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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


लामाघाटी के नीचे वाले गुज्जान जंगल के अन्दर से दो आदमी तेजी के साथ जा रहे हैं जिनमें से एक औरत है और दूसरा मर्द।

पाठकों को इनका परिचय देने की जरूरत नहीं है क्योंकि इन्हें वे पहिले भी कई बार देख चुके हैं, इस मर्द का नाम तो सावंलसिंह है और वह औरत गिल्लन है। शेरअलीखाँ की लड़की गौहर के साथ इन दोनों ही को हम लोग पहिले बहुत दफे देख चुके हैं परंतु इधर बहुत दिनों के बाद ये दोनों दिखाई पड़े हैं, आइए पास चलकर इनकी बातें सुनें, शायद उससे कुछ पता लगे कि अब तक कहाँ रहे या क्या करते रहे।

सांवल० : (पीछे की तरफ देखकर) हम लोग काफी दूर निकल आए और किसी तरह का डर नहीं रहा। अब इतनी तेजी से चलने की जरूरत नहीं है।

गिल्लन० : नहीं, अभी थोड़ी दूर और निकल चलना चाहिए। क्या जाने भूतनाथ का कोई शागिर्द या नौकर देख ले तो मुश्किल हो जाएगी और हमें फिर कैद की हवा खानी पड़ेगी।

सांवल० : ऐसे खुले मैदान में हम लोगों को पकड़ लेना कुछ हँसी-खेल थोड़े ही है, खैर तुम्हारी तबीयत है तो मुझे कोई आपत्ति भी नहीं है, थोड़ी दूर और निकल चलो तब कहीं बैठकर सुस्ताओ और सोचो कि अब क्या करना चाहिए।

गिल्लन० : न मालूम गौहर इस वक्त कहाँ होगी?

सांवल० : इधर इतने दिनों में क्या हुआ यह कहना मुश्किल है पर यदि वह स्वतन्त्र है और किसी की कैद में नहीं पड़ गई है तो या तो जमानिया में होगी और या शिवगत्तगढ़ में।

गिल्लन० : या यह भी सम्भव है कि पटने चली गई हो।

सांवल० : हो सकता है।

गिल्लन० : उससे जहाँ तक हो जल्दी मुलाकात करना चाहिए, मैं समझती हूँ कि अगर हम लोग शिवदत्तगढ़ चले चलें तो उसकी कुछ-न-कुछ टोह खबर जरूर पा सकेंगे, महाराज शिवदत्त उस पर दिलोजान से फरेफ्ता हैं और उसका पता जरूर रखते होंगे। शिवदत्तगढ़ यहाँ से बहुत दूर भी न होगा।

साँवल० : दूर नहीं तो नजदीक भी नहीं है, मगर मैं चलने को तैयार हूँ क्योंकि तुम्हारा यह सोचना बेशक ठीक है कि महाराज शिवदत्तसिंह को गौहर का पता जरूर मालूम होगा।

इन दोनों ने अपना रुख बदल दिया और शिवदत्तगढ़ की तरफ जाने लगे। लगभग दो घण्टे के ये लोग इसी तरह चलते गए। इसके बाद एक पक्के कूएँ के पास पहुँचकर गिल्लन ने कहा, ‘‘अब मैं थक गई हूँ, इस जगह कुछ देर ठहर कर सुस्ताये बिना चल न सकूँगी।’’

सांवलसिंह भी यही चाहता था। दोनों आदमी कूएँ की ऊँची जगत पर चढ़ गए और सांवलसिंह ने अपने सामान में से कपड़े का डोल और पतली डोरी निकाल कर पानी खींचा। हाथ-मुँह धो उन लोगों ने जल पीया और कुछ देर तक सुस्ताने की नीयत से लेट रहे। घण्टे भर के आराम ने इन दोनों की थकावट बहुत कुछ दूर कर दी और ये लोग फिर सफर करने लगे।

लगभग आधे घण्टे के तेजी से चले जाने के बाद ये दोनों एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ कुछ नीची पहाड़ियों ने इनका रास्ता रोका हुआ था जिसके आस-पास कई झरने भी दिखाई पड़ रहे थे। इन दोनों ने पहाड़ों पर चढ़ना आरम्भ किया ही था कि यकायक गिल्लन रुक गई और सांवलसिंह का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘क्या मेरा शक ही है कि कहीं पास में कुछ आदमी आपुस में बातचीत कर रहे हैं!’’

