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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

पाँचवाँ बयान


जिस तरफ प्रभाकरसिंह की निगाह उठती थी उधर ही ताज्जुब की चीज वे देखते थे।

यह कमरा जो लम्बाई में चालीस हाथ और चौड़ाई में बीस हाथ से किसी तरह कम न होगा बिल्कुल संगमर्मर का बना हुआ था और इसकी छत, जो ऊँचाई में पन्द्रह-बीस हाथ से कम न होगी, शीशे की बनी हुई थी जिसके कारण कमरे में खिड़की या दरवाजे खुले न होने पर भी इस जगह रोशनी की कमी बिल्कुल न थी।पहिली चीज जिस पर प्रभाकरसिंह की निगाह पड़ी, कमरे के बीचों-बीच में बना हुआ एक फौवारा था जो संगमूसा का बना हुआ था मगर उसकी अनगिनत खूबसूरत टोंटियों में से पानी के बदले आग की छोटी-बड़ी पतली-लम्बी और मोटी-बारीक लपटें निकल रही थीं जो तरह-तरह के रंग की थीं और केवल ऊपर ही को नहीं उठ रही थीं बल्कि इधर-उधर नीचे चारों ही तरफ फैलती हुई एक अजीब ही बहार दे रही थीं।ये आग की लपटें हर रंग की थीं कहीं-कहीं जहां पर दो या तीन रंग की लपटें मिल जाती थीं वहां इन्द्रधनुष की तरह अजीब ही रंग की नजर आ रही थीं। लपटों की ऊँचाई या तेजी में कभी-कभी फर्क भी पड़ जाता था और कभी कम कभी बेश होने के इलावे उनके रंग बदला भी करते थे।सब बातों का खयाल करते हुए कहना पड़ेगा कि ऐसा खूबसूरत फौवारा अभी तक कभी प्रभाकरसिंह के देखने में न आया था।

कुछ देर तक फौवारे को देखने के बाद प्रभाकरसिंह की निगाहें घूमीं और एक-दूसरी चीज पर जा रुकी। यह एक संगमर्मर की कद्देआदम मूर्ति थी जो कमरे के एक कोने में दो-तीन हाथ ऊँचे गोलाम्बर पर बैठाई हुई थी।मूर्ति का भाव यह था कि एक सुन्दर और हाथ-पाँव से सुपुष्ट स्त्री ने, जिसके हाथ में धनुष-बाण और पीठ पर तरकश था, अभी-अभी तीर से एक हंस को मार कर गिराया है और वह उसके पैरों के पास गिर कर आखिरी छटपटाहट में पड़ा है।

इस मूर्ति की शिल्पकला को देखते और सराहते हुए प्रभाकरसिंह उधर से भी घूमे और दूसरे कोने की तरफ देखने लगे। वहाँ भी एक ताज्जुब की चीज नजर आई। एक बनावटी पहाड़ का दृश्य काले और सफेद पत्थरों की मदद से ऐसा सुन्दर बना हुआ था कि देखने में सचमुच एक पहाड़ का धोखा होता था। विशेषता यह भी इस पहाड़ की एक गुफा के अन्दर से निकलता हुआ एक छोटा नाला दिखाया गया था जिसमें पानी बराबर बह रहा था। नाले के एक किनारे पर एक सारस खड़ा था जो कभी-कभी अपनी चोंच पानी में डालता और फिर निकाल लेता था गौर से देखने पर मालूम हुआ कि पानी के साथ-साथ खूबसूरत रंगबिरंगी मछलियाँ बह कर आ रही हैं जिनमें से कभी-कभी किसी एक को वह सारस अपनी चोंच से पकड़ता और उदरस्थ कर जाता है। सारस का पानी में चोंच डाल कर मछली पकड़ना, चोंच को ऊँची कर उसमें पकड़ी और छटपटाती हुई मछली को सीधा करके गले में डालना, गले के अन्दर उतरती हुई उस मछली के कारण गले का थोड़ा फूलना, और मछली के पेट तक पहुँच जाने पर फिर सारस का पानी पर निगाह डालना इत्यादि ऐसा स्वाभाविक हो रहा था कि यह शक होना भी मुश्किल था कि यह सचमुच का दृश्य नहीं बल्कि एक तिलिस्मी खिड़वाड़ है।

कुछ देर यह तमाशा देखने के बाद प्रभाकरसिंह ने कमरे के तीसरे कोने पर निगाह की और यहाँ उन दोनों से बढ़कर ताज्जुब की चीज प्रभाकरसिंह को दिखी जिसने उन्हें थोडी देर के लिए घबड़ा दिया, पर जब उन्हें ख्याल आया कि यह सब तिलिस्मी तमाशा है तो उनकी तबीयत कुछ ठिकाने आई और वे कौतूहल के साथ उसे देखने लगे। वह चीज एक जलती हुई चिता थी जिसमें मानो अभी-अभी आग लगाई गई थी, एक अधेड़ आदमी उस पर लेटाया हुआ था। एक नौजवान जो शायद उसका बेटा होगा, झुककर एक हाथ से अपनी आँखें पोंछता हुआ दूसरे हाथ से चिता का अग्निसंस्कार कर रहा था जिसमें से कुछ-कुछ धूआँ सा भी निकल रहा था। दूसरी तरफ एक औरत पछाड़ खा कर धरती पर गिरी हुई थी और दो-तीन व्यक्ति उसे सम्हालने में लगे हुए थे, पीछे की तरफ कई औरत-मर्दों का एक झुँड खड़ा अफसोस की निगाहों से चिता की तरफ देख रहा था यह पूरा दृश्य ऐसा स्वाभाविक और सच्चा-सच्चा बना हुआ था कि पहिली निगाह में प्रभाकरसिंह को ख्याल आया कि शायद वे सचमुच ही किसी का अन्तिम संस्कार देख रहे हैं, मगर नहीं यह भी सिर्फ एक तमाशा ही था।

