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भूतनाथ - खण्ड 7

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8366
आईएसबीएन :978-1-61301-024-2

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान


रात लगभग आधी जा चुकी होगी। एक सुन्दर सजे हुए कमरे में गंगा-जमुनी काम की मसहरी पर प्रभाकरसिंह लेटे हुए हैं, इन्दुमति पैताने बैठी उनका पांव दबा रही है और मालती नीचे रेशमी गलीचे पर बैठी पान लगाती हुई उन बातों को बहुत गौर से सुन रही है जो प्रभाकरसिंह धीरे-धीरे कह रहे हैं, कमरे में हल्की रोशनी हो रही है और दरवाजा मामूली ढंग पर भिड़काया हुआ है।

प्रभाकर० : महाराज के दरबार में गुरु महाराज के मुँह से मैंने जो बातें सुनीं उनसे मुझे विश्वास हो गया कि तिलिस्म के बनाने वाले भूत, भविष्य और वर्तमान का हाल अच्छी तरह जानते थे और कोई बात उनसे छिपी हुई न थी। तुम इतना समझे रहो कि भूतनाथ या दारोगा वगैरह चाहे जितनी भी शैतानी करें और तिलिस्मी दौलत पर कब्जा पाने के लिए चाहे जो भी करें पर होगा कुछ भी नहीं और अन्त में वह सम्पत्ति उसी के हाथ लगेगी जिसके नाम वह छोड़ी गई है। तुम लोगों को इसका बिल्कुल खौफ न करना चाहिए कि दारोगा के हाथों गोपालसिंह का कोई अनिष्ट हो सकेगा। मैंने अभी तुमसे कहा न महात्माजी की जुबानी मैंने सुना कि ‘गोपालसिंह के हाथों जब तिलिस्म टूटने का मौका आयेगा तो दारोगा उस काम में रुकावट डालेगा और अन्त में अफसल हो कुत्तों की मौत मारा जाएगा। बस इसी से तुम समझ सकती हो कि चाहे दारोगा ने मुन्दर को गोपालसिंह के गले मढ़ दिया हो मगर उसकी मंशा पूरी न होगी और वह असफल होकर अन्त में जरूर मारा जायेगा। अब इस वक्त जरूरत यही है कि जमाने का हेर-फेर जो कुछ ईश्वर दिखलावे उसे धीरज के साथ देखते चला जाए और हिम्मत भी कायम रखी जाए। (१. देखिए भूतनाथ अट्ठारहवाँ भाग चौथा बयान। मणि-भवन में महाराज सूर्यकान्त का दरबार और उनके गुरु महाराज के साथ प्रभाकरसिंह की बातचीत।)

इन्दु० : हाँ, सो तो ठीक ही है।

मालती : क्या हम लोग महाराज साहब का वह दरबार नहीं देख सकते? आपके मुँह से उसका जिक्र और गुरु महाराज की बातें सुन मेरा तो ताज्जुब के मारे अजीब हाल हो रहा है। अगर तिलिस्म बनाने वाले ऐसे पुतले-पुतलियां बना सकते हैं जो न केवल आदमी की तरह चलें-फिरें और बातें करें बल्कि जो पूछने पर सवालों का जवाब दें और भूत, भविष्य, वर्तमान का हाल बता सकें तो फिर उनके बनाने वालों और देवताओं में फर्क ही क्या रह गया!

प्रभाकर० : तुम ठीक कहती हो। तिलिस्म बनाने वाले अगर देवता नहीं तो देवताओं से कुछ कम भी नहीं थे। मगर उस दरबार को फिर से हम देख सकेंगे इस बारे में मुझे कुछ सन्देह है।

मैंने अभी कहा न कि महाराज के दरबार में गुरु महाराज से बातें करते-करते ही मुझे इतनी देर लग गई कि तिलिस्मी कार्रवाई शुरू हो गई और लाचार मुझे वहाँ का तिलिस्म तोड़ने के काम में हाथ लगा देना पड़ा। अब जबकि उस जगह का तिलिस्म टूट गया और वहाँ की इमारतों का भी एक काफी बड़ा हिस्सा टूट-फूटकर बरबाद हो गया तो मुझे इस बात में सन्देह हैं कि ‘मणिभवन’ बचा होगा या महाराज का वह दरबार कायम होगा।

मालती : हाँ, ठीक है, आपने कहा था कि गुरु महाराज से बातें करते-करते ही कई पुतले एक बहुत बड़े उकाब को उठाये भीतर आये जिसके पेट को चीर आपको....

