मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 7 भूतनाथ - खण्ड 7देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण
आठवाँ बयान
प्रभाकरसिंह वह दरवाजा खोलते ही चौंक गए क्योंकि उन्होंने तिलिस्मी शैतान को अपने सामने खड़ा पाया।
मगर नहीं, तुरन्त ही उन्हें मालूम हो गया कि यह केवल उनका भ्रम था। वह तिलिस्मी शैतान नहीं बल्कि ठीक उसी शक्ल का हड्डियों का एक ढांचा था जो उस कोठरी की सामने वाली दीवार के साथ, एक खूंटी के सहारे, कुछ ऊंचे पर टंगा हुआ था। वे उसके पास गये और बड़े गौर से उस ढांचे को देखने लगे क्योंकि अब से पहले कई बार तिलिस्मी शैतान को देख उन्हें बहुत कौतूहल हो चुका था कि यह क्या बला है और किस तरह अपना आश्चर्यजनक काम करता है। दीवार पर उस ढांचे के बगल ही में, एक तांबे की तख्ती लगी हुई थी जिस पर उनकी निगाह गई, उस पर कुछ लिखा हुआ देख वे पढ़ने लगे। तख्ती का मजमून यह था–
‘‘घबराओ नहीं, ये ढांचे हड्डियों के नहीं हैं बल्कि तरह-तरह के मसालों को जमा कर तिलिस्मी कारीगरी का नमूना बनाया गया है। इनको आदमी अगर अबा या पोशाक की तरह अपने बदन पर पहन ले तो ये उसके बदन को इस तरह ढक लेंगे कि उसका कोई हिस्सा न दिखेगा और वह इनकी आड़ में तरह-तरह के डरावने करतब दिखा सकेगा। इन ढांचों में कई तरह की सिफ्त है। एक तो यह कि ये बहुत ही मजबूत जिरह बख्तर का काम करते हैं, अर्थात इनके पहनने वाले पर चाहे जो भी हो हथियार चलाया जाय पर कोई असर न होगा, दूसरे अगर इनको पहनने वाला भीतर से इनके साथ कोई लोहा छुआ दे तो इनमें से आग का फब्बारा निकलने लगेगा और तीसरे अगर इनके साथ कोई तिलिस्मी हथियार छुला दिया जाय तो ये मनुष्यों की दृष्टि से लोप हो जाएंगे और तब जो आदमी इन्हें पहने रहेंगें उन पर किसी की भी निगाह न पड़ सकेगी।
‘‘इन ढांचों के अलावा इसी तरह के और बहुत से आदमियों और जानवरों के ढांचे तुम्हें उस कोठरी में मिलेंगे जो इस तिलिस्म में आने की राह में पड़ती है या जहाँ से होते हुए तुम तिलिस्म के बाहर निकलोगे। तिलिस्मी कारीगरी का नमूना दिखाकर लोगों को डराने और ताज्जुब में डालने के लिए ही ये चीजें खिलवाड़ की तौर पर तुम्हारे लिए रखी गई हैं।’’
बस इतना ही उस तख्ती का मजमून था और इसे पढ़ प्रभाकरसिंह बड़े ही विस्मित हुए। कुछ देर तक तिलिस्म बनाने वालों की कारीगरी और अक्ल की तारीफ करने के बाद वे पुनः ढांचे को गौर से देखने लगे। उन्होंने देखा कि मोटे गद्दीदार कपड़े पर बहुत ही बारीक तारों से ठीक हड्डियों की तरह दिखने वाले ये मसाले के टुकड़े इस कारीगरी के साथ लगाये गए थे कि इसे बहुत ही आसानी के साथ जिरह बख्तर की तरह बदन पर पहना जा सके। उन्होंने उसे पहना और तब दरवाजे के ऊपर लगे हुए एक शीशे में देखा कि अब उनकी शक्ल ठीक उस तिलिस्मी शैतान के जैसी हो गई। उन्होंने उसकी दूसरी तारीफों की भी जांच की और उन्हें ठीक वैसे ही पाया जैसाकि उस तख्ती में लिखा था या जैसाकि उस तिलिस्मी शैतान को करते कई बार देख चुके थे। अगर कोई कसर थी तो सिर्फ इतनी ही कि वह टूटी हुई तलवार और ढाल इस समय उनके हाथ में न थी।
