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भूतनाथ - खण्ड 7

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8366
आईएसबीएन :978-1-61301-024-2

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान


अब वह जमाना आ गया है जब दारोगा और हेलासिंह की बदौलत लक्ष्मीदेवी की जगह मुन्दर को जमानिया के राजमहल में दाखिल हुए खासा समय हो गया था और वह गोपालसिंह के दिल पर कब्जा करने के साथ ही अपनी हुकूमत और धाक भी बढ़ाने की कोशिश करने लग गई थी।

लक्ष्मीदेवी की शादी के समय जो घटनाएं हुईं, किस तरह सुन्दर के साथ लक्ष्मीदेवी का अदल-बदल हुआ, बलभद्रसिंह किस तरह से दारोगा की कैद में गये और लक्ष्मीदेवी को किस-किस तरह के दु:ख उठाने पड़े यह सब हाल चन्द्रकान्ता सन्तति में खुलासे तौर पर लिखा जा चुका है, अस्तु इस जगह हम वह सब कुछ भी न लिखकर सिर्फ वे ही बातें लिखेंगे जिनसे हमारे किस्से का सम्बन्ध है या जिनके लिखे बिना सिलसिला ठीक नहीं होगा अथवा जो बातें चन्द्रकान्ता सन्तति में प्रकट होने से रह गई हैं।

दिन लगभग पहर भर बाकी रह गया है। सूर्यदेव तेजी के साथ अस्ताचल की तरफ चले जा रहे हैं और ऊँचे-ऊँचे पेड़ों ने अभी से उनकी आखिरी किरणों को अपनी डालियों में उलझाना शुरू कर दिया है जिसके कारण उन्हें यह मौका नहीं मिलता कि घने जंगल की जमीन तक पहुंच सकें जिसके अन्दर से दो औरतें घोड़ों पर सवार चली जा रही हैं।

यद्यपि इस समय दोनों ही के चेहरे नकाब से ढंके हुए हैं फिर भी हम इनके पहचानने में धोखा नहीं खा सकते क्योंकि ये दोनों ही हमारे पाठकों की जानी-पहचानी गौहर और नन्हों है। इन दोनों का लक्ष्य इस समय अजायबघर है और इनका इरादा जल्द वहाँ पहुंच जाने का मालूम होता है क्योंकि बीच-बीच में बातें करना छोड़ ये अपने घोड़ों की तरफ ध्यान देती हैं जो इस घने जंगल में मुश्किल से रास्ता पाते हुए उतना तेज नहीं चल सकते जितना कि उनके सवार चाहते हैं और इसीलिए हमारे लिए भी यह सम्भव है कि हम इनके साथ होकर इनकी बातें सुन सकें। आगे बढ़ आइये और सुनिए कि ये क्या बातें कर रहीं है,

एक नीची डाली से अपना सिर बचाती हुई नन्हो ने कहा, ‘‘सखी गौहर, सच तो यह है कि तुमने मुझे गहरा धोखा दिया। तुमने मुझे विश्वास दिलाया था कि कामेश्वर जीते हैं और इसलिए उसको पुनः पाने की लालच से मैंने वे सब चीजें तुम्हारे हवाले कर दी थीं जिन्हें मैं जान रहते कभी जाने न देती और जो भूतनाथ पर काबू करने की नीयत से मैंने बड़ी मेहनत से इकट्ठी की थीं। कामेश्वर की तो मुझे शक्ल देखने को मिली ही नहीं उल्टा अब मुझे विश्वास हो गया है कि तुमने उस मामले में मुझसे बिल्कुल गलत बात कही और तुम्हारे ही सबब से खुद मेरी जान भी आफत में पड़ गई।

गौहर : (हंसकर) तब शायद तुम यह भी समझती होगी कि कामेश्वर जीता नहीं था?

नन्हों : बेशक मैं यही समझती हूँ। मेरे ख्याल में तुमने राजा शिवदत्त के साथ मिलकर मुझसे वे सब चीजें ले लेने के इरादे से ही यह जाल रचा।

गौहर : अभी थोड़ी ही देर में तुम्हारा यह भ्रम दूर कर दूंगी और तुम्हें विश्वास दिला दूंगी कि वह कैदी कामेश्वर ही था जिसे राजा शिवदत्त के आदमी बेगम के यहाँ पहुंचा गये थे। केवल यही नहीं बल्कि इस बात को भी तुम जान जाओगी कि वह फिर भी मारा नहीं गया बल्कि अभी तक जीता है और खुद तुम्हारे ऐयारों ने गहरा धोखा खाया जो तुमसे यह कहा कि वह भूतनाथ या उसके शागिर्दों के हाथ मारा गया।

नन्हों : (चौंककर) क्यों कामेश्वर अब भी जीता है?

