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भूतनाथ - खण्ड 7

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8366
आईएसबीएन :978-1-61301-024-2

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान

तिलिस्मी शैतान के गायब हो जाने के बाद क्षण-भर तक सन्नाटा रहा और सभी लोग अपने-अपने मन में तरह-तरह की बातें सोचने लगे मगर इसके बाद इन्द्रदेव ने कहा, ‘‘अगर इस आसेब का कहना सही है तो जरूर बड़ी भारी मुसीबत आ खड़ी हुई।’’

दलीपशाह बोले, ‘‘मगर मुझे विश्वास नहीं होता कि यह ठीक कह रहा होगा।’’

प्रभाकर० : कुछ मालूम नहीं होता कि यह शैतान कौन है और हम लोगों का दोस्त है या दुश्मन? मेरा इसका तिलिस्म के अन्दर कई बार साबका पड़ चुका है और अब तो मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि तिलिस्मी पोशाक पहने यह कोई जरूर ऐयार है, फिर भी मैं इसे पहचानने में बिल्कुल असमर्थ हूँ।

इन्द्र० : यही ताज्जुब तो मुझे होता है और फिर यह भी मेरी समझ में नहीं आता कि यह तिलिस्म के अन्दर जहाँ हम लोगों का आना-जाना तक मुश्किल है किस तरह हर जगह बेधड़क पहुंच और निकल जाता है। मगर खैर, यह चाहे जो भी हो और हमारा दोस्त हो या दुश्मन, इसमें शक नहीं कि अगर इसकी दी हुई खबर सही है और मुन्दर जीती ही नहीं रह गई बल्कि गोपालसिंह के साथ उसका ब्याह भी हो गया है तो बहुत बड़े खौफ की बात है और गोपालसिंह की जान पर बड़ा भारी खतरा है, अब मैं एक पल भी यहाँ रुक नहीं सकता और इसी वक्त जमानिया के लिए रवाना होऊंगा। आप सब लोग यहाँ रहिये और आराम कीजिये। मैं जमानिया से लौटकर आप लोगों से मिलूंगा और तब आप लोगों को इस तिलिस्म से बाहर ले चलूँगा, अभी कुछ समय तक आप सभी का यहीं रहना मुनासिब है, क्यों शाहजी?

इतना कह इन्द्रदेव ने दलीपशाह की तरफ देखा जो तुरन्त बोल उठे, ‘‘बेशक कम-से-कम मालती, अहिल्या, भुवनमोहिनी को तो तब तक जमाने के सामने आना ही न चाहिये जब तक कि दारोगा, हेलासिंह और शिवदत्त खुले हुए और स्वतन्त्र हैं।वे सब इनके जीते रहने की खबर पाते ही इनकी जान के दुश्मन हो जायेंगे और इनका रहना मुहाल कर देंगे, बल्कि मेरी तो यह राय थी कि ये कामेश्वर, दयाराम तथा प्रभाकरसिंह भी अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ अभी दुनिया की निगाहों से हटे ही रहते तो अच्छा था, यद्यपि मैं इस बात पर जोर नहीं दे सकता।’’

दयाराम ने यह सुन कहा,‘‘नहीं-नहीं, आपका कहना बहुत ठीक है और हम लोगों को जमाने के हाथों जैसे-थपेड़े खाने पड़े हैं उनकों याद रखते हुए हमें जमाने से कोई लगाव भी नहीं रह गया है, मगर इन बातों पर पीछे विचार होता रहेगा। (इन्द्रदेव की तरफ देखकर) आप इस वक्त जाएं और जहाँ तक जल्द हो सके बेचारे गोपालसिंह की हिफाजत का इन्तजाम करें। मैं ईश्वर से सिर्फ यही मनाता हूँ कि जो खबर हम लोगों ने सुनी है वह सही न निकले!’’

