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भूतनाथ - खण्ड 7

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8366
आईएसबीएन :978-1-61301-024-2

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

।। इक्कीसवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

रात पहर-भर के लगभग जा चुकी है। संगमरमर के चबूतरे पर जिसे खुशबूदार फूलों से लदी झाड़ियों ने चारों तरफ से घेर रखा इन्द्रदेव, दलीपशाह, प्रभाकरसिंह, दयाराम तथा हमारे नवीन पात्र कामेश्वर बैठे हुए हैं तथा इनसे जरा हटकर एक दूसरे रेशमी गलीचे पर इन्दुमति, जमना, सरस्वती, भुवनमोहिनी और अहिल्या बैठी हुई हैं, बीच में तेज रोशनी का एक शमादान बल रहा है।

अहिल्या १ अपना किस्सा सुना रही है-

जब मैंने देखा कि मालती भी मेरे साथ नहीं है, न-जाने कहाँ चली गई तो मुझे तुरन्त ख्याल हुआ कि हो-न-हो जो शक मुझे हुआ है वही उसे भी हुआ है और इसी से वह कहीं टल गयी है। मैं भी मौका पाकर खसकने की बात सोच ही रही थी कि यकायक शेरसिंह बना वह ऐयार पलट पड़ा और उसी समय मैंने देखा कि इधर-उधर छिपे कई आदमी पेड़ों की आड़ से निकल मेरी तरफ बढ़े आ रहे हैं। उन सभी के हाथों में मशालें और नंगी तलवारें थीं और उनको देखते ही वह ऐयार बोल उठा। ‘‘इस कम्बख्त को पकड़ लो और दूसरी औरत को खोजो। जरूर वह भी यहीं कहीं छिपी होगी।’’ मेरी मुश्के बांध दी गईं और कई आदमी मालती को खोजने के लिए चारों तरफ फैल गये उसका कहीं पता न लगा, न-मालूम वह कहाँ जा छिपी थी। (१. अहिल्या का इससे पहले का हाल पाठक मालती के मुंह से सुन चुके हैं। देखिये बारहवाँ भाग, तीसरा बयान।)

बहुत देर तक तलाश करने पर भी जब मालती न मिली तो वह ऐयार बोला, ‘‘खैर, जाने दो उस कम्बख्त को। इसी को उठा लो और चलो। महाराज राह देख रहे होंगे,’’ मैं उठाकर जबरदस्ती एक डोली में डाल दी गई जो उन शैतानों के साथ थी और सब लोग एक तरफ को रवाना हुए। हाथ-पांव के साथ-साथ मेरा मुंह भी बंधा था जिससे न मैं चिल्ला सकती थी और मैं अपने को छुड़ाने की कोई कोशिश ही कर सकती थी, दूसरे डोली के अन्दर जो कपड़ा बिछा हुआ था उसमें से किसी तरह की गन्ध आ रही थी जिसने मुझे बदहवास कर दिया और कुछ ही देर बाद मुझको तनोबदन की होश न रह गई, इससे मैं नहीं कह सकती कि वह सफर कितना लम्बा था या मैं वहाँ से कितनी दूर ले जाई गई। मगर जब मुझे होश आया तो मैंने देखा कि मेरे हाथ-पांव खुले गुए हैं और मैं एक छोटी कोठरी में कम्बल के ऊपर पड़ी हुई हूँ। एक आदमी मेरे ऊपर झुका हुआ मुझे कोई चीज सुंघा रहा था और जैसे ही मेरी आंख खुली उसे देख मैं कांप गई क्योंकि वह चुनार का राजा शिवदत्त था। मैंने डरकर अपनी आँखें बंद कर लीं मगर वह बेरहमी के साथ हंस पड़ा और इस तरह की वाहियात बातें करने लगा जिन्हें मैं अपने मुंह से नहीं निकाल सकती! आखिर उसकी बातें सुन मैंने नफरत के साथ उसके मुँह पर थूक दिया जिससे वह बहुत लाल-पीला हुआ और मेरे मुंह पर उसने जोर से एक घूँसा मारा, शायद वह मेरी और दुर्गति करता मगर उसी समय बाहर से किसी के ताली बजाने की आवाज सुन उठ खड़ा हुआ और मुझसे यह कहता हुआ कि ‘ठहर कम्बख्त, मैं अभी आता हूँ तो तेरी दुर्दशा करता हूँ बाहर निकल गया। मैं डर से कांपती हुई उसी तरह पड़ी रह गई और ईश्वर को मनाने लगी कि मुझे मौत आ जाय तो अच्छा।