इधर से भी घूमती हुई प्रभाकरसिंह की निगाह चौथे कोने की तरफ गई। यहाँ एक छोटा-सा चबूतरा बना हुआ उन्हें दिखाई पड़ा जिसके ऊपर एक बनावटी पेड़ था जो सात-आठ हाथ से ज्यादे ऊंचा न था और जिसकी एक डाली पर एक बड़ा सा हंस बैठा था। पेड़ के पीछे एक दरवाजा था मगर उसके सामने पर्दा पड़े रहने के कारण यह पता नहीं लगता था कि दूसरी तरफ क्या है, मगर यह पेड़ और हंस भी कारीगरी से खाली न था। थोड़ी-थोड़ी देर बाद इस पेड़ की डालियाँ और पत्ते इस तरह हिलते थे मानो मन्द हवा के झोंके उन्हें लग रहे हों और कभी-कभी वह हंस अपने बदन को झटकारता और टखनों के नीचे चोंच से इस तरह खुजलाता मानों सचमुच ही कोई चिड़िया पानी से निकल कर बाहर धूप में अपने को सुखा रही हो।

बहुत देर तक प्रभाकरसिंह अपने चारों तरह निगाहें दौड़ाते और इन चीजों की विचित्र कारीगरी को देखते रहे। जिधर निगाह जाती थी उधर ही होशियार कारीगर की अद्भुत रचना-कुशलता उन्हें मोह लेती थी। आखिर उनके मुँह से निकल ही गया, ‘‘धन्य हैं वे लोग जिन्होंने ऐसी चीजें बनाई, कारीगरी की हद्द हो गई। इससे बढ़कर और कुछ हो ही क्या सकता है! भला कोई कह सकता है कि इन बनावटी चीजों तथा जानवरों में और भगवान की सृष्टि की असली चीजों में कुछ भी अन्तर है! पर खैर अब मुझे अपना काम शुरू करना चाहिए।’’

अपने शेर पर बैठे ही प्रभाकरसिंह ने तिलिस्मी किताब निकाली और एक जगह से खोलकर खूब गौर से पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ थाः—

‘‘इस जगह तुम्हें बहुत होशियारी से काम करना होगा, जरा भी धोखा खाओगे या कुछ भी चूकोगे तो इसका नतीजा बहुत खराब होगा।

‘‘तुम्हारे बाई तरफ एक औरत की मूरत बनी हुई है जो हाथ में तीर-कमान लिए हुए है, उसके हाथ से तीर-कमान ले लो और उस सारस के पास जाओ जो नाले के किनारे बैठा मछलियाँ खा रहा है, जिस समय वह हरे रंग की मछली खाने के लिए उठावे उसी समय उस मछली को अपने तीर का निशाना बनाओ, सारस से बारह कदम पर खड़े होकर ऐसा तीर चलाओ कि वह मछली सारस के मुँह से निकल जाय, तब उसे उठाकर उस फौवारे की हरी लपटों में डाल दो। वह फट जायगी और उसके अन्दर एक अद्भुत चीज मिलेगी जिसे लिए तुम उसी चिता में कूद पड़ो, मगर खबरदार तुम्हार निशाना बेकार न जाना चाहिए क्योंकि तीर एक ही है, पहिली ही बार में सफल न होने से फिर कुछ काम न हो सकेगा।

यहाँ पर जो कुछ उन्हें करना था उसे जब प्रभाकरसिंह अच्छी तरह समझ चुके तो उन्होंने किताब बन्द कर जेब के हवाले की और शेर पर से उतर पड़े। शेर उनके उतरते ही उस छोटे नाले के किनारे गया और उसके पानी से अपनी प्यास बुझाने के बाद एक दरवाजे के सामने जाकर जमीन पर बैठ गया और इधर प्रभाकरसिंह उस पत्थर की मूर्ति के सामने पहुँचे जो हाथ में तीर-कमान लिए बनाई गई थी। हम लिख चुके हैं कि यह मूर्ति दो-तीन हाथ ऊँचे एक गोलाम्बर पर खड़ी थी, इस गोलम्बर पर चढ़ने के लिए छोटी-छोटी कई सीढ़ियाँ बनी हुई थीं, प्रभाकरसिंह सीढ़ियों की राह उस गोलाम्बर पर चढ़ गए और उस मूर्ति के हाथ से वह तीर कमान ले लेना चाहा, मगर अभी उनके हाथ उस मूर्ति के पास तक पहुँचे न होंगे कि गोलाम्बर का वह पत्थर जिस पर प्रभाकरसिंह खड़े थे एक तरफ से इतनी जोर से उठ गया कि प्रभाकरसिंह किसी तरह सम्हल न सके और पछाड़ खाकर गोलाम्बर के नीचे आ गिरे। उनका गिरना था कि यकायक किसी तरफ से एक जनाने गले के खिलखिला कर हँसने की आवाज उस कमरे में गूँज उठी।

