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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान


पन्द्रहवें भाग के चौथे बयान के अन्त में हम लिख आये है कि अजायबघर से निकले हुए उस जख्मी नकाबपोश को घोड़े पर बैठा कर उसका साथी जमानिया की तरफ ले चला।

ये दोनों नकाबपोश वास्तव में हमारे पाठकों के अच्छी तरह जाने-पहिचाने जमानिया के दारोगा साहब और उनके दोस्त जैपालसिंह हैं, ये लोग किस मतलब से इस समय अजायबघर में घुसे थे या वहाँ जाकर दारोगा साहब क्यों इस बुरी तौर पर जख्मी हो गये इसके बारे में हम कुछ नहीं कह सकते, हाँ इनकी बातचीत सुनने से मुमकिन है कुछ पता लग जाय, मगर इस समय तो दारोगा साहब की यह हालत है कि कुछ बात भी करना उनके लिए मुश्किल है। जैपालसिंह के तरह-तरह के सवालों के जवाब में वे कभी-कभी सिर्फ इतना कह देते हैं, ‘‘अभी कुछ मत पूछो, घर पहुँचने दो। तब मैं बताऊँगा कि मेरे ऊपर क्या गुजरी है!!’’ इतना कह कर वे काँप उठते हैं मगर यह कंपकंपी किस भयानक दृश्य की याद उन्हें दिलाती है यह हम नहीं जानते।

आखिर धीरे-धीरे चलते दारोगा को लिए जैपाल जमानिया जा पहुँचा। इस समय रात हो चुकी थी और सड़क पर आदमियों की आमदरफ्त बहुत कुछ कम हो गई थी, फिर दारोगा साहब ने अपनी मौजूदा हालत में सदर फाटक की राह अपने मकान के अन्दर जाना मुनासिब न समझा और पीछे की तरफ के एक चोर दरवाजे के सामने जा खड़े हुए जो बाहर की तरफ से बन्द था। जैपाल ने दरवाजा खोला और दोनों आदमी अन्दर पहुँचे।

जख्मों की सफाई कर अपने हाथ ही से कुछ मलहम-पट्टी करने के बाद जब जैपाल ने दारोगा साहब को पलंग पर लिटा दिया तब जाकर उनके होश कुछ ठिकाने आये और वे इस लायक हुए कि जैपाल के सावालों का जवाब दे सकें। धीमी आवाज में रुक कर उन्होंने अपना किस्सा यों सुनना शुरू कियाः-

‘‘अजायबघर के दरवाजे पर रथ खड़ा देख कर यह तो मैं समझ ही गया था कि कोई आदमी उसके अन्दर जरूर गया है जिसके दोस्त होने की बनिस्बत मेरा दुश्मन होने की सम्भावना ही अधिक थी।अस्तु मैं बड़ी होशियारी के साथ सब तरह से चौकन्ना होकर इमारत के अन्दर घुसा। जब मैं ड्योढ़ी के पास पहुँचा तो वहाँ मुझे रोशनी दिखाई पड़ी जो शीशे के एक छोटे गोले के अन्दर से निकल रही थी। मैं यह रोशनी देख ताज्जुब में पड़ गया और एक खम्भे की आड़ में खड़ा होकर चारों तरफ देखने लगा। कुछ ही देर बाद मैंने देखा कि वहाँ से चक्रव्यूह की तरफ जाने का जो रास्ता है उसके दरवाजे के पास एक गठरी पड़ी हुई है और वह दरवाजा खुला हुआ है, मुझे यह गुमान हुआ कि जरूर कोई आदमी उस दरवाजे के अन्दर घुसा है और यह गठरी छोड़ता गया है। जब वह लौटेगा और अपनी गठरी उठाकर यहाँ से चलेगा तब मुनासिब समझूँगा तो उससे रोक-टोक करूँगा। यह सोच मैं अपनी जगह पर छिपा खड़ा रहा। मगर जब देर हो गई और कोई उस दरवाजे की राह बाहर न निकला बल्कि आप एक हलकी आवाज देता हुआ वह दरवाजा बन्द हो गया तब मैंने सोचा कि शायद उसकी राह अन्दर जाने वाला अब वापस न लौटेगा। ऐसी हालत में और देर तक राह देखना फजूल समझ मैं उस गठरी के पास पहुँचा और यह देख ताज्जुब करने लगा कि उस गठरी में इन्द्रदेव की स्त्री सर्यू बंधी हुई है!

जैपाल० : (ताज्जुब से) सर्यू!

