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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान


जब उस तिलिस्मी छत ने प्रभाकरसिंह को गिरफ्तार कर लिया और ऊपर की तरफ उठी उस समय प्रभाकरसिंह के मन में यह बात चक्कर मारने लगी, ‘‘अगर ऊँचे जाकर इस छत ने मेरे हाथ छोड़ दिए तो मैं इतने जोर से नीचे गिरूँगा कि मेरी हड्डी-पसली का भी पता न लगेगा,’’ अपनी मुसीबत वे अच्छी तरह समझ सकते थे मगर फिर भी वे घबड़ा नहीं गए थे बल्कि इस बात को सोच रहे थे कि इस आफत से छूटने की क्या तरकीब हो सकती है।

कुछ देर तक तो वे लाचारी के साथ हाथों के सहारे झूलते रहे इसके बाद उन्हें खयाल हुआ कि जिस तरह उनकी हथेलियाँ छत के साथ चिपक गई हैं उसी तरह अगर कोई और हिस्सा अपने बदन का वे छत के साथ लगावें तो क्या वह भी चिपक जायगा? यह सोचते ही उन्होंने अपने दोनों पैर ऊपर को उछाले और दो ही तीन दफे की कोशिश में उन्हें छत तक पहुँचा दिया, ताज्जुब और प्रसन्नता के साथ उन्होंने देखा कि उनके पैर भी उस छत के साथ चिपक गए जैसे उनकी हाथों पर पड़ने वाला भयानक भार कुछ कम हुआ क्योंकि अब बदन का बोझ हाथ और पाँवों पर बराबर बँट गया था।

थोड़ी देर ठहरकर उन्होंने फिर उद्योग किया और अपनी कोहनियाँ छत से चिपका दीं इसके बाद धीरे-धीरे करके घुटने, जंघा, कमर, पेट और तब छाती छत के साथ चिपका दी और अब उनका समूचा शरीर उस छत के साथ इस तरह चिपक गया मानों किसी ने गोंद से सटा दिया हो,

समूचे शरीर का छत से चिपकना था कि एक हलकी सी आवाज आई और इसके साथ ही वह छत धीरे-धीरे करवट बदलने लगी। उसका एक तरफ का हिस्सा ऊँचा होने लगा और थोड़ी ही देर बाद वह एकदम उलट गई अर्थात अब प्रभाकरसिंह सीधे होकर छत के ऊपर और छत उनके नीचे की तरफ हो गई। इसी के साथ-साथ शरीर को चिपका लेने वाली उसकी शक्ति भी दूर हो गई। वे उठकर बैठ गए और दो एक अँगड़ाई लेकर बदन की अकड़ाहट को दूर करने के बाद उठकर खड़े हो गए।

अब जिस जगह वे थे वह एक कमरा था जिसकी लम्बाई-चौड़ाई तो नीचे के शीशे वाले कमरे के बराबर ही थी मगर ऊँचाई पन्द्रह-बीस हाथ से किसी तरह कम न होगी, कमरे की दीवारें किसी चमकदार साफ पदार्थ की बनी हुई थीं जो देखने में तो शीशे की तरह मालूम होता था पर वास्तव में किसी तरह की पालिश था। पुरसे भर की ऊँचाई तक तो चारों तरफ कहीं भी कोई खिड़की, दरवाजा या रास्ता दिखाई नहीं पड़ता था और इतनी दूर तक तो सब दीवारें चारों तरफ से एकदम साफ थीं मगर इसके ऊपर जाकर हर तरफ की दीवार में कई बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ दिखाई पड़ रहीं थीं जिनमें से कई खुली हुई भी थीं।इसी ऊँचाई पर लगभग दो हाथ चौड़ा एक बरामदा इन खिड़कियों के साथ-साथ कमरे में चारों तरफ घूम गया था और ये खिड़कियाँ या दरवाजे मानों उसी बरामदे में आने-जाने के लिए थे।

