाली उस औरत ने जिसे लोग रानी के नाम से सम्बोधित कर रहे थे उनकी बात सुन ताज्जुब की निगाह से अपने बगल वाली औरत की ओर देखा और उससे पूछा, ‘‘महारानी, इनका दिमाग कुछ खराब हो गया है। ये जिस औरत को भी देखते हैं उसे ही मालती-मालती कहकर पुकारने लगते हैं!’’

रानी : मालती तो शायद वही औरत है जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने तिलिस्मी खजाना चुराने की कोशिश की और सरकारी कैदियों को छुड़ाना चाहा!

औरत : जी हाँ, महारानी!

रानी ने पुन: ताज्जुब की एक निगाह प्रभाकरसिंह पर डाली जो उस औरत की बात सुन अपने होंठ चबाने लगे थे और तब कुछ इशारा किया जिससे दरबार की सब औरतों जो उसके प्रकट होते ही उठ खड़ी हुई थीं अपने-अपने ठिकाने पर बैठ गईं, केवल वही एक औरत खड़ी रही जिससे रानी बातें कर रही थी।

रानी कुछ देर तक प्रभाकरसिंह की तरफ देखती रही और तब उस बगल वाली औरत से बोली, ‘‘अच्छा, इनका मुकदमा शुरू करो,’’

उस औरत ने अदब से कहा, ‘‘महारानी, अगर इनके साथ-ही-साथ उस औरत का मुकदमा भी ले लिया जाय जो इनके पहले गिरफ्तार हुई है और जिसका नाम मालती है तो अच्छा होगा क्योंकि ये दोनों साथी थे और दोनों का कसूर करीब-करीब एक ही सा है

रानी ने यह सुन कहा, ‘‘अच्छी बात है, उसको भी हाजिर करो!’’ उस औरत ने सामने की तरफ अदब से साथ हाथ जोड़े खड़ी बंदियां सिर घुमाकर पीछे की तरफ हटीं और तब उस दालान के बाहर हो गईं जिसमें यह छोटा-सा अनूठा दरबार लगा हुआ था।

कुछ ही देर बाद वे दोनों बांदियां हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर और सब तरह से लाचार मालती को कैदियों की तरह वहाँ ले आयीं। मालती की कमर में एक मोटा रस्सा बंधा हुआ था जिसे वे दोनों पकड़े हुई थीं और साथ ही उसे दोनों तरफ से सहारा भी दिये हुए थीं क्योंकि इस थोड़े ही अरसे में मालती एकदम सुस्त और बीमार हो गई थी उसकी सूरत से ऐसा जान पड़ता था मानो महीनों की बीमार हो।

जिस समय ऐसी हालत में मालती लाकर रानी के सामने खड़ी की गई तो इसकी तरफ एक निगाह देखते ही प्रभाकरसिंह की आंखों में खून उतर आया और जब मालती ने दीन और निराश दृष्टि उनके ऊपर डाली और असहाय की तरह सिर झुकाकर हाथ जोड़ा, तब तो वे किसी तरह भी अपने को रोक न सके और एकदम बगल में जा उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘मालती, तुम्हारी यह दशा कैसे हो गई!!’’

मालती ने दु:ख-भरे शब्दों में कहा, ‘‘क्या बताऊं कि कैसे हो गई, अभी तक जीती हूँ सो शायद इसीलिए कि इस जन्म में एक बार और आपका दर्शन बदा था, नहीं तो....’’

मालती की बात पूरी न हो पाई क्योंकि उसी समय रानी के बगल वाली वह औरत कुछ कर्कश ढंग से बोल उठी, ‘‘प्रभाकरसिंह, इधर अपने ठिकाने पर आकर खड़े हो तुम भूल जाते हो कि तुम कैदी हो! लौंडियों, तुम लोग क्या मुंह ताक रही हो! दोनों कैदियों को अलग-अलग करो ताकि इनका मुकदमा शुरू हो!’’

