मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 6 भूतनाथ - खण्ड 6देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण
आठवाँ बयान
किसी तरह की आवाज सुनकर भूतनाथ चौंक पड़ा और उठकर इधर-उधर देखने लगा।
मन्दिर से कुछ फासले पर और गंगाजी से बहुत दूर मिट्टी की एक कच्ची और लम्बी दीवार भूतनाथ को दिखाई पड़ी जिसको देखने से किसी देहाती मकान के आँगन का भ्रम होता था मगर जो नई ही बनी जान पड़ती थी। भूतनाथ का ध्यान इसी तरफ गया क्योंकि उसे सन्देह हुआ कि न हो वह आवाज इसी के अन्दर से आई है, आखिर उससे रहा न गया और वह मन्दिर से उतर उसी तरफ को बढ़ा। उसके शागिर्द भी साथ हुए पर उसने यह कहकर उन्हें रोक दिया कि तुम लोग यहीं रहो मैं अभी वापस आता हूँ। अगर तुम्हारी मदद की जरूरत पड़ेगी तो सीटी बजाऊँगा। लाचार वे दोनों वहीं रह गए और अकेला भूतनाथ उस दीवार की तरफ बढ़ा।
बहुत जल्दी ही यह उस जगह पहुँच गया और तब उस दीवार के चारों तरफ इस उम्मीद में घूमने लगा कि कहीं कोई खिड़की या दरवाजा दिखाई पड़ जाय तो अन्दर के हाल-चाल का पता लगावे क्योंकि जो आवाज उसने सुनी थी इसी के अन्दर से आई जान पड़ती थी। मगर ताज्जुब की बात थी कि चारों तरफ घूम आने पर भी कहीं कोई ऐसा रास्ता दिखाई न पड़ा जिससे अन्दर जाया या अन्दर का कुछ हाल देखा-सुना जा सके। फिर भी यह सन्देह भूतनाथ को जरूर हो गया कि इस दीवार के अन्दर कोई-न-कोई जरूर है क्योंकि कभी-कभी एक बहुत ही हलकी आवाज जो इस तरह की थी मानों कोई आदमी गहरी साँसें ले रहा हो भीतर से जरूर आती थी। आखिर भूतनाथ से रहा न गया। उस दीवार की ऊँचाई बहुत न थी और मिट्टी की बनी हुई तथा ऊबड़-खाबड़ होने के कारण उसके ऊपर चढ़ जाना भी कठिन न था अस्तु वह दीवार पर चढ़ गया और भीतर झाँक कर देखने लगा। मगर न-जाने भीतर भूतनाथ को क्या सामान दिखाई पड़ा कि उसका चेहरा पीला पड़ गया और एक ही निगाह बाद वह काँपता हुआ नीचे उतर आया।
इस समय भूतनाथ की सूरत जो देखता यही समझता कि उसे जूड़ी बुखार चढ़ आया है या वह बरसों का बीमार है। उसका चेहरा पीला हो गया था, बदन काँप रहा था, शकल से हवाई उड़ रही थी और माथे पर पसीना आया हुआ था। वह सिर नीचा करके दीवार के साथ उठंग बल्कि गिर गया और न-जाने क्या-क्या सोचने लगा।
मगर ऐसी हालत भी उसकी देर तक न रही, वह फिर हिम्मत करके उठा और न-जाने क्या सोच पुनः उस दीवार पर चढ़ा इस बार भी पहिले की तरह केवल सिर भीतर झुका कर देर तक वह कुछ सोचता रहा, तब दीवार पर चढ़ा और भीतर की तरफ कूद गया। आइए पाठक, हम लोग भी भूतनाथ के साथ ही साथ भीतर चलें और वहाँ का रंग-ढंग देखें।