गौहर : हाँ, और यह बात खास दारोगा साहब की जुबानी मैंने सुनी है। यही नहीं, अगर तुम्हारी किस्मत तेज हुई तो तुम अब भी उस पर काबू पा सकती हो!

नन्हों : (अफसोस की मुद्रा से सिर हिलाकर) ओफ मगर मैं तुम्हारी इस बात को सही नहीं मान सकती!!

गौहर : यदि अभी नहीं तो थोड़ी देर बाद तुम्हें इस पर शक करने का कोई कारण न रह जाएगा, बस हम लोगों के अजायबघर तक पहुंचने की बात है। मगर हमें देर हो रही है, कहीं ऐसा न हो कि वहाँ तक पहुंचने के पहले ही अंधेरा हो जाय और हमें भयानक जंगल में रात के वक्त भटकना पड़े। अपना घोड़ा तेज करो और रोशनी रहते निकल चलो।

दोनों ने बातें करना बन्द कर अपने-अपने घोड़े तेज किये। लगभग घण्टे के अन्दर ही ये अपने ठिकाने पर पहुंच गई और अजायबघर की सफेद इमारत इन्हें सामने दिखाई पड़ने लगी। नाले वाला पुल पार करते हुए गौहर ने नन्हों से कहा, ‘‘हम लोग बड़े वक्त पे पहुंचे। फाटक पर रथ खड़ा है। मालूम होता है दारोगा साहब जाना ही चाहते हैं, अगर वे चले गये होते तो बड़ी मुश्किल होती!!’’

बात-की-बात में ये लोग फाटक के पास जा पहुंचे और अपने-अपने घोड़े से उतर उनकी लगाम पेड़ों की डालियों से अटकाने के बाद सीढ़ियों की तरफ बढ़ीं मगर अभी आखिरी सीढ़ी तक न पहुंची होंगी कि एक आदमी ने जो वहाँ मौजूद था इनका रास्ता रोका और पूछा, ‘‘आप लोग कौन हैं और कहाँ जाना चाहती हैं?’’ गौहर ने यह सुन एक दफे सिर से पैर तक उस आदमी को देखा और तब जवाब दिया, ‘‘हम लोग दोस्त हैं और दारोगा साहब से मिलना चाहते हैं,’’

उस आदमी ने यह सुन कहा, ‘‘मगर अफसोस है कि इस वक्त उनसे मुलाकात नहीं हो सकती, वे बहुत ही जरूरी काम में मशगूल हैं और उनका हुक्म है कि इस वक्त किसी की भी इत्तिला उनसे नहीं की जाए।’’

गौहर और नन्हों ने यह सुन एक-दूसरे की तरफ देखा और तब कुछ मुस्करा कर गौहर ने अपनी कमर से कोई चीज निकाली जिसे उस आदमी के हाथ में देते हुए उसने कहा, ‘‘अच्छा, तुम यह चीज उन तक पहुंचा दो।’’ ‘‘बहुत अच्छा।’’ कह कर उसने वह चीज ले ली और इन दोनों को वहीं ठहरने को कह भीतर चला गया। ये दोनों आपस में बातें करती हुईं उसी जगह टहलने लगीं मगर इन्हें ज्यादा देर रुकना न पड़ा और वही आदमी पुनः इनके पास आकर बोला, ‘‘दारोगा साहब ने कहा है कि आप दोनों थोड़ी देर तक रुक जाएं मैं अपने काम से खाली होकर तुरन्त आता हूँ। तब तक आइये इधर कमरे में आकर बैठिये।’’

