लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 6

भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

148 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


उस पीतल वाली संदूकड़ी के अन्दर भूतनाथ को कोई ऐसी डरावनी चीज नजर आई जिसे देखते ही वह एकदम बदहवास हो गया उसके साथी शागिर्द ताज्जुब के साथ उसकी यह अवस्था देख रहे थे और साथ ही यह भी सोच रहे थे कि इस संदूकड़ी में ऐसी कौन सी चीज थी जिसे देखकर भूतनाथ जैसा कट्टर जीवट वाला और बहादुर आदमी इस तरह बदहवास हो गया।

मगर भूतनाथ की यह हालत देर तक न रही। उसने कुछ ही देर में अपने ऊपर काबू कर लिया और बिगड़े हुए दिमाग को ठिकाने कर पुनः उस संदूकड़ी को उठाया। उसका विचार उस संदूकड़ी की चीजों को अच्छी तरह देखने और जाँचने का था पर उसी समय उसकी निगाह साथियों की तरफ उठ गई और उनकी नजरों को गौर ताज्जुब और कौतूहल के साथ अपने ऊपर पड़ता हुआ पा उसका विचार बदल गया।उसने उस संदूकड़ी को ज्यों का त्यों बन्द कर अपने बटुए के हवाले किया और उन गठरियों में से निकली हुई चीजों की जाँच करने लग गया।

गौहर और मुन्दर के सामानों से भरी उन गठरियों की जाँच में भूतनाथ ने ज्यादा वक्त बरबाद न किया, कुछ जरूरी और काम का सामान तो उसने अपने पास रख लिया तथा बाकी को पुनः गठरी में बाँध अपने शागिर्दों के हवाले करने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘मेरे दोस्तों, मैं तुमसे छिपाना नहीं चाहता कि इन दोनों औरतों ने मेरा एक ऐसा गुप्त भेद जान लिया है जिसका प्रकट होना मेरे हक में मौत से भी बुरा होगा, अस्तु मैं बिना इस मामले की तह तक पहुँचे। जिन-जिन ने इस भेद को जाना है उन्हें गिरफ्तार किए, और किस प्रकार और किसकी कार्रवाई से यह भेद प्रकट हुआ इसे जाने बिना चैन से बैठ न सकूँगा। इस सामान और उन दोनों औरतों को लेकर तुम लोग लामाघाटी चले जाओ। वहाँ जबतक मैं न पहुँचूँ इन सभों की अपनी जान से बढ़कर हिफाजत करना और किसी तरह भी इन्हें कब्जे से बाहर न जाने देना। तुममें से चार आदमी मेरे काशी जी वाले दोनों अड्डों पर चले जाओ और दो-दो आदमी हर एक पर तब तक जमे रहो जब तक मेरा दूसरा हुक्म न पहुँचे। और (एक आदमी की तरफ बताकर) तुम बलदेव मेरे साथ चलो।’’ काशी के दोनों अड्डों से भूतनाथ का मतलब अपनी दूसरी स्त्री रामदेई और तीसरी नई नवेली श्यामा से था जिनके नाम उसने यहाँ पर न लिए पर उसके आदमी उसका मतलब अच्छी तरह समझकर उसी समय उठ खड़े हुए और वहाँ से डेरा कूच करने की फिराक में लग गए।दो आदमी उधर चले गए जहाँ बेहोश मुन्दर और गौहर तथा उनकी हिफाजत के लिए मुकर्रर उनका एक साथी था और बाकी के लोग सामान बटोरने लगे। भूतनाथ ने अपने शागिर्द बलदेव को अपने पास बुला लिया और जरा दूर-हटकर उससे कुछ बातें करने लगा मगर उसका ध्यान अचानक अपने एक शागिर्द की तरफ गया जो दौड़ता हुआ उसकी तरफ आ रहा था। बात की बात में वह पास आ पहुँचा और घबड़ाई हुई आवाज में बोला। ‘‘गुरुजी, वे दोनों औरतें तो कहीं गायब हो गईं!’’

भूत० : (घबड़ाकर) हैं! क्या कहा? गायब हो गई!! सो कैसे?

शागिर्द० : जिस गुफा में वे दोनों बेहोश करके डाल दी गई थीं वह खाली पड़ी है और हमारा साथी रामेश्वर जो उनकी हिफाजत के लिए वहाँ बैठाया गया था वहाँ कहीं दिखाई नहीं पड़ता!

भूत० : तो क्या यह समझा जाय कि रामेश्वर ने हमें धोखा दिया?