कई लौंडिया प्रभाकरसिंह और मालती की तरफ बढ़ीं मगर प्रभाकरसिंह ने डपटकर कहा, खबरदार जो किसी ने हम लोगों के बदन को हाथ भी लगाया, बस अपने-अपने ठिकाने खड़ी रहो और समझ रखो कि मैं अब तक तुम लोगों के औरत होने का जो लिहाज करता आ रहा था वह अब न करूंगा!!’’

प्रभाकरसिंह की डांट सुनकर सब लौंडियां झिझककर रुक गईं मगर अब उस रानी का भाव बदला। उसकी भृकुटी चढ़ गई और उसने अपने बगल वाली औरत की तरफ टेढ़ी निगाह से देखा। साथ ही वह औरत बिगड़कर बोली, ‘‘प्रभाकरसिंह! यह क्या बेहूदगी है!!क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारी मालती की तरह तुम भी बेबस कर दिये जाओ और कैदियों की हालत में नजर आओ? हम लोगों ने तुम्हारी इज्जत का ख्याल किया जो वैसा बर्ताव तुम्हारे साथ नहीं किया, वरना तुम भी अभी तक कभी के हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े नजर आते। हटो, अपनी जगह पर जाओ, और अदब और कायदे से अपना मुकदमा सुनकर जो-जो इल्जाम तुम पर और तुम्हारी इस मालती पर लगाये जाते हैं उनका जवाब दो, वरना समझ रखो कि तुम्हारे साथ बहुत बुरा सलूक किया जायेगा और इस औरत की तो तुम्हारे सामने ही पूरी दुर्गति कर डाली जायेगी!’’

यह बात सुनना था कि प्रभाकरसिंह का क्रोध और भी भड़क उठा और उन्होंने भृकुटी चढ़ाकर कहा, ‘‘क्या किसी की मजाल है कि मेरे जीते जी इसके साथ किसी तरह की बेहूदा हरकत कर सके। आगे किसकी हिम्मत है?’’

इतना सुनते ही उस औरत ने पीछे की तरफ घूमकर देखा और जोर से तीन दफे ताली बजाई। ताली की आवाज के साथ ही रानी के सिंहासन के पीछे की तरफ एक परदा हट गया और उसके अन्दर से कई हथियारबन्द औरतों ने तेजी से निकलकर प्रभाकरसिंह और मालती को सब तरफ से घेर लिया। प्रभाकरसिंह ने भी अपना डण्डा सम्भाला जो अभी तक उनके हाथ में मौजूद था। उसका मुट्ठा दबाने के साथ ही उसमें से आग की भयानक चिनगारियां निकलने लगीं जो कुछ ही क्षण में यहाँ तक कि बढ़ीं कि चारों तरफ कई-कई हाथ तक उन लपटों और चिनगारियों ने फैलकर उनके और मालती के इर्द-गिर्द एक घेरा सा बना लिया।

पर यह अग्नि-वर्षा भी उन हथियारबन्द औरतों को रोक न सकी जिन्होंने बहादुरी और हिम्मत के साथ प्रभाकरसिंह पर हमला शुरू किया था अगर उस रानी के एक इशारे ने उनके हाथ रोक न दिये होते। वे औरतें कुछ पीछे को हट गईं और रानी अपनी जगह से उठकर प्रभाकरसिंह की तरफ बढ़ी हुई बोली, ‘‘प्रभाकरसिंह, मालूम होता है तुमको अपने इस डण्डे पर बहुत घमण्ड और भरोसा है। मैं तुमको बतला देना चाहती हूँ कि हम लोगों के सामने इसकी कोई भी हकीकत नहीं।’’