उस आदमी ने इन दोनों को बीच बाले कमरे में ले जाकर बैठा दिया जो इस समय मामूली तौर से सजा हुआ था और तब बाहर निकल गया। गौहर एक तस्वीर की तरफ जो वहाँ लगी हुई थी दिखाकर नन्हों से कुछ कहना ही चाहती थी कि इसी समय एक पर्दा हटा और उसके अन्दर से मनोरमा निकलकर उनके पास आ पहंची जिसे देखते ही गौहर ने कहा, ‘‘अहा, अरी सखी तुम कहाँ! मगर आज यह नया रंग-ढंग क्या हम लोग देख रही हैं?’’ उसके बगल में बैठती हुई मनोरमा ने कहा, ‘‘दारोगा साहब एक बहुत ही जरूरी काम में फंसे हुए हैं और मुझे इसलिए भेजा है कि तुम दोनों को रोक रक्खूँ जिसमें तुम कहीं नाराज हो चली न जाओ।’’ इतना कहकर वह मजाक के साथ हंसी और गौहर ने भी हंसते हुए जवाब दिया। ‘‘मैं तो कभी नाराज हो ही नहीं सकती, हाँ ये नन्हों बीबी नाराज हो जाएं तो भले ही, इस समय भी ये बड़ी मुश्किल से मेरे साथ आई थीं। किसी तरह आती ही न थीं।’’

मनोरमा : ऐसा क्यों? (नन्हों से) क्यों सखी, क्या गौहर सही कह रही है?

नन्हों : (मुस्कराकर) इस झूठी की बात का तुम्हें विश्वास हो सकता है? भला जिन दारोगा साहब की बदौलत मेरी जान बची क्या उन्हीं से मैं किसी तरह नाराज भी हो सकती हूँ? मैं तो खुद अपनी मर्जी से सिर्फ उन्हें धन्यवाद देने यहाँ आई हूँ।

मनोरमा : हाँ-हाँ ठीक याद आया! मैं तुम दोनों को मुबारकबाद देना तो भूल ही गई क्योंकि मैंने सुना है कि तुम्हें भूतनाथ ने अपने चंगुल में फंसा लिया था और दारोगा साहब अगर वक्त पर पहुंच न जाते तो शायद तुम लोगों की जान न बचती। यह बात सही है न?

नन्हों : बिल्कुल सही है, हम लोग तीनों आदमी, मैं, गौहर और (धीरे से) मुन्दर लोहगढ़ी के भीतर एक दोस्त के साथ कुछ सलाह-मशवरा कर रहे थे कि उसी समय कम्बख्त भूतनाथ आ पहुंचा और उसने हम लोगों को बम के गोले से उड़ा देना चाहा। कम्बख्त को वहाँ का रास्ता भी न-जाने किस तरह मालूम हो गया था। मगर क्या तुम्हें यह किस्सा नहीं मालूम?

गौहर : भला इन्हें न मालूम होगा? ये तो दारोगा साहब की जान ही ठहरीं!

मनो० : नहीं नहीं, मैं सच कहती हूँ कि मुझे पूरा हाल बिल्कुल नहीं मालूम, क्योंकि उस घटना के बारे में मेरी दारोगा साहब से एक बार भी खुलकर बात न हुई। आज मैंने सोचा भी था कि पूछूँगी तो जब से मैं आई हूँ वे ऐसे काम में मशगूल हैं कि मुझसे दो बातें करने का भी उन्हें समय नहीं मिल रहा है।

गौहर : आखिर क्या मामला है? वे किस काम में पड़े हुए हैं? क्या हम लोगों के जानने लायक वह नहीं है?

मनो० : (कुछ हिचकिचाहट के साथ) मैं बता तो सकती हूँ पर यही डर है कि दारोगा साहब कहीं नाराज न हो जाएं।

गौहर : तो हम लोग भला उनसे कुछ कहने थोड़े ही जाएँगे (अफसोस का मुंह बनाकर) बहिन, तुम भी अब हम लोगों से दुराव करने लगीं।

मनो० : (प्यार से गौहर का हाथ पकड़कर) नहीं-नहीं, नाराज न हो, मैं बताये देती हूँ पर याद रखना, जीते जी किसी से कहना नहीं। बात यह है कि आज मुन्दर दारोगा साहब से मिलने यहाँ आई है।

दोनों : (चौंककर) हैं, मुन्दर! उसे राजा साहब ने महल से निकलने की इजाजत कैसे दे दी!!