थोड़ी देर कर कुछ और सलाह-मशविरा होता रहा जिसके बाद इन्द्रदेव दलीपशाह को लेकर एक तरफ चले गये, और यह सभा बरखास्त हुई,

औरों को छोड़ हम प्रभाकरसिंह के साथ चलते हैं जो सभी के साथ उस तरफ नहीं गये जिधर वह शेरों वाला कमरा तथा वह बहुत ही आलीशान इमारत थी जिसमें इन लोगों का डेरा था बल्कि उन लोगों से कुछ कह-सुनकर दाहिनी तरफ को घूम गये जिधर एक सुहाना बाग और गुंजान लताकुंज था। इस समय बाग में जगह-जगह पर रोशनी हो रही थी अतएव अंधकार से कही कोई तकलीफ न थी।

हम नहीं कह सकते कि प्रभाकरसिंह का इधर आने में क्या अभिप्राय था या वे कहाँ जाना चाहते थे पर चालीस-पचास कदम से ज्यादा न गये होंगे कि उन्हें पीछे से यह आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘जरा ठहरिये।’’ वे चौंककर रुक गये और पीछे देखा तो सरस्वती पर निगाह पड़ी जो लपकती हुई उन्हीं की तरफ आ रही थी। सरस्वती अकेली न थी बल्कि उसके पीछे-पीछे एक औरत और भी थी जो चाल-ढाल तथा पोशाक से रानियों की लौंडी या सहेली मालूम होती थी। प्रभाकरसिंह इसे देखते ही चौंककर रुक गये और सरस्वती से बोले, ‘‘क्या है?’’

सरस्वती : किसी की भेजी हुई यह औरत यहाँ आई है जो कहती है कि तिलिस्म की महारानी ने मुझे भेजा है और आपको कुछ सन्देह कहा है, इसका बयान है कि आप इसे पहचानते हैं और सूरत देखते ही सब बात समझ जायेंगे।

प्रभाकरसिंह ने यह सुन गौर से उस औरत की तरफ देखा और पूछा, ‘‘क्या तुम्हारा नाम संज्ञा है!’’ उसने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘जी महाराज! और अपनी स्वामिनी की भेजी हुई मैं यह पूछने आई हूँ कि क्या वे भी दस मिनट के लिए महाराज के दर्शन कर सकेंगी!’’

प्रभाकर० : (ताज्जुब से) तुम्हारी स्वामिनी कौन?

संज्ञा : वही तिलिस्मी महारानी जिनके साथ श्रीमान का विवाह हुआ था।

प्रभाकर० : क्या वे अभी तक जीती हैं! क्या वे केवल एक तिलिस्मी पुतली नहीं थीं! और क्या मैंने भूतनाथ की मूरत पर बलि चढ़ाकर उनकी वह लीला समाप्त नहीं कर दी थी!

संज्ञा : (दंत तले जीभ दबाकर) शिव शिव शिव! यह महाराज क्या कह रहे हैं! महाराज के वियोग में कुछ व्यथित और दुःखी होती हुई भी वे कुशल से हैं और बिल्कुल स्वस्थ हैं!

प्रभाकर० : (एक लम्बी सांस खींचकर) आश्चर्य की बात है कि तिलिस्म तोड़ चुकने पर भी ये तिलिस्मी पुतलियां अभी तक मेरी जान के पीछे पड़ी हुई हैं। हे भगवान क्या इनसे मेरा छुटकारा न होगा!

प्रभाकरसिंह ने यह बात कुछ ऐसे लहजे में कही कि सरस्वती सुनते ही खिल खिलाकर हंस पड़ी और बोली, ‘‘यह क्या मामला है जो आप इस तरह पर निराश और बदगुमान हो रहे हैं? कुछ मुझे भी तो बताइये। शायद मैं आपकी मदद कर सकूं।’’