तेजी के साथ बीच का फासला तय कर रानी प्रभाकरसिंह के पास पहुंची और फुरती से उसने वह कलाई पकड़ ली जिसमें तिलिस्मी डण्डा था। कलाई पकड़ने के साथ ही प्रभाकरसिंह की अजीब हालत हो गई। उन्हें ऐसा मालूम हुआ मानो किसी फौलादी पंजे ने उनकी कलाई पकड़ ली हो जो इस कदर ठण्डा था कि प्रभाकरसिंह का हाथ सुन्न होने लगा। तेजी के साथ दौड़ती हुई सनसनाहट प्रभाकरसिंह के समूचे बदन में फैल गई जिससे वे ऐसा बेबस हो गये कि उनका खड़ा रहना भी मुश्किल हो गया। वह तिलिस्मी डण्डा उनके हाथ से छूटकर जमीन पर गिर पड़ा और साथ-ही-साथ वे भी कांपते हुए जमीन पर बैठ गये। उसी समय रानी ने अपना दूसरा हाथ उनके सिर पर रखा, उन्हें ऐसा मालूम हुआ मानो सैकड़ों हण्डे बर्फीले पानी के उनके ऊपर उंडेल दिये गये हों। उनके बचे हुए होश भी गायब हो गये और बेहोश होते हुए उन्होंने रानी के ये शब्द सुने, ‘‘ले जाओ और इन दोनों को इनके सब सामान सहित अंधकूप में डाल दो।’’

प्रभाकरसिंह खुद नहीं कह सकते थे कि वे कितनी देर के बाद होश में आये, मगर उनकी आंख खुली तो उन्होंने अपने को घोर अंधकार में पाया। उनका सिर किसी की गोद में था और अन्दाज से उन्होंने समझा कि वह मालती है। उन्होंने पुकारा, ‘‘कौन, मालती?’’ जवाब मिला, ‘‘जी हाँ, मैं ही हूँ, अब आपकी तबियत कैसी है?’’ प्रभाकरसिंह ने जवाब दिया, ‘‘बिल्कुल ठीक है, सिर्फ सिर में चक्कर आ रहा है सो भी शायद कुछ देर में ठीक हो जायेगा, मगर यह बताओ कि यह जगह कौन-सी है?’’ मालती ने जवाब दिया, ‘‘यह उन शैतानों का कोई कैदखाना है जो एकदम कुएं की तरह है, यहाँ नाम को कहीं से चांदना नहीं आता!!’’

प्रभाकरसिंह उठकर बैठ गये। सिवाय सिर में कुछ चक्कर आने के उन्हें इस समय और किसी तरह की कोई तकलीफ जान न पड़ती थी। उन्होंने अपने चारों तरफ के अंधकार में टटोला और यह देख ताज्जुब किया कि उनका सब सामान, यहाँ तक कि तिलिस्मी किताब और डंडा भी उसी जगह उनके आसपास में मौजूद है। यह देख उनका चित्त कुछ शान्त हुआ और मालती से बोले, ‘‘ताज्जुब की बात यह है कि उन लोगों ने मेरी कोई भी चीज नहीं ली और अब मेरा सब सामान मौजूद है। ऐसी हालत में तिलिस्मी किताब और डंडे के सही-सलामत रहते, यहाँ से बाहर निकलना कुछ कठिन न होना चाहिए, अस्तु तुम पहले यह बताओ कि उस बावली के अन्दर तुमने मेरा साथ क्यों छोड़ा, उस सुरंग में तुम्हें कौन-सी चीज दिखाई पड़ी जिससे तुम चीख पड़ी, उनके अन्दर जाने के बाद से अब तक तुम्हारे साथ क्या-क्या घटना घटी, तथा अन्त में तुम उस रानी और उनके कम्बख्त रंगीन आदमियों के फेर में क्योंकर पड़ गईं?’’(१. देखिये भूतनाथ अट्ठारहवाँ भाग, दूसरा बयान।)

मालती : (एक ठंडी सांस लेकर) कुछ पूछिये मत कि मेरे साथ क्या-क्या हुआ! ऐसे-ऐसे चक्करों में मुझे पड़ना पड़ा और ऐसी-ऐसी तकलीफें उठानी पड़ीं कि आपको क्या बताऊं। फिर भी मैं आपके दर्शन कर पाई इसलिए सब ठीक ही होना चाहिए।

