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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

।। सत्रहवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

अपने दोनों साथियों-श्यामसुन्दर और गोपाल से बिदा होकर वह औरत घाट की सीढ़ियाँ चढ़ उन तंग और बदबूदार गलियों में घुसी जिनके लिए काशी बदनाम है।

कितने ही अंधेरे रास्तों को पार करती हुई वह शीघ्र ही एक ऐसे महल्ले में जा पहुँची जहाँ के ज्यादातर मकान यद्यपि संगीन और तिमंजिले-चौमंजिले थे फिर भी गलियाँ उसी तरह की और अँधेरी थीं जैसी कि अब तक मिलती आई थीं, यद्यपि सुबह का समय हो रहा था और इस सबब से गंगास्नान के लिए जाने वाले औरत-मर्दों की गिनती बढ़ने लगी थी फिर भी अन्त में जिस गली में पहुँच एक संगीन मकान के सामने वह औरत रुकी, उस जगह कोई भी चलता-फिरता नजर नहीं आ रहा था और सन्नाटा ऐसा था कि किसी नए आने वाले को यही मालूम होता कि इन मकानों में किसी का रहना होता ही नहीं है, मगर वास्तव में यह बात नहीं है और इन मकानों में रहने वाले गिनती में भी किसी तरह कम नहीं हैं लेकिन अगर कुछ फर्क है तो सिर्फ इतना ही कि यहाँ के ज्यादातर बाशिन्दे उन लोगों में से हैं जिन्हें दिन के सूर्य की जगमगाती रोशनी के बजाय रात की अँधेरी ही ज्यादा प्यारी होती है।

जिस मकान के सामने वह आकर रुकी उसका दरवाजा छोटा मगर बहुत ही मजबूत बना हुआ था। औरत कुछ देर तक तो चुपचाप खड़ी कुछ सोचती या शायद आहट लेती रही। इसके बाद बहुत धीरे से उसने लोहे का मोटा कुण्डा सिर्फ एक दफे खटखटाया।

धीमी आवाज मुश्किल से खतम हुई होगी कि ऊपर के मंजिल की एक खिड़की आहिस्ते से खुली और किसी ने सिर निकालकर नीचे की तरफ झाँका। सिर्फ एक औरत को खड़ा पा देखने वाले ने पूछा, ‘‘कौन है?’’ औरत ने जवाब दिया। ‘‘रामधनी।’’ ‘‘अच्छा’’ कहकर पूछने वाले ने सिर भीतर कर लिया और खिड़की पुनः बन्द हो गई।

थोड़ी देर बाद दरवाजे के भारी कोंढ़े और बेंवड़े के हटने की आवाज आई और दरवाजा जरा-सा खुला। किसी ने भीतर से पूछा, ‘‘पहिचान बताओ।’’ इस औरत ने जवाब दिया, ‘‘कामेश्वर!’’

मालूम होता है कि जो इशारा इस औरत ने बताया उसके सुनने के लिए पूछने वाला तैयार न था क्योंकि ‘कामेश्वर’ शब्द सुनने के साथ ही उसके मुँह से एक आश्चर्य की आवाज निकल गई जिसे उसने तुरन्त ही दबाया और साथ ही कहा, ‘‘अरे तुम, अच्छा जल्दी भीतर आ जाओ!’’ आने वाले को भीतर कर दरावाजा तुरन्त ही बन्द कर लिया गया जिससे उस जगह घोर अंधकार छा गया क्योंकि वहाँ किसी तरह की रोशनी न थी, पर सामने का दालान पार कर बाद में पड़ने वाले चौक (आँगन) में सुबह का पहिला चाँदना कुछ-कुछ झलक मारने लगा था।आगे-आगे दरवाजा खोलने वाली (क्योंकि वह भी औरत ही थी) और पीछे-पीछे उसका इशारा पाकर बढ़ती हुई यह नई आने वाली चल कर उस चौक में पहुँची और वहाँ पर एक ने दूसरे की शक्ल अच्छी तरह देखी। आने वाली के मुँह से निकला, ‘‘बेगम!’’ दरवाजा खोलने वाली के मुँह से निकला, ‘‘नन्हों’’—और दोनों एक दूसरे के गले से लिपट गईं।

बहुत दिनों के बिछुड़े हुए प्रेमियों की तरह ये दोनों बहुत देर तक एक-दूसरे से चिमटी रहीं और जब अलग हुईं तब भी एक ने दूसरे का हाथ न छोड़ा। आँगन के दक्खिन तरफ के एक बड़े दालान में चौकी के ऊपर साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था जिस पर एक-दूसरे का हाथ पकड़े दोनों जाकर बैठ गईं और आपुस में बातें करने लगीं।

हमारे पाठक इस बेगम को आज के पहिले कई दफे देख चुके हैं और उसे अच्छी तरह पहिचानते हैं पर नन्हों को इसके पहिले देखने का शायद उन्हें कोई मौका नहीं पड़ा है, फिर भी चन्द्रकान्ता सन्तति में इसका नाम कई दफे आ चुका है और प्रेमी पाठक इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इसका भी भूतनाथ की जिन्दगी से किसी तरह का बहुत ही गहरा ताल्लुक था, इसलिए हम इस जगह इसका नखसिख कुछ खुलासे तौर पर बयान करके तभी आगे बढ़ेंगे क्योंकि सम्भव है कि आगे भी कई दफे इसको देखने का पाठकों को मौका पड़े क्योंकि भूतनाथ की जिन्दगी को चौपट करने वालियों में से यह भी एक ऐसी औरत थी जिसने उसको जीते जी मुर्दे से बदतर बनाकर छोड़ दिया था।