जिस कोठरी में मैं थी उसमें एक तरह एक छोटा-सा चबूतरा था जिस पर कोई मूरत बैठाई हुई थी। शिवदत्त के बाहर जाते ही यकायक इस कोने में से किसी तरह की आवाज आई जिससे मैं चौंकी और उधर देखते ही मुझे मालूम हुआ कि वह मूरत हिल रही है। मेरे देखते-देखते वह अपनी जगह से एक बगल हट गई और उस स्थान पर शेरसिंह खड़े दिखाई पड़ने लगे।पहले तो डर और घबराहट के मारे मैं उन्हें पहचान न सकी मगर जब वे मेरे पास आये और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले कि बेटी, घबरा मत, मैं शेरसिंह ही हूँ और दुश्मनों के एक चकमे में पड़ गया था तो मुझे ढांढस हुई और मैं रोकर बोली। ‘‘चाचाजी, किसी तरह मुझे दुष्ट शिवदत्त के पंजे से बचाइये!’’ उन्होंने कहा, ‘‘तू घबरा मत! मुझे सब हाल मालूम हो गया है। यह शैतानी जैपाल और हेलासिंह की है और दारोगा का इसमें हाथ है। पर डर नहीं, मैंने सब इन्तजाम कर लिया है, तू उठ और फुर्ती से मेरे साथ आ!!’’ मेरे दम में दम आया। मैं उठी और उनके पीछे-पीछे चलकर चबूतरे पर पहुंची जिस पर से उतरकर शेरसिंह मेरे पास आये थे।मैंने देखा कि उस मूरत की जगह चबूतरे के बीचोबीच में एक गड्ढा है जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। शेरसिंह के पीछे-पीछे मैं उस गड्ढे में उतर गई। नीचे एक छोटी कोठरी मिली जिसमें बहुत ही अंधेरा था मगर शेरसिंह के कहने से मैं बेधड़क उस जगह खड़ी रही और वे कहीं पड़ी एक गठरी उठा कर यह कहते हुए फिर ऊपर चले गये, ‘‘तू यहाँ खड़ी रह मैं अभी आया!’’

बहुत जल्दी ही वे लौट आये और अबकी दफे कोई तरकीब ऐसी भी करते आये जिससे चबूतरे के ऊपर वाली वह मूरत फिर अपने ठिकाने जा बैठी और वह रास्ता बन्द हो गया।मैंने उनसे पूछा, ‘‘आप क्या करने गए थे और वह गठरी जो आप साथ ले गये थे कहाँ छोड़ आए?’’ जिसके जवाब में उन्होंने कहा, ‘‘शिवदत्त अपने साथ कुछ लौडियां भी लाया है। उन्हीं में से एक को बेहोश कर तेरी सूरत बना मैं ऊपर छोड़ आया हूँ!’’

इतना सुनते ही प्रभाकरसिंह बोल उठे, ‘‘तब मालूम होता है कि भुवनमोहिनी ने कोठरी में जिस बेहोश अहिल्या को देखा और जिसे गदाधरसिंह ने ले जाकर ‘भूतनाथ’ की मूरत पर बलि दिया वह यही शिवदत्त की लौंडी ही थी।’’

इन्दु० : बेशक यही बात थी और भूतनाथ व्यर्थ ही उस डर में पड़ा रह गया और अब तक भी डर रहा है कि उसने असली अहिल्या को मार डाला। इसका सही किस्सा यों है कि भूतनाथ को इस बात का पता लग गया था कि शिवगढ़ी एक तिलिस्म है और उसके अन्दर बेइन्तहा खजाना भरा हुआ है। यह बात उसे नन्हों की जुबानी मालूम हुई थी जिसके बाप के पास जो ‘रोहतासगढ़ के पुजारी’ के नाम से मशहूर था उस तिलिस्म की ताली भी थी। नन्हों के कहने से भूतनाथ ने उस पुजारी को धोखा दे एक अंधे कुएं में फेंक दिया और वह तिलिस्मी किताब ले ली। उस किताब को पढ़ने से उसे तिलिस्म का कुछ हाल मालूम हुआ और कुछ दौलत भी मिली मगर साथ ही यह भी पता लगा कि इसी तरह की कोई तिलिस्मी किताब और भी है वह अगर मिले तभी यह तिलिस्म टूटकर पूरा खजाना हाथ लग सकता है। उसी समय से वह उस दूसरी तिलिस्मी किताब को पाने की फिक्र में लगा। दारोगा की जुबानी जब एक दफे उसने सुना कि जमानिया की महारानी के पास एक तिलिस्मी किताब है तो वह उसको पाने की कोशिश करने लगा। दारोगा भी उससे अपना एक काम निकालने की फिक्र में था। इन कामेश्वर और इनके पिता सेठ चंचलदास से वह बहुत चिढ़ता था और जिस तरह भी हो इनका नाम-निशान मिटाने की फिक्र में पड़ा था जिसका जरिया उसने भूतनाथ को बनाया। (भुवनमोहिनी की तरफ देखकर) उसने महारानी को यह पट्टी पढ़ाई कि महाराज तुम पर मोहित हो गये हैं.... (१. भूतनाथ ने इसके बारे में कुछ हाल अपने शागिर्दों से कहा, भूतनाथ अट्ठारहवाँ भाग, पाँचवा बयान देखिये।)

भुवन० : (चौंककर) शिव शिव शिव! उसने ऐसा कहा!

कामे० : और इस बात का महारानी को विश्वास भी हो गया!!