प्रभा ०: मामला और कुछ नहीं सिर्फ इतना ही है कि जिस तिलिस्म को मैंने तोड़ा उसमें ठीक मनुष्य की तरह बोलने और काम करने वाले पुतलों और पुतलियों की ऐसी भरमार है कि मैं तो परेशान हो गया, उन्हीं में एक कोई तिलिस्मी महारानी भी थी जिसके साथ मेरे ब्याह का नाटक रचा गया था! उस पुतली को बाद में मैंने एक सूरत पर बलि चढ़ाकर तिलिस्म का आखिरी हिस्सा तोड़ा, मगर अब यह कह रही है कि वह अभी तक जीती है।

संज्ञा : (सरस्वती की तरफ देख हाथ जोड़कर) जी हाँ, मैं बहुत ठीक कहती हूँ और इसके सबूत में उनकी दी हुई यह अंगुठी पेश करती हूँ जो उन्होंने (प्रभाकरसिंह की तरफ बताकर) महाराज को अपनी प्रतिज्ञाओं का स्मरण कराने के लिए चिहृ की तरह पर मेरे हाथ भेजी है।

इतना कहकर संज्ञा ने एक अंगूठी निकाली और सरस्वती के हाथ पर रख दी जो उसे देखते ही चौंककर बोली, ‘‘जीजाजी, इस बात से आप इन्कार नहीं कर सकते कि यह अंगूठी बेशक आपकी ही है क्योंकि मैं इसे बराबर आपकी उंगली में पड़ी देखा करती थी!’’

भाकरसिंह ने भी इस अंगूठी को देखा और पहचाना। बेशक यह वही अंगूठी थी जो उन्होंने ब्याह के बाद उस तिलिस्मी महारानी की उंगली में पहना दी थी मगर यही अंगूठी तो उन्होंने उस पुतली की उंगली में पड़ी देखी थी जिसे ‘भूतनाथ’ की मूरत पर बलि चढ़ाया। फिर यह यहाँ कैसे आ गई? यह सब क्या जंजाल है!

प्रभाकरसिंह एकदम घबरा-से गये और तरह-तरह की बातें सोचने लगे, मगर सरस्वती ने फिर कहा, ‘‘क्यों आप सोचने क्या लगे।क्या यह अंगूठी आपकी नहीं है? क्या यह औरत बिल्कुल झूठ कह रही है!’’ जिसे सुन वे बोले, ‘‘नहीं, यह अंगूठी अवश्य मेरी ही है और इसको जरूर मैंने उस औरत को दिया था जिसके साथ मेरा विवाह हुआ और जो तिलिस्म की महारानी के नाम से मशहूर थी, मगर साथ ही यह बात भी मैं बिल्कुल सही कह सकता हूँ कि वह कोई मनुष्य या स्त्री नहीं। केवल एक तिलिस्मी पुतली थी और उसी का खून एक मूरत पर लेप कर मैंने तिलिस्म का आखिरी हिस्सा तोड़ा था।’’

सरस्वती ने यह बात सुन ताज्जुब से उस औरत की तरफ देखा और कहा, ‘‘और तुम कहती हो कि वे जीती-जागती मौजूद है?’’ संज्ञा ने जवाब दिया, ‘‘जी हाँ, निःसंदेह!’’ सरस्वती प्रभाकरसिंह से बोली, ‘‘तब सबसे अच्छा तो यही होगा कि आप खुद जाकर उससे मिलें और अपना शक दूर कर लें, अगर इसका कहना सही है और वह तिलिस्मी महारानी अब तक जिन्दा है तो फिर किसी तरह अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते! जिसके साथ आपने ब्याह किया, जिसको अपनी जीवन-संगिनी बनाया, उसे एकदम छोड़कर अलग हो रहना आपके लिए किसी तरह भी उचित नहीं हो सकता!’’

प्रभाकरसिंह को चुप देख सरस्वती फिर बोली, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि आप इतना घबरा क्यों रहे हैं? अगर आप अकेले जाते डरते हों तो कहिये मैं आपके साथ चली चलूं या इन्दु बहिन को साथ कर दूं। (हंसकर) मगर यह तो बताइये, हम लोगों से आपने अपने ब्याह की खबर छिपाई क्यों? अगर कह दिये होते तो हम लोगों भी न खुशी के जश्न में शरीक हो जाते!’’

