मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 6 भूतनाथ - खण्ड 6देवकीनन्दन खत्री
|
9 पाठकों को प्रिय 148 पाठक हैं |
भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण
छठवाँ बयान
काशी की पवित्रता और शोभा को सहस्त्रगुना बढ़ाने वाली भगवती गंगा इस आधी रात के सन्नाटे में भी अपूर्व छवि दरसा रही है।
सारे शहर में सन्नाटा है। सिवाय उन लोगों के जिनका काम ही रात के अंधियारे की ओट में होता है और कहीं कोई भी चलता-फिरता नजर नहीं आता। परंतु गंगातट के घाटों पर फिर भी इक्के-दुक्के नहाने वाले कहीं-कहीं दिखाई पड़ ही रहे हैं और ‘हर हर महादेव’ के शब्द के साथ उसके त्रिपाप-नाशी प्रभाव में गोते लगाने वाले इस समय भी मौजूद ही हैं, तारों की साड़ी पहने हुए भगवती गंगा इस सुनसान समय में मधुर शब्द करने वाली लहरों का नूपुर बजाती हुई मानों भगवान विश्वनाथ की सेवा में जाने को व्याकुल जान पड़ती हैं पर करें क्या? जो मुमुक्ष, दूर-दूर से उनके दर्शन और स्पर्श से जन्म-जन्म का पाप धोने के लिए उनके तट पर आन बैठे हैं उन्हें त्राण दिए बिना वे वहाँ से कैसे हटें, मानों यही सोच मन मसोसकर रह जाती हैं। रात का समय होने पर भी न तो स्नानार्थियों का तांता टूटता है और न इधर भगवती को अवकाश मिलता है कि वे बाबा विश्वनाथ के मन्दिर में जाएँ और उनकी चरण-सेवा कर अपने को कृतार्थ करें।
प्रसिद्ध मणिकर्णिका का दृश्य तो और भी विचित्र है। एक तरफ तो अभी-अभी आया हुआ यात्रियों का दल स्नान की तैयारी कर रहा है। दूसरी तरफ धू-धू करती हुई एक चिता जल रही है। उससे थोड़ा ही हट एक मढ़ी पर कुछ साधु खंजड़ी की आवाज पर भजन गा रहे हैं और दम पर दम गांजे की ऊँची उठने वाली लपटें उनकी विचित्र भाव-भंगी दिखला रही हैं तथा चौथी तरफ कुछ यात्री भोजनादि से निवृत्त हो घाट के किनारे लगे तख्तों पर ही लेटने की तैयारी कर रहे हैं। गरज कि आधी रात बीत चुकने पर भी गंगा माता को विश्राम नहीं है।
परंतु हम पाठकों को ऐसे बेवक्त इन सब मामूली चीजों को दिखने नहीं लाए हैं। हम तो इस समय किसी और ही मतलब से यहाँ आए हैं और एक विचित्र ही दृश्य देखने में आपकों अपना साथी बनाया चाहते हैं। इधर आइए। वह देखिए, एक बहुत बड़ा बजरा अभी-अभी आकर यहाँ लगा है। इधर हमारे साथ चुपचाप चले आइए और देखिए कि उसके अन्दर क्या है।
रात का समय यद्यपि ठीक-ठीक यह पता नहीं लगने देता कि बजरे के ऊपर किस तरह का सामान है या कितने आदमी सवार हैं पर उसके भीतर के हिस्से में बलने वाली रोशनी की मदद से वहाँ का कुछ हाल जाना जा सकता है, जो यद्यपि डरावना तो नहीं मगर चौंका देने वाला जरूर है, दस-बारह हाथ लम्बी और करीब छः या सात हाथ चौड़ी कोठरी जो बजरे के कद को देखते हुए बता रही है कि इसके बाद इस तरह की दो-एक कोठरियाँ और भी होंगी, तरह-तरह के विचित्र सामानों से भरी हुई है, पीछे की दीवार से सटकर बिछी ऊँची गद्दी पर कोई लेटा