इन्दु० : (मालती को रोककर) हाँ, ठीक याद आया। आपने कहा था कि मणि-भवन का तिलिस्म तोड़ने पर आपको कई कैदी भी मिले थे जिन्हें आपने कहीं रख दिया था। वे कैदी कौन थे और अब कहाँ हैं?

प्रभाकर० : हाँ, मुझे मणि-भवन के तिलिस्म के अन्दर बन्द तीन कैदी मिले। मैं उन्हें उस समय अपने साथ नहीं रख सकता था इसलिए मैंने उन्हें एक हिफाजत की जगह रखवाकर इन्द्रदेवजी से उनका जिक्र कर दिया। मुझे उम्मीद है कि उन्होंने उन कैदियों को तिलिस्म के बाहर करके कहीं ठिकाने पहुँचवा दिया होगा।

इन्दु० : मगर वे लोग कौन थे? क्या आपने उन्हें पहचाना नहीं?

प्रभाकर० : ठीक तरह पर तो मैं न पहचान सका मगर मुझे कुछ शक जरूर हो गया और उस शक को भी मैंने इन्द्रदेवजी से कह दिया। उम्मीद है कि वे उस बारे में हम लोगों से पूरा हाल कह सकेंगे!

मालती : आखिर आपको क्या शक हुआ और उन लोगों ने अपने नाम क्या बताये?

प्रभाकर० : मैं अभी कहता हूँ पर इस जगह एक बात आ गई जिसे पहले पूछ लेना चाहता हूँ, जब मणि-भवन का तिलिस्म तोड़ने के बाद थकावट से लाचार होकर मैं एक दालान में बेखबर सोया हुआ था तो रात को क्या हुआ जो नींद खुलने पर मैंने अपने को (मालती की तरफ देख और मुस्कराकर) तिलिस्मी महारानी के चंगुल में पाया?

मालती ने तो यह सुन लजाकर सिर नीचा कर लिया मगर इन्दुमति बोली, ‘‘वह कार्रवाई असल में हमी लोगों की थीं। उधर आपने मणि-भवन वाला तिलिस्म तोड़ा और इधर मालती बहिन ने बावली वाला तिलिस्म तोड़ हम लोगों को कैद से छुट्टी दी जिसके बाद ही रणधीरसिंहजी की आज्ञानुसार आपका इनके साथ विवाह कर देने का काम जारी कर देना पड़ा। हम लोग आपको बेहोश कर दालान से उठा ले गये। (१. देखिए भूतनाथ उन्नीसवाँ भाग, तीसरा बयान।)

प्रभाकर० : ठीक है, मैंने भी यही समझा था।

इन्दु० : अच्छा, तो अब बताइए कि वे कैदी कौन थे?

प्रभाकर० : मैं बताने को तो तैयार हूँ मगर तुम लोगों के मन में झूठी आशा जगाते डरता हूँ। मुमकिन है कि मेरा ख्याल गलत हो और वह आदमी कोई दूसरा ही निकले अस्तु बेहतर होगा कि तुम लोग इन्द्रदेवजी से उनके बारे में पूछो।

मालती : नहीं-नहीं, हम लोग आप ही से सुनना चाहते हैं कि वे लोग कौन थे?

इन्दु० : आप ही बताइए कि वे कौन-कौन थे?