इन्द्र० : हाँ! और यह भी उनके जीवन का एकमात्र कलंक है क्योंकि और सब तरह से महारानी एक आदर्श औरत थींमैं खूब जानती हूँ कि इस बात में जरा भी सच्चाई न थी और अब तो भुवनमोहिनी की जबानी उसका किस्सा सुन कर मुझे यह भी मालूम हो गया कि महाराज इसे राजा बीरेन्द्रसिंह की भांजी जान कर अपनी लड़की के समान समझते और मानते थे मगर खैर। जो बात हुई वह यह थी कि महारानी ने भूतनाथ से कहा कि तुम अगर भुवनमोहिनी को मार डालो तो मैं वह तिलिस्मी किताब तुम्हें दे दूंगी। इधर चुनार का राजा शिवदत्त भी भुवनमोहिनी पर आशिक था और इसके पाने के लिए मुंहमांगी कीमत देने को तैयार था अस्तु भूतनाथ ने किसी तरह इसके (भुवनमोहिनी के) रिश्तेदारों को तो यह विश्वास दिला दिया कि यह सांप काटने से मर गई और उधर जहाँ यह गाड़ी गई थी वहाँ कोई दूसरी लाश गाड़ इसे निकाल होश में ला शिवदत्त के हवाले कर दिया। इस तरह उसने महारानी से तिलिस्मी किताब पाई और शिवदत्त से भी कोई बहुत ही कीमती चीज ली। अब उसे शिवगढ़ी का तिलिस्म तोड़ने की सूझी। (प्रभाकरसिंह की तरफ देखकर) तिलिस्म के अन्दर जो भूतनाथ की मूरत तुम्हें मिली थी वहाँ तक पहुंचने के कई रास्ते हैं जिनमें से एक शिव गढ़ी से, दूसरा अजायबघर से और तीसरा किताब से तुम्हें मालूम ही हुआ होगा कि वह मूरत कुछ खास-खास शब्दों को बार-बार दोहराया करती और जो उसके कब्जे में पड़ जाए उससे यह कहा करती थी कि किसी औरत का खून मुझे पिलाओ तो मैं तिलिस्मी खजाना दूंगा, इन्हीं शब्दों ने भूतनाथ को धोखे में डाल दिया।जब अहिल्या की गालियों से नाराज हो इसे शिवदत्त ने भूतनाथ के सुपुर्द कर दिया तो वह इसीलिए उस भूतनाथ की मूरत के पास पहुंचा और अपनी समझ में उसने अहिल्या को उस मूरत पर बलि चढ़ा दिया मगर वास्तव में वह शिवदत्त की एक लौंडी थी जिसे शेरसिंह ने अहिल्या की सूरत बनाकर छोड़ दिया था और जिसका हाल अभी तुम लोगों ने सुना। खैर, यह तो दूसरी बात हुई मगर वह बलि चढ़ा देने पर भी कोई काम न हुआ क्योंकि यह सब बातें तो केवल एक तिलिस्मी तमाशा थीं। उस मूरत ने भूतनाथ को पकड़ लिया और उसे इतना डराया कि वह घबराकर (नकली) अहिल्या की लाश वही छोड़ वहाँ से भागा। उसके पीछे-पीछे जाकर दारोगा और जैपाल ने यह तमाशा देख लिया था। वे अहिल्या की लाश उठा ले गये और दारोगा के हुक्म से जैपाल ने हेलासिंह की मदद से उस लाश का हेसनेस किया अर्थात उसे काटकर चील-कौवों को खिला दिया जिस घटना को मालती ने देखा था।१ इसी घटना के बाद गदाधरसिंह को चिढ़ाने या डराने की नीयत से जैपाल ने अपना नाम भूतनाथ रख लिया था। भूतनाथ इसी भ्रम में पड़ा रह गया कि उसने असली अहिल्या को मार डाला और तब से अब तक वह इसी भ्रम में पड़ा हुआ है। इसीलिए वह दलीपशाह को अपना दुश्मन समझता है और इसी कारण वह इन कामेश्वर से भी घबराता है। (१. देखिए मालती का किस्सा।)

दलीप०: आपको यह सब बातें कैसे मालूम हुईं?

इन्द्र० : मुझे यह सारा किस्सा शेरसिंह ने सुनाया, जब वे एक दफे अपने मालिक राजा दिग्विजयसिंह की आज्ञा से जमानिया आये तो उन्हें पता लगा कि मालती जीती है और दारोगा की कैद में है। वे उसे छुड़ाने के लिये गए और वहाँ प्रभाकरसिंह को भी कैद पा इन्हें भी छुट्टी दी। (२. देखिए भूतनाथ दसवाँ भाग, ग्यारहवा बयान।)

प्रभाकर० : (चौंककर) हैं। क्या वे शेरसिंह थे जिन्होंने मुझे दारोगा की कैद से छुड़ाया था?

इन्द्र० : हाँ, और घटनावश वे उस समय मेरी शक्ल बने हुए थे। तुमको छुड़ाने के बाद उन्होंने जाकर मालती को भी कैद से छुट्टी दी, केवल यही नहीं बल्कि उसे लाकर लोहगढ़ी मे रखा क्योंकि वह एक ऐसी हिफाजत की जगह थी जिसका पूरा-पूरा हाल उन्हें अच्छी तरह मालूम था। (१. देखिये भूतनाथ नौवाँ, भाग पांचवाँ बयान।)

प्रभाकर० : जी हाँ, यह किस्सा मुझे मालूम है, क्योंकि मालती ही मुझे शिवदत्त के ऐयारों की कैद से छु़ड़ा लोहगढ़ी में ले गई बल्कि बहुत दिनों तक उसने मुझे वहाँ रखा भी था। पर उस समय मैं उसे पहचान न सका था, जब तिलिस्म में उसने यह हाल मुझसे कहा तब मैंने जाना। (२. देखिये मालती का किस्सा।)

इन्द्र० : केवल तुम्हीं क्यों मैं और दलीपशाह भी उस समय भ्रम में पड़ गये क्योंकि यह गुमान ही हम लोगों को कब हो सकता था कि मालती जीती होगी। शेरसिंह की जुबानी यह हाल सुनकर ही मैं होशियार हुआ और तब मुझे बहुत सी बातों का पता लगा। खैर वे बातें पीछे होंगी (अहिल्या से) पहले तू अपना हाल समाप्त कर डाल।