साँवलसिंह ने गौर किया और कहा, ‘‘बेशक कुछ आदमियों के बातचीत की आवाज आ रही है।’’

गिल्लन० : क्या हर्ज है अगर हम लोग कुछ रुक कर यह जानने की कोशिश करें कि ये लोग कौन हैं!

सांवल० : (कुछ सोच कर) अच्छी बात है, तुम इस पत्थर की आड़ में छिपकर बैठो मैं जाकर पता लगाता हूँ।

‘‘अच्छा मगर जल्दी आना।’’ कहकर गिल्लन आड़ में हो गई और साँवलसिंह पीछे को लौटकर थोड़ी ही देर में आँखों की ओट हो गया।

साँवलसिंह को गए देर हो गई मगर वह लौटकर न आया, यहाँ तक कि अकेली बैठी गिल्लन घबरा उठी और सोचने लगी कि कहीं वह किसी मुसीबत में तो नहीं पड़ा आखिर वह अपनी जगह से उठी और टोह लेती हुई उस तरफ को बढ़ी जिधर से अब तक कुछ आदमियों के बातचीत करने की बहुत ही धीमी आवाज आती हुई यह बता रही थी कि ये बात करने वाले कहीं दूर पर बातें कर रहे हैं, मगर अभी वह उधर कुछ ही कदम रखने पाई थी कि अपनी बाईं तरफ किसी तरह की आहट पाकर चौंकी और घूमकर देखा तो साँवलसिंह पर निगाह पड़ी जो गट्ठर पीठ पर उठाये हुए था और जिसके पीछे-पीछे गौहर चली आ रही थी।

गौहर देखते ही गिल्लन झपट कर उसके गले से लिपट गई और उसने भी प्यार से चिपका लिया मगर तुरन्त ही अलग होकर बोली, ‘‘यहाँ जरा भी रुकने या बात करने का मौका नहीं बस चुपचाप चली आओ और जहाँ तक जल्दी हो सके दूर निकल चलो।’’ यह सुन गिल्लन को कुछ भी पूछने की हिम्मत न पड़ी और वह चुपचाप गौहर का हाथ पकड़े चलने लगी।

लगभग आधे घण्टे तक बिना कुछ बातचीत किये सब तेजी से चलते रहे, साँवलसिंह सीधी राह से नहीं जा रहा था बल्कि इधर-उधर चक्कर काटता और पेड़ों तथा पहाड़ी ढोंको की आड़ देता हुआ घने जंगल की तरफ बढ़ा जा रहा था। जब वह पहाड़ी जहाँ से ये लोग आ रहे थे एकदम आँखों की ओट हो गई और ये लोग एक गहरे नाले के अन्दर जा पहुँचे जहाँ यकायक किसी की निगाह नहीं पड़ सकती थी तब साँवलसिंह रुका और अपनी पीठ की गठरी उतार सुस्ताने लगा। गौहर भी थकावट की मुद्रा से एक किनारे बैठ गई और गिल्लन को पास बैठने का इशारा किया, दोनों में धीरे-धीरे बातें होने लगीं।

संक्षेप में और बहुत कुछ घटा बढ़ाकर गौहर ने इधर का सब हाल, मुन्दर से उसकी मुलाकात, भूतनाथ का भेद जानने की कोशिश, और अंत में उसके हाथ पड़ जाना इत्यादि बयान किया, मगर कामेश्वर और भुवनमोहिनी वाले भेद को बिल्कुल छिपा गई अर्थात यह न बताया कि भूतनाथ का कौन-सा भेद उसने तथा मुन्दर ने जान लिया है अंत में उसने कहा, ‘‘मुझे और मुन्दर को भूतनाथ ने गिरफ्तार करके एक गुफा में रक्खा था जहाँ से साँवलसिंह ने मुझे छुड़ाया और गठरी में मुन्दर को ले भागे क्योंकि उसे होश में लाने का समय न था। हम लोगों का पता तुम्हें या साँवलसिंह को क्योंकर लगा यह मैं नहीं जानती मगर अब सुनना चाहती हूँ कि इतने दिन दोनों कहाँ रहे और क्या करते रहे तथा इस समय ऐसे मौके पर क्योंकर यहाँ पहुँचे।’’