तिलिस्म बनाने वाले कारीगरों की अक्ल की तारीफ करते हुए उन्होंने यह पोशाक उतारकर फिर खूंटी पर टांग दी मगर अब उन्हें एक-दूसरे तरद्दुद ने आ घेरा। वे सोचने लगे कि वह जरूर कोई आदमी ही होगा जो इस तिलिस्मी शैतान के रूप में कई बार उनसे मिलकर उन्हें जक पहुंचा चुका है। वह कौन आदमी होगा और इस तिलिस्म के अन्दर उसका आना किस तरह मुमकिन हुआ इस पर देर तक गौर करते रहने पर भी उनकी समझ में कुछ न आया, हाँ, उनका ध्यान इस बात पर जरूर गया कि उस तख्ती का मजमून या उस ढांचे के बगल की खाली जगह साफ बता रही थी कि इस जगह इस तरह के दो ढांचे रहे होंगे जिनमें से एक उनके और एक शायद मालती के लिए रहा होगा, मगर अब यहाँ एक ही नजर आ रहा है! तब दूसरा कहाँ गया? जरूर उनके किसी दुश्मन के हाथ पड़ गया और उसी की मदद से वह सब कार्रवाई कर रहा है।
‘‘आखिर कभी-न-कभी पता लगेगा ही कि वह कौन था!’’ कहते हुए प्रभाकरसिंह वहाँ से हटे। उस कोठरी की बाईं दीवार में एक दरवाजा और था जो मामूली तौर पर बन्द था और वे उसे खोल उसके अन्दर चले गये। यह एक बहुत ही बड़ा कमरा था और मालूम होता है कि इसके अन्दर कुछ और भी ताज्जुब की चीजें प्रभाकरसिंह को दिखलाई पड़ीं क्योंकि जब काफी देर के बाद वे इसके बाहर निकले तो आश्चर्य के साथ उनके मुंह से निकला, ‘‘ओफ, वे मनुष्य नहीं, देवता थे जो इस तरह की कारीगरी की चीजें बना सकते थे। क्या कोई कह सकता है कि वे जीते-जागते मनुष्य और पशु नहीं बल्कि केवल कुछ तिलिस्मी खिलौने थे जिनके करतब देखता हुआ मैं चला आ रहा हूँ!’’
प्रभाकरसिंह फिर उसी बड़े कमरे में आए जिसमें कि जेवरों और जवाहरातों से भरे सन्दूक उन्हें दिखाई पड़े थे। इस कमरे के चारों कोनों से सोने के चार सिंहासन रखे हुए थे जिनमें से एक पर वे बैठ गए और उसकी पीठ (अड़ानी) में लगे हुए किसी खटके की बात को खास तरकीब के साथ दबाया। उसके साथ ही वह सिंहासन हिला और जमीन के अन्दर धंस गया।
प्रभाकरसिंह नहीं कह सकते कि उस जगह से कितना नीचे वह सिंहासन चला गया मगर इसमें कोई शक नहीं कि काफी गहराई तक चला गया होगा, क्योंकि उस जगह की हवा बन्द और दम घोंटने वाली थी जहाँ पहुंचकर वह रुका और तब फिर एक झटके के साथ एक तरफ को चलने लगा। गन्दी हवा के असर से प्रभाकरसिंह बदहवास हो गए और इसलिए वे कुछ भी न समझ सके कि वह सिंहासन उन्हें लिए किधर को जा रहा है मगर जब उन्हें होश आया तो उन्होंने अपने को एक ऐसी जगह में पाया जिसे वे पहले भी एक बार देख चुके थे।
एक लम्बी-चौड़ी कोठरी, जिसकी जमीन पर तरह-तरह की हड्डियां पड़ी हुई थीं, और चारों तरफ के भयानक मनुष्यों और पशुओं के उन कंकालों से बहुत डरावनी लग रही थी। जो दीवार के साथ खड़े किए हुए थे। बीचोबीच में एक कुएं की तरह गहरा स्थान था जिस पर एक देग मोटी जंजीर के सहारे लटक रहा था और जिसे देखते ही हमारे पाठक पहचान जाएंगे क्योंकि यह वही स्थान है जहाँ तिलिस्मी शैतान प्रभाकरसिंह और मालती को तिलिस्म से पकड़ने के बाद लाया था१ और इसी देग में रखकर उसने उन दोनों को कुएं में लटकाया था, मगर कुछ फर्क था तो यही कि उस दिन की तरह आज इस कुंए से आग की लपट या धुआं न निकल रहा था बल्कि बहुत-सी राख चारों तरफ फैली हुई थी। प्रभाकरसिंह ने भी देखते ही इस स्थान को पहचान लिया और उनके मुंह से निकला-‘‘मालूम होता है कि यह देग ही मुझे उस शेरों वाले कमरे तक पहुंचायेगा और हड्डी के ढांचों के बारे में उस पट्टी पर लिखा था कि ये भी उस तिलिस्मी ढांचे-सा ही गुण रखते हैं।’’ (१. देखिए-भूतनाथ चौदहवें भाग का बयान।)