अहिल्या : मेरा हाल और कुछ बहुत नहीं है, शेरसिंह मुझे कई रास्तों से घुमाते-फिराते एक बाग में लाये और मुझे वहाँ यह कहकर कि बेटी तू यहीं कुछ देर तक रह, मालती अभी तक उन दुष्टों के चंगुल में पड़ी हुई है, मैं उसे भी छुड़ाकर यहीं लाता हूँ, तब तुम दोनों को एक साथ ही तुम्हारे घर पहुंचा दूंगा, वे कहीं चले गये। अकेले बैठे-बैठे मेरा जी घबराने लगा और मैं उस बाग में घूमने लगी। शेरसिंहजी मुझे मना कर गये थे कि यहाँ की किसी चीज को छूना नहीं मगर मेरी किस्मत में तो तकलीफ उठाना बदा था। मैं घूमती-फिरती उस बाग के एक कोने में पहुंची जहाँ एक चबूतरे के ऊपर एक हिरन की मूरत बनी हुई थी, मुझे देख उस हिरन ने विचित्र तरह से सींघें टेढ़ी कीं जिससे मुझे बड़ा कौतूहल हुआ और मैं नजदीक से देखने की नीयत से उस चबूतरे पर जा चढ़ी। मेरे चढ़ते ही वह चबूतरा कांपा और तब तेजी से जमीन में धंस गया कि मैं उस पर से कूदकर भाग भी न सकी। बस उसी के बाद मैं तिलिस्म की कैद में जा फंसी जहाँ बरसों तक किसी की सूरत देखने को न मिली, हाँ, जब (दयाराम की तरफ बताकर) आप और जमना, सरस्वती वहाँ पहुंची तो कुछ ढांढस हुई पर आखिर उस दिन बहिन मालती की कृपा से ही हम लोगों को छुटकारा मिला।

दयाराम : तो शेरसिंह ने फिर आकर तुम्हें ढूंढ़ा नहीं?

अहिल्या : मैं इस बारे में कुछ कह नहीं सकती।

इन्द्र ०: शेरसिंह कुछ ही देर बाद मालती को लिए हुए वहाँ पहुंचे और उन्होंने इसे बहुत ढूंढा मगर जब उन्हें विश्वास हो गया कि यह तिलिस्म में कैद हो गई तो वे लाचार हो गए क्योंकि तिलिस्म के कैदी को छुड़ाने की ताकत उनमें न थी।

दलीप० : मालती उन्हें क्योंकर और कहाँ मिली?

इन्द्र० : मालती घूमती-फिरती अजायबघर तक पहुंच गई थी जहाँ वह जैपाल और हेलासिंह के कब्जे में पड़ गई। ये दोनों उसे लोहगढ़ी में उठा ले आये पर बेहोशी की दवा कमजोर होने के कारण वह उनके कब्जे से छूट गई। १ नकली अहिल्या (जिसे अपनी समझ में उसने असली समझा था) की लाश देख वह डर गई और वहाँ से भागी जा रही थी कि शेरसिंह वहाँ जा पहुंचे जिन्हें देख उसे ढांढस हुई। उन्हीं की जुबानी उसने सुना कि जिस लाश को उसने देखा वह अहिल्या की न थी शिवदत्त की एक लौंडी की थी और असली अहिल्या एक हिफाजत की जगह में बैठी उसकी राह देख रही है। वह खुशी-खुशी उनके साथ वहाँ गई मगर अहिल्या से भेंट न हो सकी क्योंकि वह तिलिस्म में फंस गई थी। लाचार शेरसिंह केवल मालती को ही लिए तिलिस्म के बाहर निकले, मालती को तो उन्होंने उसके बाप के पास पहुंचा दिया और अहिल्या के बारे में उन्हें उसके मर जाने की खबर उड़ानी पड़ी। मगर मालती अपने घर आराम से रहने न पाई। दारोगा, हेलासिंह, शिवदत्त और गदाधरसिंह सभी को यह डर लगा हुआ था कि उनकी गुप्त कार्रवाइयों की पूरी-पूरी खबर उसे लग चुकी है, वह जब चाहे उन्हें तहस-नहस कर सकती है, अस्तु उन लोगों ने मिल-जुलकर उसे घर पर रहने न दिया, ऐन ब्याह के मौके पर वह गायब कर दी गई और लोगों में उसके बारे में तरह-तरह की झूठी-सच्ची खबरें फैलाई गईं, यहाँ तक कि दलीपशाह और कामेश्वर तक धोखे में पड़ गए। पर वास्तव में दुष्ट दारोगा ने उसे अपनी कैद में रख छोड़ा था। तब से कई वर्ष तक यह उसी की कैद में रही और अन्त में शेरसिंह ने इसे छुड़ाया जैसाकि मैंने पहले कहा, मगर दारोगा ने इस बात को भूतनाथ से इतना छिपाया कि वह अभी तक यही समझ रहा है कि अहिल्या का खून उसने ही किया और मालती भी उसी के हाथों पंचतत्व में मिल गई। भुवनमोहिनी के बारे में तो वह कसूरवार था ही, अस्तु यही सबब था कि जब (कामेश्वर की तरफ बताकर) ये प्रकट हुए और उसने इनकी बातें सुनी तो अपनी जिन्दगी से एकदम नाउम्मीद होकर बदहवास हो गया क्योंकि वह समझ गया कि ये अपनी स्त्री और बहिन के खून का बदला उससे जरूर बुरी तरह लेगें। (१. देखिए भूतनाथ दसवाँ बारहवाँ बयान।)