दारोगा० : हाँ सर्यू। उसे वहाँ देख मैं ताज्जुब में आ गया और साथ ही यह सोच खुश भी हुआ कि यह पुनः मेरे कब्जे में आ गई सो अच्छा ही हुआ नहीं तो इसके जरिये मेरा बहुत भण्डाफोड़ हो जाता और शायद हो भी चुका हो तो ताज्जुब नहीं। मुनासिब तो यही था कि उसी समय उसे पुनः गठरी में बाँध मैं बाहर निकाल लाता पर किस्मत की मार! यह न कर मैंने होश में लाकर यह जानना चाहा कि उसे उस जगह ले आने वाला कौन था? बस यही करना मेरे लिये काल हो गया।लखलखा सुँघा कर मैं उसे होश में लाया और पूछने लगा कि वह वहाँ क्योंकर पहुँची मगर उसने कुछ भी बताना मंजूर न किया, मैं उसे मारपीट कर रास्ते पर ला ही रहा था कि यकायक चकव्यूह का फाटक खुल गया और उसके अन्दर किसी आदमी की आहट मालूम पड़ी जिसने डपट कर मुझे कुछ कहा, मैंने भी जवाब दिया और इसके बाद फुर्ती से तलावार निकाल कर उसका मुकाबला करने के लिए तैयार हो गया, मगर ओफ! मेरे दोस्त! मैं तुमसे क्या बयान करूँ! मेरी निगाहें जब उस दरवाजे की तरफ उठी तो जिस भयानक चीज पर मेरी निगाह पड़ी उसे देखते ही मेरी तो रूह काँप उठी!! (काँप कर) ओफ!’ अब भी याद आता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं!!’’

कहते हुए दारोगा ने दोनो हाथों से अपनी आँखें बन्द कर लीं। जैपाल ने यह देख ताज्जुब से पूछा, ‘‘आखिर कुछ बताइए भी तो कि वह डरावनी चीज क्या थी? भूत, प्रेत, पिशाच शैतान आखिर क्या आपको दिखा?’’

दारोगा० : वह इन सभों से बढ़कर खौफनाक चीज थी, भूत-प्रेत को देखकर तो आदमी दो-चार मिनट तक अपने होश-हवास कायम भी रख सकता है मगर उसे देखते ही तो मेरा यह हाल हो गया कि मानों बदन का सारा खून रगों में जम गया हो। लो सुनो वह क्या आसेब था, वह था-आदमी की हड्डियों का एक समूचा ढांचा जिसके ऊपर माँस का नाम-निशान भी न था परन्तु जिसकी बिना पुतलियों की आँखों के गढ़े में से खौफनाक चमक निकल रही थी। उसके बायें हाथ में एक तलवार की मूँठ थी जिसको वह सिर से ऊपर उठाये हुए था पर जिसमें फल न था केवल मूँठ ही मूँठ थी, और दाहिने हाथ में एक छोटी सी ढाल थी जिस पर लाल स्याही अथवा खून के कुछ निशान बने हुए थे। मेरे देखते-देखते उसका खौफनाक जबड़ा जिसके भयानक दाँत मौत के दाढ़ों की तरह जान पड़ते थे, खुला और उसके अन्दर से कलेजे को दहला देने वाली एक भयानक हँसी निकली।

इतना कह दारोगा ने पुनः आँखें बन्द कर लीं और इस तरह काँप उठा मानों वह अब भी उस पिशाच को अपने सामने ही देख रहा है। जैपाल जो बड़े गौर से उसकी बातें सुन रहा था यह देख बोल उठा, ‘‘दारोगा साहब, आप यह आँखों देखा हाल बयान कर रहे हैं या किसी तिलिस्मी खेल को देखकर भौंचक में पड़ गये थे!’’

दारोगा० : ठीक हाल कह रहा हूँ, ठीक! कोई तिलिस्मी तमाशा नहीं बयान कर रहा हूँ! तुम अगर उस वक्त होते तो देखते कि वह कैसी डरावनी शक्ल थी!

जैपाल० : खैर तब क्या हुआ?