हुआ है पर वह औरत है या मर्द हम कुछ कह नहीं सकते। क्योंकि लाल रंग की एक हल्की ऊनी चादर से उसका तमाम बदन सिर से पैर कर ढँका हुआ है। उसके बाई तरफ गद्दी के नीचे और उससे कुछ हटकर दो मजबूत चौकोर पिजड़े रखे हुए हैं जिनमें दो चीते के बच्चे पुआल के ऊपर बैठे हैं मगर इधर-उधर देखते हुए वे कभी-कभी हल्की आवाज से गुर्रा उठते हैं और गर्दन ऊँची कर हवा को इस तरह सूँघते हैं मानों उन्हें कोई परिचित गंध मालूम हो रही है, पिंजडों के पीछे बजरे की खिड़कियों से सटे हुए दो-तीन ऊँचे-ऊँचे संदूक रक्खे हुए हैं मगर ढकना बन्द रहने के सबब से यह नहीं जाना जा सकता कि उनके अन्दर क्या है? गद्दी के दूसरी तरफ अर्थात पिंजड़ों के सामने की तरफ एक तलवार और ढाल रखी हुई है, तलवार खून से रंगी हुई है और ढाल पर भी खून के छीटे पड़े हुए हैं, पर यह खून जम कर काला हो गया है और ऐसा जान पड़ता है मानों बहुत दिन का है, तलवार का कब्जा शीशे की एक बहुत बड़ी बोतल के ऊपर पड़ा हुआ है जिसका पेट हाथ भर से किसी तरह कम न होगा।इस बोतल के अन्दर भी कोई चीज रक्खी हुई मगर वह क्या है यह नहीं जान पड़ता, क्योंकि बोतल और गद्दी के नीचे की तरफ बलने वाली रोशनी के बीच में लाल पत्थर की बनी हुई और कोई हाथ-डेढ़ हाथ ऊँची एक मूर्ति रक्खी हुई है जिसकी आड़ में वह बोतल पड़ गई है। बजरे के चारों तरफ की दीवारों के साथ तरह-तरह के हथियार, कपड़े और दूसरी चीजें टंगी हुई हैं।
हम अभी इस बात को देख रहे थे कि इन सामानों का मालिक भी यहाँ कोई है या नहीं कि अचानक ऊपर की तरफ घाट की सीढ़ियाँ उतरते हुए दो आदमी दिखाई पड़े। पास आने पर मालूम हुआ कि इनमें से एक तो मर्द है और दूसरी औरत, औरत जो आगे-आगे आ रही है अपना समूचा बदन एक सफेद चादर से ढंके हुए है। इस कारण उसकी उम्र या सूरत-शक्ल का अंदाजा लगाना कठिन है, मगर वह मर्द जो कुछ बातें करता हुआ औरत के पीछे-पीछे चला आ रहा है एक नौजवान आदमी मालूम पड़ता है जिसकी पोशाक यह भी बता रही है कि वह इस पेशे की जानकारी रखने वाला कोई ऐयार है क्योंकि उसकी कमर से एक बटुआ और कन्धे से कमंद लटक रही थी।
तेजी से घाट की सीढ़ियाँ उतरते हुए दोनों आदमी बजरे के पास पहुँच गए। उस समय उस ऐयार ने ‘‘गोपाल, गोपाल!’’ करके कई आवाजें दीं जिसे सुनते ही एक दूसरा नौजवान लालटेन लिए हुए बजरे के बाहर आया, हाथ का सहारा दे इस आदमी ने उस औरत को बजरे पर चढ़ा लिया और उसके पीछे वह ऐयार भी चढ़ गया गोपाल ने अपने पास से एक ताली निकालकर बजरे के अंदर वाले कमरे में जाने का दरवाजा खोला और तब से ये तीनों आदमी अन्दर उसी कमरे में जा पहुँचे जिसके विचित्र सामान का हाल हमने ऊपर लिखा है। दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया गया।
एक सरसरी निगाह उस औरत ने वहाँ पड़े सामानों की तरफ डाली और तब अपने साथी ऐयार से गद्दी पर पड़े आदमी की तरफ उँगली दिखाकर पूछा, ‘‘क्या यही वह....!’’