प्रभाकर० : (अफसोस के साथ) तो क्या तुम किसी तिलिस्मी चक्कर में पड़ गईं या किसी तरह की मुसीबत तुम पर पड़ गई? मैंने तो यह समझा कि तुम तिलिस्म के अन्दर चली गई और उस हिस्से को तोड़कर ही बाहर निकलोगी और इसी ख्याल से मैंने आगे की तरफ ध्यान न दिया था मगर अब मालूम होता है कि वैसा नहीं हुआ।

मालती : जी नहीं, सो कहाँ से? तिलिस्म तोड़ने का तो जिक्र ही छोड़िये, मैं तो उस सुरंग के अन्दर घुसते ही जंजाल में पड़ गई।

प्रभाकर : खैर क्या हुआ बताओ तो सही।

मालती : सुनिये, बाहरदरी के सूख जाने पर जो सुरंग निकली उसके अन्दर आपने झांका था और ताज्जुब की चीज देखी थी।

प्रभाकर० : हाँ, मैंने उस सुरंग के दूसरी तरफ एक आंगन-सा देखा जिसमें कुछ आदमी ऐसे दिखलाई पड़े जिन्हें देखते ही मैं ताज्जुब में पड़ गया।

मालती : ठीक है, मुझे भी वे आदमी दिखाई पड़े और उन्हें देख मुझे इतना ताज्जुब हुआ कि मैं अपने को किसी तरह रोक न सकी और उस सुरंग के अन्दर घुस पड़ी, मगर अन्दर जाने के साथ उस सुरंग का मुंह बन्द हो गया और वहीं मेरा आपका साथ छूट गया।

प्रभाकर० : ठीक है, अच्छा तो तुम उन आदमियों के पास पहुंची और तुमने उनको पहचाना?

मालती : (एक लम्बी सांस लेकर) जी हाँ, मैं उनके पास पहुंची और मैंने उन्हें पहचाना भी, मगर अफसोस, उनको छुटकारा दिलाने के लिए कुछ कर सकने के पहले ही मैं इन कम्बख्तों के हाथ पड़ गई।

प्रभाकर० : तुमने उनको ठीक-ठीक पहचाना कि वे कौन थे? फासले के इलावे उनकी शक्ल कुछ ऐसी वहशियाना हो रही थीं कि पहली निगाह में मैं उनको ठीक-ठीक पहचान न सका, उन्हें पहचानने की कोशिश कर ही रहा था तब तक तुम सुरंग के भीतर चली गई और उसका मुंह बन्द हो गया!

मालती : जी हाँ। मैंने उन लोगों को अच्छी तरह पहचाना। बेशक वे ही लोग थे जिनका आपको गुमान हुआ था और जिन्हें हम लोग बरसों से मुर्दा समझते आ रहे हैं।

प्रभाकरसिंह : अर्थात् ....?