शागिर्द० : रामेश्वर ने ऐसा किया होगा यह बात तो दिल कबूल नहीं करता! हाँ यह हो सकता है कि उन औरतों का कोई साथी आ पहुँचा हो जो उन्हें छुड़ा कर उनके साथ ही साथ रामेश्वर को भी ले गया हो।

भूत० : खैर जो कुछ हुआ हो, चारों तरफ फैलकर अच्छी तरह उन सभों को ढूँढ़ो, अगर कोई उन दोनों को छुड़ा ले गया होगा तो अभी दूर न गया होगा। क्या बताऊँ इन औरतों के निकल जाने से मेरा तरद्दुद और भी बढ़ गया!!

भूतनाथ के सब साथियों और स्वयम् भूतनाथ ने भी चारों तरफ दूर-दूर तक अच्छी तरह खोजा मगर गौहर और मुन्दर कहीं दिखाई न पड़ीं, हाँ एक झाड़ी के अन्दर बेहोश रामेश्वर जरूर दिखाई पड़ा जिसे सब लोग उठाकर बाहर ले आये, भूतनाथ ने होश में लाकर उससे तरह-तरह के सवाल करने शुरू किए, मगर उसने सिर्फ यही कहा- ‘‘मैं एक पेड़ के साथ उठंगा हुआ कुछ गुनगुना रहा था कि कहीं से आकर पटाके की तरह की कोई चीज मेरे पास गिरी जो गिरते ही हलकी आवाज देकर फूट गई और उसके अन्दर से इतना धूआँ निकला कि उसने देखते-देखते मुझे घेर लिया, वह धुआँ इतनी तेज बेहोशी का असर रखता था कि मैं उठकर खड़ा भी न हो पाया था कि जमीन पर गिर पड़ा और मुझे तनोबदन की सुध न रह गई।

यह हाल सुन भूतनाथ कुछ देर के लिए गौर में पड़ गया और तब बोला, ‘‘मुझे शक होता है कि यह कार्रवाई दारोगा या उसके किसी आदमी की है क्योंकि उसे भी इस भेद से उतना ही सम्बन्ध है जितना मुझे, मगर इसके सबब से मुझे अपना विचार बदलना पड़ता है, तुमसे दो आदमी तो गौहर और मुन्दर से मिले सामानों को लेकर लामाघाटी जाओ और बाकी के लोग सीधे जमानिया पहुँचकर टोह लगाओ, मैं इस समय एक जरूरी काम के लिए जाता हूँ और परसों किसी समय तुम लोगों से अपने स्थान पर मिलूँगा।’’

कुछ जरूरी बातें और समझाने के बाद भूतनाथ वहाँ से हटा और केवल अपने शागिर्द बलदेव को लिए कुछ बातें करता एक तरफ को रवाना हुआ।

बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए ठहरता और सुस्ताता हुआ भूतनाथ संध्या बल्कि रात गए तक बराबर चलता ही गया वह किधर किस नीयत से जा रहा है यह कहना कठिन था मगर इसमें कोई शक नहीं कि अपने धुन का पक्का वह धूर्त किसी मतलब ही से यह लम्बा सफर कर रहा था।दो घड़ी रात जाते-जाते भूतनाथ और उसका शागिर्द गंगा तट पर एक ऐसी जगह पहुँच गए जहाँ किनारे पर एक छोटा सा गाँव और उससे कुछ हट कर एक छोटा-सा शिवालय था भूतनाथ ने अपने शागिर्द के साथ इसी शिवालय में डेरा डाल दिया और रात इस जगह काटने का निश्चय किया।दोनों आदमियों के बटुए में खाने-पीने का साधारण सामान मौजूद था। कुछ मीठा खा और कुछ जल पीकर दोनों ने अपनी भूख शांत की और मन्दिर के सभा-मण्डप के एक कोने में लेट रहे जहाँ से गंगाजी का दूर-दूर तक का दृश्य दिखाई पड़ रहा था। दिन भर के सफर से थका हुआ उसका शागिर्द बलदेव तो शीघ्र ही खुर्राटे लेने लगा मगर तरह-तरह के तरद्दुदों में पड़े हुए भूतनाथ की आँखों में नींद का नाम-निशान न था। बहुत देर तक वह इधर-उधर करवट बदलता रहा पर आखिर गंगा तट की शीतल निर्मल वायु ने थपकियाँ दे के उसे भी सुला ही दिया।