प्रभाकरसिंह के मन में यह ख्याल दौड़ गया कि अगर मैं उस बरामदे तक पहुँच सकूँ तो जरूर उन दरवाजों में से किसी की राह इस जगह के बाहर हो जा सकूँगा। यह सोचते ही उन्होंने अपने कपड़े दुरूस्त किए।तिलिस्मी किताब और डण्डा सम्हाला। दुपट्टा कमर में लपेटा और जोर से उछले तो एकदम बरामदे को जा पकड़ा थोड़ी ही मेहनत में इन्होंने अपने को बरामदे के ऊपर कर लिया और वहाँ खड़े होकर चारों तरफ की कैफियत देखने लगे। सबसे पहिली बात जो उन्हें दिखाई पड़ी वह यह थी कि उनके बरामदे तक पहुंचते ही नीचे की वह छत जिसने उलटकर उन्हें छत के ऊपर किया था पुनः करवट बदलने लगी और थोड़ी ही देर में एकदम पलटकर पहिले की तरह हो गई अर्थात वह शीशे वाला भाग जिसके साथ चिपककर वे यहाँ तक पहुँचे थे पुनः नीचे की तरफ घूम कर इनकी आँखों की ओट हो गया।इसके बाद ही यह भी देखा कि वह छत धीरे-धीरे नीचे को उतरने लगी।एक हाथ, दो हाथ, चार हाथ, धीरे-धीरे वह पचीसों हाथ नीचे को उतर गई और अब प्रभाकरसिंह को ऐसा मालूम होने लगा मानों वे किसी कुएँ के ऊपर खड़े होकर नीचे को झांक रहे हों जिसमें देखने से झाँईं आती थी।

यह हालत देख प्रभाकरसिंह के मुँह से निकला, ‘‘बस मालूम हो गया, केवल यहाँ तक मुझे पहुँचाने के लिए ही इतना बखेड़ा किया गया है। तिलिस्म बनाने वाले भी कैसे दिल्लगीबाज हैं! अगर तिलिस्म को तोड़ने के लिए मेरा यहाँ आना जरूरी ही था तो क्या नीचे के कमरे से यहाँ तक सीढ़ियाँ नहीं बनाई जा सकती थी। व्यर्थ को इतना बखेड़ा, जानजोखिम और मुसीबत का सामना करने से फायदा!’’

यकायक किसी ने उनकी बात के जवाब में कहा, ‘‘अगर यही खयाल था तो तुम्हें तिलिस्म में आने की जरूरत ही क्या थी!!’’

प्रभाकरसिंह चौंक पड़े। ऐसी जगह पर उनकी बात का इस तरह जवाब देने वाला कौन? अगर किसी आदमी ने यह बात कही है तो वह इनका दोस्त है या दुश्मन और वह यहाँ पहुँचा ही क्योंकर? वे तेजी के साथ घूमकर अपने चारों तरफ देखने लगे।

हम ऊपर कह आए हैं कि यह बरामदा उस कमरे में चारों तरफ घूमा हुआ था और इसमें हर तरफ कई खिड़की या दरवाजे पड़ते थे जिनमें कुछ खुले और कई बन्द थे, प्रभाकरसिंह को अपने पीछे की तरफ एक दरवाजा दिखाई पड़ा जिसके पल्ले मामूली तरह पर बन्द थे जो इनके हाथ का धक्का पाते ही खुल गए।दरवाजा खुलने के साथ ही ऐसा मालूम हुआ मानों उसकी आड़ में कोई खड़ा था जो दरवाजा खुलते ही एक तरफ को हट कर गायब हो गया, लपककर ये अन्दर घुसे, एक छोटे कमरे में इन्होंने अपने को पाया मगर यहाँ कोई न था।और भी ताज्जुब की बात यह थी उस कमरे में सिवाय उस दरवाजे के जिसकी राह प्रभाकरसिंह उसके भीतर पहुँचे थे और कोई भी रास्ता ऐसा दिखाई न पड़ता था जिसके जरिये उसके अन्दर का आदमी कहीं दूसरी तरफ निकल जा सकता हो।

उस छोटे से कमरे के अन्दर किसी को खोजने में देर ही क्या लग सकती थी? कुछ ही सायत में प्रभाकरसिंह को विश्वास कर लेना पड़ा कि या तो वहाँ कोई आदमी नहीं था और जो झलक उन्होंने देखी वह केवल उनकी आँखों का भ्रम था, और या इस जगह से किसी दूसरी तरफ को निकल जाने का कोई गुप्त रास्ता है।इस दूसरी बात पर ही उनका खयाल ज्यादा जमा क्योंकि उनके कान में पड़ने वाली आवाज यह विश्वास नहीं करने देती थी कि वहाँ पर कोई आदमी था ही नहीं। अगर कोई होता ही नहीं तो वह जवाब क्योंकर मिलता? अस्तु वे चारों तरफ घूम-घूमकर किसी छिपे दरवाजे या रास्ते को तलाश करने लगे।