गिल्लन बोली, ‘‘हम लोगों का हाल कोई कौतूहलवर्धक नहीं है, हम लोगों को भी इसी भूतनाथ ने गिरफ्तार करके अपनी लामाघाटी में रक्खा था जहाँ से आज रात को किसी तरह हम लोग निकल भागे और तुम्हारा पता लेने शिवदत्तगढ़ की तरफ जाने का इरादा कर रहे थे कि यहाँ रास्ते में तुमसे भेंट हुई, हाँ तुम्हारा पता क्योंकर लगा यह साँवलसिंह ही अच्छी तरह बता सकते हैं।’’

इतना कहकर गिल्लन ने साँवलसिंह की तरफ देखा जिसने उसकी बात सुनकर यों कहा, ‘‘तुमसे अलग होकर जब मैं आहट की सीध पर चला तो कुछ दूर जाने के बाद एक जगह मुझे कई आदमी बैठे दिखाई पड़े। मैं छिपता हुआ उनके पास गया और उनकी बातें सुनीं तो मालूम हुआ कि वे लोग भूतनाथ और उसके शागिर्द हैं। यह भी उनकी बातचीत से मालूम हुआ कि (गौहर की तरफ इशारा करके) इन्हें तथा मुन्दर नाम की किसी औरत को गिरफ्तार करके उन लोगों ने पास ही कहीं रक्खा हुआ है, यह सुनते ही मेरे कान खड़े हुए और मैं वहाँ से हटा। इधर-उधर घूम-फिर कर देखा तो वहाँ से कुछ ही दूर पर एक-दो बड़ी गुफाएँ दिखाई पड़ी जिनमें से एक के आगे एक आदमी जो भूतनाथ का ही कोई शागिर्द या नौकर मालूम होता था, एक पेड़ के सहारे उठंगा बैठा हुआ ठंडी-ठंडी हवा के थपेड़ों में ऊँघ रहा था। मैं समझ गया कि हो न हो इसी गुफा में ये लोग होंगी। अस्तु कदम दबाता हुआ मैं उसके पास पहुँच गया।भाग्य ने मेरी मदद की और उसी समय वह आदमी भी एक जंभाई लेकर आलस्य की मुद्रा से जमीन पर लेट गया तथा आँखें बंद कर लीं, मैंने चट आगे बढ़कर बेहोशी की बुकनी उसके नाक में लगाई जिसके असर से आँखें भी न खोलने पाया था कि दो-चार छींके मारकर बेहोश हो गया।मैं उसे उठाकर एक झाड़ी में रख आया और तब गुफा में घुसा तो इन्हें तथा दूसरी औरत को बेहोश पड़े पाया, लखलखा सुंघाकर इन्हें निकल भागा, पता नहीं पीछे क्या हुआ या उस ऐयार ने होश में आने पर क्या किया अथवा अपनी गफलत का हाल भूतनाथ पर क्योंकर बयान किया मगर इतना कह सकता हूँ कि यहाँ तक आ जाने पर भी हम लोग खतरे से खाली नहीं है और जहाँ तक जल्द हो सके हम लोगों को यहाँ से भी और दूर निकल जाना चाहिये क्योंकि कोई ताज्जुब नहीं कि पता लगाता हुआ खुद भूतनाथ या उसका कोई शागिर्द यहाँ तक आ पहुँचे, उस समय बहुत मुश्किल होगी।’’

इसी समय यकायक पेड़ों की एक झुरमुट के अंदर से आवाज आई। ‘‘बेशक! मगर अब भाग कर भी कहाँ जा सकते हो?’’

सब कोई यह आवाज सुनते ही चौंक पड़े। गौहर काँपकर गिल्लन के साथ सट गई और साँवलसिंह भी चिहुँक पड़ा मगर फिर हिम्मत करके उठा और खंजर हाथ में ले उस झाड़ी की तरफ लपका जिसके अन्दर से यह आवाज आई थी। पत्तों की चरमराहट ने किसी आदमी के भागने की सूचना दी जिस पर यद्यपि निगाह तो किसी की न पड़ी मगर आहट पर गौर करता हुआ सांवलसिंह उस तरफ लपक ही गया और गौहर तथा गिल्लन की आँखों की ओट हो गया।