फुर्ती के साथ प्रभाकरसिंह पुनः उठ खड़े हुए और यह जानने के लिए चारों तरफ देखने लगे कि वह हँसने वाला कौन था, मगर कहीं कोई दिखाई न पड़ा आखिर कुछ सोचते हुए गोलाम्बर के पास जाकर खड़े हो गए और सोचने लगे, ‘‘तिलिस्मी किताब लिखती है कि इस पुतली के हाथ से तीर-कमान लेकर उस सारस के पास जाना और हरी मछली का शिकार करना होगा, मगर उस पुतली के हाथ से तीर-कमान लेना मुश्किल जान पड़ता है। आगे न जाने क्या तरद्दुद आवेंगे!’’

कुछ सोच-विचार कर प्रभाकरसिंह पुनः गोलाम्बर पर चढ़े पर इस बार सामने की तरफ से न जाकर वे मूर्ति के पीछे की तरफ से गए और वहाँ से तीर-कमान लेने का उद्योग करने लगे। मगर इस बार का उद्योग भी वृथा गया। कमान तक हाथ पहुँचने के पहिले ही उस तरफ का पत्थर भी जिसपर प्रभाकरसिंह खड़े थे पहिले वाले की तरह यकायक एक बगल से उठ गया, यद्यपि इस बार होशियार रहने के कारण वे गिरे नहीं वरन फुर्ती के साथ कूद कर गोलाम्बर के नीचे आ रहे पर फिर भी उनका उद्योग असफल ही रहा उनके नीचे आते ही पुनः उसी प्रकार किसी औरत के हँसने की आवाज गूँज उठी।अब की बार प्रभाकरसिंह से रहा न गया और वे बोल पड़े, ‘‘यह कौन हँसा?’’

उनके सामने की तीर-कमान वाली मूर्ति के होंठ हिले और उसके गले से आवाज निकली-‘‘मैं!’’

प्रभाकरसिंह के ताज्जुब की हद्द न रही! क्या यह निर्जीव पत्थर की मूर्ति भी बात कर सकती है! वे फिर बोले, ‘‘तुम हँसी किस बात पर?’’

मूर्ति बोली, ‘‘तुम्हारी गलती पर! एक बार धोखा खाकर फिर वही काम करते हो?’’

प्रभाकरसिंह ने पूछा, ‘‘मैंने क्या गलती की?’’

मूर्ति बोली, ‘‘सोचो और गौर करो!’’

प्रभाकरसिंह ने पूछा, ‘‘तुम्हारे हाथ से तीर-कमान लेने की क्या तर्कीब हो सकती हैं?’’ पर इसका कोई जवाब उस मूर्ति ने न दिया। प्रभाकरसिंह ने और भी कई बातें पूछी मगर उस मूर्ति ने फिर किसी बात का उत्तर न दिया। आखिर उसके कथनानुसार प्रभाकरसिंह सोचने और गौर करने लगे।थोड़ी देर बाद ख्याल हुआ कि वह गोलाम्बर तो सुफेद पत्थर का बना हुआ है मगर उसकी सीढ़ी और वे पत्थर जिन्होंने उठकर उन्हें नीचे गिरा दिया था काले रंग के हैं। यह देखते ही वे समझ गये की वे काले पत्थर ही सब आफत की जड़ हैं। तुरन्त ही उन्हें अपनी गलती भी मालूम हो गई और वे पुनः उस गोलाम्बर पर चढ़ गए पर इस बार सीढ़ी के रास्ते नहीं बल्कि उचक कर जा चढ़े। गोलाम्बर पर कई जगह काले पत्थर जड़े हुए थे जिन्हें बचाते हुए प्रभाकरसिंह मूर्ति के पास जा पहुँचे और उसके हाथ से तीर-कमान ले लिया, इस बार उन्हें कुछ भी तकलीफ उठानी न पड़ी और वे सहज ही में तीर-कमान लिए नीचे लौट आए।

अपनी सफलता पर प्रसन्न होते हुए प्रभाकरसिंह अब दूसरे कोने पर बने उस बनावटी पहाड़ के पास पहुँचे जहाँ नाले के किनारे खड़ा सारस मछलियों को खा रहा था। प्रभाकरसिंह उस सारस के पास गए और वहाँ से गिन कर बारह कदम के फासले पर हट गये यहाँ खड़े होकर वे एकटक उस सारस को देखने लगे।