ऐयार० : हाँ यही वह शख्स है। मगर मुझे यह बताते सख्त अफसोस होता है कि उस लड़ाई में जो हम लोगों को इसे अपने कब्जे में करने के लिए लड़नी पड़ी इसने हमारे दुश्मनों का साथ दिया और कैद की सख्तियों के सबब कमजोर होते हुए भी हम लोगों पर इतना कड़ा हमला किया कि हम लोग ताज्जुब में आ गए तथा गिनती में उन लोगों से बहुत ज्यादे होने पर भी हमें अपने बचाव की फिक्र करनी पड़ गई। जब लड़ाई खत्म हो गई तो देखा गया कि यह बहुत जगह से जख्मी होकर जमीन पर पड़ा है और उसी सबब से....’’
औरत० : (घबराकर) हाँ, हाँ, उसी सबब से....? क्या हुआ?
ऐयार० : (धीमी आवाज में) थोड़ी देर हुई कि इसने दम तोड़ दिया।
यह सुनते ही उस औरत ने एक चीख मारी और यह कहती हुई कि ‘आह! कम्बख्त, तूने यह क्या खबर सुनाई!’ वह बेतहाशा उस आदमी की तरफ झपटी जो गद्दी पर पड़ा हुआ था। अपनी चादर उतारकर फेंक दी और तब हमने देखा कि यह बहुत ही हसीन, नाजुक और खूबसूरत औरत है। उसने वह चादर जो उस आदमी पर पड़ी हुई थी उतारकर अलग कर दी। एक निगाह उसके पीले मगर खूबसूरत चेहरे पर डाली और तब बेतहाशा उसके बदन से चिपककर जार-जार रोने लगी।
दोनों आदमी लाचारी की-सी हालत में खड़े उस औरत की यह बदहवासी की हालत देख रहे थे। आखिर कुछ देर के बाद उस ऐयार ने आगे बढ़ कर उसकी पीठ पर हाथ रक्खा और दिलासा देने वाले मगर साथ ही साथ कुछ हुकूमत मिले लहजे में कहा, ‘‘छीः! यह तुम्हारी क्या हालत है! क्या इसी दिल को लेकर अपना काम खतम करोगी तुम्हारी उन लम्बी-चौड़ी बातों का क्या यही नमूना है? अरे इनको तो हम लोग आज से बरसों पहिले मुर्दा समझ चुके थे! तुम तो न-जाने कब से इनकी सब उम्मीदे छोड़ बैठी हो, अब क्या इस तरह अधीर होने से काम चलेगा! उठो, अपने को सम्हालो! गये-गुजरे के गम में अपने को बरबाद करने का यह वक्त नहीं है बल्कि यह बदला लेने का वक्त है। जिस दिन का तुम इतने समय से राह देख रही थीं वह अब आया है! उठो। होशहवास सम्हालो, और देखो कि हम लोगों की मेहनत तुम्हारे लिए क्या-क्या सामान लाई है, अब रोने बिलखने का वक्त नहीं रह गया, काम करने और बदला लेने का वक्त आया है!’’