नन्हों की उम्र वास्तव में पचीस बरस से कुछ ऊपर ही होगी पर इसका नखशिख कुछ ऐसा था तथा काठी भी ऐसी अच्छी विधाता ने दे रक्खी थी कि खूब गौर से देखने वाला भी इसे किसी तरह पन्द्रह-सोलह बरस से ऊपर की नहीं बता सकता था। इसका रंग साफ गोरा, चेहरा गोल और बड़ा ही नमकीन, आँखें कटीली, मगर नाक के दोनों बगल कुछ ज्यादा हटी हुई, और होंठ लाल, यद्यपि कुछ मोटे थे। इसके गालों पर कुदरती गुलाबी रंग ऐसा सुन्दर मालूम होता था कि देखने वाले का मन बेतहाशा हाथ से निकल जाता था। ठुड्डी यद्यपि कुछ चिपटी और चौड़ी थी जो इसके जिद्दी स्वभाव का परिचय देती थी फिर भी बुरी नहीं मालूम होती थी। कद नाटा, शरीर भरा हुआ, और हाथ-पाँव मुलायम तथा सुडौल थे।गरज की सरसरी निगाह से देखने में यकायक यही मालूम होता था कि मानों इन्द्रलोक की कोई परी संसार में उतर आई है, पर इस औरत का दिल गजब का काला था।और यह एक ऐसी जहरीली नागिन थी कि जिसके काटे का कोई इलाज ही नहीं था। इस समय यह मामूली पोशाक में थी पर यदि कीमती और सुन्दर कपड़े पहिरे रहे तो इसमें कोई शक नहीं कि बड़े-बड़े ऋषियों और मुनियों का भी मन इसे देखते ही हाथ से निकल जाये।

बेगम ने नन्हों से पूछा, ‘‘तुमको यकायक यहाँ देख मुझे आश्चर्य होता है और मैं यह पूछते डरती हूँ कि मेरी चीठी लेकर जो आदमी गया था वह तुमसे मिला या नहीं!’’

नन्हों : मैं इसी तरफ आ रही थी इससे शहर के बाहर होते ही उसकी मुलाकात मुझसे हो गई। मैंने तुम्हारी चीठी का मजमून पढ़ा और उसी समय अपने दो आदमियों के साथ दोनों ऐयारों को उधर रवाना कर दिया जिधर का तुमने इशारा किया था।

बेगम : अर्थात् लामाघाटी की तरफ?

नन्हों० : हाँ, तुम्हारे दोनों खयाल ठीक थे यानी भूतनाथ के ही आदमी उसको ले भागे थे और उसे लेकर लामाघाटी ही की तरफ गए भी थे।

बेगम : मेरे मन में यही शक बैठा कि हो न हो यह भूतनाथ का काम है और मैंने सोचा कि उसका सबसे गुप्त और मजबूत अड्डा लामाघाटी ही हो जो यहाँ से भी पास पड़ता है, अस्तु अगर उसके कब्जे में यह आदमी पड़ा होगा तो जरूर वहीं भेजा भी गया होगा। तब फिर क्या हुआ? तुम लामाघाटी का रास्ता बखूबी जानती हो। क्या तुम्हारे आदमी वहाँ तक पहुँचे और वहाँ उसका पता मिला?

इसका जवाब नन्हों ने कुछ भी न दिया बल्कि सिर नीचा कर लिया और अपनी आँखों से गर्म-गर्म आँसू की बूँदे गिराने लगी जो शीघ्र ही यहाँ तक बढ़ीं कि हिचकी आने लगी और बिलख-बिल कर रोने लगी। बेगम को उसकी यह हालत देख बड़ा ही ताज्जुब हुआ, उससे प्रेम से नन्हों का पंजा पकड़ लिया और पूछा, ‘‘यह क्या बहिन, तुम रोने क्यों लगीं? क्या उसका कुछ पता नहीं लगा या कोई और घटना हुई?’’ नन्हों यह सवाल सुन और भी फूट-फूट कर रोने लगी यहाँ तक कि बेगम मुहब्बत के साथ उसके गले से लिपट गई और अपने आँचल से उसके आँसू पोंछती हुई बोली, ‘‘हैं बहिन, यह मामला क्या है। आखिर तुम कुछ बताओ तो सही! हुआ क्या है, कुछ यह भी तो मालूम हो? तुम इतने कड़े कलेजे वाली होकर भी इस तरह बच्चों की तरह रो क्यों रही हो?’’

बड़ी मश्किल से हिचकियाँ लेते नन्हों के मुँह से निकला, ‘‘वह जान से मारा गया।’’

चौंक कर बेगम ने कहा, ‘‘हैं, जान से मारा गया! नहीं-नहीं सो भला कैसे हो सकता है, यह तुम गलत कह रही हो।’’

नन्हों ने अपनी लाल आँखों को आँचल से पोंछते हुए कहा, ‘‘नहीं बहिन, मैं बिल्कुल सही कह रही हूँ, मेरा भाग्य सम्हलता-सम्हलता फिर फूट गया और वह सचमुच ही मारा गया।’’

बेगम : जान से मारा गया!

नन्हों : हाँ।

बेगम : आखिर कैसे? भूतनाथ के हाथ से तो यह बात हो ही नहीं सकती, रह गए उसके शागिर्द और नौकर सो भी....