मनो० : चुप चुप, कोई नाम मुंह से मत निकालो और धीरे-धीरे बातें करो। वह बड़ा छिपकर तिलिस्मी रास्ते से खास बाग के अन्दर ही से सीधी यहाँ तक आई है और अभी ही चली भी जायेगी। राजा गोपालसिंह कहीं गये हैं और कल लौटेंगे इसीलिए उसे इतनी मोहलत मिली है।

गौहर : फिर भी उसका यहाँ आना! अगर किसी तरह गोपालसिंह को पता लग गया....

मनो० : तो गजब हो जायेगा। मगर लाचारी से-बल्कि मजबूर होकर उसे यहाँ आना पड़ा है।

गौहर०: वह लाचारी कैसी?

मनो० : किसी तरह गोपालसिंह को यह बात मालूम हो गई है कि उनका ब्याह लक्ष्मीदेवी के साथ नहीं बल्कि किसी दूसरे के साथ हुआ है और इस मामले में दारोगा साहब का मुख्य हाथ है!

गौहर : (चौंककर) है, यह उन्हें कैसे मालूम हुआ!!

मनो० : उनके खास दोस्त और विश्वासपात्र भरतसिंह ने यह बात उनसे कही है।

गौहर : भरतसिंह ने! मगर भरतसिंह को यह खबर क्योंकर लगी!

मनो० : यह बताना तो कठिन है, मगर इस बात का असर क्या हो सकता है सो तुम खुद सोच सकती हो, गोपालसिंह भरतसिंह का कितना विश्वास करते हैं और दोनों में किस कदर दोस्ती है यह तुमसे भी छिपा न होगा।

गौहर : मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि दोनों एक जान दो शरीर हैं। तब फिर? अब दारोगा साहब क्या करेंगे?

मनोरमा इस बात का कोई जवाब देना ही चाहती थी कि परदा पुनः हटा और दारोगा साहब की सूरत दिखाई पड़ी! ये तीनों इन्हें देखते ही उठ खड़ी हुई और उनके बैठ जाने पर आग्रह से उनके पास ही बैठ गईं, बैठते ही दारोगा साहब ने नन्हों और गौहर से कहा, ‘‘माफ करना, मैं एक बड़े जरूरी काम में फंसा हुआ था जिससे तुम दोनों को रुकना पड़ा। तुम लोगों ने मनोरमा की जुबानी सुना होगा कि मैं कैसे तरद्दुद में पड़ गया हूँ।’’

गौहर : इन्होंने कुछ साफ तो नहीं बताया मगर....

दारोगा : मैं बताता हूँ सुनो न, साफ-साफ यह है कि गोपालसिंह को मालूम हो गया कि मैंने लक्ष्मीदेवी के बदले मुन्दर से उसकी शादी करा दी है और यह उसे खास भरतसिंह ने कहा है जिसकी बातों को वह ब्रह्मवाक्य समझता है।

नन्हों और गौहर : तो अब आप क्या करेंगे?

दारोगा : मेरी कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करूं, मगर कम-से-कम इतना तो निश्चय है कि इस समय अगर तुम लोग मेरी मदद न करोगी तो मैं कहीं का न रहूँगा! सच तो यह है कि इसीलिए मैंने तुम दोनों को इस समय बुलवाया भी है,

दोनों : हम लोग तो हमेशा ही दिलोजान से तैयार हैं, जो काम चाहे आप हमसे ले सकते हैं, मगर हम तुच्छ औरत की जात, कर ही क्या सकती हैं!!

दारोगा : तुम लोग इस समय वह कर सकती हो जो बड़े-से-बडे ऐयार भी नहीं कर सकते। खासकर (नन्हों की तरफ देखकर) तुम!

नन्हों : (ताज्जुब से) मैं?

दारोगा : हाँ, तुम! बात यह है कि भरतसिंह को इस मामले की खबर देने वाला दलीपशाह है जो आजकल बराबर उसके यहाँ आया-जाया करता है। तुम लोगों ने यह तो सुना ही होगा कि (मनोरमा की तरफ देखकर) इनके और नागर के कब्जे में आकर भी ‘रिक्तगन्थ’ जो निकल गया वह काम इसी दलीपशाह का ही था।

नन्हों : जी हाँ, नागर ने यह बात मुझसे कही थी कि आपको इस बात का शक है।

दारोगा : शक नहीं, अब मुझे पूरा यकीन हो गया कि यह काम उसी का है।

नन्हों : मगर उसे ऐसा करने की जरूरत क्या पड़ी? उसे तो तिलिस्म से किसी तरह का सरोकार नहीं है।

दारोगा : पहले तो बेशक नहीं था मगर अब बहुत गहरा हो गया है, उसके बहिन और बहनोई तिलिस्म में जा फंसे हैं जिन्हें छुड़ाने की वह दिलोजान से कोशिश कर रहा है।

नन्हों : (चौंककर) बहनोई और बहिन?