इस आदमी की बातें सुन उस औरत ने आँसुओं से तर अपनी आँखें इसकी तरफ उठाईं और एक सायत के लिए कुछ सोचने के बाद कहा, ‘‘ठीक कहते हो! इन्हें तो मैं आज के बरसों पहिले ही से मुर्दा समझे बैठी थी! मेरे लिए तो ये तब भी मुर्दा थे और अब भी मुर्दा हैं, फिर भी इनके पाए जाने की बात सुनकर मैं पागल हो गई थी। खैर अब मैं इस कमजोरी को अपने से बिल्कुल दूर कर देती हूँ! अब इनकी मौत का बदला, सिर्फ बदला लेना ही मेरी जिन्दगी का अकेला काम रहेगा! (लाश की तरफ देखकर) प्यारे! घबराओ नहीं! तुम चले गए तो क्या हुआ! मैं तो बैठी हूँ! जो-जो तकलीफें तुमने उठाई हैं उनमें से एक-एक का ऐसा बदला मैं लूँगी कि दुश्मन को भी याद आ जाएगा। नहीं-नहीं, एक दिन जब उसे भी तुम्हारी ही तरह जमीन पर मुर्दा पड़ा हुआ देखूँगी और उनके सिर को अपने पैरों से ठुकराऊँगी तब मेरे चित्त को शान्ति मिलेगी और तभी मैं तुम्हारी आत्मा को शान्ति दे सकूँगी!’’
आवेश में भरी हुई उस औरत ने एक बार फिर उस लाश को अपने बदन से चिपटा लिया और तब उसके ठंडे होंठो पर कुछ सायत के लिए अपने क्रोध से लाल और आवेग से गर्म भए होंठो को रख दिया, इसके बाद वह उठ बैठी, एक आखिरी निगाह उस लाश पर डाली और तब एक ठंडी साँस लेकर उसी चादर से लाश को ढांक सम्हल कर बैठ गई। अपने आँसू पोंछ डाले और उन दोनों आदमियों की तरफ देखकर बोली, ‘‘हाँ अब बताओ क्या कहते हो?’’
उस ऐयार ने जो उसके साथ आया था जवाब दिया, ‘‘पहिले इन सब चीजों को देख लो जो इसके साथ-साथ हम लोग ले आए हैं और तब इस बात पर विचार करो कि हमें दुश्मन के साथ क्या कार्रवाई करनी चाहिए!!’’
औरत० : (जोश के साथ) क्या कार्रवाई करनी चाहिए! अजी उसे एकदम नेस्तनाबूद कर देना चाहिए! उसकी ऐसी हालत कर देनी चाहिए कि गली के कुत्तों को भी उसके हाल पर रहम आवे! और क्या करना चाहिए!
ऐयार० : तुम भूल रही हो कि वह कितना भारी ऐयार है और कितनी जबर्दस्त ताकत रखता है!
औरत० : मैं यह खूब जानती हूँ, क्या तुम समझते हो कि मैं भूतनाथ की....
ऐयार० : (रोककर) चुप-चुप-चुप! दीवारों के भी कान होते है,। खबरदार, कोई नाम अपनी जुबान से न निकालो और यह याद रखो कि हम लोगों की सबसे बड़ी ताकत हमारा छिपे रहना और छिपे-छिपे ही काम करना होगा, अपने को प्रकट करके या यह जाहिर करके कि हम लोग फलाने के साथ दुश्मनी की नीयत रखते हैं, हम लोग अपने को ज्यादा देर तक स्वतन्त्र नहीं रख सकते।
औरत० : बेशक तुम ठीक कहते हो? खैर इधर आओ और मुझे बताओ कि ये क्या चीजें तुम लाए हो। क्या यह सब सामान तुम्हें उसी जगह से मिला है?
ऐयार० : नहीं, यह किसी एक जगह से नहीं बल्कि कई जगहों से हम लोगों को मिला है। सच तो यह है कि इस वक्त ईश्वर ही ने हमारी मदद की है और ऐसे-ऐसे सबूत हमारे हाथ में जुटा दिए हैं कि जिन्हें पाने की हम लोग स्वप्न में भी आशा नहीं करते थे। (वह तलवार उठाकर) देखो यही वह तलवार है जिससे वह भयानक काम किया गया था। इसी तलवार ने उस बेबस लाचार दुखिया और बेकसूर औरत की गर्दन काटी थी और इस पर पड़े हुए खून के ये दाग अभी तक उस भयानक कार्रवाई की गवाही देने को मौजूद हैं।
औरत० : (तलवार हाथ में लेकर और गौर से देखकर) इस पर इस जगह मूठ के पास कुछ अक्षर खुदे-जान पड़ते हैं।
ऐयार० : हाँ, मैंने भी उन्हें देखा मगर इन खून के छीटों की वजह से उन्हें पढ़ नहीं सका, अगर ये दाग साफ किए जायँ तो वे अक्षर पढ़े जा सकते हैं मगर....