प्रभाकरसिंह ने उन ढांचों के पास जाकर उन्हें गौर से देखा। दीवार के साथ-साथ पचासों ही तरह के जानवरों, आदमियों और पक्षियों के ढांचे सजाये हुए थे मगर गौर से देखने से सबमें वही बात मालूम हुई अर्थात सभी मोटे काले कपड़े पर इस तरह से मसाला जमाकर बनाये गए थे कि इन्सान इन्हें सहज ही में अपने ऊपर लगाकर काम कर सकता था। दो-चार ढांचों को देखकर प्रभाकरसिंह वहाँ से हट आए और उस बीच वाले देग के पास पहुंचे जो जंजीर के सहारे कुएं के बीचोबीच में लटक रहा था। कुछ देर खड़े सोचते रहे तब कोशिश कर उसके अन्दर जा बैठे, इसके बाद उन्होंने कोई तरकीब ऐसी की कि जिसके साथ ही वह देग ऊंचा होने लगा और देखते-देखते छत के साथ जा लगा। इस कोठरी की छत के बीचोबीच एक छेद था जिसकी राह उस देग ने इन्हें ऊपर की मंजिल तक पहुंचा दिया और वहाँ प्रभाकरसिंह उस पर से उतर पड़े। एक छोटी कोठरी मिली जिसमें अंधेरा था पर प्रभाकरसिंह अन्दाज से टटोलते हुए उसके दरवाजे के पास जा पहुंचे जिसे खोलते ही उसके मुंह से एक प्रसन्नता की आवाज निकल पड़ी क्योंकि उन्होंने अपने सामने इन्दुमति को खड़े पाया, वे उसे देखते ही उसकी तरफ झपटे और इन्दु तो उनकी तरफ इस तरह दौड़ी जैसे कोई प्यासा पौसरे की तरफ लपकता है। बेतहाशा उनके पैरों पर गिर वह जोर-जोर से आँसू बहाने लगी मगर प्रभाकरसिंह ने जबरदस्ती उसे उठा हृदय से लगा लिया और प्रेम से साथ कहा, ‘‘इन्दे! आह, आज कितने जमाने के बाद तुझे देख रहा हूँ!’’’
इन्दुमति ने प्रेम-भरी चितवन से इन्हें देखते हुए सकुचाहट के साथ कहा, ‘‘क्या इस बीच में दासी की याद भी कभी आपको आई थी?’’ प्रभाकरसिंह आश्चर्य से बोले, ‘‘क्या इसमें भी तुम्हें सन्देह हो सकता है! क्या मैं जिन्दगी रहते कभी, तुम्हें भूल सकता हूँ!’’
इन्दु ने मुस्कराकर कहा, ‘‘मगर मैंने तो सुना कि आपने तिलिस्म ही में किसी से शादी कर ली और उसके साथ रंगरेलियां मना रहे हैं!’’
प्रभाकरसिंह का चेहरा उदास हो गया। उन्होंने एक ठण्डी सांस लेकर कहा, ‘‘की तो नहीं, मगर मुझे आशा थी कि बाहर निकलने पर जरूर कर सकूंगा लेकिन अफसोस, वह आशा निराशा में बदल गई और मुझे केवल परेशानी और दुःख ही हाथ लगा क्योंकि उसका ब्याह किसी और के साथ हो गया!’’
इन्दु० : (कौतूहल से) यह कैसी बात? क्या मैं जान सकती हूँ कि वह कौन भाग्यवान है जिसके साथ आप शादी करना चाहते थे और ऐसी क्या बात हो गई जिससे शादी न हो पाई?
प्रभाकर० : वह मालती थी, कौन मालती समझी! वही तुम्हारी चचेरी बहिन जिसके साथ मेरी शादी पहले तय हुई थी मगर जो ऐन ब्याह के मौके पर, जब मैं बारात लेकर पहुंचा-घर से गायब पाई गई और तब तुम्हारे साथ मेरी शादी की गई।
इन्दु० :( आश्चर्य के भाव से) है! तो क्या मेरी वह बहिन अभी तक जीती है! हम लोग तो समझ रहे थे कि दुश्मनों की करतूत से वह मारी गई!
प्रभाकर० : नहीं, वह जीती थी। इस तिलिस्म के तोड़ने के काम में उसने बराबर मेरा साथ दिया बल्कि कई मौके पर उसी के सबब से मेरी जान बची।
इन्दु० : तब वह कहाँ चली गई?
प्रभाकर० : अब यह सब हाल फुरसत के समय सुनना ही ठीक होगा! इस समय मैं थका-मांदा और परेशान चला आ रहा हूँ और कहीं बैठकर आराम करूंगा। तुम फकत यह बता दो कि इस समय तुम यहाँ पर जो तिलिस्म का ही एक हिस्सा है, क्योंकर आ पहुंची और इतने समय के बीच तुम पर क्या-क्या बीती?