मालती ने प्रभाकरसिंह की तरफ झुककर उनके कान में धीरे-धीरे कई नाम कहे जिन्हें सुनते ही प्रभाकरसिंह का चेहरा खिल गया और उन्होंने हाथ जोड़कर आकाश की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘हे भगवान्! क्या तू असम्भव सम्भव कर दिखाना चाहता है? क्या मैं अपने प्रेमियों को तेरी कृपा से इस तिलिस्म के अन्दर जीता-जागता पाऊंगा जिनको अब तक मुर्दा बल्कि मुर्दे से भी गया गुजरा समझ रहा था! तू धन्य है, तेरी कृपा अनन्त है! तेरी महिमा अपार है!! (कुछ देर तक आंखें मूंदकर कुछ सोचने के बाद मालती से) अब मैं समझने लगा कि मेरा और तुम्हारा इतना परिश्रम-इतना कष्ट-सहन सार्थक हुआ और हम लोग दुनिया में कुछ कर दिखाने वाले कहला सकेंगे, अच्छा तुम कहो, फिर क्या हुआ? मालती : आपने ठीक-ठीक क्या देखा था सो तो मैं नहीं कह सकती पर जो कुछ मैंने देखा वह यह था कि एक लम्बी सुरंग के उस पार एक आंगन की तरह पर जगह है जिसके पहले लोहे का जंगला लगा है और उस आंगन तथा जंगले के बीच में तरह-तरह का काम करते हुए कई आदमी हैं जो इस सुरंग का मुहाना खुलता देख अथवा और कोई आहट पा मेरी तरफ देख रहे हैं। उन लोगों में से जिसको मैंने सबसे नजदीक और साफ-साफ देखा वह मेरी मुंहबोली बहिन और सखी थी जिसका नाम मैंने अभी आपको बताया और जिसे वहाँ उस हालत में देखते ही मैं इस कदर चौंकी और खुश हुई कि आपको बिना कुछ कहे सुरंग के अन्दर घुस गई। इसके साथ ही सुरंग का मुंह बन्द हो गया और मेरा-आपका साथ छूटा।

प्रभाकर० : तुम्हारी-उनकी कुछ बातचीत हुई?

मालती : सुरंग का मुहाना बन्द होने की आहट पाते ही जो मैंने चौंककर पीछे देखा तो रास्ते को बन्द पाया और समझ गई कि अब आपसे भेंट होना मुश्किल हुआ। मगर खैर, अपने सामने के आदमियों को देखकर मैं इस कदर बौखला-सी गई थी कि उस वक्त इस बात की मैंने ज्यादा सोच-फिक्र न की। असल में तो मेरी किस्मत में इतनी तकलीफ उठाना बदा था, तब काहे को और कुछ कर ही सकती थी! मैं दौड़ती हुई सामने की तरफ बढ़ी, दस-पन्द्रह कदम गई हूँगी कि बगल की दीवार में खटके की आवाज के साथ एक दरवाजा खुल गया और एक बड़ा कमरा तरह-तरह के सामानों और कलपुर्जों से भरा हुआ दिखाई पड़ा। तिलिस्मी किताब में मैं पढ़ चुकी थी कि सुरंग के अन्दर घुसकर हम लोगों को उसी कमरे में जाना और वहाँ का तिलिस्म तोड़ना चाहिए मगर उस कमरे के अन्दर अच्छी तरह भर निगाह देखा भी नहीं और सामने को बढी। तीन-चार कदम गई हूँगी कि फिर एक खटके की आवाज आई और बगल की दीवार पर एक जगह कुछ अक्षर चमकते हुए दिखाई पड़ने लगे। मैंने उन्हें पढ़ा, यह लिखा था- ‘‘बिना यहाँ का तिलिस्म तोड़े इस सुरंग के बाहर निकल जाने वाले का फिर यहाँ तक आना नहीं होगा।’’ पर शामत की मार, इस बात पर भी मैंने ध्यान न दिया और दौड़ती हुई अपनी सखी की तरफ चली जो मुझे आती देख ताज्जुब से दोनों हाथ फैलाए हुई मेरी तरफ बढ़ रही थी। उस लम्बी सुरंग के बाहर मेरा होना था कि उसका दूसरा दरवाजा भी मेरे पीछे बन्द हो गया और बस मैं इन कम्बखतों के फेर में पड़ गई।