मगर पौ नहीं फटने पाई थी कि भूतनाथ की नींद किसी तरह की आहट पाकर खुल गई उसने कान लगाकर सुना तो मालूम हुआ कि एक तेज डोंगी जिस पर कई डांडे चल रहे हैं उसी तरफ आ रही है और उसी की आहट ने नींद उचटा दी है, वह उठकर बैठ गया। तब उसके देखते ही देखते एक पतली डोंगी किनारे लगी जिस पर से एक कद्दावर आदमी सीधा उस मन्दिर की तरफ बढ़ा उसे देखते ही भूतनाथ के चेहरे पर खुशी की निशानी झलक पड़ी। और उसने अपने शागिर्द को जगाते हुए कहा, ‘‘बलदेव, बलदेव, उठो, तुम्हारा भाई आ पहुँचा!!’’ बलदेव यह सुनते ही उठकर बैठ गया और उसी समय वह आदमी भी मन्दिर के पास आ गया। भूतनाथ को बैठा देख उसने लपककर पैर छूआ और भूतनाथ ने उसे गले से लगाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे चेहरे से खुशी जाहिर हो रही है, मालूम होता है वह काम हो गया!’’

वह आदमी बोला, ‘‘जी हाँ, आपके चरणों की कृपा से मुझे उस काम में पूरी सफलता मिली!’’ और तब अपने भाई से गले मिलकर भूतनाथ की इच्छानुसार वह उसके सामने बैठ गया। भूतनाथ ने पूछा, ‘‘अच्छा अब सुनाओ क्या-क्या हुआ और क्या काम तुमने किया?’’

यह आने वाला नौजवान बलदेव का भाई और भूतनाथ का शागिर्द था। इधर थोड़े ही दिनों से यह भूतनाथ की मण्डली में आकर मिला था पर इसकी हिम्मत, बहादुरी, चालाकी, ताकत और ऐयारी ने भूतनाथ को लट्टू कर दिया था और उसे विश्वास हो गया था कि अगर यह कुछ दिन उसके साथ रह गया तो परले सिरे का ऐयार निकलेगा। इसका नाम रामगोविन्द था और हमारे पाठक इसे ऊपर वाले बयान में देख चुके हैं क्योंकि जमानिया में जैपाल को गिरफ्तार करने वाला यही शख्स था।भूतनाथ की बात सुनकर वह बोला-

रामगोविन्द० : आपकी कृपा से सब काम पूरा-पूरा उतरा मगर सबसे पहिले मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपने यहाँ आने में कई दिन की देर क्यों कर दी?हम लोग कई दिन से बराबर राह देखते हुए यह सोच-सोच रहे थे कि आप किसी मुसीबत में तो नहीं पड़ गए!

भूत० : तुम्हारा ख्याल ठीक है और बेशक मैं एक बड़े भारी तरद्दुद में पड़ गया था, इसी से मुझे आने में तीन-चार दिन की देरी हो गई। इस समय तुम्हारा हाल सुनने के बाद मैं अपना हाल सुनाऊँगा बल्कि तुम्हारी मदद भी लूँगा क्योंकि एक बड़ा टेढ़ा मामला आ पड़ा है जिसमें तुम्हारे ऐसा होशियार आदमी ही मेरी मदद कर सकता है।