नन्हों : बात यह है कि जिस वक्त मेरे आदमी उसको लामाघाटी से छुड़ा कर ले चले तो भूतनाथ के आदमियों ने देख लिया और लड़ पड़े। मेरे आदमियों से उनकी घमासान लड़ाई हो गई जिसमें उसने कमजोर और बीमार होते हुए भी मेरे दुश्मनों का साथ दिया और मेरे आदमियों पर ऐसा सख्त हमला किया कि वे घबड़ा उठे। लड़ाई कुछ ऐसी गुत्थमगुत्था की हो गई कि उसी के दरमियान उसे कई जख्म आ गये जिनकी बदौलत कल रात उसने दम तोड़ दिया।

इतना हाल कह नन्हों फिर सिसक-सिसककर रोने लगी। बेगम के ऊपर भी उस कैदी के मारे जाने के समाचार ने बहुत ही गहरा असर किया था पर इस समय अपनी सखी को समझा-बुझाकर शान्त करना बहुत जरूरी समझ उसने अपने को सम्हाला और नन्हों को दम-दिलासा देकर शान्त करने की कोशिश करने लगी। बहुत तरह की बातें और तरह-तरह की कसमें दे-दिला कर उसने उसका अफसोस कम किया और जब देखा कि कुछ शान्त हुई है तो बोली ‘‘तुम्हें तो मौत का बदला लेना चाहिए न किस इस तरह पर रंज और अफसोस को पल्ले बाँधना! जो हो गया वह तो हो गया और मरा हुआ आदमी लाख अफसोस करने पर भी लौटकर आता नहीं। तुम्हारे लिए तो अब सिर्फ यही रास्ता हो सकता है कि उसकी मौत का बदला लो और जब तक ऐसा न हो चुके शान्त न हो। जिसकी बदौलत यह हुआ है उस आदमी को दुनिया से उठा देना ही तुम्हारे दिल में सबसे ज्यादा शान्ति देगा। रोना और बिलबिलाना कायरों का काम है और उससे सिर्फ दिल की कमजोरी जाहिर होती है।’’

नन्हों ने यह सुन आँसुओं से भरी अपनी आँखें बेगम की तरफ उठाईं और कहा, ‘‘मैंने कसम खाई है और अब फिर उस कसम को दोहराती हूँ कि जैसे बन पड़ेगा वैसे भूतनाथ को इस दुनिया से उठा दूँगी जिसकी बदौलत मेरा सुख मिट्टी में मिल गया।’’

बेगम : बेशक यही अब तुम्हारे लिए मुनासिब रास्ता है और मुझे विश्वास है कि अगर तुम कोशिश करोगी तो यह कोई मुश्किल काम न होगा। तुमको भूतनाथ की जिन्दगी के ऐसे-ऐसे अनूठे भेद मालूम हैं कि अगर चाहो तो दम के दम में उसको मिट्टी में मिला सकती हो। रहा उस मरने वाले का गम, सो तुम इतने दिनों से बराबर उसको मरा ही समझती चली आई थीं और तुम्हारे लेखे वह अब तक मरा हुआ था भी। अब भी उसे वैसा ही समझो और हिम्मत के साथ कमर कस कर मैदान में उतर जाओ, ईश्वर तुम्हारी मदद करेगा।

नन्हों : (जिसकी आँखें बेगम की बातें सुन डरावने तौर पर लाल हो गईं थीं) मगर यह भी तो याद रक्खो सखी कि भूतनाथ गजब का काँइयाँ, चालाक, धूर्त और हिम्मतवर ऐयार है और उसका मुकाबला करना किसी ऐसे-वैसे का काम नहीं है।

बेगम : सो ठीक है पर तुम यह भी जानती हो कि चिऊँटी की जब जान पर बन आती है तो हाथी तक को मारने तो तैयार हो जाती है। अगर हम लोग मिलकर कोशिश करेंगी तो एक भूतनाथ क्या कितनों को जहन्नुम में मिला सकती हैं। उसके खिलाफ जो मसाला हम लोगों के पास है वह क्या कभी बेकार जा सकता है? तुम्हीं ने उस दिन कहा था कि कामेश्वर और भुवनमोहिनी वाले भेद के बारे में जो सबूत तुम दे सकती हो उससे भूतनाथ का पूरा कसूर साबित हो जायगा और वह किसी तरह भी अपनी बेकसूरी साबित न कर सकेगा। क्या तुम कोशिश करके उस सबूत को कब्जे में कर सकती हो?’’

नन्हों : कर सकती ही नहीं बल्कि कर भी चुकी।

बेगम : (चौंक कर) हैं, क्या कहा तुमने?

नन्हों : यही कि उस सबूत को मैंने अपने हाथ में कर लिया।

बेगम : (खुश होकर) सो कैसे, सो कैसे?

नन्हों : जब आ गई हूँ तो यह सब हाल तुम्हें सुनाऊँगी ही पर पहिले यह बताओ कि आज इस मकान में इस कदर सन्नाटा क्यों है, मनोरमाजी कहाँ हैं और उनके आदमी सब कहाँ चले गए जो घर भर में कोई दिखलाई ही नहीं पड़ता। मैं यहाँ मनोरमाजी से ही मिलने आई थी पर अपने गम में ऐसा डूब गई कि इस बात को पूछना ही भूल गई।

बेगम : वे एक दूसरे मकान में हैं और इस मकान में कभी-कभी ही आती हैं। तुम तो जानती ही होगी कि आजकल उन्होंने ‘श्यामा’ का रूप धारण किया है और भूतनाथ की ब्याहता स्त्री बनी हुई हैं।

नन्हों : हाँ, दारोगा साहब की जुबानी यह हाल मैंने सुना था, तो जान पड़ता है वे इस मकान में नहीं, किसी दूसरी जगह रहती भी हैं?