मैंने आपसे कहा कि सुरंग के बाहर लोहे का जंगला था और उसके बाद एक आंगन-सा दिखाई पड़ रहा था जिसमें वे आदमी थे जिन्हें देख मैं चौंकी थी और जो मुझे देख अपना काम छोड़ मेरी तरफ बढ़ रही थे। मैं जंगले के पास पहुंची ही थी कि उनमें से एक ने कहा, ‘‘हाँ-हाँ, खबरदार! इन जंगले को मत छूना!’’ मैं चौंककर खड़ी हो गई और मैंने पूछा, ‘‘ क्यों?’’ जिस पर जवाब मिला, ‘‘उसको छूते ही आदमी बेहोश हो जाता है!’’ मैं रुक गई तब उस जंगले से कुछ दूर रह कर ही मैंने उन लोगों से बातें करना शुरू किया परन्तु दो-चार मिनट से ज्यादा बातें कर न पाई हूँगी कि उस आंगन के पीछे की तरफ वाले हिस्से में कहीं एक घण्टा जोर से बजने लगा जिसकी आवाज के साथ ही मेरे चारों तरफ कई दरवाजे खुल गये और उनके अन्दर के लाल, हरे, पीले आदि-आदि तरह-तरह के रंग वाले इसी रानी के कई सिपाहियों ने निकलकर मुझे घेर लिया।मैं अपने प्रेमियों को छुड़ाने का जरा भी उद्योग न कर पाई और इन कम्बख्तों की कैदी बन गई जिन्होंने मुझे दम मारने की भी फुरसत न दी। न-जाने उनके बदन फौलादी थे या पत्थर के बने हुए थे कि मेरे तिलिस्मी हथियार का भी उन पर कोई असर न पड़ा और उन्होंने मुझे पकड़ ही लिया। कितनी ही जगहों से घुमाते-फिराते वे लोग मुझे उसी दरबार में ले गये जो आपने देखा। मैं उस खाली सिंहासन के सामने खड़ी की गई और मेरे पकड़ने वालों ने तिलिस्मी खजाना चुराने और कैदियों को छुड़ाने की कोशिश करने का इल्जाम मुझ पर लगाया। खाली सिंहसान पर से ये आवाज हुई कि ‘इसे कैदखाने में रखो, फिर कभी इनका मुकद्मा सुना जायेगा।’ और मैं उसी मकान में बन्द कर दी गई जिसमें आपने मुझे देखा और बातें की थीं। बस यही तो मेरा किस्सा है।

इतना कह मालती फिर बोली, ‘‘इस दो ही दिन के कैदखाने ने मेरी हालत मुर्दा-सी बना दी। सबसे भारी जो तकलीफ मुझे थी वह यह कि मेरी समझ में नहीं आता था कि मैं अपने गिरफ्तार करनेवालों को क्या समझूं? आदमी वे थे नहीं, उनका विचित्र रंग और उनका फौलाद से भी कड़ा जिस्म उन्हें आदमी नहीं मानने देता था, मगर उधर बोलचाल काम-करतब बिल्कुल मनुष्य की तरह का था जिसको देख-देख कर मन में यह घबराहट उठती थी कि हे भगवान्, अगर इस तरह का काम तिलिस्मी कर सकते हैं तो कहीं वे लोग भी तो कोई तिलिस्मी पुतले ही नहीं थे जिनको मैंने उस सुरंग में देखा था। यही सोच-सोच दिल में ऐसा हौल उठता था कि कुछ पूछिए नहीं।’’

प्रभाकरसिंह ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘घबराओ नहीं, जो कुछ सही-सही मामला है वह आप-से-आप प्रकट हो जाएगा। अब तुम और बातों की फिक्र छोड़ो और यह सोचो कि हम लोगों को क्या करना चाहिए?’’

मालती : सबसे पहले तो आपको तिलिस्मी किताब देखनी चाहिए। शायद उसमें इन बातों या इस जगह का कोई जिक्र हो।

प्रभाकर० : हाँ, यही विचार तो मेरा भी था, मगर इस जगह अंधेरा इतना....