दारोगा० : उसकी भयानक हंसी ने मुझको एकदम दहला दिया और मुझमें इतनी भी ताकत न रह गई कि वहाँ से भाग सकूँ। सर्यू तो उस आसेब को एक ही निगाह देख चीख मार कर बेहोश हो चुकी थी पर मेरी भी वही हालत होती अगर मैं थोड़ी देर भी और उसे देखता या उससे बातें करता। मैंने दोनों हाथों से अपनी आँखें बन्द कर लीं और उसी जगह जमीन पर बैठ गया, उस शैतान ने यह देख फिर एक भयानक हँसी हँसी और तब आहट से जान पड़ा कि वह मेरी तरफ बढ़ रहा है। मैंने तो समझा कि बस जान गई और यह मुझे कच्चा ही चबाकर खतम करेगा मगर नहीं, इसी समय बगल की किसी कोठरी में से कुछ आदमियों की आवाज सुनाई पड़ी जिसे सुनते ही वह पुनः एक बार गरजा और तब बिजली की तरह चमक कर गायब हो गया। उस जगह सिर्फ थोड़ा - सा धुआँ रह गया जो थोड़ी देर बाद गयाब हो गया।

जैपाल० : (ताज्जुब से) फिर क्या हुआ?

दारोगा० : बस मुझे तो मौका मिला और मैं इस तरह वहाँ से भागा जैसे शेर के मुँह से छूटा हुआ शिकार भागता है, पर भाग के भी मेरी जान को चैन न मिला। दस ही पाँच कदम गया होऊँगा कि एक कोठरी से निकल कर कई आदमियों ने मुझे घेर लिया।

जैपाल० : वे लोग कौन थे?

दारोगा० : क्या मेरे हवास उस वक्त इस लायक थे कि मैं दोस्त या दुश्मन को पहिचानता! उस वक्त डर और खौफ से मैं तो पागल-सा हो रहा था। मैंने बस अन्धे की तरह इधर-उधर तलवार का हाथ मारना शुरू किया और भीड़ को चीरता हुआ आगे को भागा। उन्होंने मेरा पीछा किया, हम लोगों में दौड़ते-भागते हुए भी दो-चार हाथ हुए, उसी समय खम्भे से लग कर मेरी तलवार टूट गई मगर मैंने भागने में कसर न की और किसी तरह तुम्हारे पास पहुँचा। अब जो यह सोचता हूँ कि कैसे वहाँ तक आया तो खुद ताज्जुब होता है।

जैपाल० : (कुछ देर चुप रह कर) मगर यह तो आपने बड़ी विचित्र खबर सुनाई। बहुत कुछ घटनायें हम लोगों पर पड़ी पर आज तक कभी ऐसा मामला तो देखने में नहीं आया था।

दारोगा० : देखने में क्या सुनने में भी नहीं आया था। उस शैतान की शक्ल जब मैं खयाल करता हूँ, मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

जैपाल० : लेकिन आखिर आप ख्याल क्या करते हैं कि वह क्या बला थी?

दारोगा० : (कुछ सोचकर) मैं तो समझता हूँ कि वह चक्रव्यूह के तिलिस्म की हिफाजत करने के लिए मुकर्रर किया हुआ कोई पिशाच है। वह तिलिस्म बड़ा ही भयानक है जब-जब मैं उसके नजदीक गया धोखा ही उठाया। तुम्हें याद होगा पहिली दफे जब हम लोग वहाँ गये थे तब भी यद्यपि यह डरावनी चीज तो नहीं देखी फिर भी ऐसी-ऐसी चीजें मेरे देखने में आई थीं कि हवास गुम हो गए थे और अब की भी उसी फाटक के अन्दर से यह निकला था, इसी से सोचता हूँ कि हो न हो उसी तिलिस्म में रहने वाला या उसकी हिफाजत करने वाला यह कोई है।

जैपाल० : हो सकता है। लेकिन तब जरूर वह चकव्यूह बड़ी भयानक जगह हैं। अब आपको बहुत समझ-बूझकर उस तरफ जाना चाहिए।

दारोगा० : जाना! अजी अब मैं उस तरफ कभी झाँकने का भी नहीं, मैने तो उसी वक्त कान पकड़ा और कसम खाई कि चकव्यूह में जाने का नाम तक न लूँगा, अब क्या फिर जाऊँगा? जान थोड़ी ही भारी पड़ी है!!