प्रभाकरसिंह चिढ़कर बोले। ‘‘मेरी जान आफत में पड़ी है और तुमको मजाक सूझा है, (संज्ञा से) अच्छा, चल तू किधर चलती है। मगर याद रखियो, तेरी बात झूठ निकली और यह सब धोखा ही साबित हुआ तो और जो कुछ होगा सो होगा, कम-से-कम तुझे मैं कदापि जिन्दा न छोड़ूगा।’’

अपनी गर्दन झुकाकर संज्ञा ने कहा, ‘मेरी बात झूठ निकली तो खुशी से मैं अपना सिर देने को तैयार रहूँगी।’’ और तब ‘‘महाराज, इधर से आवे।’’ कहकर आगे को हो ली, प्रभाकरसिंह ने उसके पीछे कदम रखा। सरस्वती ने कुछ कहने को मुंह खोला, पर फिर न-जाने क्या समझकर चुप रह गई और जब प्रभाकरसिंह कुछ आगे बढ़ गये, तो दौड़ती हुई एक तरफ को निकल गई।

तेजी के साथ उस बाग को तय करती हुई संज्ञा एक कोने में पहुंची जहाँ छोटा-सा एक बुर्ज बना हुआ था। इस बुर्ज के नीचे एक छोटी कोठरी भी बनी हुई थी मगर उसके अन्दर वह न गई बल्कि उसी जगह दीवार में किसी तरकीब से उसने एक रास्ता पैदा किया।आगे-आगे संज्ञा और पीछे-पीछे प्रभाकरसिंह उस रास्ते के अन्दर चले गये और उनके जाते ही वह राह बन्द हो गई। प्रभाकरसिंह ने अपने को इमारतों के एक नये ही सिलसिले में पाया जिसमें जगह-ब-जगह रोशनी हो रही थी और कहीं–कहीं कुछ लोग चलते-फिरते भी नजर आ रहे थे मगर रात का वक्त होने के कारण वे यह निर्णय न कर सकते थे कि यहाँ वे कभी आये हैं या नहीं। यद्यपि इस बात का शक उन्हें जरूर होता था कि इस जगह वे पहले आ चुके हैं फिर भी उन्होंने इस पर ध्यान न दिया। जाने वे किस तरद्दुद में पड़े हुए थे कि सिवाय नीचा सिर किये संज्ञा के पीछे-पीछे चले जाने के उन्होंने एक दफे भी सिर उठाकर इधर-उधर नहीं देखा और तब तक बिना कुछ पूँछे-ताछे चुपचाप उसके पीछे-पीछे चले गए जब तक कि एक दरवाजे के पार पहुँच वह रुक न गई और यह कहकर एक बगल हो गई ‘‘महाराज, इस कमरे में पधारें!’’

प्रभाकरसिंह ने अपने सामने रेशम का एक कीमती पर्दा लटकता देखा जिसमें मोतियों की झालर लगी हुई थी। एक क्षण के लिए उन्होंने अपने चारों तरफ देखा और तब एक लम्बी सांस ले पर्दा हटा भीतर की ओर घुसे।

एक बहुत बड़ा कमरा तरह-तरह के कीमती सामानों से सजा हुआ नजर आया। जिसके बीचोंबीच एक जड़ाऊ सिंहासन रखा हुआ था। कमरे में काफी रोशनी हो रही थी, जिसमें चारों तरफ निगाह फेरकर भी उन्हें किसी गैर की सूरत दिखाई न पड़ी और वे सोचने लगे कि शायद इस कमरे के बाद कोई दूसरा कमरा होगा जिसमें उन्हें जाना पड़ेगा।मगर इन्हें इस कमरे में और कोई दूसरा रास्ता या दरवाजा भी नजर न आया, यहाँ तक कि जब उन्होंने पीछे की तरफ देखा तो उस दरवाजे का भी कोई-नाम-निशान न पाया जिसकी राह अभी-अभी वे यहाँ पहुँचे थे। ताज्जुब और घबराहट के साथ वे बोले, ‘‘जरूर मुझे धोखा दिया गया!’’ मगर उसी समय यकायक रुक गए क्योंकि कहीं से आवाज आई, ‘‘महाराज, खड़े क्यों हैं? आइये और इस सिंहासन पर विराजिये!’’