दया० : मुमकिन है कि उसने यह भी समझा हो कि राजा बीरेन्द्रसिंह के पास तक इस मामले की खबर जायेगी और वे उसे बहुत बुरी सजा देंगे क्योंकि रिक्तगन्थ के लिए उनके ऐयार बद्रीनाथ और रामनारायण पहले ही से उसके पीछे पड़े हुए थे और यह भी सम्भव है कि इसीलिए उसने अपने को मरा मशहूर किया हो ताकि वे लोग उसका पीछा छोड़ दें।

इन्द्र० : बहुत मुमकिन है! भूतनाथ दुनिया में अगर किसी से डरता है तो राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों से और यह बात तो वह सुन ही चुका है कि राजा बीरेन्द्रसिंह की ओर से रिक्तगन्थ के चोर को पकड़ लाने वाले को मुंहमांगा इनाम दिये जाने की मुनादी करवा दी गई है, फिर जिस समय भुवनमोहिनी वाली घटना हुई थी उस समय भी राजा बीरेन्द्रसिंह को इस मामले में भूतनाथ का हाथ होने की खबर लग चुकी थी और वे उसी समय से इसकी तरफ से केवल चौकन्ने ही नहीं हो चुके थे बल्कि इसे पूरी सजा देने की नीयत भी कर चुके थे। (कामेश्वर से) खैर, अब तुम भी अपना हाल बयान कर जाओ तब यह सभा बर्खास्त की जाय क्योंकि देर बहुत हो चुकी है।

१. नोट (भूतनाथ द्वारा) बेशक यही बात थी। मुझे मरना मशहूर करने के जो कारण पड़े उनमें कामेश्वर का प्रकट हो जाना मुख्य था। मेरे हाथ से यों तो कितने ही पाप हुए मगर उनमें दयाराम।

मुझे इस समय तक इस बात की तो कोई खबर थी ही नहीं कि मेरे सबब से मौत से भी अधिक तकलीफ उठा चुकने पर भी दयाराम, जमना और सरस्वती तथा कामेश्वर, भुवनमोहिनी, अहिल्या और मालती आदि जीते बच गये हैं। मैं इन सभी को मरा हुआ समझ रहा था और इन सभी के खून का कलंक अपने ऊपर माने हुए था। दयाराम वाले मामले की खबर जब दुनिया में फैली तो उस समय दोस्तों के समझाने में रह गया, मगर जब कामेश्वर को मैंने जीता-जागता पाया तो यह समझ लिया कि भुवनमोहिनी, अहिल्या और मालती वाला मेरा कुकृत्य भी अब छिपा न रहेगा और अब मैं न सिर्फ दुनिया में किसी को मुंह दिखाने लायक ही न रहूँगा बल्कि राजा बीरेन्द्रसिंह भी मुझे किसी तरह जीता न छोड़ेंगे और मुझे पकड़वाकर जरूर सूली दे देंगे क्योंकि भुवनमोहिनी उनकी भांजी है और अहिल्या तथा मालती भी उन्हीं के खानदान की हैं।मैंने यह सोचा कि रिक्तगन्थ की चोरी करने के कारण उनके ऐयार मेरे पीछे पड़े ही हुए थे अब कामेश्वर का हाल सुन राजा साहब और भी कड़े हुक्म लगावेंगे और मैं बेमौत मारा जाऊंगा अस्तु सब कुछ सोचकर मैंने दुनिया से गायब हो जाना ही उत्तम समझा। यद्यपि इसमें कुछ कारण और भी थे जो पाठकों को आगे चलकर मालूम होंगे।अपने प्रकट हो जाने के बाद भी इस सम्बन्ध में मैं राजा वीरेन्द्रसिंह से डरता ही रहा था और इसीलिए प्रकट होने के साथ ही रोहतासगढ़ के तहखाने में मैंने इन्हीं कसूरों की उनसे माफी चाही थी (चन्द्रकान्ता सन्तति पांचवा भाग ग्यारहवाँ बयान)। इस जगह मैं अपने दोस्त इन्द्रदेव की भी यह शिकायत कर सकता हूँ कि उन्होंने दयाराम, जमना, सरस्वती, भुवनमोहिनी, अहिल्या, मालती आदि के जीते रहते हुए भी मुझ पर यह भेद प्रकट न किया और मुझे अपने को इन सभी का खूनी समझने दिया। मगर शायद वे जवाब में यह कहें कि ‘अगर मैं ऐसा न करता तो तू कभी सुधरता भी नहीं, अपने को इतने पापों का पापी समझकर ही तेरे मन में पछतावा हुआ और तुझे अपने को सुधारने की इच्छा हुई।’ मैं इस बात को मानता हूँ।