राम० : मैं हर वक्त दिलोजान से हाजिर रहूँगा। अपना हाल संक्षेप ही में सुनाए देता हूँ। आपकी आज्ञा पाकर हम लोग सीधे चुनार चले गए और इधर-उधर टोह लगाने लगे।पहिले दिन तो कुछ काम न हुआ मगर दूसरे दिन जब मैं एक चोबदार की सूरत बना हुआ इधर-उधर घूम रहा था तो दो लौड़ियों की बातचीत से कुछ पता लगा, मैंने उनमें से एक को अपने जाल में फँसाया और उसी की जुबानी थोड़ा बहुत हाल पाकर दीवान हरदयालसिंह के पीछे पड़ा, उन्हें धोखा देकर मैंने उनसे सब पता ले लिया। जो कुछ आपने सुना था वह बहुत ठीक था। उस घटना के बाद ही महाराज सुरेन्द्रसिंह ने अपने कुछ जासूस पता लगाने को छोड़े थे, और उन्होंने जो कुछ पता लगाया उससे जान पड़ा कि केवल जमानिया की महारानी, दारोगा साहब, और आप ही उस मामले में सने हुए न थे बल्कि जैपालसिंह और उसकी ‘बेगम’ भी उसमें मुबतिला थी।महारानी और दारोगा के बारे में तो महाराज सुरेन्द्रसिंह कुछ कर न सके, या सम्भव है कि उनके बारे में गुप्त रीति से महाराज गिरधरसिंह को कुछ लिखा हो, पर जैपाल, बेगम और आपको गिरफ्तार करने के लिए उन्होंने कई आदमी छोड़े और साथ ही यह मुनादी करा दी कि इस मामले को ठीक-ठीक खबर देने वाले को वे मुँहमाँगा इनाम देंगे।इस इनाम की लालच ने बेगम के मन में यह ख्याल पैदा किया कि वह सब कसूर आप पर थोपकर खुद साफ छूट ही न जाय बल्कि मुँहमाँगा इनाम भी ले, वह उसी वक्त विजयगढ़ गई और रियासत के कई ओहदेदारों से मिलकर यह बात जाहिर की कि अगर महाराज सुरेन्द्रसिंह उसे और उसके आशिक जैपाल को छोड़ दें तो वह उस मामले का पूरा-पूरा भेद तथा जिसने यह काम किया उसका नाम और पूरा-पूरा सबूत महाराज को दे सकती है। महाराज ने यह बात स्वीकार कर ली, बल्कि यह भी कहा कि अगर वह आपको गिरफ्तार करा देगी तो मुँहमाँगा इनाम ही नहीं, बल्कि और भी कुछ पावेगी। बेगम खुशी-खुशी लौट आई और आपके खिलाफ तरह-तरह के सबूत जुटाने लगी। लेकिन इसी बीच चुनारगढ़ के राजा शिवदत्त से महाराज सुरेन्द्रसिंह की लड़ाई लग पड़ी जिससे यह मामला ठंडा पड़ गया परन्तु अब फिर उभड़ा है और बेगम तथा जैपाल इसके सम्बन्ध में गुप्तरीति से बहुत कुछ कर रहे हैं।

यह सब हाल कुछ तो दीवान हरदयालसिंह को धोखा देकर मैंने जाना और कुछ इधर-उधर नौकर-चाकर, लौंडी-गुलामों से बातचीत और इनाम-इकराम दे-दिलाकर पता लगाया। जो कुछ मैंने सुना उससे मुझे यही विश्वास हुआ कि इस मामले का असली भेद बेगम के पेट में है अस्तु मैं चुनारगढ़ से सीधा काशी पहुँचा और बेगम के मकान के चारों तरफ चक्कर लगाने लगा आखिर एक दिन रात के समय मौका पाकर मैं कमन्द लगाकर उसके मकान में घुस गया और चारों तरफ घूमने-फिरने और तलाशी लेने लगा।कितने ही सन्दूक, आलमारी और कोठरियों के ताले मैंने तोड़े और उनकी जाँच की मगर कामयाबी कुछ न हुई जिसका सबब यह था कि बेगम उस रात वहाँ थी नहीं, कहीं गई थी, और संभव है जरूरी कागजात कहीं छिपाकर रख गई हो या अपने साथ ही ले गई हो। लाचार असफल होकर मैं लौटना ही चाहता था कि उसी समय एक बन्द कोठरी की जंजीर काटने पर मुझे उसके अन्दर एक कैदी दिखाई पड़ा जो इतना कमजोर और दुबला-पतला हो रहा था कि साफ जान पड़ता था कि बरसों का कैदी ही नहीं है बल्कि हद्द दर्जे की तकलीफ में रक्खा जाता है। बैरंग वापस लौटने से अच्छा समझकर और यह भी सोचकर कि शायद इससे हम लोगो के काम में कुछ मदद मिले मैं उसको अपने साथ ही बेगम के मकान के बाहर ले आया।

भूत० : अब वह आदमी कहाँ है? उसका नाम-धाम कुछ मालूम हुआ?

राम० : उसे आपके अड्डे पर छोड़ आया हूँ मगर नाम-धाम या हालचाल मुझे कुछ भी मालूम न हो सका, क्योंकि मैं एक दूसरे ही फेर में पड़ गया।

भूत० : सो क्या?

राम० : उस कैदी को लेकर बेगम के मकान के बाहर होने के कुछ ही देर बाद बेगम वहाँ पहुँची आते ही मालूम हो गया कि कोई आदमी चोरी की नीयत से उसके मकान में घुसा था क्योंकि अपने काम के लिए मुझे कई ताले और जंजीरे तथा कुलाबे काटने पड़े थे जैसा कि मैंने आपसे कहा। तुरन्त ही चारों तरफ खोज-ढूँढ़ मच गई और कुछ ही देर में लोगों को मालूम हो गया कि वह कैदी निकल गया है। यह हाल जानते ही बेगम घबड़ा गई और उसने उसी समय अपना एक आदमी चिट्ठी देकर जमानिया रवाना किया।

भूत० : किसके पास? जैपाल के पास भेजा होगा?