औरत० : ये दाग उन अक्षरों से ज्यादा कीमती होंगे! क्यों यही तो?
ऐयार० : ठीक है, यही मेरा ख्याल है! जिस समय यह तलवार उस कातिल के सामने रख दी जायगी, ये खून के छीटे उसके काले दिल को जला-जलाकर उसे उसकी करतूतों की याद दिलाएँगे और उसे अपना कसूर कबूल करने पर मजबूर करेंगे!!
औरत० : बेशक श्यामसुन्दर, यह तुम्हारा कहना बहुत ठीक है! एक सायत के लिए मैंने सोचा कि तलवार को साफ करके वह मजमून पढ़ूँ मगर अब मैं भी तुम्हारी ही तरह सोचती हूँ कि यह तलवार ज्यों-कि-त्यों ही रहना ठीक और मुनासिब है, अच्छा इस बोतल में क्या है!
‘‘देखो और पहिचानो!’’ कहकर इस ऐयार ने जिसे अभी-भी इस औरत ने श्यामसुन्दर के नाम से सम्बोधित किया था। वह बोतल उठा ली और रोशनी की तरफ की। श्यामसुन्दर के साथी गोपाल ने लालटेन उठाकर दिखाई जिसकी रोशनी में एक ही झलक डालकर वह औरत चिल्ला उठी और दोनों हाथों से अपनी आँखें ढाँक कर बोली, ‘‘हैं है! भुवनमोहिनी का सिर है?’’
सचमुच उस बड़ी बोतल के अन्दर एक कमसिन, नाजुक औरत का कटा हुआ सर रक्खा हुआ था। इसमें कोई शक नहीं कि वह बहुत दिन से उस बोतल में रक्खा हुआ होगा पर किसी तरह के मसाले में डूबा रहने के कारण वह किसी तरह से बिगड़ा न था और नाजुक चेहरे की एक-एक शिकन साफ-साफ दिखाई पड़ रही थी।ओफ, कैसी भोली वह सूरत थी! पतले होंठ, नुकीली नाक, कटीली आँखें, किसी समय कैसा गजब करती होंगी, मगर इस समय किसी बेदर्द कातिल के संगदिल कलेजे की याद दिलाती हुई मौत की आखिरी तकलीफ बयान कर रही थीं। आह! कैसा पत्थर का वह कलेजा होगा जिसने ऐसी नाजुक कमसिन गुलबदन की पतली गरदन पर छुरी चलाई होगी? हाय क्या ऐसे संगदिल भी दुनिया में हैं!!
उस औरत के मुँह से ‘भुवनमोहिनी’ का नाम निकला ही था कि श्यामसुन्दर ने कड़ी निगाहों से उसकी तरफ देखा और कहा, ‘‘फिर तुमने वही काम किया! मैंने कहा कि दीवारों के भी कान होते हैं, जो काम तुम कर रही हो उसमें कोई नाम मुँह से निकालना कभी माफ न किया जाने वाला कसूर होगा, जिसके लिए शायद तुम्हें पछताना पड़े!!’’
औरत डरी हुई निगाहें उस पर डालती हुई बोली, ‘‘बेशक मुझसे गलती हुई। मगर यकायक इतने दिनों के बाद इस सूरत को अपने सामने देख मैं होश-हवास में नहीं रह गई थी। यह सूरत मुझे क्या-क्या याद दिला रही है इसे पूरा-पूरा तुम भी नहीं समझ सकते, खैर तुमने इसे पाया कहाँ? यह सिर किसने और किस नियत से इस बोतल में बन्द कर रक्खा है?’’