जैपाल० : अच्छा तो अब आप कुछ देर आराम करें और मुझे आज्ञा हो तो मैं चलूँ। आज बहुत परेशानी उठानी पड़ी।

दारोगा० : अच्छा जाओ, मैं भी लेटूँगा।

दो-चार बातों के बाद दारोगा साहब से बिदा हो जैपाल उनके मकान के बाहर हुआ और अपने घर की तरफ रवाना हुआ। जैपाल को बहुत दूर नहीं जाना था क्योंकि दारोगा साहब का अन्तरंग मित्र होने के कारण तथा इसलिए कि न जाने कब उन्हें उसकी जरूरत पड़ जाय अपने मकान से बहुत ही कम दूरी पर मगर कुछ गलियों के अन्दर के एक मकान में दारोगा साहब ने इसका डेरा कायम किया हुआ था।

लगभग आधा रास्ता जैपाल ने तय किया होगा कि एक अंधेरी गली के मोड़ पर उसे अचानक रुक जाना पड़ा। लम्बे डील-डौल का एक कद्दावर आदमी जिसका चेहरा अंधेरे के कारण साफ नजर नहीं आ रहा था गली के बीचोबीच में खड़ा हुआ था जिसने इसे देखते ही अपने हाथ की भारी लाठी आड़ी रख के गली का रास्ता रोक लिया और अक्खड़पने के साथ इसका हाथ पकड़ कर रोकता हुआ ऐंठ कर बोला। ‘‘जरा सुनते जाइये, बाबू साहब!’’

जैपाल ने झटका देकर अपना हाथ छुड़ाना चाहा और साथ ही कुछ गुस्से से कहा, ‘‘कौन है बे? कैसा बेहूदा आदमी है!’’ मगर इन दोनों ही का कोई असर उस आदमी पर न हुआ। न तो उसने उसकी कलाई छोड़ी और न उसकी बात का कुछ बुरा ही माना बल्कि हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘आप इतना बिगड़ते क्यों हैं? जरा ठंडे होकर मेरी बात तो सुनते जाइये!!’’

और कोई वक्त होता अथवा कोई मददगार साथ में होता तो शायद जैपाल किसी दूसरी तरह पेश आता मगर इस समय एक तो गली में बिलकुल अंधेरा और सन्नाटा देखकर तथा दूसरे इस आदमी को बहुत मजबूत पा और शायद यह भी सोचकर कि यहाँ आवाज देने पर भी कोई उसकी मदद को नहीं पहुँचेगा उसने अपने मिजाज को भीतर ही भीतर बहुत क्रोध मालूम होने पर भी ऊपर से ठण्डा ही रक्खा और कहा, ‘‘अच्छा कहो क्या कहते हो?’’

आदमी० : क्या आपका नाम जैपालसिंह है?’’

जैपाल० : हाँ है तो!

आदमी० : तब यह चीठी आप ही के लिए है।

कहकर उसने कमर में खोंसी हुई एक चीठी निकालकर जैपाल के हाथ पर रख दी। जैपाल ने चीठी लेते हुए कहा, ‘‘यह किसने भेजी है?’’

उसने जवाब दिया। ‘‘किसने भेजी है और क्यों भेजी है यह सब आपको चीठी पढ़ने से मालूम हो जायगा। अगर यहाँ अंधेरा समझते हो तो लालटेन के पास चले चलिए और जल्दी से पढ़ डालिए।’’

थोड़ी दूर पर एक मकान के कोने से लगी हुई लालटेन अपनी फीकी रोशनी आस-पास की दीवारों पर डाल रही थी। जैपाल कुछ सोचता-विचारता उसी की तरफ बढ़ा और वह आदमी भी साथ हुआ। मगर लालटेन की रोशनी में वह कागज खोल उस पर एक निगाह डालते ही जैपाल चौंक पड़ा और तब जल्दी-जल्दी उस चीठी को पढ़ गया जिसका मजमून इस प्रकार थाः-

‘‘मेरे प्यारे मजनूँ,

मैं बहुत बड़ी मुसीबत में पड़ गई हूँ! अगर मुझे जीता-जागता देखना चाहते हो तो चीठी देखते ही इस आदमी के साथ चल पड़ो। मुख्तसर में लिखे देती हूँ कि तुम्हारा कैदी मेरे कब्जे से निकल गया और सारा भण्डा अब फूटा ही चाहता है पूरा हाल यहाँ आने पर बताऊँगी।

उसके सम्बन्ध के कुछ कागजात और कुछ दौलत भी अपने साथ जरूर लेते आना।

तुम्हारी प्यारी-बेगम।’’

इस चीठी ने जैपाल को घबड़ा दिया। कुछ देर तक चुपचाप खड़ा कुछ सोचता रहा और तब उस आदमी से बोला। ‘‘मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ मेरा मकान पास ही में है जहाँ चलकर कुछ सामान ले लूं, तुम्हारे साथ कोई सवारी है या सवारी का इन्तजाम करना पड़ेगा?’’