गौहर ने डरी हुई आवाज में गिल्लन से पूछा, ‘‘अब क्या होगा?’’ गिल्लन ने दिलासा दिलाने के ढंग से कहा, ‘‘डरो नहीं, हम लोगों के रहते तुम्हारा कोई कुछ बिगाड़ न सकेगा, मगर यह जरूरी है कि तुम्हारी साथिन होश में कर दी जाय, क्योंकि अगर हम लोगों को यहाँ से भागना ही पड़े तो बेहोश की गठरी लिये हुए भागने में बहुत तकलीफ होगी। और अगर वह होश में रहेगी तो हम लोगों के साथ जा सकती है।’’ गौहर ने इस राय को पसंद किया और गिल्लन ने उठकर मुन्दर की गठरी खोल उसे बाहर निकाला, ऐयारी के बटुए से बेहोशी दूर करने का मल्हम निकालकर उसे सुंघाया तथा कुछ नाक पर मला जिससे मुन्दर की बेहोशी बात-की-बात में दूर हो गई और वह कई छींके मार होश में आकर उठ बैठी तथा ताज्जुब से चारों तरफ देखने लगी, गौहर को अपने पास ही बैठी पा उसकी घबराहट कुछ दूर हुई और वह निश्चिंत-सी होकर बोली, ‘‘यह क्या मामला है? हम लोग कौन-सी जगह आ गये, और महाराज शिवदत्त तथा उनके आदमी सब कहां चले गये?’’

गौहर० : हम लोगों ने बहुत बड़ा धोखा उठाया। वह महाराज शिवदत्त न थे बल्कि भूतनाथ ऐयार था जिसने हमें भुलावे में डालकर सब हाल जान लिया और हमारे सब सबूत भी ले लिये।

मुन्दर० : (चौंक और घबराकर) हैं! वह भूतनाथ था और हमारे सब सबूत उसके हाथ में चले गये?

गौहर० : हाँ, मेरी इस सहेली गिल्लन तथा ऐयार साँवलसिंह ने अभी-अभी हम दोनों को उसके हाथों से छुड़ाया और यहाँ ले आये है।

मुन्दर० : (इधर-उधर देखकर) तब तो तुम्हारी सहेली और ऐयार का बहुत बड़ा एहसान मेरी गर्दन पर है। मगर यहाँ तो मैं केवल (गिल्लन की तरफ इशारा करके) इन्हीं को देख रही हूँ तुम्हारे साँवलसिंह क्या कहीं चले गये हैं?

गौहर० : हाँ, यहाँ तक पहुँचकर भी हम लोग आफत से नहीं छूटे भूतनाथ को हम लोगों का पता लग ही गया और वह या उसका कोई आदमी पीछा करता हुआ यहाँ तक आ पहुँचा जिसकी बात सुनकर साँवलसिंह उसे गिरफ्तार करने गये हुए हैं। (बाईं तरफ देखकर) यह लो सांवलसिंह आ पहुँचे।मगर अकेले आ रहे हैं, मालूम होता है वह ऐयार निकल गया, (आवाज देकर) क्यों साँवलसिंह कुछ पता लगा, वह आवाज देने वाला कौन था?

साँवलसिंह ने पास आकर जवाब दिया, ‘‘जी नहीं। वह कम्बख्त भाग गया। मगर मेरी समझ में अब यहाँ रहना मुनासिब नहीं, कौन ठिकाना वह दो-चार आदमियों को अपनी मदद के लिये लेकर यहाँ आ जाय तो मुश्किल होगी, यहाँ से डेराकूच कर देना मुनासिब है।’’

गौहर० : (उठती हुई) मैं भी यही मुनासिब समझती हूँ और यही समझकर मैं अपनी सखी मुन्दर को भी होश में लाई थी। अब हम लोग कुछ सुस्ता भी चुके हैं, यहाँ से दूर निकल जाना कोई मुश्किल न होगा।

गौहर, गिल्लन और मुन्दर उठ खड़ी हुईं और साँवलसिंह के बताये रास्ते से चलती हुई बहुत जल्द उस जगह से दूर निकल गईं।

जब वह नाला बहुत पीछे छूट गया और पीछा किये जाने का डर जाता रहा तो इन लोगों ने पुनः अपनी चाल धीमी की। उस समय मुन्दर ने कहा, ‘‘हम लोग इतनी तेजी से और ऐसे अनजान रास्ते से आये हैं कि मुझे इस बात का कुछ भी पता नहीं लग रहा है कि यह कौन-सी जगह है। क्या तुम कुछ बता सकती हो?’’