बेगम : वे इसके ठीक पिछवाड़े के एक दूसरे मकान में रहती हैं जहाँ से यहाँ आने का एक गुप्त रास्ता है, उसी की राह कभी-कभी जब भूतनाथ के आने का डर नहीं रहता वे इधर आती हैं।

नन्हों : ठीक है, तो अब उनसे मुलाकात हो सकेगी?

बेगम : आज कुछ रात रहते ही उन्होंने आने को कहा था पर अभी तक आईं नहीं, देखूँ शायद अब आ सकती हों।

इतना कहकर बेगम उठ खड़ी हुईं। जिस दालान में ये दोनों बैठी हुई थीं उसके पीछे एक एक बहुत लम्बी कोठरी थी जिसके पाँच दरवाजे जो सभी इस वक्त बन्द थे इसी दालान में खुलते थे। बेगम ने एक दरवाजा खोला और कोठरी के अन्दर घुसी, कौतूहलवश नन्हों भी साथ हुई। भीतर घुसकर बेगम बाईं तरफ घूमी और इस कोठरी की पूरी लम्बाई तय कर एक दूसरे दरवाजे के पास पहुँची। यह दरवाजा भी खोला गया और अब ये दोनों जिस कोठरी में पहुँचीं उसके अन्दर इतना अँधेरा था कि हाथ को हाथ नहीं दिखाई पड़ता था। किसी जगह से सामान निकाल बेगम ने मोम्बत्ती बाली जिसकी हलकी रोशनी की मदद से नन्हों ने कोठरी के एक तरफ की दीवार में एक आलमारी बनी हुई देखी जिसमें पल्ले या तख्ते लगे हुए न थे और इसी सबब से वह इस लायक थी कि दो आदमी उसके अन्दर बखूबी खड़े हो सकते थे। इस आलमारी के निचले हिस्से में एक टुकड़ा रस्सी का दिखाई पड़ रहा था जिसे पकड़कर बेगम ने खींचा। कुछ देर तक दोनों को खड़े रहना पड़ा और तब एक छोटी घण्टी दो बार बज उठी जिसकी आवाज सुन बेगम ने कहा, ‘‘मनोरमाजी आ रही हैं।’’

थोड़ी ही देर बाद खटके की आवाज हुई और उस आलमारी के पीछे की दीवार में रास्ता दिखाई पड़ने लगा। मनोरमा उस जगह के बाहर हुई जिसने कोई तर्कीब ऐसी की कि वह रास्ता बन्द हो गया, तब वह घूमी। पहली निगाह उसकी नन्हों पर गई जिसको पहिचानते ही वह बड़ी मुहब्बत के साथ ‘‘प्यारी नन्हों, तू आ गई!’’ कह कर उसकी तरफ झपटी और उसे गले से लगा लिया। कुछ देर बाद अलग हुई तो बेगम से भी मिली और तब नन्हों का हाथ पकड़े यह कहती हुई उस कोठरी के बाहर निकली— ‘‘प्यारी नन्हों मैं तेरी राह बड़ी बेचैनी के साथ देख रही थी क्योंकि तुझसे बहुत-सी बातें करनी हैं,’’ तीनों औरतें बाहर वाले उसी दालान में पहुँची और फर्श पर बैठ इस तरह की बातें करने लगीं :—

बेगम : मैं कल ही से यहाँ बैठी तुम्हारी राह देख रही हूँ और अकेली पड़ी—पड़ी एक दम घबड़ा गई थी।

मनो० : क्या बताऊँ सखी, कम्बख्त भूतनाथ ने गुप्त रीति से तो पहरे का इन्तजाम कर ही रक्खा था, इधर उसने अपने एक शागिर्द को खास तौर पर मेरे मकान में रह कर मेरी हिफाजत करने के लिए भेज दिया है जिससे और भी परेशान हो रही हूँ।आज बड़ी मुश्किल से उसे किसी बहाने से दूर किया है तो आने पाई हूँ पर फिर भी डर बना ही हुआ है इसलिए बहुत जल्द वापस भी चली जाऊँगी क्योंकि न जाने भूतनाथ या उसका वह कम्बख्त शागिर्द कब आ पहुँचे। मैं यह सुन कर कि जाने कौन उस कैदी को निकाल ले गया, खुद तुझसे मिलने और खुलासा हाल जानने को व्याकुल थी पर मौका नहीं मिलता था, अब बतला कि कैसे-कैसे क्या-क्या हुआ?

बेगम : बहिन नन्हों ने अभी-अभी उस कैदी के बारे में एक ऐसा दुःखदायी समाचार सुनाया है कि जिससे अब उसका कोई जिक्र करना कष्ट पहुँचाने का ही कारण होगा! मुख्तसर में तुम इतना ही सुन लो कि जिस समय मैं चुनारगढ़ राजा बीरेन्द्रसिंह के कारिन्दों से मिलने गई हुई थी उसी समय भूतनाथ के कुछ ऐयार मेरे घर में घुस कर उसे निकाल ले गए और लामाघाटी में ले जाकर बन्द कर दिया जहाँ (नन्हों की तरफ बता कर) इनके आदमी उसे छुड़ाने के वास्ते गए पर इस काम में लड़ाई हो पड़ी और वह जान से मारा गया!

मनो० : हैं, वह जान से मारा गया!

बेगम : हाँ नन्हों का तो ऐसा ही कहना है।

मनो० : (नन्हों से) क्या तुम सही कह रही हो?