छोटी कोठरी की दीवार के साथ-साथ चारों तरफ प्रभाकरसिंह घूमने लगे।जहाँ तक हाथ जाता था वहाँ तक की दीवार को अपने तिलिस्मी डण्डे से अच्छी तरह ठोंकते भी जाते थे, जिस समय वे बांई तरफ की दीवार के अन्दर में पहुँचे तो एक जगह पहुँचते ही उन्हें रुक जाना पड़ा क्योंकि उस जगह की दीवार ठोंकने से उन्हें कुछ पोली होने का सन्देह हुआ, उन्होंने हाथ से उस जगह को जोर-जोर से दबाना शुरू कर दिया और उनका उद्योग सफल भी हुआ अर्थात एक जगह पर जरा-सा जोर लगाते ही दीवार का एकाएक छोटा टुकड़ा इस तरह पीछे को हट गया मानों कब्जे पर हो, लगभग हाथ भर का एक छेद दीवार में पैदा हुआ जिसकी राह देखने से प्रभाकरसिंह को दूसरी तरफ एक विचित्र दृश्य दिखाई पड़ा।

एक बहुत बड़ा कमरा तरह-तरह के ऐश-आराम के सामानों से बड़ी ही खूबसूरती के साथ सजा हुआ था छत के साथ खूबसूरत झाड़-फानूस लटक रहे थे और दीवारगीरें भी बहुतायत से लगी हुई थीं, तरह-तरह की छोटी-बड़ी तस्वीरें खूबसूरत चौखटों में लगीं थीं तथा बीच-बीच में आदमकद शीशे अपनी बहार दिखा रहे थे।जमीन पर सफेद फर्श बिछा हुआ था जिसके एक हिस्से में तो मोटी मखमली गद्दी लगी हुई थी जिस पर कई तकिये कारचोबी के काम के पड़े थे और दूसरे हिस्से में एक सुन्दर गंगाजमुनी काम की मसहरी बिछी हुई थी जिसके पर्दें गिरे हुए थे।एक तरफ संगमर्मर की चौकी पर पीने के लिए सुनहरी सुराई में जल, सोने के कई गिलास और कटोरे तथा नीचे चाँदी का एक आफताबा पड़ा हुआ था। गरज यह कि किसी मनचले रईस का आरामगाह मालूम पड़ रहा था।

इन सब सामानों को देखते हुए प्रभाकरसिंह की निगाह घूमती-घामती उस तरफ पहुँची जिधर इस कमरे में आने का दरवाजा था, यह दरवाजा इस समय भिड़काया हुआ था और उसके सामने एक बारीक रेशमी पर्दा पड़ा हुआ था।मगर उस तरफ निगाह पड़ते ही प्रभाकरसिंह को मालूम हो गया कि कोई दरवाजा खोल कमरे में आना चाहता है क्योंकि एक पल्ला खुल रहा था।

पल्ला बिल्कुल खुल गया और उसकी राह एक कमसिन और नाजुक औरत ने कमरे के भीतर प्रवेश किया, चेहरा दूसरी तरफ घूमा हुआ होने के कारण इसकी सूरत पूरी तो दिखाई नहीं पड़ती थी पर जो कुछ हिस्सा दिखाई पड़ रहा था वह उसे एक बहुत ही खुबसूरत औरत बताता था। साथ ही उसकी पोशाक कह रही थी कि वह या तो किसी अच्छे खानदान की औरत है या फिर किसी राजा-महाराजा के महल की महारानियों की सखी-सहेली।