कामे० : जो आज्ञा, परन्तु मेरा किस्सा कुछ लम्बा या विचित्र नहीं है। मुख्तसर हाल यही है कि जब (भुवनमोहिनी की तरफ दिखाकर) मेरी स्त्री मेरी समझ में सांप के काटने से मर गई और इसकी लाश गाड़ दी गई तो मैं दुनिया से एक-दम मुंह मोड़ बैठा और अपने को जीते-जी मुर्दा मानने लगा। जमानिया के बाहर जिस बाग में (मेरी समझ में) इसने अपना प्राण त्याग किया था उसी में मैं भी अपनी समाधि बनाऊंगा, यह सोच मैं रात-दिन वहीं रहकर अपना समय ग्रन्थों के पाठ और भजन-पूजन में काटने लगा। सुबह-शाम केवल घंटे-भर के लिए मैं बाहर जंगलों में घूमने के लिए घोड़े पर चढ़कर निकला करता था। एक दिन शाम के वक्त इसीलिए निकला था कि बेतरह आंधी-पानी के चक्कर में पड़ गया और कहीं आड़ की जगह तलाश करता हुआ एक झोंपड़ी में जा पहुंचा जो एक पहाड़ी की तलहटी में नाले के किनारे बड़े ही मनोरमा स्थान में बनी हुई किसी ऋषि के आश्रम की झलक दिखा रही थी। मैं उसके दरवाजे पर पहुंचा और वहाँ मैंने नन्हों को देखा।

इन्द्र० : (आश्चर्य से) नन्हों को!

कामे० : जी हाँ, आप लोग जानते ही होंगे कि नन्हों के बाप पुजारीजी से मेरा परिचय था और उनसे मैं कई बार मिल भी चुका था। अलबत्ता इधर बहुत दिनों से मेरा आना-जाना उधर नहीं हुआ था और इसीलिए मुझे इस बात की खबर न थी कि वे मारे गये हैं। मुझे इस बात की भी कुछ खबर न थी कि यह कम्बख्त नन्हों मुझे प्यार करने लगी है और इसकी वह मुहब्बत पाक नहीं है। मुख्तसर यह कि इस नन्हों ने मुझे अपने जाल में फंसा लिया।मुझसे यह कहकर कि दुश्मनों ने उसके बाप को मार डाला और खुद उसे भी मारने की फिक्र में पड़े हुए हैं, जिस कारण उसे इस तरह छिपकर यहाँ जंगल में अपने दिन बिताने पड़ रहे हैं, उसने मेरी सहानुभूति प्राप्त की। मैंने उससे कहा कि अगर चाहे तो मेरे घर में चलकर दुश्मनों से एकदम बेखौफ रह सकती है, मगर उसने वह मंजूर न किया, तब मैंने उसे रणधीरसिंह के यहाँ रखवा दिया जहाँ भी वह रह न पाई और अन्त में निकाल दी गई मगर खैर उस बात से मेरे किस्से से कोई सम्बन्ध नहीं, गरज यह कि उसी ने मुझे यह खबर दी कि मेरी स्त्री अपनी मौत से नहीं मरी बल्कि इसमें कोई गहरी कारीगरी हुई है जिसमें दारोगा साहब तथा राजा शिवदत्त का हाथ है जो गदाधरसिंह ऐयार की मदद से कोई कार्रवाई कर गुजरे हैं। इस बात को उसने कुछ इस ढंग से कहा कि भुवनमोहिनी के जीते रहने की उम्मीद हुई और साथ ही यह भी सन्देह हुआ कि वह (नन्हों) इस बारे में कुछ ज्यादा हाल जानती है मगर मुझे बताती नहीं। इसका पूरा पता लगाने के लिए मैंने उनके पास आना-जाना बढ़ा दिया और तब उसी से मुझे खबर लगी कि मेरी बहिन अहिल्या भी जिसके मरने की खबर शेरसिंह ने हम लोगों को दी थी, मरी नहीं बल्कि दारोगा या शिवदत्त की कैद में है। इसके कुछ ही दिन बाद जब वह मालती वाला मामला हुआ तो मेरा शक और भी बढ़ा और तहकीकात करने पर मुझे मालूम हुआ कि यह काम दारोगा, शिवदत्त और गदाधरसिंह का ही है, मैं इन लोगों की फिक्र में लगा और शायद कुछ कर भी डालता क्योंकि मैंने अपना शक गुलाबसिंह से कहा और उन्होंने इस मामले में मेरी मदद करने का वायदा किया पर अफसोस, गदाधरसिंह, दारोगा और शिवदत्त भी मेरी तरफ से गाफिल न थे बल्कि मुझे कब्जे में करने की फिक्र में पड़े हुए थे। शायद उन्हें पता लग गया था कि मैं उनकी करतूतों का हाल जान गया हूँ। नतीजा यह हुआ कि ऐन मौके पर जबकि नन्हों और गुलाबसिंह की मदद के कुछ कर गुजरने की उम्मीद कर रहा था, ऐयारों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया और तब से बराबर मैं कैदी ही बना रहा, अब आप लोगों की बदौलत छुट्टी मिली है।

इन्द्र० : तुम्हारे कैद से छूटने का किस्सा भी बड़ा विचित्र है जिसका पूरा हाल शायद तुम्हें मालूम नहीं है। शेरअलीखां की लड़की गौहर का इसमें हाथ है, उसकी माँ के मरने के बाद उसका दिमाग कुछ खराब हो गया और सौतेली माँ से भी खटपट होने लगी, जिससे हकीमों की राय से शेरअली ने उसे घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता दे दी। किसी तरह जगह-जगह की खाक छानती हुई यह राजा शिवदत्त के पास जा पहुंची और कुछ दिन वहाँ रही। वहीं शिवदत्त की जुबानी उसे मालूम शिवदत्त ने कामेश्वर को इसलिए अपने पास रख छोड़ा था कि वह समझता था कि इनके कब्जे में उस तिलिस्म की ताली है पर पीछे उसे मालूम हुआ कि उसकी ताली जमानिया की महारानी ने भूतनाथ को दे दी....