नन्हों० : (जिसकी आँखें यह जिक्र उठने पर पुनः भर आई थीं और जो बड़ी मुश्किल से रुलाई रोके हुए थी) हाँ मैं अभी उनकी लाश के पास से आ रही हूँ।

मनो० : (नन्हों का पंजा पकड़ कर दुःख के साथ) अफसोस, तब तो उसका मिलना-न मिलना बेकार ही हुआ, सचमुच मेरी सखी, तू बड़ी अभागिन है!

नन्हों० : (आँखों से आँसू टपकाती हुई) कैसी कुछ! इतने दिन बाद अचानक उसके जीते रहने की खबर पा मैं चौंक गई थी और मेरे मन में रह-रह कर यह खयाल उठता था कि क्या मैं ऐसी भाग्यवान निकलूँगी कि उसे फिर से देख सकूँ, पर आखिर मेरा डर सही निकला और कम्बख्त भूतनाथ की बदौलत....

इतना कहते-कहते वह अपने को रोक न सकी और बिलख कर रोने लगी।

मनोरमा ने बहुत कुछ समझा-बुझा कर उसे शान्त किया और कहा—‘‘तेरे लिए तो वह अब तक मरा हुआ था ही। अब मरा तो क्या और दस वर्ष पहले मरा तो क्या! अब तुझे अगर कोई कोशिश करनी चाहिए तो यही कि उसका ध्यान दिल से निकल जाय और साथ ही दुश्मन से बदला भी लिया जा सके।’’

नन्हों० : उसका ध्यान तो इस जिन्दगी में मेरे दिल से निकलने वाला नहीं, हाँ, भूतनाथ से बदला लेने की कसम खा चुकी हूँ और चाहे इस कोशिश में मेरी जान भी चली जाय पर मैं अपनी कसम को जरूर पूरा करूँगी तथा भूतनाथ को बर्बाद करके छोड़ूँगी।

मनो० : बेशक ऐसा ही करना चाहिए। हम लोगों में कोई भी अगर इस लायक है तो एक बस तू ही है, तुझे भूतनाथ के ऐसे-ऐसे भेद मालूम हैं कि जिनके ख्याल से ही वह घबराता है और जिनका भंडाफोड़ करके वह सहज ही में मिट्टी में मिला दिया जा सकता है, बल्कि अगर मेरी याददाश्त ठीक है तो आखिरी दफे जब तुझसे मेरी भेंट हुई थी तो तूने मुझसे कहा था कि उसके कुछ नये पापों का तुझे हाल ही में पता लगा है और तू उनके सबूत अपने कब्जे में करने की कोशिश कर रही है, बल्कि तूने यह भी कहा था कि उनका सामना करने की बनिस्बत भूतनाथ मर जाना पसन्द करेगा।

नन्हों० : हाँ ठीक है, मैंने यह बात कही थी और ठीक कही थी, तथा मुझे यह कहते भी बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि उन सबूतों में से कई मेरे हाथ आ भी गए।

मनो० : (खुश होकर) ऐसा, तब तो बड़ी अच्छी बात है, मगर वे चीजें क्या हैं और क्योंकर तेरे हाथ लगीं?

नन्हों० : मैं सब हाल खुलासा कहती हूँ तुम दोनों ही गौर से सुनो, क्योंकि यह एक ऐसा भेद है जो अगर दुनिया में प्रकट हो गया तो भूतनाथ कहीं का न रहेगा। उसने जब मेरे कलेजे को चोट पहुँचाई है तो मैं कब किसी बात का ख्याल करने लगी। (कुछ रुक कर) तुम लोगों ने कभी भुवनमोहिनी का नाम सुना है या उसका कुछ हाल जानती हो?

मनो० : हाँ, कुछ-कुछ, वह जमानिया के सेठ चंचलदास की पतोहू थी जो साँप काटने से मर गई थी तथा उसके मरने के कुछ ही समय बाद उसका पति कामेश्वर भी दुश्मनों के हाथ....

नन्हों० : ओह तब तुम्हें असली हाल नहीं मालूम!

बेगम : मैंने इतना और सुना है कि जमानिया के बड़े महाराज गिरधरसिंह का उससे कुछ ताल्लुक था जिससे रंज होकर बड़ी महारानी ने उसको जहर दिलवा दिया था, और इस काम में भूतनाथ और दारोगा साहब ने उसकी मदद की थी।

नन्हों० : नहीं, यह भी सही नहीं है, अच्छा सुनो मैं उसका ठीक-ठीक हाल सुनाती हूँ। भुवनमोहिनी राजा बीरेन्द्रसिंह के रिश्तेदार और दरबारी सरदार अजयसिंह की इकलौती लड़की थी और रिश्ते में दलीपशाह की मौसेरी बहिन लगती थी। अजयसिंह का कुछ सम्बन्ध शिवदत्त के ससुर रणधीरसिंह से था जिनके भतीजे दयाराम को मारने का इलजाम बहुत से लोग भूतनाथ पर लगाते हैं।रणधीरसिंह के महल में भुवनमोहिनी का आना-जाना बराबर होता था और वहाँ ही दामाद होने की हैसियत से अकसर शिवदत्त भी जाया-आया करता था। भुवनमोहिनी गजब की खूबसूरत लड़की थी जिस सबब से शिवदत्त की बुरी निगाह उस पर पड़ चुकी थी पर चूँकि शिवदत्त के चाल-चलन से रणधीरसिंह के खानदान वाले भी अच्छी तरह वाकिफ हो चुके थे इसलिये वे वहाँ उस पर बड़ी कड़ी निगाह रखते थे। इस कारण शिवदत्त को अपनी ससुराल में किसी तरह की बेहूदगी की कार्रवाई करने का मौका किसी तरह नहीं मिल सकता था और यही कारण था कि भुवनमोहिनी वहाँ उसके पंजे में नहीं पड़ने पाई, खैर।