दारोगा : (गौर से उसकी तरफ देखते हुए) हाँ! मेरा मतलब कामेश्वर और भुवनमोहिनी से है!

नन्हों : (लड़खड़ाती हुई आवाज से) क्या वे लोग अभी तक जीते हैं?

दारोगा : जरूर! तुम्हें क्या इसमें कोई शक है?

गौहर : बात यह है कि इन्हें न-जाने कैसे विश्वास हो गया है कि कामेश्वर मर गया। इनके ऐयारों ने ही तो खुद इस बारे में इन्हें धोखा दिया और आज ये रास्ते-भर मुझसे इसके लिए झगड़ती आई हैं। मैं लाख कहती हूँ कि वह अभी तक जीता है मगर इन्हें विश्वास ही नहीं होता। (नन्हों से) लो सुनों, क्या अब भी मुझे झूठी और दगाबाज कहोगी?

दारोगा : (नन्हों से) मैं थोड़े में सब किस्सा सुनाए देता हूँ, जिससे तुम्हारा शक दूर हो जाए। बात यह हुई कि जब शिवदत्त ने इन गौहर के कहने से तुम्हारे लिए कामेश्वर को छोड़ दिया बल्कि बेगम के मकान तक पहुंचवा दिया तो वहाँ से भूतनाथ का कोई शागिर्द उसे उठा ले गया। अगर भूतनाथ के पास तक वह पहुंच जाता तो मैं नहीं कह सकता कि वह उसके साथ क्या बरताव करता पर उसके किसी दोस्त ने और मुझे शक है कि इस काम को करने वाला भी दलीपशाह ही था, उसे भूतनाथ के ऐयारों के फन्दे से छुड़ा दिया। स्वतन्त्र होते ही उसे अपनी स्त्री की चिन्ता लगी जिसके बारे में न-जाने कैसे उसे यह खबर लगी थी कि वह मरी नहीं बल्कि लोहगढ़ी के तिलिस्म में बन्द है।वह उसे छुड़ाने के लिए तिलिस्म में घुसा। तुम लोगों को शायद न मालूम होगा कि उसे तिलिस्म के हाल-चाल से बहुत-कुछ वाकफियत है। मुझे भाग्यवश यह बात मालूम हो गई। मैं खुद इस फिक्र में पड़ा हुआ था कि किसी तरह से लोहगढ़ी के तिलिस्म को नेस्तनाबूद कर दूं क्योंकि मालती, जमना, सरस्वती तथा मेरे और भी कई दुश्मन उसी तिलिस्म के अन्दर बन्द थे जिसे खोलकर उन लोगों को छुड़ाने की कोशिश प्रभाकरसिंह कर रहे थे। भूतनाथ को भी लोहगढ़ी के तिलिस्म का कुछ हाल मालूम है और वह उसके अन्दर जा सकता है, अस्तु उसे चंग पर चढ़ाकर मैंने उस तिलिस्मी इमारत को एकदम से नेस्तनाबूद कर देने का रंग गांठा। भाग्यवश वह उसी दिन जबकि तुम लोग उसके भीतर बैठी उस पर काबू पाने की तरकीब सोच रही थीं, लोहगढ़ी में घुसा। मुझे इस बात की खबर लग गई और मैं भी उसके पीछे लग गया। जिस समय उसने बम का गोला चलाकर लोहगढ़ी को उड़ाना चाहा, ईश्वर की कृपा से मुझे इतना मौका मिल गया कि मैं तिलिस्मी राह से अन्दर पहुंचकर तुम लोगों की जान बचा सकूं। किस तरह से भूतनाथ उस बम के गोले से बच गया यह तो मैं नहीं कह सकता पर तुम लोगों को मैंने जरूर बचा लिया। खैर, मेरा विश्वास था कि लोहगढ़ी के उड़ जाने से भीतर का तिलिस्म भी नष्ट हो जायेगा और उसके कैदी मर जायेंगे पर हाल ही में मुझे मालूम हुआ कि यह सोचना मेरी नादानी थी, लोहगढ़ी की इमारत के उड़ जाने पर भी उसका भीतरी हिस्सा नष्ट नहीं हुआ और कैदी लोग उसके भीतर जीते ही बच गये।हाँ, यह जरूर हुआ कि उनके बाहर निकलने का रास्ता इस तरह बन्द हो गया कि अब वे उसके अन्दर ही पड़े सड़ा करेंगे। इतना भी बहुत है मगर कम्बख्त दलीपशाह चाहता है कि रिक्तगन्थ की मदद लेकर तिलिस्म में घुसे और उन लोगों को छुड़ावे। साथ-ही-साथ वह मेरी भी जड़ खोदने पर लग गया है और चाहता है कि भरथसिंह के जरिये गोपालसिंह को उभाड़कर मुझे नेस्तनाबूद कर दे।