श्याम० : यह सब हाल मैं तुम्हें खुलासा सुनाऊँगा, पहिले तुम इन बाकी चीजों को भी देख लो।
औरत० : अच्छी बात है, यह पत्थर की मूरत कैसी है?
श्याम० : यह भी उसी जगह हम लोगों को मिली जहाँ यह बोतल मिली थी। इसका ठीक-ठीक हाल मैं नहीं जानता पर ऐसा जान पड़ता है कि इस मूरत का इस खून से कोई सम्बन्ध है।
औरत० : जरा लालटेन ऊँची करो तो मैं इसे देखू।
गोपाल के लालटेन ऊँचा करने पर उस औरत ने झुककर गौर से उस मूरत को देखा, लाल पत्थर या मिट्टी की यह मूरत राक्षस की-सी बनी हुई थी जिसका भयानक मुँह और डरावने दाँत देखने से भय मालूम पड़ता था। इसके हाथ के पंजों मे शेरों के-से नाखून थे और इसकी दोनों बांहों पर से दो साँप फन काढ़े हुए ऊपर को उठे हुए थे।
एक निगाह इस मूरत को देखते ही वह औरत चमक उठी, मगर उसने अपने आप को सम्हाला और दिल के भाव को छिपाती हुई बोली, ‘‘अच्छा और क्या-क्या चीज तुम लोग लाए हो?’’
श्याम० : उठो तो मैं तुम्हें दिखाऊँ! इन सन्दूकों में कई बहुत ही काम की चीजें हैं।
श्यामसुन्दर ने एक बगल रक्खे हुए संदूकों में से एक का ढकना खोला और उस औरत ने पास जाकर उसके अंदर देखा। तरह-तरह के कपड़ों से वह संदूक भरा हुआ था। श्यामसुन्दर ने उसमें से दो-चार कपड़े बाहर निकाले और रोशनी की तरफ करके कहा, ‘‘मैं समझता हूँ कि तुम इन्हें जरूर पहिचानती होगी।’’
‘‘मैं इन्हें बखूबी पहिचानती हूँ कहकर उस औरत ने एक लम्बी सांस ली और तब दूसरे संदूक की तरफ बड़ी। श्यामसुन्दर ने इसका भी ढकना खोला। इसमें तरह-तरह के फुटकर सामान, कुछ बरतन, बहुत से कागजात और चिट्ठियाँ, तथा कुछ जेवरात थे, जिन्हें सरसरी निगाह से वह औरत देख गई और तब तीसरे संदूक की तरफ बढी। श्यामसुन्दर ने ढकना खोला और उसने झाँककर भीतर देखा।
न जाने इस संदूक के अन्दर क्या चीज उस औरत को दिखाई पड़ी कि उसके मुँह से एकदम चीख की आवाज निकल पड़ी और वह डर कर पीछे हटती हुई बदहवासी की हालत में जमीन पर बैठ गई। श्यामसुन्दर ने जल्दी से संदूक का ढकना बन्द कर दिया और उस औरत के पास जा उसके मुँह पर हवा करने लगा।गोपाल एक बर्तन में पानी ले आया जिसके कई छींटे चेहरे पर देने और देर तक हवा करने पर उस औरत के होश ठिकाने आये मगर उस संदूक की तरफ निगाह पड़ते ही उसने डर कर अपनी आँखें बन्द कर लीं। श्यामसुन्दर ने यह देख हँस के कहा, ‘‘बस ऐसा ही दिल ले के तुम इस भयानक काम में हाथ डालना चाहती हो जिसमें कदम-कदम पर खतरा है!’’