राम० : जी हाँ, मुझे भी यह बात मालूम हो गई और मैंने उस आदमी का पीछा करके पता लगा लिया कि बेगम ने चिट्ठी देकर जैपाल को बुलवाया है और मेरा काम बन गया। आपने जैपाल को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया ही था, इस बेगम की चिट्ठी की मदद से वह काम बखूबी बनता था, अस्तु मैंने उस आदमी को गिरफ्तार कर लिया स्वयम् उसकी जगह काशी जाकर जैपाल से मिलने का विचार किया। बेगम के मकान से निकले हुए कैदी और बेगम के आदमी को साथियों की मार्फत अड्डे पर भेजा, और बाकी लोगों को साथ ले काशी पहुँचा। बेगम की चिट्ठी की बदौलत जैपाल सहज ही कब्जे में आ गया बल्कि कुछ और भी काम बन गया।

भूत० : वह क्या?

राम० : बेगम की चिट्ठी में मैंने अपनी तरफ से यह बढ़ा दिया था कि उस कैदी के सम्बन्ध के सब कागज और कुछ दौलत भी लेते आना, सो जैपाल इस जाल में फंस गया और बहुत से कागजों की एक गठरी और कुछ जवाहिरात लेकर घर से निकला। उसे गिरफ्तार करना कौन मुश्किल था? हम लोग उसे पकड़कर नाव के रास्ते वहाँ पहुँचे जहाँ आपने मिलने का वादा किया था पर दो रोज तक आपकी राह देखने पर भी आप न मिले, लाचार मैंने जैपाल को भी दो आदमियों के साथ अड्डे पर भेजवा दिया और खुद आपकी राह देखता रह गया। आज अगर आपसे मुलाकात न हो गई होती तो मैं यहाँ न रुकता और काशी, जमानिया या मिर्जापुर जाकर पता लगाता।

भूत० : (खुश होकर और रामगोविन्द की पीठ ठोंककर) शाबाश! तुमने तो वह काम किया कि मैं भी शायद न कर सकता था, तुम्हारे ऐसा शागिर्द पाकर मैं अपने को भाग्यवान समझता हूँ अच्छा तो जैपाल के पास से मिले हुए कागजात अब कहाँ हैं?

राम० : उन्हें भी मैंने जैपाल के साथ ही अड्डे पर भेज दिया। साथ रखने से न जाने कब क्या धोखा हो जाता। क्या उनकी अभी जरूरत है?

भूत० : नहीं कोई बहुत नहीं, मैं यहाँ से लौटूँगा तो उनकी जाँच करूँगा। हाँ तुम यह बताओ कि उस दूसरी बात का कुछ पता लगा जो मैंने तुमसे कहीं थीं?

राम० : वह कौन सी?

भूत० : उस तिलिस्मी किताब के बारे में जो विक्रमी तिलिस्म से निकली थी और जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें जमानिया तिलिस्म का पूरा-पूरा हाल लिखा हुआ है।

राम० : हाँ ठीक है, मैंने उसके बारे मे भी जाँच की थी, उस किताब के बारे में लोगों में यह मशहूर है कि वह किसी आदमी के खून से लिखी गई है और इसीलिए रिक्तगंथ के नाम से मशहूर है, उसमें किसी बहुत बड़े और भयानक तिलिस्म का हाल लिखा हुआ है मगर वह तिलिस्म जमानिया तिलिस्म ही है या कोई और यह मैं जान न सका, हाँ यह पता जरूर लगा कि उसे राजा वीरेन्द्रसिंह बहुत हिफाजत के साथ खास अपने शीशमहल में रक्खे हुए हैं और उनका विचार है कि उसकी मदद से खुद या अपने लड़कों के द्वारा तिलिस्म खोलें, आपकी आज्ञा न थी नहीं तो मैं उस किताब को भी लेने की कोशिश करता।