यह खबर सुन भूतनाथ से ताली लेने की फिक्र में शिवदत्त लगा मगर कुछ कर न सका था, इस गौहर ने वह काम पूरा करने का बीड़ा उठाया और इसके लिए कुछ ऐयार और ऐयारा लेकर वह निकली, भूतनाथ का आना-जाना नागर और मनोरमा के यहाँ बहुत होता है ऐसा सुन वह उनसे मिली तथा रामदेई और नन्हों से भी मिली। बात-ही-बात में नन्हों से उसने सुना कि वह इन कामेश्वर पर आशिक थी और इनके मर जाने से दुनिया छोड़ बैठी है। गौहर को यह बात मालूम थी कि ये मरे नहीं, जीते और शिवदत्त की कैद में हैं और साथ ही उसने यह भी सुन रखा था कि नन्हों को भूतनाथ के कई गुप्त भेद मालूम हैं, जिनकी बदौलत उस पर कब्जा किया जा सकता है, अस्तु भूतनाथ पर काबू कर शिवगढ़ी की ताली उससे लेने की नीयत से उसने नन्हों को मिलाना उचित समझा।उसने उससे कहा कि अगर वह (नन्हों) उसकी (गौहर की) मदद एक काम में करने की प्रतिज्ञा करे तो वह कामेश्वर को जीता-जागता उसे दिखला सकती है। नन्हों को पहले तो इस बात पर विश्वास न हुआ कि ये जीते हैं मगर जब उसने जाना कि नहीं ये सचमुच मरे नहीं है और राजा शिवदत्त की कैद में हैं तो वह इनको पाने के लिए सब कुछ करने को तैयार हो गई। भूतनाथ के सब भेद जो उसे मालूम थे उसने गौहर को बता दिए और कई अद्भुत और डरावनी चीजें भी इसे दीं और बदले में गौहर ने इन कामेश्वर को शिवदत्त की कैद से छुट्टी दिला दी, उसके आदमी इन्हें बेगम के यहाँ पहुंचा गये। पर भाग्यवश उसी रोज भूतनाथ का एक शागिर्द न-जाने किस काम से वहाँ जा पहुंचा जो इन्हें निकालकर लामा घाटी में ले गया। इनके एक दोस्त ने लामा घाटी से इन्हें छुट्टी दी और इनकी जगह किसी दूसरे को इनकी सूरत बना वहाँ छोड़ आया।

प्रभाकर० : वह कौन दोस्त था?

इन्द्र० : मैं अभी बताता हूँ, पहले इनका किस्सा खत्म हो जाने दो। बेगम और नन्हों के आदमी खोजते हुए लामा घाटी पहुंचे और वहाँ से इनके बदले इनकी सूरत वाले उस दूसरे आदमी को ले भागे मगर भूतनाथ के आदमियों ने देख लिया और लड़ाई हो पड़ी।जिसमें कई आदमियों के साथ-साथ वह आदमी भी मारा गया जो इनकी सूरत बना हुआ था, लाचार नन्हों के आदमी उसकी लाश ही को उठा ले गये और नन्हों इन्हें पाकर भी न पा सकी, इससे उसका क्रोध भूतनाथ पर और भी बढ़ा और उसने उसका नाश करने में कोई कसर न छोडी।

शिवगढ़ी की ताली की खोज में केवल शिवदत्त ही नहीं था बल्कि रोहतासगढ़ का राजा दिग्विजयसिंह भी था और इस काम के लिए उसने कई आदमियों के साथ शेरसिंह को लगा रखा था।

शेरसिंह को यह तो मालूम था कि शिवगढ़ी की ताली भूतनाथ के पास है पर वे उससे मांगना न चाहते थे और न उन्हें यही उम्मीद थी कि वह उनके मांगने से देगा। अस्तु वह दूसरी तरह से उसे दस्तयाब करने की कोशिश में लगे थे। अपना मतलब साधने के लिए वे भी इन्हीं-मनोरमा, नन्हों और गौहर से मिले और तब इन्हें (कामेश्वर को) छुट्टी दिलाई क्योंकि उन्हें यह शक हुआ कि अगर भूतनाथ इन्हें पहचान लेगा तो बिना जान से मारे न छोड़ेगा, इस सिलसिले में उन्हें मालूम हुआ कि नन्हों गोपालसिंह को भुलावा दे उनसे कोई तिलिस्मी किताब ले आई है अस्तु उन्होंने इन सभी को ही गहरा धोखा दिया और गौहर, मुन्दर और नन्हों को झांसा दे वह किताब अपने कब्जे में कर ली। (१. देखिए सत्नहवाँ भाग छठा तथा आठवा बयान। रामचन्द्र के नाम से जिस आदमी का जिक्र हम कर आये हैं वह यही शेर सिंह थे और इन्हीं के हाथ में नन्हों ने वह तिलिस्मी किताब दी थी। श्यामसुन्दर वगैरह वे सब रोहतासगढ़ ही के ऐयार थे जिन्होंने नन्हों मुन्दर और गौहर की मदद से भूतनाथ को वह नाटक दिखाया था जिसका जिक्र सोलहवें भाग के आठवें बयान में आया है।)

प्रभा० : मुन्दर का साथ इन सभी के साथ कैसे हो गया?