मालती : इस अंधेरे को तो मैं अभी दूर कर देती हूँ।

इतना कह मालती ने सुनहरी भुजाली जिसे उसने तिलिस्मी में पाया था १ और जो इस हालत में भी उसके पास मौजूद थी उठा ली और उसका कब्जा दबाया। बहुत तेज रोशनी पैदा हुई जिसने उस जगह के एक-एक कोने का अंधकार दूर कर दिया। प्रभाकरसिंह ने देखा कि कुएं के ढंग के किसी स्थान में हैं जो एकदम गोल और बहुत ऊंचा है। सब तरफ की दीवारें संगीन और चिकनी थीं जिसमें कहीं कोई दरवाजा या बाहर निकल जाने की राह दिखा न पड़ती थी। ऊपर की तरफ देखने से छोटे कुएं की तरह दिखाई पड़ता था मगर ऊपर के अंधकार के कारण कुछ समझ में नहीं आता था कि इसका ऊपरी भाग किस तरह का है। प्रभाकरसिंह कुछ देर तक इधर-उधर देखते रहे, इसके बाद उन्होंने अपनी तिलिस्मी किताब उठाई और एक जगह से खोल उसे ध्यान से पढ़ने लगे। (१. देखिए भूतनाथ पन्द्रहवाँ भाग, दसवाँ बयान।)

यकायक उनका ध्यान टूट गया। मालती ने उनके बदन पर उंगली रखी थी। उन्होंने सिर उठाकर उसकी तरफ देखा मगर यह पूछने की जरूरत न पड़ी कि क्यों उसने इनको सावधान किया था मालती अपने सिर के ऊपर की तरफ देख रही थी जिधर निगाह करते ही प्रभाकरसिंह भी ताज्जुब में आ गए और किताब पढ़ना छोड़ ऊपर को देखने लगे। उन्होंने देखा कि उस कुएं जैसे स्थान में ऊपर, बहुत ही ऊपर, एक तेज रोशनी हो रही है जो क्षण-क्षण में बढ़ती जा रही है। ऐसा मालूम होता था मानों बहुत तेज रोशनी की कोई मशाल जलती हुई नीचे उतर रही है। प्रभाकरसिंह ने मालती से कहा, ‘‘तुम अपनी भुजाली की रोशनी बन्द कर दो, शायद तब कुछ स्पष्ट दिखाई पड़े!’’ मालती ने ऐसा ही किया और आँखों के सामने की रोशनी बंद होने पर अब ऊपर का हाल कुछ साफ-साफ दिखाई पड़ने लगा। प्रभाकरसिंह ने देखा कि झूले की तरह की कोई चीज नीचे उतर रही है जिस पर एक औरत जलती मशाल हाथ में लिए बैठी है।

बात-की-बात में वह झूला नीचे उतरकर जमीन से आ लगा और वह औरत उस पर से उतर इन लोगों के सामने आ खड़ी हुई। अब प्रभाकरसिंह ने पहचाना कि यह वही औरत है जिसे उन्होंने दरबार में रानी के बगल में खड़े उससे बातें करते हुए देखा था और उसके बर्ताव को याद कर प्रभाकरसिंह की पुन: भृकुटी चढ़ गई मगर उद्योग कर उन्होंने अपने को शान्त रखा। उधर वह औरत झूले से उतरकर सीधी इनकी तरफ बढ़ी और सामने खड़ी होकर बोली, ‘‘ऐ प्रभाकरसिंह और मालती! क्यों तुम लोग व्यर्थ की आशा में पड़े हो!! समझ लो कि तुम लोग तिलिस्म की रानी के कब्जे में पड़ गए और अब तुम्हारी तिलिस्मी किताब या तुम्हारे तिलिस्मी हथियार तुम लोगों को हमारी कैद से छुड़ा नहीं सकते। हाँ, अगर तुम लोग जो कुछ मैं कहती हूँ उसे ध्यान से सुनो और उसके मुताबिक कार्रवाही करो तो मैं वायदा करती हूँ कि न केवल तुम लोगों को इस कैद से छुड़ा ही दूंगी बल्कि इस तिलिस्म के तोड़ने और इसका खजाना पाने के काम में भी तुम्हारी मदद करूंगी।''