भुवनमोहिनी की शादी जमानिया के सेठ चंचलदास के लड़के कामेश्वर से हुई और इसके बाद ही वह जमानिया चली गई। इसी सबब से कुछ दिनों के लिए वह शिवदत्त की निगाहों की भी ओट हो गई पर वह उसे भूला नहीं। जमानिया के महाराज गिरधरसिंह न-जाने क्यों सुरेन्द्रसिंह के खानदान से बड़ी ही मुहब्बत करते थे। उन्हें जब पता चला कि बीरेन्द्रसिंह के खानदान की एक लड़की उनके शहर में ब्याह कर आई है तो भुवनमोहिनी को उन्होंने अपने महल में बुलवाया और उसको अपनी लड़की से बढ़ कर इज्जत और प्यार करने लगे, बल्कि उसी के सबब से उसके पति कामेश्वर पर भी बहुत मेहरबानी की।

दारोगा साहब और चुनार के राजा शिवदत्त की पहले तो बड़ी दोस्ती थी पर बीच में न-जाने किस कारण से, शायद किसी औरत के ही सबब से, आपुस में कुछ खटक गई थी। इधर भुवनमोहिनी के ससुर चंचलदास से भी दारोगा साहब की खटकी हुई थी, जिसका कारण शायद यह था कि वह राजदरबार में इनकी कार्रवाइयों की अकसर निन्दा किया करता था जिस कारण से दारोगा साहब भी उससे बदला लेने की बराबर कोशिश किया करते थे।

जिस समय भुवनमोहिनी का वहाँ आना हुआ और महाराज के महल में उसकी इज्जत और कदर बढ़ी तथा उसी के कारण कामेश्वर और चंचलदास का भी मर्तबा बढ़ने लगा तो दारोगा साहब को शायद डर हुआ कि अब दरबार में उनको ये लोग और ज्यादे परेशान करेंगे। इस खयाल से वे फिक्र में पड़े कि कोई ऐसी तर्कीब करना चाहिए कि उस खानदान का डर हमेशा के लिए जाता रहे।उन्हें महाराज शिवदत्त के भुवनमोहिनी के प्रेम का हाल किसी तरह मालूम हो गया और वे इस कोशिश में लगे कि अगर किसी तरह वह लड़की शिवदत्त तक पहुँचा दी जा सके तो इधर तो उससे जो कुछ मनमुटाव हो गया है वह दूर हो जायेगा और उधर खानदानी बदनामी के सबब से चंचलदास फिर सिर उठाने लायक न रहेगा। इस तरह एक ही ढेले से दो शिकार मारने की नीयत उन्होंने की और उसकी तर्कीब क्या थी कि इधर एक तरफ तो महारानी का कान भरना शुरू किया और उन्हें यह समझाने लगे कि महाराज की भुवनमोहिनी पर बुरी निगाहें पड़ती हैं और उधर दूसरी तरफ महाराज का कान इस तरह भरने लगे कि भुवनमोहिनी का चरित्र अच्छा नहीं है और वह महाराज शिवदत्त से फँसी हुई है। मैं उन दिनों जमानिया महल में ही थी इसलिए मुझे न-केवल इस बात की पूरी-पूरी खबर ही है बल्कि मुझसे दारोगा साहब ने इस मामले में कुछ मदद भी ली थी इसलिए मुझे अच्छी तरह मालूम है कि उनकी तरह-तरह की कार्रवाइयों की बदौलत एक तरफ तो महारानी को इस बात का विश्वास हो गया कि महाराज का भुवनमोहिनी से अनुचित सम्बन्ध है और वे उसको दुश्मनी की निगाह से देखने लगीं और दूसरी तरफ महाराज का दिल भी उससे कुछ फिर-सा गया। नतीजा यह हुआ कि कामेश्वर दरबार से हटा कर कहीं दूर भेज दिया गया और भुवनमोहिनी भी उसके साथ चली गई।