इन्द्र० : मुन्दर के बाप हेलासिंह से भूतनाथ पचास हजार रुपया और लोहगढ़ी की ताली मांग रहा था और न देने पर लक्ष्मीदेवी वाले मामले और गुप्त कमेटी में उसके शामिल होने का भंडाफोड़ कर देने की धमकी दे रहा था इसीलिए मुन्दर भूतनाथ को मार डालने या उस पर काबू करने की फिक्र में पड़ गई थी और इस तरह पर इन तीनों कम्बख्तों का साथ हुआ था।

प्रभाकर० : शेरसिंह ने गोपालसिंह वाली तिलिस्मी किताब क्यों ली और अब वह कहाँ है?

इन्द्र० : शेरसिंह राजा दिग्विजयसिंह के यहाँ नौकर थे और वह नन्हों भी दिग्विजयसिंह के पास थी जहाँ यह न-जाने कैसे घूमती-फिरती पहुंच गई थी।नन्हों को भी दिग्विजयसिंह ने शिवगढी़ की ताली लाने और जरूरत पड़े तो इस काम में शेरसिंह की मदद करने को कहा था मगर इन्हें उसकी मदद लेना मंजूर न था अस्तु ये भेष बदलकर उससे मिले और धोखा देकर उससे किताब ले ली। वह किताब अब भी उन्हीं के पास है।

प्रभा० : यह सब हाल भी शेरसिंह की ही जुबानी आपको मालूम हुआ होगा?

इन्द्र० : हाँ, और इस सिलसिले में उनकी भी जान बाल-बाल बची। जिस समय वे नन्हों, मुन्दर और गौहर से बातें कर रहे थे उसी समय भूतनाथ वहाँ जा पहुंचा और उसने बम का गोला फेंक उन सभी को उड़ा देना चाहा मगर शेरसिंह सम्भल गये। एक तिलिस्मी रास्ते से वे तो बाहर निकल गये मगर नन्हों मुन्दर और गौहर वहाँ फंसी ही रह गईं जिसका नतीजा यह हुआ कि लोहगढ़ी के साथ-साथ वे सब तीनों भी उड़ गईं और यह भी अच्छा ही हुआ नहीं तो वे सब शैतान अगर जीती रहतीं तो न-जाने क्या आफत बर्पा करतीं और उनकी बदौलत हम लोगों और राजा गोपालसिंह को भी न-जाने किन-किन मुसीबतों में पड़ना पड़ता। भूतनाथ ने उनका नाश कर सिर्फ अपने ही सिर का जंजाल नहीं उतारा बल्कि हम लोगों के सिर पर से भी बड़ा भारी बोझ दूर कर दिया, अगर मुन्दर जीती रहती तो आज मैं यहाँ बेफिक्री से बैठा आप लोगों से बातें न करता बल्कि इस समय गोपालसिंह के पास होता जो शादी के जश्न मना रहे होंगे।

प्रभाकर० : मगर लोहगढ़ी उड़ाकर भी जब भूतनाथ बच गया तो क्या यह संभव नहीं है कि वे तीनों भी जीती रह गई हों!

इन्द्र० : नहीं, यह मुमकिन नहीं, लोहगढ़ी के अन्दर से निकलने वाली लाशें इसकी गवाह हैं। वे तीनों अवश्य ही जान से मारी गईं।

‘‘नहीं, तुम्हारा ख्याल गलत है!’’

यह भारी और डरावनी आवाज यकायक चारों तरफ गूंज गई और सब लोग चौंककर इधर-उधर देखने लगे, कहीं कोई दिखाई न दिया और इन्द्रदेव ने ताज्जुब के साथ पूछा। ‘‘यह कौन बोला?’’

‘‘मैं!’’

यह आवाज और भी पास से आई थी और इसके बाद ही एक पटाखे की-सी आवाज हुई जिसके साथ-ही-साथ बहुत-सा धुंआ चारो तरफ फैल गया, थोड़ी ही देर में यह धुआं हल्का होकर उड़ गया और तब सभी ने तिलिस्मी शैतान को वहाँ खड़े पाया जिसने अपनी गूंजने वाली आवाज में कहा, ‘‘इन्द्रदेव, तुम धोखे में पड़ गये। वह सब कार्रवाई दारोगा की थी जिसने भूतनाथ को चंग पर चढ़ा अपने और कई कैदियों के साथ-साथ मालती और प्रभाकरसिंह को भी साफ कर डालने की नियत से लोहगढ़ी उड़वा दी मगर मुन्दर, गौहर और नन्हों को बचा ले गया, मुन्दर की शादी गोपालसिंह से हो गई बलभद्रसिंह ने जान से हाथ धोया और लक्ष्मीदेवी दारोगा की कैद में है, हो! हो!! हो!!! तुम अपने को बहुत ही चालाक लगाते हो पर समझ रखो कि हम लोगों के आगे तुम बिल्कुल नादान बच्चे हो!’’

सब लोग यह बात सुनते ही चौंक पड़े, खासकर इन्द्रदेव तो एकदम ही घबरा गये और चिल्लाकर बोले, ‘‘हैं! क्या यह बात सही है!!’’ मगर उनकी बात का कोई जवाब नहीं मिला। तिलिस्मी शैतान गायब हो चुका था।

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