प्रभाकसिंह ताज्जुब से बोले, ‘‘क्या मेरे सिवाय और भी कोई यहाँ मौजूद है? अगर हो तो मेरे सामने आये!!’’

‘‘जो आज्ञा महाराज की!’’ ये शब्द सुनाई पड़े और साथ ही उस सिंहासन के बगल में एक छोटी-सी शिखा अग्नि की इस तरह की दिखाई पड़ी मानों कोई दीया जल रहा हो। शिखा देखते-देखते बड़ी होने लगी और कुछ ही देर में इतनी बड़ी हो गई कि भयानक आग की ज्योति वहाँ पर दिखाई पड़ने लगी जिसकी ऊंचाई छः सात हाथ और पेटा दो-तीन हाथ से कम न होगा और जिसकी चमक आँखों में चकाचौंध पहुंचा देने वाली थी। मगर एक दफे बढ़कर वह चमक तुरन्त ही कम होने लगी और उस जगह एक अस्पष्ट आभा किसी स्त्री की दिखाई पड़ने लगी। जैसे-जैसे अग्निशिखा कम होती गई वह स्त्री-मूर्ति स्पष्ट होती गई और कुछ ही देर बाद बड़े ही कीमती गहने-कपड़ों से सजी हुई वही तिलिस्मी महारानी वहाँ खड़ी दिखाई पड़ने लगी। इस समय भी उसकी सूरत-शक्ल और पोशाक वैसी ही थी जैसी कि प्रभाकरसिंह

पहल देख चुके थे अस्तु वे उसे देखते ही पहचान गये और बोल उठे, ‘‘हैं, क्या तुम ही वह तिलिस्मी महारानी हो जिसके साथ मेरा विवाह हुआ था?’’ (१. देखिए भूतनाथ उन्नीसवाँ भाग, तीसरा बयान।)

तिलिस्मी महारानी ने बहुत नम्रता के साथ प्रभाकरसिंह के चरण छूकर के उन्हें प्रणाम किया और तब कहा, ‘‘जी हाँ, दासी ही है! पर महाराज को सन्देह क्यों हो रहा है?’’

प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘मैंने तिलिस्म में तुम्हारी ही शक्ल-सूरत की एक पुतली को देखा था जिसे उसी समय मुझे एक मूरत पर बलि चढ़ा देना पड़ा और इसी कारण मैं समझ रहा था कि अब तुमसे देखाभाली नहीं हो सकेगी। मगर तुम यह तो बताओ कि तुम वास्तव में मनुष्य हो या कोई चलती-फिरती तिलिस्मी पुतली ही हो!’’

महारानी हंसकर बोली, ‘‘नहीं महाराज, मैं सचमुच की स्त्री हूँ और कोई तिलिस्मी तमाशा नहीं हूँ। हाँ, तब यह जरूर है कि तिलिस्म के इस हिस्से में जितनी पुतलियां काम कर रही हैं उन सबकी सूरत मेरी ही जैसी बनी हुई है। पर ऐसा क्यों है यह मैं नहीं कह सकती।’’

प्रभाकर० : केवल यही नहीं, उन सबकी और साथ-साथ तुम्हारी भी सूरत मैं ठीक अपनी मालती जैसी पाता हूँ, इसका क्या सबब?

महा० : इसके बारे में कुछ बता नहीं सकती, मगर दो मनुष्यों की सूरत-शक्ल एक-सी होना कोई असम्भव तो नहीं है।

प्रभाकर० : क्या तुम बता सकती हो कि मालती अब कहाँ हैं?