एक छोटा-सा मैदान चारों तरफ करीब पुरसा भर ऊँची दीवार से घिरा हुआ था। दीवार जो बाहर साफ और चिकनी थी और मालूम होता था मानों संगीन बनी हुई है पर कुछ गौर करने पर यह भ्रम दूर हो जाता था और पता लगता था कि यह मुसौवर की कारीगरी है जिसने रंग-रौगन की मदद से ऐसा भ्रम पैदा करने वाला सामान तैयार कर दिया है। चारदीवारी के साथ चारों तरफ तरह-तरह की इमारतें बनी हुई दिखाई पड़ रही थीं, बीच की जमीन जिस पर पेड़-पौधे की किस्म में घास का एक पत्ता तक न था, एकदम साफ और चिकनी थी और उसे भी सरसरी निगाह में देखने से यही भ्रम होता था मानों पत्थर का फर्श बिछा हुआ हो पर यह भी उस दीवार की तरह केवल कारीगर की कारीगरी ही थी जिसने जमीन को रंग और उस कूँची से लकीरें खींच संगीन फर्श की नकल बनाई थी।
मगर जो चीज वास्तव में ताज्जुब करने की थी वह इस सरजमीन के बीचों-बीच में बना हुआ एक खम्भा था जिसके ऊपर लाल रंग के एक दैत्य की शक्ल की सिर-कटी लाश पड़ी थी जिसका बदन एकदम नंगा था और जिसके धड़ से निकला हुआ खून चारों तरफ फैला हुआ था तथा सामने की तरफ एक डरावना आदमी खड़ा हुआ था जिसका समूचा बदन यहाँ तक कि चेहरा भी काले कपड़े से ढंका हुआ था, इस आदमी के दाहिने हाथ में खून से भरी एक तलवार थी और बाएँ हाथ में एक औरत का सिर था जिसे वह बालों के जरिये पकड़े हुए था। इस सिर से टपकते हुए खून से उस मू्र्ति के पैर तथा वह खम्भा लाल हो रहा था।
यह एक ऐसा भयानक दृश्य था जिसे देख बड़े-बड़े जीवट वालों की धोती ढीली हो जा सकती थी अस्तु भूतनाथ इसे देखकर घबड़ा गया। यह कोई ताज्जुब की बात न थी। परन्तु उसके साथ ही हमारे पाठकों के लिए भी यह डर और ताज्जुब की जगह है, क्योंकि वे पहले भी यहाँ की सैर कर चुके हैं और इस स्थान को देखकर जरूर चौंकेंगे क्योंकि यह जगह उन्हें कुछ पहिचानी हुई-सी मालूम पड़ेगी और वास्तव में बात भी यही है, जरा गौर करने ही से वे समझ जाएँगे कि यह उसी स्थान की सच्ची और अचानक देखने से धोखे में डाल देने वाली नकल बनाई गई है जहाँ पहुँच कर प्रभाकरसिंह के आफत में पड़ने का हाल हम दो बयानों में ऊपर लिख आए हैं। वैसा ही संगीन सहन, चारों तरफ की वैसी ही इमारतें, बीच की वही मूर्ति ठीक उस तिलिस्मी जगह की याद पैदा कर देती थी जहाँ प्रभाकरसिंह के साथ हम लोग जा चुके हैं। अगर कुछ फर्क है तो इतना ही कि वह नकाबपोश आदमी, वह औरत की लाश और वह कटा हुआ सिर वहाँ न था जो यहाँ दिखाई पड़ रहा है, साथ ही साथ अगर पाठक कुछ भी गौर करेंगे तो एक बात ताज्जुब की उन्हें और भी दिखाई पड़ेगी जो यह थी कि यह सब सामान-नकाबपोश आदमी, सिर कटी लाश, और वह कटा सिर, असली न था बल्कि मोम या मिट्टी का बिल्कुल बनावटी बना हुआ था, पर कारीगर ने रंग-रंगा कर उसे कुछ ऐसा बना दिया था कि एकदम असली का धोखा होता था।