भूत० : कोई हर्ज नहीं, मैं शीघ्र ही उसके लिए या तो तुम्हें भेजूँगा और या खुद जाऊँगा। तुम जो कुछ पता लगा लाए हो उसी से मेरा बहुत सा काम निकल जाएगा। अच्छा लो अब मुझसे सुनो कि मैं किस फेर में पड़ गया था। चूँकि यह मामला भी बहुत कुछ उसी भेद से सम्बन्ध रखता है जिसका पता लगाने मैंने तुम्हें चुनार भेजा था इसलिए मैं तुम्हें पूरा-पूरा हाल सुनाता हूँ।

भूतनाथ ने पिछला सब हाल-अपना घर से निकलना, रास्ते में कामेश्वर और भुवनमोहिनी बनी हुई गौहर और मुन्दर का मिलकर उसे धोखे में डालना, उनका पीछा करते हुए कैलाश-भवन के पास तक पहुँचना, शिवदत्त के आदमियों के हाथ उन दोनों का फँसना, खुद शिवदत्त बनकर उन ऐयारों के हाथ से उन्हें छुड़ाना और उनका भेद दरियाफ्त करना, और अन्त में उन दोनों ही का गायब हो जाना यह सब हाल पूरा-पूरा उसने रामगोविन्द से कह सुनाया मगर इस बीच में अपने इन्द्रदेव से मिलने का हाल न कहा और न यही बताया कि उनसे क्या-क्या बातें हुई थीं। रामगोविन्द सब हाल बड़े गौर से सुनता रहा और अन्त में बोला, ‘‘मुझे तो यह जान पड़ता है कि ये बेगम, गौहर और मुन्दर वगैरह मिल कर आप पर कोई बड़ा तूफान खड़ा करना चाहती हैं।’’

भूत० : बेशक यही बात है। मगर कुशल इतनी ही है कि इस सम्बन्ध में मेरे खिलाफ काम में आने वाले जितने सबूत थे करीब-करीब वे सब मेरे कब्जे में आ गए हैं, बहुत से जरूरी कागजात तो खास मुन्दर और गौहर ही से मुझे मिले हैं और बाकी के तुम जैपाल के पास से उठा लाये हो। मुमकिन है कि स्वयम् जैपाल की जुबानी भी कुछ पता लगे या उसे कैदी से कुछ भेद की बातें मालूम हों जिसे तुम बेगम के यहाँ से ले आए हो। अस्तु जब तक ये सब कागज मेरे पास रहेंगे किसी को मेरे खिलाफ उंगली उठाने का मौका न मिलेगा।

राम० : बेशक, मगर आपको इन सबूतों को या तो एकदम गारत ही कर डालना चाहिए और या फिर बहुत होशियारी से रखना चाहिए क्योंकि अब जब कि इतने दिनों का छिपा हुआ भेद सिर्फ प्रकट ही नहीं हो गया है बल्कि कई आदमी इसे जान भी गए हैं तो जिसके हाथ में भी सबूत पड़े वह आपको बहुत बड़ा नुकसान पहुँचा सकेगा। मैं यह नहीं जानता कि वह भेद क्या है और आपके दुश्मन किस बात का कलंक आप पर लगाना चाहते हैं मगर जो कुछ आप ही की जुबानी या इधर-उधर पता लगाते हुए जान पड़ा है उसमें मैं यह गुमान जरूर कर सकता हूँ कि वह कोई बहुत ही भयानक बात है और उसका प्रकट होना आपके हक में अच्छा नहीं होगा।

भूत० : बेशक यही बात है तुम मेरे परमप्रिय शिष्य हो अस्तु मैं तुमसे कुछ भी छिपाना नहीं चाहता और तुम्हें साफ-साफ बताए देता हूँ कि वह क्या भेद है। मेरे पास आ जाओ और गौर से सुनो मगर इतना याद रखना कि जीती जिन्दगी इसका एक भी लफ्ज किसी दूसरे के कान में न जाना चाहिए नहीं तो मैं कहीं का न रहूँगा। बलदेव, तुम भी गौर से सुनो, मगर खबरदार, कभी यह सब हाल किसी पर प्रकट न करना!

भूतनाथ के शागिर्द उसके पास खिसक आए और उसने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि यकायक एक चीख की आवाज ने कान में पड़ कर सभी को चौंका दिया। आवाज कहीं पास ही से आई थी और किसी औरत की जान पड़ती थी जिसने उसे कुछ कहने से रोक दिया और वह चारों तरफ निगाह दौड़ा कर गौर करने लगा कि वह किधर से आई है। यह तो पहचानी हुई-सी जान पड़ती है।’’

भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और उसके शागिर्द भी खड़े हो इधर-उधर देखने लगे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book