महा० : हाँ-हाँ उनका विवाह उसी दिन मेरे ही एक सम्बन्धी के साथ हो गया जिस दिन कि मैं आपकी दासी बनी और उनका पति उनको अपने राजमहल में ले गया जहाँ वे इस समय आनन्द कर रही होंगी। आप अगर चाहें तो मैं आपकी उनसे भेंट करा सकती हूँ क्योंकि वह यहाँ से दूर नहीं है। मगर हैं, यह क्या महाराज का चेहरा इस बात को सुन उतर क्यों गया? क्या महाराज को इस खबर से किसी तरह का दुःख पहुंचा? मेरी समझ में तो पहले की बनिस्बत अब वे बहुत ज्यादा प्रसन्न और सुखी हैं!!’’

प्रभाकरसिंह ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। मगर इसमे कोई शक नहीं कि महारानी के इस जवाब ने उनके कलेजे पर मुक्का मारने का-सा काम किया था, लड़खड़ाते हुए वे आगे बढ़े और उसी सिंहासन पर जाकर बैठ गये। उनका सिर लटक गया और वे लम्बी-लम्बी सांस लेने लगे। इस समय उनकी सूरत से साफ प्रकट हो रहा था कि उन्हें बड़ी ही भारी निराशा हुई है और वे बड़े ही कष्ट में है।

मगर प्रभाकरसिंह की यह हालत देखते ही महारानी का भाव एकदम बदल गया। वह यकायक यह कहती हुई उनके पैरों पर गिर पड़ीं- ‘‘नहीं-नहीं, मैं आपको किसी तरह धोखा नहीं दे सकती और न किसी प्रकार की मनोव्यथा ही पहुंचा सकती हूँ! महाराज, आपकी दासी मालती ही आपके सामने है।’’

प्रभाकरसिंह पर मानों बिजली गिरी। वे चौंककर, बोले, ‘‘यह क्या बात!’’ और तब महारानी को पैरों पर से उठाते हुए बोले, ‘‘सच बताओ तुम कौन हो?’’पर उसी समय यकायक किसी तरह की आहट सुन उन्होंने अपना सिर घुमाया, ताज्जुब के साथ उन्होंने देखा कि उस कमरे के पूरब तरफ वाली दीवार में लगा एक बड़ा आईना एक बगल को हट गया है और उसके अन्दर से इन्दुमति चली आ रही है जो सीधी इन दोनों की तरफ बढ़ी और महारानी की तरफ देखती हुई बोली, ‘‘छीः-छीः बहिन, तुमसे एक जरा-सा भेद थोड़ी देर तक भी छिपाकर रखा न गया।’’

प्रभाकरसिंह इन दोनों की बातें सुन और ताज्जुब में पड़ गये और कभी इन्दुमति तथा कभी महारानी की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘आखिर कोई मुझे यह तो बताएगा कि बात क्या है या सब कोई मेरी जान के ही ग्राहक बनें रहेंगे!!’’

इन्दुमति यह सुन हंसती हुई बोली, ‘‘जब इन्होंने सब गुड़-गोबर कर ही दिया तो अब छिपाने से क्या फायदा! लीजिए सुनिये, यह और कोई नहीं आपकी मालती ही हैं जिन्हें न पाकर आप इतना उदास हो रहे थे!!’’

प्रभाकरसिंह ताज्जुब के साथ उसका हाथ थामकर बोले, ‘‘क्या सचमुच!!’’ इन्दु ने कहा, ‘‘हाँ, सचमुच!’’ और प्रभाकरसिंह ने फिर पूछा। ‘‘और इनका ब्याह किसी से हुआ नहीं?’’ इन्दु बोली,‘‘जी, ब्याह तो जरूर हुआ पर किसी दूसरे से नहीं, आप ही से हुआ!’’