चालाक भूतनाथ ने यह बात पहली ही निगाह में जान ली थी कि यह बनावटी खेल है। तब फिर उसके इस तरह डरने का क्या कोई खास सबब था? बेशक ऐसा ही है क्योंकि यह लाश, यह सिर, यह मूरत और यह समय उसके एक पिछले पाप की याद दिला रहा था, ऐसा पाप जिसे उसने अपने दिल की सबसे भीतरी तहों में छिपाकर रक्खा था और जो अभी तक कभी किसी पर प्रकट न हुआ था।
सकते की-सी हालत में उस नकाबपोश शक्ल के सामने खड़ा भूतनाथ यही सोच रहा था कि वह स्वप्न देख रहा है या जीता-जागता यह सब हाल देख रहा है। इस समय जो खयाल उसके मन में सबसे तेजी के साथ चक्कर मार रहा है वह यह था, जिस आदमी ने यह सब मूरतें इस तरह पर बना कर यहाँ रक्खी हैं वह बेशक उसके इस पुराने भेद का रत्ती-रत्ती हाल जानता है और इस तरह पर उस प्राचीन और करीब-करीब भूले जा चुके हुए दृश्य को उसके सामने लाकर जरूर कोई-न-कोई फसाद खड़ा करने का उसका इरादा है,
जिस तरह रास्ता चलता हुआ कोई मुसाफिर यकायक अपने सामने खूँखार शेर को देखकर चौंक उठता है और डर कर सकते की-सी हालत में खड़ा हो जाता है उसी तरह खड़ा होकर भूतनाथ अपने सामने की चीजें देख रहा था कि यकायक किसी तरह की आवाज ने उसका ध्यान बंटाया। उसे ऐसा मालूम हुआ मानों कोई आदमी उसके पास ही कहीं खूब जोर-जोर से साँस ले रहा हो। यही आवाज उसने इस दीवार के अन्दर आने के पहले भी सुनी थी। वह ताज्जुब से अपने चारों तरफ देखने लगा मगर कहीं किसी आदमी की सूरत दिखाई न पड़ी उसका ताज्जुब और भी बढ़ा और वह गौर करने लगा कि वह आवाज कहाँ से आती है, परन्तु शीघ्र ही मालूम हो गया कि खम्भे पर बैठी हुई उस लाल मूरत के दोनों होंठ कुछ खुले हुए हैं और उन्हीं के अन्दर से वह आवाज इस प्रकार आ रही है मानों वह मूरत साँस ले रही हो।भूतनाथ की घबराहट और भी बढ़ गई और उसने चाहा कि मूरत के कुछ और पास पहुँच कर गौर से देखे कि यह क्या माजरा है मगर वह यकायक रुक गया जब उसने देखा कि वह आवाज कुछ बदल रही है और ऐसा जान पड़ता है मानों वह मूरत कुछ बोल रही हो। भूतनाथ ने डर और घबराहट से उस मूरत के मुँह से ये शब्द निकलते हुए सुनेः-
‘‘कौन? भूतनाथ! आओ मेरे दोस्त!! इतने दिनों तक तुम कहाँ थे?
तुम्हारी राह देखता हुआ मैं अभी तक प्यासा बैठा हुआ हूँ।’’
न-जाने इन शब्दों में क्या असर था कि भूतनाथ इन्हें सुनते ही एकदम बदहवास हो गया और इस तरह इधर-उधर देखने लगा मानों वहाँ से भाग जाने की राह खोज रहा हो, साथ ही साथ डरती हुई निगाह अपने चारों तरफ इस मतलब से भी डालने लगा कि किसी और ने तो इस मूरत के मुँह से निकले हुए वे शब्द नहीं सुन लिए।
वह मूरत दो-एक सायत तक चुप रही, इसके बाद पुनः उन पत्थर के होठों में से ये शब्द निकलेः-
‘‘क्या तुम यह बलि क्रिया पूरी न करोगे? क्या मेरे शताब्दियों के सूखे हुए होंठों में इस सिर से निकली हुई लहू की बूँदे डाल उन्हें तर न करोगे? अगर ऐसा न करोगे तो किस प्रकार तुम वह चीज पाओगे जिसकी आशा में तुमने यह हत्या की है?