प्रभाकरसिंह उन कैदियों के बारे में कुछ कहते हिचकिचाते थे मगर मालती और इन्दुमति इस तरह उनके पीछे पड़ गईं कि आखिर उन्हें बताना ही पड़ा। लाचार होकर उन्होंने कहा, ‘‘अच्छा तो लो सुनो मैं बताए देता हूँ, मगर यदि पीछे से मेरा ख्याल गलत साबित हुआ, यह पता लगा कि वे लोग कोई दूसरे ही थे तो फिर मुझे दोष न देना! उस तिलिस्म में मुझे कुल तीन कैदी मिले जिनमें से दो तो बहुत ही सीधे-सादे आदमी थे जिनसे हम लोगों का कोई सम्पर्क नहीं और जिन्हें हेलासिंह ने दुश्मनी की वजह से दारोगा के जरिये तिलिस्म में फंसा दिया था मगर तीसरे आदमी, अगर मेरा सन्देह सही है, तो तुम्हारी अहिल्या के पति और कामेश्वर के बहनोई श्यामलालजी थे।’’

ये तीनों अपनी बातों में इस तरह गर्क थे कि किसी ने भी उस चुटकी की आवाज न सुनी जिसे कमरे के बाहर खड़ी एक औरत बजा रही थी, जब उसने भीतर से आने वाली बातचीत की आवाज सुनी और साथ ही अपनी चुटकी का कोई जवाब न पाया तो लाचार पल्ला खोला और कमरे में दाखिल हो गई जिसका नतीजा यह निकला कि प्रभाकरसिंह के मुँह से निकलने वाली यह आखिरी बात उसने बखूबी सुन ली, मगर न-जाने इस बात का क्या असर उस पर हुआ कि वह एकदम चौंक पड़ी। उसके सिर में चक्कर आ गया, मुँह से एक चीख की आवाज निकली और वह बदहवास होकर वहीं गिर गई।

तीनों आदमी चौंककर उधर देखने लगे और साथ ही इन्दुमति के मुँह से निकल पड़ा, ‘‘ओह, यह तो अहिल्या है! मालूम होता है कि यह किसी काम से यहाँ आई थी और इन्होंने आपकी बात सुन ली!’’ जिसके जवाब में प्रभाकरसिंह ने पलंग से उठते हुए कहा, ‘‘अब बताओ! अगर मेरा ख्याल गलत साबित हुआ तो इस बेचारी के दिल की क्या हालत होगी!’’

मालती और इन्दुमति ने अहिल्या को बड़े प्रेम से उठाया और बिछावन पर डाल होश में लाने की कोशिश करने लगीं। सुन्दरी अहिल्या का चेहरा जो रंज, अफसोस और गम से यों ही सूखा रहा करता था इस वक्त बिल्कुल पीला हो गया था और सूरत देखने से यही जाहिर होता था मानो उसके तन में प्राण नहीं है, मगर फिर भी इन्दुमति और मालती के बार-बार लखलखा सुंघाने, मुँह पर केवड़ा छिड़कने और चेहरे पर हवा करने से वह कुछ होश में आने लगी।इसी समय यकायक प्रभाकरसिंह की निगाह उसके हाथ की तरफ गई जिसमें एक चिट्ठी देख वे चौंके और उसे निकालते हुए बोले, ‘‘मालूम होता है यह चिट्ठी देने ही यह हम लोगों के पास आ रही थी। मगर यह हो किसकी सकती है!!’’ लिफाफे पर के अक्षर देखते ही वे चौंककर बोल बैठे, ‘‘हैं, यह तो इन्द्रदेवजी की लिखावट है और उन्होंने चिट्ठी मेरे पास भेजी है!!’’ इन्दुमति बोली, ‘‘जल्दी पढ़िए इसमें क्या लिखा है!’’ प्रभाकरसिंह ने चिट्ठी खोली और पढ़ने लगे। आशीर्वाद आदि के बाद यह लिखा हुआ था-

‘‘अफसोस कि मुझे यहाँ इतनी भी फुरसत नहीं मिल रही है कि तुम लोगों के पास आकर खुद यह खुशखबरी सुनाता इसलिए सवार के हाथ यह चिट्ठी भेजकर उसे दौड़ादौड़ जाने का हुक्म दिया है। तुम्हारा ख्याल ठीक निकला। वह कैदी जिसे तुमने मणि-भवन से निकाला मेरे दोस्त श्यामलाल ही थे जिनकी मैंने अच्छी तरह जांच कर ली और जो इस समय मेरे साथ ही काम कर रहे हैं, अपने इस दोस्त को तिलिस्म से बाहर करने पर मैं तुम्हें बधाई देता हूँ और साथ ही एक खुशखबरी अपनी तरफ से भी तुम लोगों को देता हूँ लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह का पता लग गया है, दोनों अभी तक जीते हैं मगर दुष्ट दारोगा के कब्जे में हैं और उस पाजी ने उन्हें ऐसी जगह बन्द कर रखा है कि छुड़ाना कठिन हो रहा है, फिर भी आशा है कि श्यामलाल की मदद से मैं इस काम में कृतकार्य होऊंगा!