थोड़ी देर बाद सारस ने अपनी गरदन पानी में डुबोई और एक मछली उठाई प्रभाकरसिंह ने तीर-कमान सम्हाला पर जो मछली वह सारस लिए था वह लाल रंग की थी और उन्हें हरे रंग की मछली को तीर का निशाना बनाना था। यह देख वे रुक गए और इस बात की राह देखने लगे कि उस सारस की चोंच में हरी मछली कब दिखाई पड़ती है। आखिर दस-बारह दफे के बाद उस सारस ने एक हरी मछली उठाई मगर यह इतनी छोटी थी कि इसे खा जाने में उसे कुछ भी विलम्ब न लगा। अभी प्रभाकरसिंह अपनी कमान पर तीर खींच ही रहे थे कि मछली सारस के पेट मे उतर गई। लाचार ये पुनः राह देखने लगे मगर इस बार उन्होंने तीर कमान पर से हटाया नहीं। आखिर उन्हें फिर मौका मिला और लगभग घड़ी भर के बाद पुनः उस सारस की चोंच में एक हरी मछली पर नजर पड़ी। यद्यपि मछली कुछ ही सायत के लिए दिखाई पड़ी थी मगर प्रभाकरसिंह की तेज निगाहों और मंजे हुए हाथों ने उसका निशाना लगा ही लिया।उनकी कमान से छूटा हुआ तीर सनसनाता हुआ सारस की कुछ-कुछ खुली दोनों चोंचों के बीच में घुस कर मछली को लगा और वह छटक कर चोंच से बाहर निकल कुछ दूर जा गिरी। खुशी-खुशी प्रभाकरसिंह ने आगे बढ़ कर मछली उठा ली और उस फुहारे के पास पहुँचे जो कमरे के बीचोबीच अपनी रंग-बिरंगी की लपटों से विचित्र बहार दे रहा था।

प्रभाकरसिंह इस फुहारे के पास खड़े होकर राह देखने लगे कि कहीं हरी लपट दिखाई दे तो इस मछली को उसमें डालें। हरी लपटें तो बेशक बहुत जगह दिखाई पड़ती थीं पर कभी यहाँ, कभी वहाँ, कभी ऊपर, कभी नीचे और सो भी केवल कुछ ही क्षणों के लिए नजर आती थीं। पर आखिर किसी तरह प्रभाकरसिंह ने यह काम भी पूरा किया। हरी लपटों का उस मछली में लगना था कि वह आतिशबाजी की तरह उनके हाथ में एक तेज आवाज के साथ फट पड़ी और उसके अन्दर से कोई चमकती हुई चीज निकल कर नीचे जमीन पर गिर पड़ी प्रभाकरसिंह ने उठाकर देखा। यह एक ही हीरे को काट कर बनाया हुआ एक छोटा मगर विचित्र तावीज था जिसके साथ ही एक छोटे कागज पर बहुत ही बारीक अक्षरों में कुछ लिखा हुआ था। बहुत कोशिश करने के बाद प्रभाकरसिंह उस मजमून को पढ़ सके। यह लिखा हुआ थाः-

‘‘यह उस तिलिस्म की ताली है जो कुछ समय के बाद तुम्हारे या तुम्हारे लड़कों के हाथ से टूटेगा। जब तक वक्त न आवे इसे हिफाजत के साथ अपने गले से हरदम लटकाये रहा करो। जिसके पास यह चीज रहेगी वह कभी किसी तरह की तिलिस्मी मुसीबत में नहीं पड़ेगा। इस तिलिस्म के अन्दर के सब ताले और दरवाजे इसके छुलाते ही खुल जाएँगे।इसको पहिनने वाला अगर आग में कूद पड़ेगा तो आग उसका कुछ बिगाड़ न सकेगी और पानी में वह कभी डूबेगा नहीं। भूख और प्यास को एक हफ्ते तक रोक रखने की सामर्थ्य भी उसे हो जायगी!’’

यह मजमून पढ़ते ही प्रभाकरसिंह की खुशी का ठिकाना न रह गया। उन्होंने उसे पुनः दुबारा पढ़ा और तब ऐसी चीज पाने के लिए परमात्मा को धन्यवाद दिया। अब वे गौर से उलट-पलट कर उसे देखने लगे। मालूम हुआ कि यह हीरे का एक ही टुकड़ा है जिसे कारीगर ने तराश कर लगभग तीन अंगुल चौड़ी पाँच अंगुल लम्बी और एक अंगुल मोटी तख्ती का रूप दे दिया है। इसके एक तरफ कुछ मजमून खुदा हुआ था और दूसरी तरफ बहुत ही पतली लकीरें बनी थीं जिनका कुछ मतलब तो समझ में न आता था मगर यह मालूम होता था कि यह शायद किसी तरह का नक्शा है। यन्त्र की मुटाई देखने से प्रभाकरसिंह को एक बारीक लकीर चारों तरफ घूमी हुई दिखाई पड़ी जिससे यह सन्देह हो सकता था कि शायद यन्त्र बीच में खुल जाता हो पर कोशिश करने पर भी वह खुला नहीं। इससे उन्होंने इसका विचार छोड़ दिया। यन्त्र के दोनों बगल दो कोंढ़े बने हुए थे जिनके साथ एक बहुत ही बारीक सोने की जंजीर लगी हुई थी जिसके सहारे वह यन्त्र गले में लटकाया जा सकता था। प्रभाकरसिंह ने उसे गले में पहिन लिया और तब आगे का काम करने के लिए तैयार हो गए।