भूतनाथ की हालत इन शब्दों को सुनकर और भी खराब हो गई। उसने पीछे हटना चाहा मगर ऐसा मालूम हुआ मानों जमीन ने उसके पैर पकड़ लिए हैं और वे कभी छूटेंगे ही नही।वह लाचारी की-सी हालत में खड़ा हुआ कभी उस मूरत की तरफ और कभी अपने चारों तरफ देखने लगा। थोड़ी देर बाद वह मूरत फिर बोली–
‘‘खैर तुम जानो। मैं हजारों बरस से प्यासा हूँ, और न-जाने कब तक ऐसा रहूँगा! तुमने मुझे आशा दिला के निराश किया! खैर मैं तो अब चुप हो जाता हूँ पर तुम भी यह याद रक्खो कि यह हत्या व्यर्थ ही तुमने अपने सिर ली बिना इस खून की बूँदे मेरे मुँह में पड़े तुम ‘शिवगढ़ी’ का खजाना नहीं पा सकते!’’
इतना कहकर वह मूरत चुप हो गई मगर भूतनाथ की हालत अब इतनी खराब हो गई थी कि वह खड़ा न रह सका और आधी बेहोशी की हालत में उसी जगह जमीन पर गिर पड़ा। न-जाने कब तक वह इसी हालत में पड़ा रहता अगर थोड़ी देर बाद किसी प्रकार की आहट ने उसे चौंकाया न होता। उसने सिर उठाया और अपने दोनों शागिर्दों को दीवार के ऊपर से झाँकते पाया।
हम नहीं कह सकते कि इस समय अपने शागिर्दों को वहाँ देखकर भूतनाथ खुश हुआ या नाखुश, मगर अपनी बेबसी की हालत पर उसे कुछ शर्म जरूर आई। वह फुर्ती से उठ खड़ा हो गया। इसी समय रामगोविन्द ने दीवार पर से पुकार कर कहा, ‘‘आपको लौटने में बहुत देर करते देखकर हम लोग यहाँ चले आये। मगर गुरुजी, यह कैसा नाटक यहाँ रचा गया है, ये सब आदमी कौन हैं? वह राक्षस क्या है और वह लाश कैसी है?’’
भूतनाथ ने कुछ रुकते हुए कहा, ‘‘यह सब किसी शैतान की शैतानी मालूम होती है। यही सब खेल देख इसकी जाँच करने मैं यहाँ रुक गया था पर अभी कुछ निश्चय नहीं कर पाया कि यह क्या बला है। खैर अब तुम लोग यहाँ तक आ ही गए हो तो भीतर भी चले आओ और यह जाँचने में मेरा हाथ बटाओ कि यह सब क्या और किसकी कार्रवाई है,’’
आज्ञा पाते ही भूतनाथ के दोनों शागिर्द अहाते के अन्दर कूद आए और भूतनाथ के पास आकर खड़े हो गए भूतनाथ बोला, ‘‘ये सब मूरतें जो बनावटी हैं और मोम की बनी मालूम होती हैं किसी खास मतलब से यहाँ रक्खी गई हैं।
दोनों शागिर्द० : (ताज्जुब से) मूरतें बोलती हैं!
भूत० : हाँ, अभी यह (हाथ से उस पिशाच की तरफ बताकर) शैतान बोल रहा था और मैं यही जानने की कोशिश कर रहा था कि यह आवाज इसके मुँह से कैसे निकली है। इसमें तो कोई शक ही नहीं है कि मिट्टी, पत्थर या मोम की पुतलियाँ आप से आप बोल नहीं सकतीं, जरूर किसी ने कुछ चालाकी की हुई है। मैं कई बार इस तरह की मूर्तियों को बोलते सुन चुका हूँ पर हर दफे इनके भीतर किसी-न-किसी प्रकार की ऐयारी ही पाई। इस जगह भी जरूर कुछ वैसा ही मामला है।
रामगोविन्द० : जी हाँ, आपने एक बार मुझसे कहा था कि अगस्ताश्रम नामक किसी स्थान में....