उस आदमी ने जवाब दिया। ‘मैं डौंगी पर आया हूँ जिस पर आठ मल्लाह मौजूद हैं। हुक्म है कि इसी नाव पर आपको ले आऊँ। एक मिनट की भी देरी न करूँ।’’

जैपाल० : अच्छी बात है, मेरे साथ-साथ आओ, मैं बहुत जल्द तैयार हो जाऊँगा।

उस आदमी ने कोई उज्र न किया और जैपाल के पीछे-पीछे चल पड़ा जैपाल उसे लिए अपने मकान की तरफ बढ़ा इस समय उसका चेहरा देखने वाला कह सकता था कि वह किसी गहरे सोच में पड़ गया है।

घर पहुँचकर जैपाल ने जल्दी-जल्दी कई जरूरी काम निपटाए, एक चीठी दारोगा साहब के नाम छोड़ी। इसके बाद कपड़े पहिन तैयार हुआ और तब एक मजबूत आलमारी खोलकर उसमें से कोई चीज निकालकर कमर में खोसी और वहीं से लाल रंग के कपड़े में बंधी एक छोटी गठरी जिसमें न जाने क्या चीज थी निकालकर बगल में दबाई इसके बाद आलमारी बन्द कर मकान के ऊपर वाली मन्जिल की एक कोठरी में पहुँचा।यहाँ से भी उसने कोई सामान निकाला और एक लबादा ओढ़ने के लिए हाथ में लेकर एक छुरा कमर में छिपाया, इसके बाद उस आदमी के पास पहुँचकर बोला, ‘‘बस मैं चलने को तैयार हूँ।’’

वह आदमी बिना कुछ कहे-सुने उठ खड़ा हुआ और दोनों नदी की तरफ रवाना हुए जो वहाँ से बहुत दूर नहीं पड़ती थी। एक लम्बी हलकी और तेज जाने वाली किश्ती जिस पर कई मल्लाह मौजूद थे किनारे से कुछ दूर जल में खड़ी थी। जैपालसिंह के साथी ने ‘‘रामा! रामा!!’’ करके आवाज दी जिसके साथ ही डोंगी पर से एक आदमी ने जवाब दिया और डोंगी किनारे से आ लगी।

हाथ का सहारा देकर एक मल्लाह ने जैपाल को डोंगी पर चढ़ा लिया, पीछे की तरफ एक कम्बल बिछा हुआ था जिस पर जैपाल बैठ गया, उसका साथी वह कद्दावर जवान उसके बगल में जा बैठा, और उसके एक इशारे के साथ ही डोंगी किनारा छोड़कर बीच धारा में हो गई।

इस समय की खिली चाँदनी में गंगाजी का सुहावना और शान्त दृश्य मन को मोह लेने वाला था।जैपाल कुछ देर तक अपने चारों तरफ की प्राकृतिक छटा को देखने में लगा रहा मगर यकायक वह चौंका जब उसे ख्याल आया कि डोंगी धार पर चढ़ने के बजाय उल्टे नीचे की तरफ बहाव के साथ-साथ तीर की सी तेजी से जा रही है, क्योंकि खेने वाले सभी आदमी मजबूत और अपने काम में होशियार थे। वह घबड़ा कर सोचने लगा, ‘‘काशी तो जमानिया से ऊपर की तरफ है, ये लोग नीचे की तरफ क्यों जा रहे है! क्या कोई धोखा तो नहीं है?’’ उसने अपने साथ वाले आदमी का हाथ पकड़ा जो नाव के किनारे पर सिर रखकर ऊंघ रहा था और उसे हिलाकर पूछा। ‘‘हम लोग नीचे को बहाव की तरफ क्यों जा रहे हैं काशी तो ऊपर ती तरफ है?’’

उस आदमी ने एक बार सिर घुमाकर चारों तरफ देखा और तब कड़ी आवाज में जैपाल से कहा, ‘‘बस चुप रहो और समझ रक्खो कि अपने मालिक के हुक्म से मैं तुम्हें गिरफ्तार करके ले जा रहा हूँ। अगर चुपचाप बैठे नहीं रहोगे और शोरगुल मचाने या फसाद करने की नीयत करोगे तो बुरी तौर से पेश आऊँगा!’’