कमरे के अन्दर घुस वह औरत उस पलंगड़ी की तरफ बढ़ी और पास पहुँच कर उसका जालीदार पर्दा उसने हटाया। उस समय प्रभाकरसिंह को उस पर लेटी और शायद गहरी नींद मैं सोई एक दूसरी औरत और दिखाई पड़ी जिसका चेहरा प्रभाकरसिंह ही की तरफ घूमा होने के कारण उसकी सूरत अच्छी तरह दिखलाई पड़ गई वह भी बहुत ही खुबसूरत कमसिन औरत थी।इस नई आई ने यकायक पास जाकर अपने हाथों से उसकी आँखें दबा दीं और तब उसे हिला कर जगाया। चौंक कर वह सोई हुई औरत नींद से जाग गयी और उसी समय इस औरत ने कहा,‘‘पहिचानो तो कौन है!’’ ‘‘तुझ शैतान के अलावा और हो ही कौन सकता है!’’ कह कर वह लेटी हुई औरत इसका हाथ हटा कर उठ बैठी और तब दोनों एक-दूसरे की बाँहों में चिमट गईं।

कुछ देर बाद वे दोनों अलग हुईं और आकर उस मखमली गद्दी पर बैठ गईं। दोनों में कुछ बातें होने लगीं जो यद्यपि जोर से नहीं होती थीं फिर भी फासला अधिक न होने के कारण प्रभाकरसिंह उसे सुन सकते थे।

नई आने वाली औरत ने कहा, ‘‘ले सखी, आज मेरा मुँह मीठा करा, मैं तेरे लिए खुशखबरी लेकर आई हूँ।’’

दूसरी ने चौंक कर पूँछा, ‘‘कौन सी खुशखबरी सखी!’’

पहिली० : ले जिसके गम में तू सूखी जा रही थी। वह आ पहुँचा।

दूसरी० : (ताज्जुब से) कौन? कौन?

पहिली०: प्रभाकरसिंह!

दूसरी० : हैं, वे आ गए ! तू सच कह रही है ?

पहिली० : भला मैं तुमसे झूठ कहूँगी ? मैं अभी तक उन्हें देखती आ रही हूँ। शीशमहल की छत ने अभी-अभी उन्हें यहाँ पहुँचाया है!

दूसरी० : (आकाश की तरफ आँखें और हाथ उठा कर) भगवान, क्या सचमुच तूने मेरी प्रार्थना सुन ली ! क्या अब सचमुच मेरे दिल की मुराद पूरी होगी।

(अपनी सहेली की तरफ देख कर) तूने उन्हें कहाँ देखा ?

पहिली० : इसी बगल वाले कमरे में।

दूसरी० : अच्छा ! तब तो हम लोगों को उनकी अगवानी की तैयारी करनी चाहिए। न जाने कब वे यहाँ आ पहुँचे !!

पहिली० : यही सोच कर तो मैं तुझे जगाने आ गई।

दूसरी० : तूने बहुत अच्छा किया।

पहिली० : सबसे पहिले उनके भोजन का इन्तजाम करना चाहिए और तब उस बात की फिक्र होनी चाहिए जिसके बारे में कल हम लोगों ने बातें की थीं।

दूसरी० : बेशक, तब फिर यहाँ रुकने का वक्त नहीं है, उठना चाहिए।

दोनों उठ खड़ी हुईं। पहिले तो उन्होंने उस कमरे की अच्छी तरह सफाई की और तब कुछ बातें करती हुई कमरे के बाहर निकल गईं।

प्रभाकरसिंह हैरान थे कि यह मामला क्या है और ये औरत कौन है? पहिले तो उन्होंने समझा कि शायद ये दोनों उनके जान-पहिचान या रिश्तेदारी की कोई हों, फिर तुरन्त ही यह सोच कर उनका खयाल बदल गया कि इस भयानक तिलिस्म में जहाँ चिड़िया भी पर नहीं मार सकती ऐसों का आना कहाँ से हो सकता है! बहुत गौर किया मगर जब कुछ समझ में न आया तो उन्होंने अपनी तिलिस्मी किताब निकाली और खोलकर पढ़ने लगे।यह लिखा पायाः-

‘‘इनके फेर में मत पड़ो। यह धोखा है, दीवार में जिस जगह कमल का फूल बना देखो उस जगह अँगूठे से दबाओ। उस कमरे में जाने का दरवाजा निकल आवेगा। बगल के कमरे में पहुँचो और वहाँ जो कुछ सामान दिखाई पड़े उन सभी में से किसी को भी न छूते हुए इन औरतों को पकड़ने की कोशिश करो, जैसे ही वे पास आ जायँ अपने तिलिस्मी डण्डे से उन दोनों के सिर को छू दो और देखं क्या होता है। खबरदार-उस कमरे की किसी चीज के साथ तुम्हारा बदन छूने न पावे नहीं तो आफत हो जाएगी।’’