भूत० : (जल्दी से) हाँ हाँ, वैसा ही कुछ मामला यहाँ भी जान पड़ता है और जरूर इन मूरतों के भीतर कोई खास तरकीब की गई है जिसके जरिए ये बोलती चालती हैं। (अपने चारों तरफ देख के) यह सब सामान मुझे नया ही बना हुआ जान पड़ता है क्योंकि पहिले इस जगह किसी तरह की कोई इमारत नहीं थी। इसके चारों तरफ घूम-फिरकर देखने से शायद कुछ सुराग लग सके मगर इसके पहिले में इन मूरतों की जाँच करना चाहता हूँ। (रामगोविन्द से) तुम जरा इस खम्भे पर की मूरत को धक्का देकर देखो तो सही कि जड़ी हुई है या अलग है।
रामगोविन्द उस शैतान की मूरत के पास गया और उसे हाथ से धक्का दिया जब वह न हिली तो दोनों हाथ लगा और जमीन से पैर अड़ा जोर से धक्का देना चाहा मगर इसी समय उस मूरत के मुँह से जोर सो आवाज आई, ‘‘बस खबरदार!’’
यह अचानक की आवाज जो किसी पिशाच की आवाज की तरह भयानक मालूम पड़ती थी सुनकर रामगोविन्द चौंक गया और कुछ डर के साथ कभी उस मूरत और कभी भूतनाथ की तरफ देखने लगा। भूतनाथ यह देख बढ़ावा देने वाले शब्दों में बोला, ‘‘तुम उस शैतान के फेर में न पड़ो जो इस मूरत के मुँह से इस तरह की बातें कर रहा है! मैं ऐसे तमाशे बहुत देख चुका हूँ, मैंने जो कहा सो करो और जोर लगाकर उस खम्भे को उलट दो। (बलदेव से) तुम भी जरा अपने भाई की मदद करो तो!’’
दोनों भाई भूतनाथ की बात सुन आगे बढ़े मगर कुछ सकपकाते हुए। अभी दोनों ने मूरत को हाथ भी नहीं लगाया था कि एकाएक फिर जोर से आवाज आई, ‘‘कम्बख्तों! तुम्हारी शामत आई है! क्या तुम मेरी बातों पर यकीन नहीं करते! भूतनाथ के साथ-साथ क्या तुम लोग भी जहन्नुम में जाना चाहते हो?’’
भूतनाथ भी मूरत के पास आ गया और कड़ककर बोला, ‘‘बेशक मैं तुम्हारी बात पर कुछ भी विश्वास नहीं करता। भला यह क्या कभी संभव है कि निर्जीव मूरत आदमियों की तरह बात करे। जरूर यह किसी तरह की ऐयारी है!’’
मूरत जोर से हँस पड़ी और तब बोला, ‘‘किस तरह तुम्हें यह विश्वास होगा कि यह किसी ऐयार की ऐयारी नहीं! क्या मैं अपने वास्तविक शरीर से तुम्हारे सामने आ जाऊँ।’’
भूत० : अगर इस मूरत के अलावे तुम्हारा कोई अलग अस्तित्व भी है तो मैं जरूर उसे देखना चाहता हूँ।
मूरत : अच्छी बात है तो मैं भी तुम्हारे सामने आने के लिए तैयार हूँ। तुम या तुम्हारे ये शागिर्द डरेंगे तो नहीं?
भूत० : नहीं, बिल्कुल नहीं बल्कि तुम्हें तुम्हारी शैतानी का मजा चखाने को तैयार रहेंगे।
मूरत : अच्छी बात है, तो देखो, मैं आया!
यकायक जोर से एक पटाके की-सी आवाज आई और इन तीनों के सामने जमीन पर कुछ धूआं दिखाई पड़ने लगा। यह धूआं धीरे-धीरे गाढ़ा हुआ और तब उसके अन्दर कोई चीज दिखाई देने लगी जो वास्तव में मनुष्य की हड्डियों का एक ढाँचा था। धूआं तो कुछ देर बाद हलका होकर उड़ गया मगर वह मनुष्य की हड्डियों का ढांचा (जिसे देखकर हमारे पाठक तुरत पहिचान जाएँगे क्योंकि यह वास्तव में वही तिलिस्मी शैतान है जिसे वे कई बार पहिले देख चुके हैं) दो कदम आगे बढ़ आया और अपने बिना ओठों के मुँह से भयानक हँसी हँसकर आसमान गुँजा देने वाले भारी स्वर में बोला, ‘‘क्यों, मुझे देख लिया न! अब क्या चाहते हो? क्या मैं तुम तीनों को कच्चा ही चबा जाऊँ?’’