औरत० : नहीं, मेरे दोस्त! मौका पड़ने पर तुम देखोगे कि मेरा दिल पत्थर से भी कड़ा हो सकता है, पर इस तरह यकायक उस चीज को देखने की आशा न थी जो इस वक्त मैंने देखी, खैर अब बस करो, अब मैं और कोई चीज इस वक्त देखना नहीं चाहती। जो कुछ मैंने देखा वही बहुत है।
श्यान० : जैसी तुम्हारी इच्छा! तो अब यह बताओ कि तुम्हारा इरादा क्या होता है? ये सब चीजें इसी तरह इस बजरे पर रहने दी जायँ या तुम्हारे घर भेज दी जायँ?
औरत० : क्या इस बजरे में कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ बैठ कर हम लोग सलाह-मशविरा कर सकें? इस जगह इन डरावनी याददाश्त जगाने वाली चीजों के बीच में बैठकर कुछ निश्चय करना मेरे लिए कठिन होगा।
श्याम०: हाँ-हाँ, इसके बगल में एक छोटी-सी कोठरी और है, उसमें बैठकर हम लोग बातें कर सकते हैं।
इस कमरे का दरवाजा भीतर से बन्द कर दिया गया और एक दूसरे दरवाजे को खोल ये तीनों आदमी उस दूसरी कोठरी में जा पहुँचे जो इससे सटी हुई थी और जहाँ एक मामूली फर्श के इलावे किसी तरह का कोई सामान न था। तीनों आदमी फर्श पर बैठ गए और आपुस में बातें करने लगे।
घण्टे भर से कुछ ऊपर ही समय तक इन सभों में किसी गुप्त विषय पर बातें होती रहीं। वे बातें किस विषय की थीं या उनके जरिये क्या-क्या तय हुआ यह हम नहीं जान सके इसमें शक नहीं कि आगे चलकर इसका तो पूरा-पूरा पता लग जायेगा।
बातें समाप्त होने पर वह औरत उठ खड़ी हुई और उसके तीनों साथी भी खड़े हो गए। तीनों बजरे के बाहर आए जहाँ श्यामसुन्दर ने उस औरत से पूछा, ‘‘तुम अकेली चली जाओगी या मैं साथ चल कर पहुँचा आऊँ?’’ जवाब में उसने कहा, ‘‘मैं बखूबी चली जाऊँगी, तुम्हारे साथ की मुझे कोई जरूरत नहीं, मगर तुम अब बिल्कुल देर न करो और जहाँ तक जल्द हो सके यहाँ से रवाना हो जाओ।
इसके जवाब में श्यामसुन्दर ने कहा, ‘‘तुम विश्वास रक्खो कि सूरज की पहिली किरण के साथ यह बजरा घाट छोड़ देगा और जहाँ तक जल्द हो सकेगा मैं उस ठिकाने पर पहुँच कर तुम्हारी राह देखूँगा मगर तुम बहुत होशियार रहना, ऐसा न हो कि किसी को पता लग जाय और सब करी-कराई मेहनत बेकार जाय!’’
औरत० : नहीं-नहीं, ऐसा कभी न होगा और मुझसे किसी को कुछ भी पता न लगेगा। हाँ तुम लोग अलबत्ते होशियार रहना और किसी बेजाने-पहिचाने आदमी को इस बजरे के पास फटकने मत देना। मैं समझती हूँ कि इस पर के मल्लाह सब तुम्हारे जाँचे हुए और विश्वासी आदमी होंगे।
श्याम० : हाँ इनमें से हर एक को मैं अच्छी तरह जानता और जाँचे हुआ हूँ। इधर से किसी प्रकार का डर करने की कोई जरूरत नहीं।
औरत० : अच्छा तो फिर मैं जाती हूँ ठीक मौके पर उसी जगह तुम से मिलूँगी।
औरत बजरे पर से उतर पड़ी और तेजी के साथ सीढ़ियाँ चढ़ती हुई देखते-देखते आँखों की ओट हो गई। श्यामसुन्दर और गोपाल बजरे के अन्दर चले गए इस समय पौ नहीं फटी थी मगर पूरब तरफ का आसमान रंगत बदल रहा था।
|