इन्दु० : केवल मैं ही नहीं, बल्कि बहुत-से लोग आपको तिलिस्म तोड़ राजी-खुशी बाहर निकल आने पर बधाई देने के लिए यहाँ मौजूद हैं और आपकी राह बेचैनी के साथ देख रहे हैं, रहा मेरा किस्सा, तो सभी के साथ आप सुनियेगा ही। मुख्तसर में इतना ही जान लीजिए कि किस तरह-तरह की मुसीबतें उठाकर भी मैं अभी तक जीती हूँ और इस समय आपको सही-सलामत पाकर अपने जैसा भाग्यवान किसी को नहीं समझती! अब आप यहाँ देर न कीजिए और मेरे साथ आइए। कैसे-कैसे लोग आपकी राह देख रहे हैं!
जिस जगह ये दोनों खड़े थे वह एक सुन्दर दालान था जिसके सामने एक बाग नजर आ रहा था और दोनों तरफ दाहिने और बाएं, कई दरवाजे दिखाई पड़ रहे थे। इन्दुमति ने इनमें से एक दरवाजा जो मामूली ढंग से बन्द था। खोला और प्रभाकरसिंह को लिए कई कोठरियों में से होती और दरवाजों को खोलती-बन्द करती एक बहुत बड़े कमरे में पहुंची। यह वही कमरा था जिसमें आज से पहले कई दफे हमारे पाठक आ चुके हैं, जो लोहगढ़ी के तिलिस्म में जाने का पहला रास्ता था और जिसे हम शेरों वाले कमरे के नाम से पुकारते आये हैं। इस समय इस कमरे में साफ-सुन्दर फर्श बिछा हुआ था और उस पर कई आदमी, औरत और मर्द बैठे हुए थे जो प्रभाकरसिंह को इन्दु के साथ आते देखते ही खुशी में भरकर उठ खड़े हुए और उनकी तरफ बढे। सबसे पहले जिन पर प्रभाकरसिंह की निगाह पड़ी वे दयाराम थे जिन्होंने झपटकर इन्हें गले से लगा लिया और खुशी से भर्राये हुए कण्ठ से कहा, ‘‘मैं नहीं कह सकता कि आपको राजी-खुशी तिलिस्म तोड़ने पर मुबारकबाद दूँ या अपने और इन इतने अन्य दोस्तों को उस भयानक तिलिस्म से छु़ड़ाने के लिए धन्यवाद!’’
प्रभाकरसिंह मुस्कराते हुए बोले, ‘‘आप इन दोनों में से कुछ भी न करके मुझे सिर्फ इतना बता दीजिए कि क्या मैं उन जमना, सरस्वती और भुवनमोहिनी के पीछे खड़े अपने लंगोटिया दोस्त कामेश्वर को देख रहा हूँ? नहीं-नहीं, यद्यपि ये बिल्कुल ही दुबले-पतले और बरसों के मरीज मालूम हो रहे हैं फिर भी मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं और मैं कह सकता हूँ कि ये जरूर वे ही हैं!’’
दयाराम बोले, ‘‘जी हाँ, ये कामेश्वर ही हैं और इनके पीछे इनकी बहिन अहिल्या है।’’
प्रभाकरसिंह ने झपटकर कामेश्वर को गले से लगा लिया और दोनों मित्रों की आंखों से प्रेमाश्रु बहने लगे। प्रभाकरसिंह रुंधे हुए गले से बोले, ‘‘ओह, क्या मुझे स्वप्न में भी विश्वास हो सकता था कि आपको जीता जागता देखूँगा जिनकी मौत की खबर इतनी सच्चाई के साथ उड़ाई गई थी! मगर क्या आप भी इसी तिलिस्म में बन्द थे?’’
कामेश्वर : जी नहीं, मैं चुनार के राजा शिवदत्त की कैद में था जहाँ से एक विचित्र रीति से मेरा छुटकारा हुआ। मगर मेरी स्त्री और यह बहिन अहिल्या जरूर इसी लोहगढ़ी में कैद थीं जहाँ से आपकी और मालती रानी की कृपा से उन्हें छुटकारा मिला।
प्रभाकरसिंह जमना, सरस्वती, भुवनमोहिनी और अहिल्या से भी मिले और इसके बाद सब कोई फर्श की तरफ बढ़े मगर उसी समय दयाराम चिल्लाकर बोल उठे, ‘‘वाह वाह, लीजिए चाचाजी भी आ पहुंचे क्या अच्छे मौके पर आए हैं! और उनके साथ दलीपशाह भी हैं।’’
सभी की निगाह बाहर की तरफ चली गई और सभी ने प्रसन्नता के साथ देखा कि इन्द्रदेव दलीपशाह के साथ चले आ रहे हैं।
।। बीसवाँ भाग समाप्त ।।
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