गौहर ने यह सुन जवाब दिया, ‘‘जहाँ तक मैं समझती हूँ अब हम लोग महाराज शिवदत्त के इलाके में आ गये हैं और (सामने की तरफ उँगली उठाकर) उस पहाड़ी को पार करने पर हम लोगों को शिवदत्तगढ़ दिखाई पड़ने लग जायेगा (साँवलसिंह की तरफ देखकर) क्यों साँवलसिंह?’’

साँवल० : जी हाँ, यही बात है। हम लोग शिवदत्तदगढ़ के बहुत पास आ पहुँचे हैं। अब जहाँ तक मैं समझता हूँ कोई हम लोगों का पीछा न कर रहा होगा या अगर करता भी होगा तो हमारा कुछ बिगाड़ न सकेगा। आप चाहें तो यहाँ कुछ देर सुस्ता सकती हैं, या नहीं तो सीधी चली चलें, शिवदत्तगढ पहुँच कर ही डेरा लगाया जायेगा।

गौहर० : (मुन्दर से) क्यों क्या राय है?

मुन्दर० : तुम्हारी जो इच्छा चाहे करो और चाहे जिधर जाना हो जाओ मगर मैं अब तुमसे अलग होऊँगी और सीधी अपने घर जाऊँगी जहाँ से निकले कई दिन हो गये और जहाँ जरूर मेरी राह बेचैनी के साथ देखी जाती होगी।

गौहर० : तो क्या तुम अकेली ही जाओगी! नहीं-नहीं, दुश्मन का डर कदम-कदम पर है और इस तरह अकेले तुम्हारे जाने से मुझे बहुत फिक्र होगी, मेरी समझ में तो तुम मेरे साथ शिवदत्तगढ़ चली चलो, मैं वहाँ बहुत कम देर ठहरूँगी, बस सफर की थकावट मिटा महाराज शिवदत्त से कुछ बातें करने बाद ही मैं वहाँ से चल पड़ूँगी और जहाँ तुम कहो वहाँ चलने को तैयार रहूँगी।

मुन्दर० : नहीं-नहीं, इतना तरद्दुद करने की कोई जरूरत नहीं है। मै अकेले बहुत लंबे सफर कर चुकी हूँ और किसी तरह डरती या घबराती नहीं, तुम बेफिक्री के साथ शिवदत्तगढ जाओ और जब तक तुम्हारी मर्जी हो रहो मगर इतना बतलाती जाओ कि अब हम लोगों में कहाँ और कब मुलाकात होगी।

गौहर० : जब और जहाँ कहो,

मुन्दर० : क्या आज के चौथे दिन अजायबघर वाले जंगल में दोपहर के वक्त मिल सकती हो?

गौहर० : बखूबी।

मुन्दर० : तो बस ठीक है, वही, हम लोगों की भेंट होगी।

इतना कह मुन्दर आगे झुकी और गौहर के कान में बोली, ‘‘हम लोगों के जो सबूत भूतनाथ के हाथ में चले गए हैं उन पर फिर से दखल करना चाहिए। तुम्हारे साथ कई मददगार हैं। अगर हो सके तो कुछ पता लगाना, मैं भी कोशिश करूँगी!’’

गौहर ने यह सुन मुन्दर का हाथ पकड़ लिया और कुछ अलग ले जाकर बातें करने लगी। लगभग आधी घड़ी तक दोनों में धीरे-धीरे कुछ बातें होती रहीं। इसके बाद दोनों अलग हुईं और मुन्दर जमानिया की तरफ तथा गौहर, गिल्लन और साँवलसिंह शिवदत्तगढ़ की तरफ रवाना हुए।

गौहर इत्यादि का साथ छोड़कर हम मुन्दर के साथ चलते हैं और देखते हैं कि वह किधर जाती या क्या करती है। मुन्दर गौहर से विदा होकर अभी बहुत थोड़ी ही दूर गई होगी कि अचानक उसे अपने पीछे हुई आहट सुनाई पड़ी और घूमकर देखने से साँवलसिंह पर निगाह पड़ी जो तेजी से इसकी तरफ आ रहा था। उसे आते देख यह रुक गयी और जब वह पास आ गया तो बोली, ‘‘क्यों क्या हुआ जो तुम इतनी तेजी से चले आ रहे हो, खैरियत तो है!’’