प्रभाकरसिंह ने तिलिस्मी किताब बन्द करके रक्खी और उस बगल वाले कमरे में जाने की तैयारी की जैसा कि किताब में लिखा था, कमल के फूल को दबाते ही एक रास्ता निकल आया, निकल क्या आया, जिस राह से अब तक यह सब हाल प्रभाकर सिंह देख रहे थे वही कुछ और बढ़कर इतना बड़ा हो गया कि आदमी उसके अन्दर जा सके। अपनी चीजें सम्हाल कर प्रभाकरसिंह उस राह से निकल दूसरे कमरे में जा पहुँचे।

इस कमरे में जो कुछ सामान था उसे तो प्रभाकरसिंह पहिले ही देख चुके थे मगर उसके अलावे वहाँ कुछ चीजें सम्हाल कर प्रभाकरसिंह उस राह से निकल दूसरे कमरे में जा पहुँचे।

इस कमरे में जो कुछ सामान था उसे तो प्रभाकरसिंह पहिले ही देख चुके थे मगर उसके अलावे वहाँ कुछ चीजें ऐसी भी थीं जो आड़ में रहने के कारण उन्हें दिखाई न पड़ सकी थीं। इनमें से एक तो कमरे की उस तरफ वाली दीवार के साथ-साथ खड़ी, जो उसी तरफ थी जिधर से अभी प्रभाकरसिंह इस कमरे में आये थे, किसी धातु की बनी आदमकद पुतलियों की एक कतार थी जो सभी इस सफाई से बनी हुई थीं कि पहिलेपहल तो प्रभाकरसिंह यही समझे कि ये सब जीते-जागते आदमी हैं पर जब उनमें से किसी में कोई भी हरकत न देखी तो उन्हें शक हुआ और पास जाकर बहुत गौर से देखने पर यह विश्वास हुआ कि वे जीते-जागते मनुष्य नहीं बल्कि पुतलियाँ हैं, ये पुतलियाँ गिनती में दस थीं और इन में औरत, मर्द और बच्चे सभी तरह की शक्लें बनी हुई थीं।

इनके अलावा वह एक दूसरी चीज जो उन्हें दिखाई पड़ी वह एक लोहे का कटघरा था जो इस कमरे के एक कोने में बना हुआ था और जिसके अन्दर एक भयानक और खूँखार शेर खड़ा अपनी भयानक आँखों से इनकी तरफ देख रहा था। इसे देख कर एक दफे तो प्रभाकरसिंह चिहुंक पड़े मगर जब गौर से देखा तो मालूम हुआ कि उन पुतलियों की तरह यह शेर भी बनावटी ही है असली नहीं। अब प्रभाकरसिंह कुछ निश्चिन्त हुए और एक तरफ खड़े होकर सोचने लगे कि किस तरह उन दोनों औरतों को गिरफ्तार किया जाय।

पहिले तो उनका विचार हुआ कि जिस दरवाजे की राह वे दोनों इस कमरे के बाहर गई हैं उसी की राह वे कमरे के बाहर हो जायँ और देखें कि वे किधर गई हैं मगर तुरन्त ही उन्हें खयाल हुआ कि ऐसा करने के लिए उस पर्दे को हटाना पड़ेगा जो दरवाजे पर पड़ा हुआ है और तिलिस्मी किताब में इस कमरे की कोई चीज छूने की सख्त मनाही की गई है।अस्तु वे रुक गए और सोचने लगे फिर क्या किया जाय। मगर इन्हें ज्यादा तरद्दुद करना न पड़ा क्योंकि उसी समय कमरे के बाहर कुछ आहट मालूम पडी। वे घूम कर एक तरफ हो गये और उसी समय उन्हीं दोनों औरतों ने उस कमरे में प्रवेश किया।