नन्हों : यह तो बड़े ताज्जुब की बात आपने सुनाई! मगर क्या रिक्तगन्थ की मदद से उन कैदियों का छुड़ाना सम्भव है?

दारोगा : सम्भव हो सकता है और इसीलिए मैं चाहता हूँ कि तुम उस किताब को दलीपशाह के कब्जे से निकालने में मेरी मदद करो, बल्कि अगर हो सके उसे मेरा कैदी बना दो। मैंने इस काम के लिए अपने कई ऐयार लगाये बल्कि बेगम को भी भेजा पर अफसोस, वे लोग कुछ न कर सके।

नन्हों : आपने बेगम को भेजा था!!

दारोगा : हाँ, उसके और दलीपशाह के गुप्त सम्बन्ध का हाल तो शायद तुम्हें....

नन्हों : मुझे बहुत-कुछ मालूम है।

दारोगा : इसी ख्याल से मैंने उसे इस काम पर लगाया, क्योंकि मैंने सोचा कि शायद पुरानी दोस्ती कुछ काम करे, मगर वह कम्बख्त एक ही चांगला है, बेगम का जरा रंग चढ़ने न दिया और उसे बैरंग वापस आना पड़ा बल्कि मेरे कई ऐयार भी उसकी बदौलत न-जाने किस जहन्नुम में पड़ गये। खैर, अब मैं तुम्हें इस मुहिम पर लगाना चाहता हूँ और तुमसे खास तौर पर उम्मीद रखता हूँ, क्योंकि एक तो तुम्हारा भी इसमें कुछ स्वार्थ है दूसरे बेगम की बनिस्बत तुम बहुत ज्यादा होशियार भी हो।

गौहर : इनका स्वार्थ कैसा? क्या आपका मतलब यह है कि अगर रिक्तगन्थ मिल जाए तो कामेश्वर को पुनः पा सकती है?

दारोगा : हाँ, मेरा बिल्कुल यही मतलब है!!

इतना कहकर दारोगा ने गौर से नन्हों की तरफ देखा जिसका चेहरा इस समय लाल हो रहा था और जो आंखें नीची किये न-जाने क्या सोच रही थी। पर कुछ देर बाद उसने एक लम्बी सांस ली और कहा, ‘‘दारोगा साहब, आपकी बातों को गलत कहने का साहस तो मेरा नहीं होता मगर फिर भी इतना कहने की हिम्मत मैं बांधती हूँ कि एक दफे इसी तरह की बातों पर झूठी उम्मीदों की दुनिया मैंने बांधी थी और उसके भरोसे भूतनाथ जैसे कातिल ऐयार से दुश्मनी मोल लेने पर तैयार हो गई थी। पर आप जानते ही हैं कि उसका नतीजा कुछ न निकला, कामेश्वर को पाना तो दूर रहा उल्टा भूतनाथ पर काबू रखने वाली जो कुछ चीजें मेरे पास थीं वे भी हाथ से निकल गईं। आज आप फिर वही उम्मीद मुझे दिला रहे हैं और उसके भरोसे पुनः दलीपशाह से मेरा सामना करा रहे हैं, क्या मैं आपसे पूछ सकती हूँ कि इस बार भी उम्मीद हकीकत न बन पाई तो मेरे दिल की क्या हालत होगी, इसे आपने कुछ सोचा है!’’