‘‘वे दोनों दूसरे कैदी भी वे ही हैं जिनका तुम्हें शक था। बेचारी तारा को बहुत संभालकर यह खुशखबरी सुनाना, कहीं ऐसा न हो कि इस खबर को सुन वह बेचारी जिसका बदन रंज और अफसोस से यों ही सूखकर कांटा हो रहा है अपने को संभाल न सके और खुशी के मारे उसकी जान ही निकल जाए!’’

बस इतना ही उस चिट्ठी का मजमून था और इसके नीचे इन्द्रदेव का दस्तखत तथा एक खास निशान जिसे गौर से देख अपना दिल भर लेने बाद प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘बस कोई शक नहीं रहा और इस बेचारी की जिन्दगी यों ही बरबाद होने से बच गई!’’ इन्दुमति ने पूछा, ‘‘अब तो इस खबर की सच्चाई में किसी तरह का संदेह नहीं हो सकता न?’’ जवाब में प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘जरा भी नहीं।’’ जिस पर इन्दुमति बोली, ‘‘तब देखिये मैं इन्हें बात-की-बात में होश में लाये देती हूँ।’’

इन्दुमति झुकी और अहिल्या के कान के पास अपना मुँह ले जाकर बोली, ‘‘बहिन उठो। बहिन उठो! देखो जीजाजी कब से खड़े तुम्हें पुकार रहे हैं, वाह खूब! इतने दिन पर वे आये और तुम यों बेखबर पड़ी हो!’’

इन शब्दों ने जादू का काम किया। अहिल्या का बदन कांपा और पलकें जरा सी हिलीं। इन्दु फिर बोली, ‘‘उठो बहिन, देखो कौन’ तारा तारा’ पुकार रहा है! क्या तुम श्याम जीजा से नाराज हो गई हो!’’

अहिल्या ने यकायक आँख खोल दी और कहा, ‘‘हैं! कौन!’’ इन्दुमति ने उसे उठाया और प्रेम से अपनी गोद में लेते हुए कहा, ‘‘बहिन उठो, ऐसी खुशी के मौके पर तुम्हें क्या इस तरह बेखबर होना चाहिए!!’’ अहिल्या चारों तरफ देखती हुई बोली, मैंने क्या सुना? क्या ....वे....वे?’’ इन्दु ने जवाब दिया, ‘‘हाँ, तुम्हारे पति जीते-जागते मौजूद हैं और इस समय इन्द्रदेवजी के साथ जमानिया में बैठे दुष्ट दारोगा का सत्यानाश करने की तैयारी कर रहे हैं, देखो यह चिट्ठी पढ़ो’’, इन्दु ने इन्द्रदेव की चिट्ठी अहिल्या के हाथ में दे दी जिसे उसने धड़कते हुए कलेजे के साथ पढ़ा मगर पढ़ते-ही-पढ़ते उसके सिर में चक्कर आ गया और वह यह कहती हुई इन्दु की गोद में गिर गई -‘‘बहिन! क्या सचमुच मैं ऐसी भाग्यवान् हो सकती हूँ!!’’

तरह-तरह के उपचार से थोड़ी ही देर में अहिल्या फिर होश में आ गई और सम्हलकर बैठ गई, पहला सवाल उसने प्रभाकरसिंह से यही किया, ‘‘आपने पहले मुझे इस बात की खबर क्यों नहीं की?

प्रभाकरसिंह बोले, उन्हें तिलिस्मी जाल से छुड़ाते समय मुझे जरा भी सन्देह न था कि वे मेरे साढ़ू होंगे क्योंकि उन्होंने अपना कुछ भी हाल बताने से एकदम इन्कार कर दिया था। वह तो कहो कि दो-एक बातें उनके मुँह से ऐसी निकल गईं जिनसे मुझे कुछ शक हो गया जो आज अभी इन्द्रदेवजी का खत पाकर ही निश्चय में बदला है।’’

अहिल्या : उनकी सूरत-शक्ल तो एकदम बदल गई होगी?