सांवलसिंह ने कहा, ‘‘सब ठीक है, गौहर ने यह समझकर कि आपका अकेले इतना लम्बा सफर करना मुनासिब नहीं है मुझे आपके साथ-साथ जाकर जमानिया या जहाँ आप जाना चाहें पहुँचा देने को कहा है और यह भी कहा है कि अगर आप मुझे साथ रखना पसन्द न करें तो मैं हट जाऊँ मगर छिपा-छिपा पीछे-पीछे तब तक चला जाऊँ जब तक कि आप अपने ठिकाने पहुँच न जाएँ। अब आप कहिए तो मैं आपके साथ-साथ चलूँ नहीं उनका दूसरा हुक्म बजाऊ और छिप कर आपका पीछा करूँ।’’

मुन्दर यह सुन हँसकर बोली, ‘‘नहीं-नहीं, छिपकर पीछा करने की जरूरत नहीं, तुम खुशी से मेरे साथ चल सकते हो और मैं उनकी शुक्रगुजार हूँ जो उन्होंने मेरा इतना खयाल किया, मगर बात यह थी कि मैंने तुम्हें साथ न लेना इसलिए सोचा था कि तुम लोग खुद ही कैद की तकलीफ भोगकर आ रहे हो उस पर से इतना लम्बा सफर मुनासिब न होगा। इसी खयाल से मैंने उनके कहने पर भी किसी को साथ लेना मुनासिब न समझा था।’’

साँवल० : ऐसा सोचना आपकी मेहरबानी थी, पर फिर भी उसकी कोई जरूरत न थी। हम ऐयारों का तो पेशा ही दौड़-धूप-परेशानी और मुसीबत उठाने का है।जब इसी बात की रोटी खाते हैं तो कैद की तकलीफों का खयाल कहाँ तक किया जायगा, और फिर आपका साथ तो मेरे हक में इसलिए बहुत ही अच्छा होगा कि जैसा मैंने गौहर से सुना आप ऐयारी के फन में बहुत ही होशियार हैं और बड़े-बड़े खतरनाक भेदों का पता लगा चुकी हैं। सचमुच ईश्वर ने आपको जैसी खूबसूरती दी है वैसा ही दिल और दिमाग भी दिया है।

तरह-तरह की मीठी और खुशामद की बातें कहकर साँवलसिंह ने बहुत जल्द मुन्दर का मन अपने हाथ में कर लिया और तरह-तरह की बातें करते हुए दोनों आदमी जमानिया की तरफ रवाना हुए।

वह समूचा दिन और रात का भी कुछ हिस्सा सफर में बीत गया, मुन्दर की इच्छा एकदम सीधे अपने घर अर्थात पिता के यहाँ चले जाने की थी मगर दूरी बहुत ज्यादा थी और कैद तथा बेहोशी की तकलीफ से वह नाजुक औरत कमजोर भी हो रही थी। फिर भी वह तब तक चली गई जब तक कि हर कदम पर यह न मालूम होने लगा कि अब दूसरा कदम न रख सकेगी बल्कि कोशिश करेगी तो ठोकर खाकर गिर पड़ेगी। साँवलसिंह ने यह देख बहुत कुछ समझा-बुझाकर उसे कुछ देर आराम करने को राजी किया और उसके यह वादा करने पर कि पौ फटने के घण्टा भर पहिले ही वह पुनः सफर शुरू कर देगा मुन्दर ने चलना बन्द किया।दोनों आदमी अपना रुख बदलकर थोड़ी देर चलने के बाद ही गंगा तट पर पहुँच गए जहाँ मुन्दर ने हाथ-मुँह धोया और साँवलसिंह का दिया हुआ कुछ मीठा खाकर एकदम चूर हो गई भई एक पेड़ के नीचे पड़ गई जहाँ साँवलसिंह ने कुछ पत्ते बटोर और अपना दुपट्टा उस पर बिछा उसके लेटने का इन्तजार कर दिया था। उसे एकदम बेफिक्र होकर आराम करने को कह साँवलसिंह जरूरी काम से छुट्टी पाने चला गया और थकी हुई मुन्दर भी जमीन से पीठ लगाने के कुछ ही देर बाद इस तरह की गाफिल नींद में सो गई कि मालूम होता था कि सुबह होने पर भी न जागेगी।