तिलिस्मी किताब ने यहाँ तक का काम कर चुकने के बाद उन्हें उस चिता में कूद पड़ने की आज्ञा दी थी जो उसे कमरे के तीसरे कोने में कुछ कुछ जलती हुई अपनी अद्भुत कारीगरी का नमूना दिखा रही थी। प्रभाकरसिंह उस चिता के पास पहुँचे और एक बार गौर से चारों तरफ देख-भाल करने के बाद उछल कर उसके ऊपर जा चढ़े। उनका उस पर चढ़ना था कि उधर तो उसकी आग एकदम लहरा के बल उठी और इधर उस चिता के पास खड़े, बैठे या काम करते हुए सब आदमी अपना काम छोड़ ‘‘हाँ! हाँ!!’’ करते हुए उनकी तरफ झपटे और विचित्र भावभंगी के साथ कोई क्रोध, कोई आश्चर्य और कोई खेद प्रकट करते हुए उन्हें चिता पर से उतर आने के लिए कहने लगे, बल्कि दो-एक ने तो उनका हाथ पकड़ लिया और जबर्दस्ती उन्हें चिता से खींच कर अलग करना चाहा परन्तु प्रभाकरसिंह ने हाथ झटकार कर अपने को छुड़ा लिया और इसी बीच में आग की लपट बहुत तेज हो जाने के कारण वे लोग लाचार हो चिता से दूर हो गए।

आश्चर्य की बात थी कि यद्यपि वह चिता अब धू-धू करके जल रही थी और उसकी गर्मी से कमरा गर्म होता जा रहा था फिर भी प्रभाकरसिंह को उसकी आँच किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुँचा रही थी। वे आश्चर्य के साथ चिता के बीचोबीच में बैठे हुए सोच रहे थे कि इसका कारण या तो बस तावीज है जो अभी-अभी उन्होंने गले में पहिना है और या यह आँच किसी अद्भुत तरह की है जो मनुष्य-शरीर को नुकसान पहुँचाने की कुदरत नहीं रखती। इसी समय उनकी निगाह उस आदमी के ऊपर जा पड़ी जो उस चिता के ऊपर लिटाया हुआ था और जिसकी गरदन तक तो ऊपर की तरफ भी लकड़ियाँ सजाई हुई थीं मगर चेहरा और सिर खुला तथा पीछे की तरफ कुछ लटका हुआ था। प्रभाकरसिंह ने देखा कि ज्यों-त्यों उस सिर में आग की लपटें लगती हैं उसकी रंगत बदलती जाती है झुर्रियाँ और बुढ़ापे के अन्य चिन्ह हटकर उसके बदले रंगत में सुर्खी आ रही है और चेहरा नौजवानों का-सा बनता जा रहा है। सिर्फ यही नहीं, थोड़ी देर बाद उसकी पलकें हिलने लगी, थोड़ी देर और बीतने पर होंठ काँपने लगे। और कुछ देर और बीत जाने बाद गर्दन भी हिलने लगी। यहाँ तक कि कुछ ही देर में उस मुर्दे ने आँखें खोल दी और मुँह से लम्बी साँस फेंक कर इधर-उधर देखा। उसकी निगाह प्रभाकरसिंह पर पड़ी देखते ही वह मुस्कुराया और बोला, ‘‘प्रभाकरसिंह, तुम आ गए! आज सैकड़ों वर्षों से मैं तुम्हारी ही राह देखता हुआ यहाँ पड़ा था।’’

प्रभाकरसिंह ताज्जुब से बोले, ‘‘तुम कौन हो और किसलिए मेरी राह देख रहे थे?’’

उस आदमी ने जवाब दिया, ‘‘मैं इस तिलिस्म का पहरेदार हूँ।’’

प्रभाकरसिंह ने हँसकर कहा, ‘‘तुम तो खुद ही मरे हुए पड़े थे, पहरेदारी क्या खाक करते होंगे,’’

यह सुन वह बोला, ‘‘अनाड़ी लोग मुझे सोया हुआ या मुर्दा समझते हैं, जब से यह तिलिस्म बाँधा गया है तभी से मैं यहाँ की पहरेदारी कर रहा हूँ और तब से आज तक बराबर ही मैं जीता-जागता और अपने होश-हवास में था और तब तक बना रहूँगा जब तक कि इस तिलिस्म की उम्र तमाम न हो जायगी।’’

प्रभाकरसिंह को इसकी बातें कुछ ऐसी विचित्र मालूम हुईं कि वे किस अवस्था में हैं या किस काम के लिए कहाँ बैठे हैं यह भूल गए और उस आदमी से बातें करने लगे-

प्रभाकर० : और इस तिलिस्म की उम्र तमाम हो जायगी तब तुम्हारी क्या दशा होगी?

आदमी० : तब मेरा भी काम समाप्त हो जायगा और मैं अपने बनाने वाले के पास चला जाऊँगा।

प्रभाकर० : तुम्हें बनाने वाला कौन?