प्रभाकर० : बिल्कुल ही, एक तो मैंने उन्हें सिर्फ एक ही दफे तुम्हारी बहिन (इन्दुमति की तरफ बताकर) के ब्याह में ही देखा था फिर कभी देखने की नौबत न आई, दूसरे जमना, सरस्वती तथा अन्य लोगों बल्कि खुद इन्द्रदेवजी की भी जुबानी बराबर यही सुनने में आया कि उनका शरीरान्त हो गया, अस्तु इतने समय बाद यकायक उन्हें उस जंगली और वहशियों की-सी हालत में देख मैं बिल्कुल ही न समझ सका कि ये कौन हैं। उस पर यदि अपना कुछ परिचय देते तो भी एक बात थी, उन्होंने मेरे बार-बार पूछने पर भी सिर्फ यही कहा कि मैं एक आफत का मारा हुआ दुखिया हूँ, मेरा नाम-पता पूछकर क्या कीजियेगा। फिर मैं कर ही क्या सकता था?

अहिल्या : तब आपको उन पर शक कैसे हुआ?

प्रभाकर० : बातचीत के सिलसिले में एक दफे उनके मुँह से निकला कि मेरी तारा भी इसी तिलिस्म में कहीं बन्द थी, क्या वह अब तक जीती होगी’! तब मुझे यकायक इस बात का शक हुआ कि कहीं ये अहिल्या के पति श्यामलालजी तो नहीं है क्योंकि मैं जानता था कि इनके ससुराल वालों ने इनका नाम ‘तारा’ रखा हुआ है, सरस्वती ने जब इनकी सूरत बनकर मुझे धोखा दिया १ उस समय उसने यह सब हाल मुझे सुनाया था, अस्तु मेरा शक उधर चला गया और इसी के बाद मैं उनकी तरफ दूसरी निगाह से देखने लगा। धीरे-धीरे मेरा शक बढ़ता गया मगर मैं उन तीनों कैदियों को ज्यादा समय तक अपने साथ रख नहीं सकता था क्योंकि मुझे तिलिस्म तोड़ने की कार्रवाई करनी थी जिसमें उनको साथ रखने से तरद्दुद पड़ता था अस्तु उन लोगों को मैंने एक हिफाजत की जगह पर छोड़ दिया। बाहर निकलने पर इन्द्रदेव से मैंने अपना शक बयान किया और उन्हें यह भी बता दिया कि मैं उन्हें फलां जगह छोड़ आया हूँ। अब यह पत्र पाने से मालूम हुआ कि उन्होंने उन तीनों कैदियों को बाहर निकाल और साथ ही उन्हें पहचान भी लिया। अब वे यहाँ आये तो हम लोग भी उनसे बातें करें और समझें कि उनके मरने की झूठी खबर क्योंकर उड़ी और वे तिलिस्म के अन्दर कैसे जा पड़े!! (१. देखिए भूतनाथ पहला भाग, चौथा बयान।)

इन्दुमति ने यह सुन कहा, ‘‘हाँ, सो सही है मगर मैं समझती हूँ कि औरों को भी यह खुशखबरी इसी समय सुना देना चाहिए! इन्द्रदेव न-जाने कब आवें और कब हमें जीजाजी के दर्शन मिलें क्योंकि जब उन्हें पता लगा कि बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी जीते हैं तो बिना उन्हें छुड़ाये वे वापस लौटने के नहीं।’’

प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘हाँ, इस बात को हम लोग बिल्कुल भूल ही गये थे। मगर यह भी बड़ी खुशी की खबर सुनने में आई! अब कम्बख्त दारोगा, हेलासिंह और मुन्दर अपनी करनी का फल पाये बिना न रहेंगे। चलो मैं भी चलता हूँ और दयाराम और कामेश्वर को यह खुशखबरी सुनाता हूँ!’’

सब कोई उठ खड़े हुए और इसके बाद की समूची रात सभी की बातचीत और हँसी-खुशी में ही कट गई।

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