नन्हों ने यह बात कुछ ऐसे ढंग से कही कि वहाँ बैठे हुए सभी पर उसका गहरा असर हुआ। यद्यपि हम यह नहीं कह सकते कि मतलबी दारोगा के दिल पर इसका क्या प्रभाव हुआ मगर उसने अपना चेहरा बहुत ही गम्भीर बनाकर नन्हों से कहा, ‘‘देखो नन्हों, मैं तुमको और तुम्हारी पिछली बातों को बहुत अच्छी तरह जानता हूँ मुझे खूब मालूम है कि तुमने कामेश्वर के इश्क में अपने को बर्बाद कर दिया, उसके फेर में पड़कर अपने-आपको दीन-दुनिया कहीं का न रखा और उसके सबब से तुमने सख्त मुसीबतें उठाईं। मुझे यह भी मालूम है कि अन्त में जब सबको यह विश्वास हो गया कि कामेश्वर इस दुनिया में नहीं रह गया तब भी तुमने उसका ध्यान नहीं छोड़ा और जोगिन की तरह उसके नाम की माला जपती रहीं और यह भी मालूम है कि किस तरह ये गौहर तुमसे मिलीं और किस काम के होने की उम्मीद में किस तरह तुम्हें कामेश्वर के जीते रहने की खबर और उसके पाने की उम्मीद दिलाई।तुम विश्वास रखो कि इन्होंने अपना वायदा पूरा करने में कोई कसर न उठा रखी और मैं इसकी ताईद करूंगा कि वह कामेश्वर ही था जिसे बेगम के मकान से भूतनाथ के शागिर्द उड़ा ले गये थे और तुम्हारे दिल ने उसे मुर्दा समझकर दोबारा जो कड़ी ठेस खाई वह हाल भी मुझे मालूम है, यह सब जान-सुन और समझकर भी मैं आज जो कुछ तुमसे सच्चे दिल से कह रहा हूँ उसे तुम किसी तरह भी गलतफहमी न समझो मैं तुमसे सच्चे दिल से कहता हूँ कि कामेश्वर अभी तक मरा नहीं है बल्कि जीता और इस समय लोहगढ़ी के तिलिस्म के अन्दर है और मैं इस बात को भी जोर देकर कह सकता हूँ कि अगर किसी के खून से लिखी हुई वह तिलिस्मी किताब मेरे हाथ लग जाए तो मैं उसे तिलिस्म के अन्दर से जीता-जागता बाहर ला सकता हूँ। क्या बताऊं, लोहगढ़ी की इमारत उड़ गई और जिन रास्तों से हम लोग उस तिलिस्म के भीतर जा सकते थे वे सब-के-सब नष्ट हो गये, नहीं तो मैं तिलिस्मी कायदों की कोई परवाह न करके तुम्हें अपने साथ-साथ ले चलता और तुम अपनी आंखों से कामेश्वर को वहाँ देखकर विश्वास करतीं कि मैं न तो झूठ बोल रहा हूँ और न तुम्हें किसी तरह का धोखा ही देना चाहता हूँ।’’

दारोगा की बातों से सच्चाई की कुछ ऐसी बू आ रही थी कि उसने नन्हों के दिल पर गहरा असर किया और बोल उठी, ‘‘मुझे आपकी बात पर पूरा भरोसा है दारोगा साहब! और उसी विश्वास के भरोसे मैं एक बार फिर अपनी किस्मत आजमाई करना चाहती हूँ। आप विश्वास रखिये कि अगर दलीपशाह के पास वह तिलिस्मी किताब होगी तो आठ दिन के अन्दर वह अपने हाथ में दिखाई पड़ेगी!!’’

नन्हों अपनी धुन की कितनी पक्की और साथ ही कैसी धूर्त और चालाक है यह बात दारोगा को पूरी तरह मालूम थी अस्तु यह बात सुन उसके दिल की कली खिल गई और वह खुश होकर बोला, ‘‘मुझे तुमसे बहुत-कुछ उम्मीद है और विश्वास है कि तुम जरूर अपना काम पूरा करोगी मगर यह भी समझ रखो कि दलीपशाह बड़ा ही चांगला है और उसके कब्जे से तिलिस्मी किताब निकाल लेना हंसी-खेल नहीं साबित होगा। मैं तुमसे कह चुका हूँ कि खुद बेगम को मैंने इस काम पर भेजा था पर वह बुरी झपेड़ खाकर वापस लौटने पर मजबूर हुई।’’