भूतनाथ और उसके दोनों शागिर्दों का डर के मारे बुरा हाल हो रहा था। भूतनाथ तो खैर किसी तरह होश सम्हाले हुए भी था पर उसके दोनों शागिर्द तो इस तरह काँप रहे थे मानों उन्हें जूड़ी चढ़ आई हो। ये लोग काँपते हुए धीरे-धीरे भूतनाथ की तरफ खसकते जा रहे थे और जिस समय अपनी हिम्मत को हाथ में ले भूतनाथ एक-दो कदम आगे बढ़ आया तो दोनों दबक कर उसके पीछे हो गए।
उस शैतान ने डरावनी आवाज में कहा, ‘‘क्यों भूतनाथ, अब क्या कहते हो? क्या अब कोई और भी सबूत चाहते हो?’’
भूतनाथ सकपकाना-सा होकर बोला, ‘‘आखिर आप कौन हैं और क्या चाहते हैं?’’
शैतान अपनी डरावनी आवाज में बोला, ‘‘कौन हूँ? क्या तुम्हें यह अभी तक जानना बाकी है! तुम तो आज बहुत दिनों से मुझे जानते हो? खैर अगर भूल गए हो तो मैं तुम्हें परिचय देने को तैयार हूँ। अच्छा मैं अपना कौन-सा परिचय तुम्हें दूँ? भिन्न-भिन्न अवस्था और भिन्न-भिन्न स्थानों में मैं भिन्न-भिन्न नाम से पुकारा जाता हूँ। तुम मेरा कौन-सा परिचय जानना चाहते हो?’’
भूतनाथ कुछ जवाब न दे सका। वह शैतान कुछ देर तक बिना होठों के मुँह की डरावनी मुस्कुराहट के साथ उसकी तरफ इस आशा से देखता रहा कि शायद वह कुछ बोले, मगर उसे चुप पा खुद ही बोला। ‘‘अच्छा मैं अपना वह परिचय तुम्हें देता हूँ जिससे तुम बहुत सहज में मुझे पहिचान लोगे, मैं वही हूँ जिसके सामने तुम अपने एक कमीने दोस्त के साथ आए थे! मैं वही हूँ जिसके सामने तुमने भुवनमोहिनी के ‘आँचल पर गुलामी की दस्तावेज’ लिख देने को कहा था! और मैं वही हूँ जिसके सामने तुमने शिवगढ़ी का खजाना लेने की लालच में उससे की हुई अपनी प्रतिज्ञा को बिलकुल भूलकर एक बेकसूर औरत का सिर काट डाला था और उस सिर से निकले हुए खून की आखिरी बूँदे मेरे मुँह में डाल कर उस खजाने की चाबी पाना चाहा था पर कुछ विघ्न पड़ जाने से वह काम पूरा न करके और मुझे प्यासा छोड़ के भाग गए थे। दूसरे शब्दों में मैं ‘रोहतास मठ का पुजारी’ हूँ!! कहो अब तुम मुझे पहिचान गए या कोई और परिचय देने की आवश्यकता है!!’’
बादल की गरज की तरह गम्भीर शैतान का स्वर आकाश में फैल गया, मगर किसी ने उसका उत्तर न दिया, उसकी बातों में न-जाने क्या असर था कि भूतनाथ बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा था और उसकी डरावनी शकल न देख सकने के कारण भूतनाथ के दोनों शागिर्द दोनों हाथों से अपना-अपना मुँह ढाँके जमीन पर औंधे पड़े हुए थे।
।। सोलहवाँ भाग समाप्त ।।
पृष्ठ संख्या 34 में दिए हुए मजमून का अर्थ यह हैः-
‘‘4 अक्षर आगे बढ़ाओ।
‘‘कोने वाले फूल खींचों, मगर के पेट में तख्ती है।
उसमें लिखे मुताबिक करो। शेर मत छोड़ो।’’
‘‘पुतलों से होशियार!!’’
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