अपने मन के गुस्से को दबाकर प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘अच्छा, कहो तुम क्या कहती हो?'' वह औरत बोली, ‘‘तुम दोनों से अलग बातें करनी हैं और मैं नहीं चाहती कि एक से कही हुई मेरी बात दूसरा सुने, अस्तु पहले एक आदमी मेरे पास आए और मेरी बात सुने।

प्रभाकरसिंह ने मालती की तरफ देखा। उसने धीरे से इनकी तरफ झुककर कहा, क्या हर्ज है अगर इसकी बात सुन ली जाय। प्रभाकरसिंह बोले खैर जब तुम्हारी यही मर्जी है तो पहले मैं जाता हूँ और सुनता हूँ कि क्या कहती है।न जाने उस औरत ने प्रभाकरसिंह के कान में क्या कहा कि सुनते ही वे एक दम लाल हो गए और बिगड़कर बोले कभी नहीं यह हरगिज नहीं हो सकता खबरदार जो फिर ऐसी बात जुबान पर लाई तो! मगर उस औरत ने उन्हें दिलासा देने के ढंग से कहा, ‘‘आप इस तरह बिगड़िये नहीं। जरा मेरी बातों को गौर से सोचिये, समझिये और उस पर विचार कीजिये। उससे होने वाले फायदे की तरफ ध्यान दीजिये तब जो कुछ जवाब देना हो, दीजिये। अच्छा, आप यहीं खड़े रहें, मैं जाकर मालती से भी बातें कर लूं।’’

वह औरत अब मालती के पास आई और उनके कान में भी न-जाने कौन-सी बात कही। प्रभाकरसिंह उस बात को तो न सुन सके मगर यह देखा कि इसे सुन मालती खिलखिलाकर हंस पड़ी और बोली, ‘‘मुझे स्वीकार है। मगर यह समझ रखो कि मैं तुम्हारी बात तब मंजूर करूंगी जब तुम उन सब कैदियों को छुड़ा दोगी जो तुम्हारे तिलिस्म में बन्द हैं और जिनसे मैं उस दिन बातें कर रही थी जब तुम्हारे आदमियों ने मुझे पकड़ा।’’

औरत ने अपनी छाती पर हाथ रखकर कहा, ‘‘मुझे यह बात मंजूर है।’’ मालती ने जवाब दिया, ‘‘तब मुझे भी तुम्हारी बात मंजूर है, जाओ अपनी रानी से कह दो।’’

वह औरत खुशी भरी आवाज में बोली, ‘‘तुमने मेरी तबियत खुश कर दी। तुम बुद्धिमान हो और स्थिति देखकर काम करना जानती हो अब अगर तुम्हारे साथी ये प्रभाकरसिंह भी मेरी बात मंजूर कर लें तो बस फिर एकदम ही छुट्टी हो जाय और सब खरखशा जाता रहे। (प्रभाकरसिंह की तरफ देखकर) देखिए इन्होंने मेरी बात मान ली, अब आप भी मान जाइए और राजी-खुशी तिलिस्म की दौलत और अनूठे खजाने पर कब्जा कर जिन्दगी का आनन्द लीजिए, नहीं मैं कहे देती हूँ कि सिर पटककर रह जाइएगा और इस कैदखाने के बाहर न हो पाइएगा। यहाँ न आपकी तिलिस्मी किताब मदद करेगी और न तिलिस्मी हथियार!’’

प्रभाकरसिंह ने बिगड़कर कहा, ‘‘जाओ, जाओ मेरे सामने से दूर हो जाओ; अपनी दौलत और खजाना अपने पास रखो, मुझे लालच नहीं है!’’

वह औरत तेजी से चलकर उनके पास आई और गुस्से से बोली, ‘‘तब तुम इसी अन्धकूप में पड़े रहो और भूखे प्यासे अपनी जान दो।’’

इतना कह वह पुन: उसी झूले पर जा बैठी और झूला उसे लिए तेजी के साथ ऊपर की तरफ उठ गया।

।। उन्नीसवाँ भाग समाप्त ।।


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