नन्हों : आप भी किसका जिक्र करते हैं दारोगा साहब! यह सब काम बेगम वगैरह के करने के हैं? इसके करने के लिए नन्हों का कलेजा, नन्हों का दिल, नन्हों की अक्ल चाहिए, नन्हों की! आप देखियेगा कि मेरी बात सही निकलती है या नहीं, मैं फिर आपसे कहती हूँ कि अगर दलीपशाह के पास वह रिक्तगन्थ है तो आठ दिन के भीतर वह मेरे हाथ में आ जाएगा और अगर वह मुझे न देगा तो मैं उसे मिट्टी में मिला दूंगी। हाँ, अगर उसके पास हो ही नहीं तो दूसरी बात है।

दारोगा : नहीं-नहीं, मेरी खबर कदापि गलत नहीं हो सकती और यह किताब जरूर उसी शैतान के पास है, मगर कुछ मुझे भी बताओ कि तुमने क्या सोचा है और कैसे यह काम पूरा करना चाहती हो? तुम्हारी बातों से मालूम होता है कि तुमने कोई तरकीब सोच निकाली है।

नन्हों : बेशक ऐसा ही है और मैं इस काम को खुद न कर दूसरे के हाथों से कराऊंगी शेर से लड़ने के लिए शेरबबर को भेजूंगी

दारोगा : अर्थात्?

नन्हों : भूतनाथ को दलीपशाह के पीछे लगाऊंगी! मैं खूब जानती हूँ कि उसे भी इस किताब की सख्त जरूरत है और इसके लिए वह जमीन-आसमान एक करने को तैयार हो जाएगा।

दारोगा : मगर भूतनाथ को पाओगी तुम कहाँ?

नन्हों : क्यों, क्या दूसरों की तरह आप भी समझते हैं कि भूतनाथ मर गया!

दारोगा : नहीं-नहीं, यह भला मैं कैसे समझ सकता हूँ! जब वह खुद मुझसे आकर मिल गया। मेरे कब्जे से इन्दिरा को निकाल ले गया १ और सरयू की खोज में आफत मचा चुका है, तब मैं मरा हुआ उसे क्योंकर समझ सकता हूँ। पर मेरा मतलब यह है कि उसने अपने पिछले अड्डों को एकदम छोड़ दिया है और न-जाने कहाँ छिपकर रहता है कि खोजने पर भी कहीं उसका पता नहीं लगता, अपनी मर्जी से ही कभी-कभी वह प्रकट होता है और कोई-न-कोई आफत मचाकर फिर गायब हो जाता है। (१. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति सोलहवाँ भाग, पहला बयान।)

नन्हों : मुझे उसके गुप्त स्थान का पता है और मैं जानती हूँ कि उससे किस तरह मुलाकात हो सकती है, मगर मैं इन बातों की खबर अभी आपको न दूंगी।

दारोगा : मुझे पूछने की इच्छा भी नहीं है। मुझे तो काम होने से मतलब है, मगर तब इतना समझे रहो कि अगर भूतनाथ के हाथ में रिक्तगन्थ पड़ गया तो फिर उससे लेना सहज न होगा।

नन्हों : मैं इस बात को भी खूब अच्छी तरह समझती हूँ और सब-कुछ समझ-बूझकर ही यह काम करने का बीड़ा उठा रही हूँ।

थोड़ी देर तक इन लोगों में और भी बातें होती रहीं, दारोगा ने मनोरमा और गौहर के सुपुर्द भी कुछ जरूरी और गुप्त काम किए जिसके बाद सब लोग अपने-अपने रास्ते लगे।अजायबघर के बाहर खड़े रथ पर सवार हो दारोगा साहब जमानिया की तरफ रवाना हुए। अपने-अपने घोड़ों पर सवार हो मनोरमा और गौहर किसी दूसरी तरफ को चल पड़ीं और नन्हों अपने तेज घोड़े पर सवार हो अकेली गयाजी की तरफ रवाना हुई। अपने मतलब की धुन में उसने इस बात पर भी ध्यान न दिया कि रात का वक्त है और घोर जंगल में दरिन्दे जानवरों का डर कदम-कदम पर है।

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