लगभग घण्टे भर बाद सब कामों से निपट जिस समय साँवलसिंह वहाँ लौटा जहाँ मुन्दर को छोड़ आया था तो उसे गहरी नींद में पाया। उसने भी यह देख मुन्दर से कुछ हटकर एक पेड़ के नीचे आसन जमाया।कुछ देर तक पेड़ के तने के साथ उठूँगा हुआ वह न जाने क्या-क्या सोचता रहा मगर धीरे-धीरे थकावट और नींद ने उस पर भी कब्जा कर ही लिया और मुन्दर की तरह लम्बा हो कर वह भी गहरी नींद में बेसुध हो गया।

अचानक किसी तरह की आवाज ने मुन्दर की तो नहीं पर साँवलसिंह की निद्रा भंग कर दी। उसने दो-एक करवटें बदलकर आँखें खोल दीं और इधर उधर देखने लगा, सन्नाटा छाया था जिसके बीच केवल गंगा का मधुर कलरव या कभी-कभी दरियाई चिड़ियों या जंगली जानवरों के बोलने की आवाज सुनाई दे जाया करती थी। मुन्दर उसी तरह मुर्दों से बाजी लगाए पड़ी हुई थी और इन लोगों का थोड़ा-बहुत सामान उसी तरह पेड़ की डाली पर रक्खा हुआ था जिस तरह रखकर साँवलसिंह लेटा था।सब ज्यों-का-त्यों था पर फिर भी साँवलसिंह को ऐसा भास होता था मानों कोई-न-कोई बात यहाँ पर जरूरी हो रही है जिसे यद्यपि वह देख या जान न रहा था पर अनुभव कर सकता था। आखिर उससे न रहा गया और वह उठकर बैठ गया। बैठने के साथ ही उसे ऐसा मालूम हुआ मानों कोई झपटकर उसके बगल से होता हुआ पास की झाड़ी में घुस गया हो। वह यह नहीं समझ सका कि यह कोई आदमी था या जंगली जानवर क्योंकि उसकी निगाह दूसरी तरफ थी पर फिर भी उसका शक्की मन चंचल हो उठा और वह फुर्ती से उठ खड़ा हुआ।साथ ही उसका हाथ उसकी कमर में गया पर उसे खाली पाया अर्थात वह खंजर जिसे रात को कमर में खोस वह सोया था मौजूद न था। देखते ही वह चौंक पड़ा और समझ गया कि उसके सोए रहने की हालत में कोई-न-कोई वहाँ जरूर आया है, वह जो कोई भी हो।सिर्फ उसकी कमर का खंजर लेने नहीं आया होगा बल्कि कुछ फसाद भी मचा गया होगा यह खयाल बिजली की तरह उसके मन में दौड़ गया। वह झपटकर उस जगह पहुँचा जहाँ मुन्दर सोई हुई थी। मुन्दर के बदन पर हाथ रखते ही वह चौंक गया और उसके मुँह से बेतहाशा चीख की आवाज निकल पड़ी क्योंकि मुन्दर का बदन बर्फ की तरह ठण्डा था।

घबराए हुए साँवलसिंह ने जल्दी-जल्दी अपना सामान उतारकर रोशनी की और पुनः मुन्दर के पास पहुँचा। उसके मुँह से दुबारा एक चीख निकल पड़ी जब उसने देखा कि मुन्दर मुर्दा है, एक खंजर उसकी छाती में दस्ते तक घुसा हुआ है, और बहुत-सा खून निकल कर चारों तरफ फैला है, पहिली ही निगाह ने यह भी बता दिया कि जो खंजर उसकी मौत का सबब हुआ वह उसी का है।

केवल इतना ही नहीं, अभी साँवलसिंह मुन्दर को छुने जाकर अपनी उंगलियों में लग गए हुए खून की तरफ डरी हुई निगाहों से देख रहा था कि चारों तरफ से आकर कई आदमियों ने उसे घेर लिया और ‘‘यही है, इस औरत का खूनी यही है!!’’ कहकर चिल्लाने लगे।

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