ऐसा करने में दारोगा साहब ने और बातों के सिवाय यह भी सोचा था कि भुवनमोहिनी जब जमानिया से हटी रहेगी तो कोई-न-कोई तर्कीब ऐसी निकल सकेगी जिससे उसको शिवदत्त के हवाले किया जा सकेगा, मगर यह इच्छा उनकी पूरी उतरी नहीं। कुछ ही दिनों बाद महाराज को विश्वास हो गया कि वह लड़की बेकसूर थी। उन्होंने उसको माफ करके फिर जमानिया बुलवा लिया और कामेश्वर को भी आने का हुक्म दिया। इससे उसको शिवदत्त के हवाले करने का काम तो न हो सका मगर इतना फायदा जरूर हुआ कि महारानी का शक बढ़ गया और उन्हें यह विश्वास हो गया कि महाराज को जरूर उससे कुछ लगाव है तभी तो उसके बिना रह न सके और फिर उसको बुलवा लिया, क्योंकि पहले की तरह भुवनमोहिनी का आना-जाना महल में फिर शुरू हो गया था। वे मन-ही-मन इस बात से बहुत कुढ़ गईं और उन्होंने हुक्म दिया कि भुवनमोहिनी जान से मार दी जाय। दारोगा साहब ने खुशी-खुशी इस काम को करने का बीड़ा उठाया पर महाराज के डर से खुल्लमखुल्ला स्वयं इस काम को करते डरते थे इसलिए उन्होंने किसी दूसरे होशियार आदमी से इस बारे में मदद लेने की सोची। उन दिनों गदाधरसिंह ऐयार से उनकी दोस्ती खूब गठ रही थी जिसको महारानी भी कुछ-कुछ जानती थीं। इसका सबब यह था कि जैसा कि शायद तुमको मालूम ही होगा वे रोहताशगढ़ के राजा त्रिभुवन की लड़की और दिग्विजयसिंह की बहिन थीं जिनकी रियासत में गदाधरसिंह का भाई शेरसिंह नौकर था। उस शेरसिंह के पास गदाधरसिंह बराबर आया-जाया करता था और इसी सबब से महाराज त्रिभुवनसिंह भी उससे मुहब्बत करते थे तथा महारानी भी भूतनाथ को अच्छी तरह जानती थीं क्योंकि ऐयारों से कोई पर्दा तो रहता नहीं। दारोगा ने इसी भूतनाथ को महारानी के सामने पेश किया जिन्होंने बहुत कुछ इनाम की लालच देकर उसे इस काम के लिए राजी किया और इधर से दारोगा साहब का जोर तो था ही। उधर महाराज शिवदत्त ने भी बहुत कुछ इनाम की लालच देकर भुवनमोहिनी को चुरा लाने का काम भूतनाथ को सौंपा था। गरज कि सब तरफ के जोर और बहुत गहरे इनाम की लालच में भूतनाथ को इस बात पर राजी कर दिया और उसने न-जाने क्या चालाकी और ऐयारी की कि कुछ ही दिनों बाद यह मशहूर हो गया कि भुवनमोहिनी को जंगल में साँप ने काट लिया। प्रायः साँप का काटा आदमी जलाया नहीं जाता, जमीन में गाड़ा या नदी में बहा दिया जाता है, और ऐसा ही भुवनमोहिनी की लाश के साथ किया गया जिसे उसके दो

रिश्तेदार जंगल में गड्ढा खोद कर गाड़ आये जहाँ से उन दोनों के जाने के साथ ही तुरन्त शिवदत्त के आदमियों ने खोद कर उसे निकाला और उठा ले गए। इस काम के लिए भूतनाथ ने महारानी से एक कीमती कण्ठा और ‘शिवगढ़ी’ के खजाने की ताली पाई और उधर महाराज शिवदत्त से भी गहरा इनाम पाया। (१. भूतनाथ बारहवें भाग के तीसरे बयान में मालती ने इसी घटना का जिक्र महाराज गिरधरसिंह से किया है।)

यहाँ तक सुन मनोरमा ने कहा, ‘‘शिवगढ़ी का खजाना कैसा?’’

नन्हों : शिवगढ़ी रोहतासगढ़ के इलाके में एक पहाड़ी स्थान है। कहा जाता है कि वह कोई तिलिस्म है और उसके अन्दर बेइन्तहा दौलत रक्खी है जिसको निकालने की तर्कीब एक किताब में लिखी है जो वहाँ की ताली कहलाती है। महारानी के पिता ने उस स्थान को दहेज में महारानी को दिया था पर चूँकि वे खुद एक बड़े तिलिस्म और बेइन्तहा दौलत के मालिक हुई थीं इसलिए उस खजाने को खोलने की उन्हें कभी जरूरत ही नहीं पड़ी और बरसों बीत जाने पर भी वह ज्यों-का-त्यों बन्द ही पड़ा रहा। उस खजाने की ताली भुवनमोहिनी को मारने के लिए इनाम के तौर पर महारानी ने भूतनाथ को दे, और सच तो यह है कि उसी खजाने के लालच ने ही भूतनाथ से ऐसा काम कराया था। मगर फिर यह भी बात है कि भूतनाथ को वह खजाना दिलवाने में दारोगा साहब का भी स्वार्थ था जिन्होंने यह वादा करा लिया था कि उसके अन्दर से जो कुछ दौलत निकलेगी उसका एक खासा हिस्सा उन्हें भी मिलेगा। खैर जो कुछ हो, गरज यह कि भूतनाथ को उस खजाने की ताली मिल गई और वह उसे खोलने की नीयत से तिलिस्म के अन्दर घुसा तथा इसी मौके पर उसने वह काम किया जिसने उसको दुनिया में मुँह दिखाने लायक न रक्खा। अब तक जो वह दुनिया में बना हुआ है उसका सबब सिर्फ यही है कि उसके इस दुष्कर्म का हाल सिर्फ दो-चार इने-गिने आदमी ही जानते हैं और मुझे भी उसका पूरा-पूरा हाल नहीं मालूम है पर जितना मालूम हुआ है वह यह कि भूतनाथ तिलिस्म के अन्दर घुसा तो वहाँ उसे पत्थर की बनी हुई एक नरपिशाच की मूरत मिली जो जीते-जागते मनुष्य की तरह बोल सकती थी। उस नरपिशाच के मुँह में आदमी का ताजा खून डालने पर ही शिवगढ़ी के खजाने का मुँह खुलता था। कहा जाता है कि अहिल्या नामी किसी औरत को लिये हुए वह तिलिस्म में घुसा और उसी को मार कर उसका खून उस नरपिशाच के मुँह में डालना चाहा पर यकायक कोई ऐसा विघ्न पड़ गया कि यह काम पूरा उतर न सका और वह अहिल्या की लाश को तिलिस्म में ही छोड़ कर भागने पर मजबूर हुआ। दारोगा साहब को न-जाने कैसे इस घटना का पता लगा, वे तिलिस्म में गये, उनके हुक्म से हेलासिंह और जैपालसिंह ने वह लाश बाहर