प्रभाकर० : तब मुझे इतने समय तक भ्रम में क्यों डाल रखा गया?

इन्दु० : आपने बिना मेरी इजाजत अपना दूसरा ब्याह कर लिया इसी की सजा आपको दी गई!!

प्रभाकरसिंह यह सुनते ही हंस पड़े और दोनों को लिए सिंहासन पर बैठते हुए बोले, ‘‘अच्छा, सही-सही बताओ कि ऐसा क्यों किया गया।’’ मालती ने तो जो सिर नीचा किया तो फिर जुबान ही नहीं खोली मगर इन्दुमति बोली, ‘‘सुनिये, मैं संक्षेप में सब कहे देती हूँ, विस्तार से फिर इन्हीं से सुनिएगा।

आप तो उस बावली में ही रह गए और ये उस सुरंग में घुसकर वहाँ पहुंच गई जहाँ हम लोग कैद थे और जहाँ का तिलिस्म तोड़ इन्होंने हमें कैद से छुड़ाया। भाग्यवश उसी समय वहाँ शेरसिंह रणधीरसिंहजी को लेकर पहुंच गए। आप जानते ही होंगे कि रणधीरसिंह हम सभी के बुजुर्ग हैं। उनको किसी तरह इन लोगों यानी दयाराम, कामेश्वर, भुवनमोहिनी, अहिल्या, मालती आदि के जीते रहने की खबर लग गई थी और तिलिस्म के अन्दर उनकी उन सभी से भेंट कराने के ख्याल से ही शेरसिंह उन्हें अपने साथ लाए थे। वे वहाँ इन लोगों से तथा मुझसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुए और उसी जगह उन्होंने आज्ञा दी कि इनका (मालती का) विवाह आपके साथ तुरन्त कर दिया जाए। हम लोग सब-के-सब कोई भी तब तक तिलिस्म के बाहर न निकलें जब तक कि बाहर मैदान दुश्मनों से खाली न हो जाए! उनकी आज्ञानुसार ही तिलिस्म में आपका ब्याह इनके साथ किया गया। बस इतनी ही तो बात है।’’ (१. देखिए भूतनाथ अट्ठारहवाँ भाग, दूसरा बयान।)

प्रभाकर० : लेकिन जब ऐसा ही था तो यह सब ऊटक नाटक रचने की क्या जरूरत थी?

इन्दु० : जमना, सरस्वती, अहिल्ला वगैरह आपकी सालियां आपके साथ मजाक करना चाहती थीं और मजाक का वक्त तो अब आया था पर इन्होंने सब चौपट ही कर दिया!

प्रभाकर० : तब फिर इन्हीं की शक्ल की महारानी और तिलिस्मी पुतलियां वगैरह क्यों बनाई गईं?

इन्दु० : इनकी इस जिद पर कि मैं महाराज को (आपको) कदापि किसी तरह का धोखा नहीं दे सकती और अगर विवाह करना ही पड़ा तो अपनी असली सूरत में ही करूंगी, किसी बनावटी सूरत में नहीं।

प्रभाकर० : ओ हो, यह बात है! अब मेरी समझ में सब बातें आईं! मालती से सच्चाई कायम रखते हुए मेरे साथ दगा की जा रही थी। खैर, समझ लूंगा।

मालती ने तो शरमाकर सिर नीचा कर लिया मगर उसी समय किसी ने प्रभाकरसिंह की बातों का जवाब दिया, ‘‘आप भी तो बहिन इन्दु के साथ दगा कर रहे थे!’’ उन्होंने चौंककर सिर घुमाया और देखा कि जमना, सरस्वती, भुवनमोहिनी और अहिल्या चली आ रही हैं जिन्होंने वहाँ पहुँच मालती से कहा, ‘‘छीः बहिन, हम लोगों का सारा मजा तुमने किरसिरा कर दिया। अगर हम लोग जानतीं कि तुम इतने कमजोर दिल की निकलोगी तो कभी तुम्हें यहाँ न भेजती।’’

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