आदमी० : वही महात्मा जिन्होंने यह तिलिस्म बनवाया। अगर अभी तक तुम्हें उनका नाम नहीं मालूम हुआ है तो शीघ्र ही मालूम हो जायगा।

प्रभाकर० : तो तुम्हें इस तिलिस्म के टूटने से दुःख होगा?

आदमी० : नहीं, बल्कि प्रसन्नता होगी क्योंकि मैं कैद से छूटकर स्वतन्त्र हो जाऊँगा।

प्रभाकर० : अब इसकी उम्र समाप्त होने में कितना समय बाकी है?

आदमी० : सो मुझे बताने का अधिकार नहीं है। हाँ अगर तुम बराबर ही होशियारी और हिम्मत से काम करते गए तो ज्यादा दिन नहीं, लेकिन तुमने कोई गलती की या धोखा खाया तो फिर न जाने कितनी सदियाँ मुझे यहीं पड़ा देखेंगी।

प्रभाकरसिंह और इस आदमी में बातें होती जा रही थीं और इधर उस चिता की अग्नि तेज होती हुई अब यहाँ तक बढ़ गई थी कि कमरे की शीशे वाली छत तक आग की लपटें पहुँच रही थी।परन्तु ताज्जुब की बात थी कि प्रभाकरसिंह को उस गर्मी से कोई विशेष तकलीफ मालूम नहीं पड़ रही थी, यद्यपि पहिले की अपेक्षा कुछ अधिक गर्मी उन्हें जरूर लग रही थी पर वह ऐसी नहीं थी कि जो बहुत ज्यादा तकलीफ देने वाली कही जा सके। वे लकड़ियों के बनावटी कुंदे जिनसे वह चिता बनी हुई थी और जो लकड़ियों की तरह नहीं बल्कि कपूर या राल की तरह जल रहे थे गलते हुए धीरे-धीरे छोटे होते जा रहे थे।

इस समय वह आदमी जो अभी तक पड़ा ही पड़ा प्रभाकरसिंह से बातें कर रहा था हिलडुल कर उठ बैठा और उनसे बोला, ‘‘लो अब होशियार हो जाओ।’’ प्रभाकरसिंह ने ताज्जुब से पूछा, ‘‘क्यों, क्या मामला है?’’ मगर इसका कुछ जवाब पाने के पहिले ही चिता के अंदर से गड़गड़ाहट की आवाज आने लगी जो क्षण भर में यहाँ तक बढ़ी कि प्रभाकरसिंह को दोनों हाथों से अपने कान बन्द कर लेने पड़े।यकायक आग का एक शोला चिता में से निकला और दूसरी ही सायत में वह चिता इस तरह फट पड़ी मानों उसके अन्दर कोई बम का गोला फूटा हो।उसके जबर्दस्त झटके ने प्रभाकरसिंह को गेंद की तरह उछालकर दूर फेंक दिया और जब उनके हवास ठिकाने हुए हुए तो उन्होंने अपने को उस चौथे कोने में बने हुए चबूतरे पर पड़े पाया, चिता की तरफ निगाह की तो देखा कि उसकी लकड़ियाँ चारों तरफ छितराई हुई हैं और उस जगह एक गहरा गढ़ा दिखाई पड़ रहा है जिसके अन्दर से कुछ आवाज आ रही है, उन आदमियों का कहीं पता न था जो उसके चारों तरफ खड़े थे या जिससे कि प्रभाकरसिंह की बातचीत हुई थी।

आगे की कार्रवाई जानने के लिए प्रभाकरसिंह ने तिलिस्मी किताब खोली और पढ़ने लगे-

‘‘अगर आँच से तुम डरे या घबराए नहीं तो वह चिता तुम्हें उस चबूतरे तक पहुँचा देगी जिस पर एक पेड़ की डाल पर एक हंस बैठा हुआ है, इस हंस को पेड़ से उतार लो और पर्दा हटाकर पीछे बने दरवाजे में फेंक दो, इसके बाद फुर्ती से उस गढ़े मे उतर जाओ जो चिता की जगह दिखाई पड़ रहा होगा। अगर यह सब काम तुम फुर्ती से कर सके तो बस यहाँ की तिलिस्मी कार्रवाई खतम हो जायगी और इस तिलिस्म का वह हिस्सा मिलेगा जिसके बारे में पहिले तुम पढ़ चुके हो।

’प्रभाकरसिंह ने यहाँ तक पढ़ किताब जेब के हवाले की और उसमें लिखे मुताबिक काम करने को तैयार हो गए। उन्होंने इसे महज मामूली काम समझा हुआ था पर जब काम को हाथ लगाया तो उसकी मुश्किले जान पड़ी। हंस के पास जा कर उसको पकड़ने के लिए ज्यों ही उन्होंने हाथ बढ़ाया वैसे ही उसने क्रोध से इनके हाथ पर अपनी सख्त चोंच से एक कड़ी ठोकर मारी और तब उचककर एक दूसरी डाल पर हो गया। जब प्रभाकरसिंह वहाँ पहुँचकर उसे पकड़ने का उद्योग करने लगे तो उसने पुनः वैसा ही किया, यहाँ तक कि दस ही पाँच मिनट की कोशिश के बाद प्रभाकरसिंह का हाथ लहू-लोहान हो गया और वे उस बनावटी हंस के पास जाते हिचकने लगे। आखिर यहाँ तक नौबत आ गई कि वे एक बगल में चुपचाप जा खड़े हुए और सोचने लगे कि अब क्या करना और किस तरह हंस को काबू में लाना चाहिए।