निकाली और इस तरह पर भूतनाथ के इस कुकृत्य का भंडा फूटा। (१. अपना किस्सा कहते समय मालती ने इसका जिक्र भी किया है। देखिए भूतनाथ बारहवाँ भाग, तीसरा बयान।)

मनो० : ठीक है, इस घटना का कुछ पता मुझे दारोगा साहब की जुबानी लगा था पर बहुत कुछ पूछने पर भी उन्होंने पूरा-पूरा हाल मुझे नहीं बताया और कह दिया कि वे इस मामले को छिपाने को कसम खा चुके हैं।

बेगम : ठीक है, मैंने जैपालसिंह के मुँह से भी ऐसा ही कुछ हाल सुना था पर उन्हें यह नहीं मालूम था कि वह औरत कौन थी जिसे भूतनाथ ने मारा था।

नन्हों० : वह अहिल्या थी—कौन अहिल्या, समझ गईं?

मनो० : हाँ हाँ जी अच्छी तरह जान गई, वही दामोदरसिंह की भतीजी और मालती की प्यारी सखी न?

बेगम : (हँसती हुई) हाँ, और मालती कौन? वही जिसका रूप धर कर प्रभाकरसिंह को फंसाने तुम तिलिस्म में घुसी थीं और कुछ न कर सकने के कारण बैरंग वापस लौटी थीं!

मनो० : (कुछ कुरुखी से) हाँ-हाँ भया, (नन्हों से) सखी, तुम आगे का हाल कहो, फिर क्या हुआ? वह खजाना फिर खुला या नहीं?

नन्हों : नहीं, वह ज्यों-का-त्यों बन्द रह गया क्योंकि भूतनाथ उस घटना के बाद फिर उसके अन्दर कभी नहीं गया। उसने उसकी ताली तक नष्ट कर डाली और फिर कभी उस तरफ जाने का नाम नहीं लिया।

मनो० : नहीं-नहीं, तब फिर तुम्हें इसका सही हाल नहीं मालूम। वह ताली अभी तक भूतनाथ के पास मौजूद है और वह पुनः इस फिराक में है कि किसी तरह उस खजाने को खोले और वहाँ की दौलत निकाले।

नन्हों० : (ताज्जुब से) यह कैसे जानती हो?

मनोरमा इसका कुछ जवाब देना ही चाहती थी कि कहीं पर बजती हुई एक घंटी की आवाज ने उसे चौंका दिया जो कुछ रुक-रुक कर किसी खास इशारे के साथ बज रही थी। उसने घबड़ा कर नन्हों से कहा, ‘‘अरे, भूतनाथ आ गया! मैं जाती हूँ, पर तू अभी यहीं रहियो मैं बहुत जल्दी तुझसे मिलूँगी।’’ और झपटती हुई आलमारी की तरफ लपकी जिसकी राह इस जगह आई थी। जब वह उस रास्ते के अन्दर चली गई तो नन्हों और बेगम बातें करती वापस लौटीं।

नन्हों० : कम्बख्त भूतनाथ बड़े बेमौके आया, अब न-जाने कब मनोरमा जी को कब फुरसत मिलेगी और वह इधर आवेंगी!

नन्हों० : वह अहिल्या थी—कौन अहिल्या, समझ गईं?

मनो० : हाँ हाँ जी अच्छी तरह जान गई, वही दामोदरसिंह की भतीजी और मालती की प्यारी सखी न?

बेगम : (हँसती हुई) हाँ, और मालती कौन? वही जिसका रूप धर कर प्रभाकरसिंह को फंसाने तुम तिलिस्म में घुसी थीं और कुछ न कर सकने के कारण बैरंग वापस लौटी थीं!

मनो० : (कुछ कुरुखी से) हाँ-हाँ भया, (नन्हों से) सखी, तुम आगे का हाल कहो, फिर क्या हुआ? वह खजाना फिर खुला या नहीं?

नन्हों : नहीं, वह ज्यों-का-त्यों बन्द रह गया क्योंकि भूतनाथ उस घटना के बाद फिर उसके अन्दर कभी नहीं गया। उसने उसकी ताली तक नष्ट कर डाली और फिर कभी उस तरफ जाने का नाम नहीं लिया।

मनो० : नहीं-नहीं, तब फिर तुम्हें इसका सही हाल नहीं मालूम। वह ताली अभी तक भूतनाथ के पास मौजूद है और वह पुनः इस फिराक में है कि किसी तरह उस खजाने को खोले और वहाँ की दौलत निकाले।

नन्हों० : (ताज्जुब से) यह कैसे जानती हो?

मनोरमा इसका कुछ जवाब देना ही चाहती थी कि कहीं पर बजती हुई एक घंटी की आवाज ने उसे चौंका दिया जो कुछ रुक-रुक कर किसी खास इशारे के साथ बज रही थी। उसने घबड़ा कर नन्हों से कहा, ‘‘अरे, भूतनाथ आ गया! मैं जाती हूँ, पर तू अभी यहीं रहियो मैं बहुत जल्दी तुझसे मिलूँगी।’’ और झपटती हुई आलमारी की तरफ लपकी जिसकी राह इस जगह आई थी। जब वह उस रास्ते के अन्दर चली गई तो नन्हों और बेगम बातें करती वापस लौटीं।

नन्हों० : कम्बख्त भूतनाथ बड़े बेमौके आया, अब न-जाने कब मनोरमा जी को कब फुरसत मिलेगी और वह इधर आवेंगी!

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