जैपाल की तो यह हालत हो गई कि काटो तो बदन में लहू नहीं एक तो वह स्वभाव का ही डरपोक और बुजदिल आदमी था, दूसरे उस मोटे-ताजे पहलवान से लड़कर पार पाना उसकी ताकत से एकदम बाहर की बात थी, और तीसरे उस पहलवान के वे साथी भी जो नाव खे रहे थे जरूर उसके ही होकर काम करेंगे यह भी उसे विश्वास था, अस्तु किसी प्रकार भी वह अकेला इतने आदमियों पर फतेहयाबी नहीं पा सकता था, यही सब कुछ देख और समझ वह चुपचाप अपनी जगह पर दबका रह गया मगर इतना जरूर गौर करता रहा कि ये लोग किसके आदमी हो सकते हैं और इस प्रकार धोखा देकर उसे कहाँ ले जा रहे होंगे। एक सायत के लिए उसका ख्याल बेगम की तरफ गया जिसकी चीठी पर विश्वास करके अकेला ही इन सभी के साथ घर से निकल पड़ा था, मगर उसकी प्यारी बेगम उसके साथ दगा करेगी इस बात पर भी उसका ख्याल न जमा और उसने यही स्थिर किया कि जरूर वह चीठी जाली है।

पर उस चीठी का मजमून ऐसा था कि इस बात पर उसका ख्याल न जमा और उसने यही निश्चय किया कि बेगम को धोखा देकर वह चीठी लिखा ली गई है अथवा सचमुच कोई जरूरत पड़ने पर बेगम ने किसी आदमी को चीठी देकर भेजा है और वह आदमी इन लोगो के कब्जे में पड़ गया हो। मगर फिर ये लोग आखिर हैं कौन और इस तरह उसे गिरफ्तार करके कहाँ ले जा रहे हैं?

तरह-तरह की बातें जैपाल सोच गया मगर उसकी अक्ल ने कुछ काम न दिया और अब वह इस सोच में पड़ गया कि उस चीठी पर भरोसा करके जो दौलत और कागजात उसने साथ ले लिये हैं उनका क्या होगा?दौलत से ज्यादा उसे उन कागजों की फिक्र थी जिनका उसके किसी दुश्मन के हाथ में पड़ जाना उसके हक में मौत से बढ़ कर बुरा होगा, इस खयाल ही से वह कांप उठा कि उसके कब्जे से निकले हुए वे कागज अब उसी को बर्बाद कर देंगे।

न जाने उन कागजों में कौन-सा भेद छिपा हुआ था कि उनका दुश्मनों के हाथ में देने की बनिस्बत एकदम नष्ट कर देना ही जैपाल को बेहतर मालूम हुआ उसने बहुत ही आहिस्ते से, जिसमें किसी पर जाहिर न हो।अपने कमर में हाथ डालकर कोई चीज जो वहाँ छिपाई थी निकाली और छिपे ढंग से ही उसे उस गठरी में डाला जो घर से साथ लाया था और जो इस समय उसके बगल में पड़ी हुई थी। चारों तरफ उसने जाँच की निगाह फेरी। सब मल्लाह अपने-अपने काम में लगे थे और उसे गिरफ्तार करने वाला अपनी जगह पर बैठा ऊँघ रहा था। मौका अच्छा था, उसने धीरे से हाथ बढ़ाकर वह गठरी उठाई और फुर्ती से पानी में फेंकी।

मगर उसके बगल में बैठा हुआ वह मोटा-ताजा आदमी देखने में यद्यपि लापरवाह और ऊँघता हुआ मालूम होता था पर भीतर खूब चौकन्ना और सब तरह से होशियार था। जैपाल के हाथ से गठरी छूटने के पहिले ही उसका हाथ उस गठरी पर जा पड़ा और उसने उसे पकड़ लिया। उसी समय जैपाल के हाथों में एक तेज छुरा दिखाई पड़ा मगर इस आदमी की तेज निगाह ने उसे भी देख लिया। एक हाथ से तो वह गठरी उसने ठिकाने रक्खी और दूसरे हाथ से जैपाल की कलाई पकड़कर ऐसे जोर से उसकी बाँह उमेठी कि जैपाल के मुँह से एक चीख निकल पड़ी और छुरा हाथ से छूटकर गिर पड़ा। छुरा उठाकर उस आदमी ने जोर से दूर फेंक दिया और वह चन्द्रमा की रोशनी में चमकता हुआ एक हलके छपाके के साथ पानी में गिर गया। इसके बाद उसने गरजकर कहा, ‘‘बस अब अगर तुमने जरा भी शैतानी की तो हथकड़ी-बेड़ी से कस दिए जाओगे! अपनी कुशल चाहते हो तो चुपचाप बैठे रहो और भागने का खयाल भी मत करो!!’’

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