उनको इस तरह खड़ा देख यकायक उस पुतली के गले से जिसके हाथ से प्रभाकरसिंह ने तीरकमान लिया था और जो पहिले भी एक बार उन पर हंस चुकी थी फिर हँसी की आवाज निकल पड़ी। यह जानकर कि वह उनकी असफलता पर हँसी है प्रभाकरसिंह कुढ़ गए एक निर्जीव पुतली का जो तिलिस्मी कारीगरी की बदोलत हँसती-बोलती या काम करती हो, वे कर ही क्या सकते थे, अस्तु उन्होंने उसकी हँसी पर कुछ ख्याल न किया और गौर करके सोचने लगे कि उस हंस को क्योंकर काबू में करना चाहिए, आखिर उन्हें एक तरकीब सूझ ही गई।अपना कमरबन्द खोलकर उन्होंने अपने हाथों पर अच्छी तरह से लपेटा और तब फुर्ती से हंस के पास जाकर दोनों हाथों से उसकी वह खतरनाक चोंच खूब मजबूती से थाम ली। चोंच के पकड़ते ही उसने बड़े जोर-जोर से अपने पंख फड़फड़ाए और पंजे मारने शुरू किए, मगर प्रभाकरसिंह ने इसकी कुछ भी परवाह न की और जोर लगाकर उसे पेड़ पर से उतार लिया, मजबूती से पकडे़ हुए वे उस दरवाजे के पास आए और पैर से पर्दा हटाने के बाद जोर से उसे अन्दर की तरफ फेंक दिया।उसके फेंकने के साथ ही उस दरवाजे के अन्दर से एक ऐसी भयानक आवाज आई मानों पचासों शेर एक साथ दहाड़ पड़े हों। वह समूचा कमरा काँप उठा वह चबूतरा जिस पर प्रभाकरसिंह खड़े थे जोर-जोर से हिलने लगा और वह पेड़ भी जोर से काँपकर यकायक गिर पड़ा। प्रभाकरसिंह अगर होशियार न होते तो पेड़ के नीचे दबकर कुछ-न-कुछ नुकसान अवश्य उठाते पर वे बाल-बाल बच गए। उन्होंने अपनी चीजें सम्हाली और कूदकर चबूतरे के नीचे आ गए, इसके बाद दौड़ते हुए वे उस गढ़े की तरफ बढ़े जो चिता की जगह पर बन गया था।अभी वे उससे दो-कदम दूर ही होंगे कि जोर से एक बार भभककर वह आग का फौवारा जोर की आवाज के साथ फट गया और उसके टुकड़े कमरे में चारों तरफ फैल गए। कई टुकड़े ऊपर उड़कर कमरे की छत के साथ लगे जिससे छत में से बड़े-बड़े शीशे के टुकड़े टूट-टूट कर गिरने लगे। कमरे की दीवारें भी हिलने और काँपने लगीं और थोड़ी देर के बाद इस तरह भीतर की तरफ ढुलक पड़ी मानो ताश का बना मकान ढह पड़ा हो। परन्तु प्रभाकरसिंह को यह सब देखने की फुरसत ही कहाँ थीं? वे तो दौड़ते हुए उस गढ़े के पास गए और बिना कुछ सोचे-विचारे उसके अन्दर कूद पड़े गड्हा क्या वह तो एक खासा गहरा कुआँ था जिसकी तह दिखाई नहीं पड़ती थी। इस कुएँ में एक तरह का धुआँ भरा हुआ था जिसके प्रभाकरसिंह की नाक में जाते ही उनका सिर चक्कर खाने लगा और दम-के-दम में उन्हें तनोबदन की सुध न रह गई।

जब प्रभाकरसिंह होश में आए उस समय दिन काफी चढ़ चुका था, वे एक छोटे दालान में संगमर्मर के फर्श पर पड़े हुए थे और उनके सामने एक लम्बा चौड़ा सहन था जिसके बीचोबीच में लाल पत्थर की बनी हुई कोई मूरत खड़ी थी।

बहुत देर तक प्रभाकरसिंह गौर करते रहे कि वे कहाँ पर हैं या किस तरह वहाँ पहुँचे हैं मगर उनकी समझ में कुछ भी न आया। तमाम बदन में मीठा-मीठा दर्द हो रहा था जिसका कारण उनकी समझ में नहीं आता था, सिर में भी हलके-हलके चक्कर आ रहे थे, और तबीयत परेशान मालूम होती थी। उन्होंने सोच विचारकर यही निश्चय किया कि उस कुएँ के अन्दर जो जहरीली हवा उनके नाक में गई थी उसी का यह असर है और बाहर निकलकर थोड़ा घूमने-फिरने से यह दूर हो जायगा। यह सोचते ही उन्होंने अपनी चीजें सम्हाली और सब कुछ दुरूस्त पाकर उठ खड़े हुए।

धीरे-धीरे चलते हुए प्रभाकरसिंह जब उस सहन के बीचोबीच में पहुँचे तो उस लाल मूरत ने उनका ध्यान आकर्षित किया जो किसी आदमी की आकृति की न थी बल्कि एक भयानक पिशाच की सूरत की बनी हुई थी जिसके खूँखार दाँत, डरावनी आँखें, भयानक चेहरा और शेर के पंजो की तरह भयानक नाखून देख कर डर मालूम होता था। यह मूरत थी भी इतनी बड़ी कि उसकी खुली दाढ़ों के बीच में आदमी का सिर बखूबी जा सकता था। यह प्रभाकरसिंह की आँखों का दोष था या सचमुच उस विकराल मूरत ने उन्हें देखकर अपने होंठ फड़फड़ाए और जुबान से उन्हें इस तरह चाटा मानों कोई खूखार शेर अपना शिकार सामने देख रहा हो, मगर यह काम इतनी फुर्ती से हो गया कि प्रभाकरसिंह कुछ निश्चय न कर सके। पहिले तो उन्होंने इसे अपने बिगड़े हुए दिमाग की उपज समझा मगर जब थोड़ी देर तक एक टक देखने पर उस मूरत ने फिर वैसा ही किया तो उनका कौतूहल बढ़ा और वे कुछ और पास आकर गौर से देखने लगे। सफेद और काले संगमर्मर के तीन-चार हाथ ऊँचे चबूतरे पर जिसमें बीच-बीच में लाल पच्चीकारी का काम किया हुआ था, लाल पत्थर की वह भयंकर आकृति मूरत बैठाई हुई थी, जिसकी ऊँचाई इतनी थी कि उन कई पतली और चौड़ी सीढ़ियों पर चढ़ जाने पर भी जो उस खंभे के चारों तरफ बनी हुई थीं, वह मूरत आदमी के सिर से ऊँची ही रहती थी। मूरत का नीचे का धड़ तो आदमी-सा था, परंतु चेहरा इत्यादि किसी महाभयानक राक्षस या शेर का-सा था। पालथी मारे वह पिशाच उस खंभे पर बैठा था। उसके हाथों के नाखून बहुत लम्बे थे और शेर के पंजों की याद दिलाने वाले थे। दोनों बाँहो से लिपटे हुए दो साँप बने हुए थे जो फन काढ़े हुए मूर्ति के दाएँ और बाएँ इस तरह खड़े थे मानों पास जाते ही डस लेंगे। मूर्ति के सर पर एक लाल पत्थर ही का चाँद बना था जिस पर सिन्दूर से रंगा एक त्रिशूल लगा हुआ था।

मूर्ति जिस खंभे पर बैठी हुई थी उसके सामने वाले हिस्से में एक छोटा ताख (आला) था जिसके बीचोबीच में मनुष्य के सिर का हड्डी का एक ढाँचा रक्खा हुआ था।

कुछ देर तक वहीं खड़े प्रभाकरसिंह गौर से इस मूरत की बनानट को देखते रहे। उनके देखते-देखते कई बार उस मूरत ने अपना भयानक मुँह खोला और लाल लम्बी जीभ से अपने होंठ चाटे।दो या तीन दफे उन साँपों ने भी सिर घुमाकर इनकी तरफ और इस तरह फुंकार छोड़ी मानों वे उन्हें सामने खड़े देख क्रोध में आ गए हों।

खूब गौर से देखने पर प्रभाकरसिंह को उस खंभे के ऊपरी हिस्से पर कुछ अक्षर खुले हुए दिखाई पड़े जिन्हें पढ़ने के लिए उन्होंने एक कदम आगे रक्खा और एक सीढ़ी चढ़ कर उसे पढ़ा ही चाहते थे कि यकायक किसी तरह की आहट ने उन्हें चौंका दिया। सिर घुमाकर निगाह उठाई तो उनके बाएँ तरफ के ऊँचे बुर्ज पर उन्हें कोई औरत खड़ी दिखाई दी। जरा गौर करते ही मालूम हो गया कि वह मालती है। उनके मुँह से एक खुशी भरी आवाज निकल पड़ी, यकायक वह चीख में बदल गई जब उन्होंने देखा कि उस भयानक नर-पिशाच ने अपनी लम्बी बाँहें फैलाकर उन्हें पकड़ लिया है। देखते ही देखते उन लोहे के शिकंजों की तरह मजबूत हाथों ने प्रभाकरसिंह को जमीन से उठाकर अपने पास खींच लिया, मूर्ति का खौफनाक जबड़ा खुला और उसने प्रभाकरसिंह का सिर अपने मुँह के अंदर रख लिया।

यही वह समय था कि मालती की निगाह प्रभाकरसिंह पर पड़ी और वह उन्हें इस खौफनाक हालत में पड़ा देखकर चीख उठी जैसा कि हम ऊपर लिख आए हैं।

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