कमरे में पहुँचते ही उन औरतों की निगाह प्रभाकरसिंह पर पड़ी। उनके चेहरे से खुशी टपकने लगी और वे दोनों ही प्रभाकरसिंह के सामने घुटने टेककर खड़ी हो गईं। बड़े अदब के साथ झुककर उन्होंने प्रभाकरसिंह को हाथ जोड़ा और तब एक ने मीठे स्वर में कहा, ‘‘परमात्मा को लाखों धन्यवाद हैं जिसकी कृपा से आज हम लोगों की मुराद पूरी हुई क्योंकि अगर हम दोनों धोखा नहीं खाती हैं तो इस तिलिस्म को तोड़ने वाले आप ही हैं और आप ही का नाम राजा प्रभाकरसिंह है।’’

प्रभाकरसिंह अपना तिलिस्मी डण्डा सम्हाल कर आगे बढ़ना ही चाहते थे पर इनकी यह बात सुन रुक गये और बोले, ‘‘हाँ, मेरा नाम प्रभाकरसिंह तो जरूर है मगर तुम दोनों कौन हो?’’

वह औरत यह सुन बोली, ‘‘हम दोनों किस्मत की मारी और दुश्मनों की सताई हुई बेबस औरतें हैं जो बरसों से इस तिलिस्म में कैद अपनी जिन्दगी के दिन काट रही हैं!’’

प्रभाकर० : तुम्हें किसने यहाँ कैद किया और तुम लोग किसके घर की औरतें हो?

औरत० : हम दोनों महाराज गिरधरसिंह के रिश्तेदारों में से हैं और हमें गिरफ्तार करके यहाँ कैद करने वाली भी दो औरतें ही हैं जो न जाने किस जन्म का बैर हमसे निकाल रही हैं!

प्रभाकर० : (ताज्जुब से) तुम महाराज गिरधरसिंह की रिश्तेदार हो? तुम्हारा नाम क्या है?

औरत० : मेरा नाम चमेली है और (साथ वाली औरत को बताकर) इसका नाम जूही है। आप हमें नहीं पहिचानते पर बहिन इन्दुमति अगर यहाँ होती तो जरूर हम दोनों को पहिचान जाती क्योंकि हमारा उनका साथ बराबर हुआ करता था।

प्रभाकर० : (और भी ताज्जुब से) और तुम्हें यहाँ जिसने कैद किया उसका नाम क्या है?

औरत० : उसका नाम....

कहते-कहते यकायक वह औरत रुक गई, उसका चेहरा पीला पड़ गया और बदन काँपने लगा, उसके साथ वाली औरत को भी यही अवस्था थी।प्रभाकरसिंह ताज्जुब के साथ इसका सबब पूछने ही वाले थे कि एक ने उँगली से बताकर कहा, ‘‘देखिए, हमें गिरफ्तार करने वाली वे दोनों आ रही हैं, हाय-हाय! क्या आपके आ पहुँचने पर भी हमारा पिण्ड न छूटेगा!’’

प्रभाकरसिंह ने घूम कर देखा तो दरवाजे के पास दो औरतों को खड़े पाया जो गुस्से भरी निगाहों से उन्हें और इन बेचारी औरतों को देख रही थीं प्रभाकरसिंह को अपनी तरफ देखते देख दोनों कमरे के अन्दर आ गईं और गुस्से भरी निगाहों से उन दोनों औरतों की तरफ एक बार देख प्रभाकरसिंह से एक ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो और महल में किसलिए आये हो?’’इससे पहिले कि प्रभाकरसिंह कुछ जवाब दें वह उन दोनों औरतों की तरफ घूमी और क्रोध से काँपती हुई बोली, ‘‘मैं समझ गई कि यह तुम कम्बख्तों की शैतानी है। तुम्हीं अपने को बचाने के लिए इस बदमाश को यहाँ बुला लाई हो, अच्छा देखो मैं तुम्हारी क्या गत करती हूँ! (अपने साथ वाली की तरफ देखकर) बहिन। इन दोनों को पकड़कर ले जा और काल कोठरी में छोड़ दे!’’

‘काल कोठरी’ का नाम सुनते ही वे दोनों औरतें चिल्ला पड़ीं प्रभाकरसिंह की तरफ देखकर रोती हुई बोली, ‘‘बचाइये, हम दोनों को इस राक्षसी से बचाइये।’’

प्रभाकरसिंह बेचारे हैरान थे कि यह अजब बखेड़ा मचा है! उनकी कुछ अक्ल काम नहीं करती थी। आखिर उन्होंने कुछ आगे बढ़कर इन नई आने वालियों से कहा, ‘‘मैं तुम दोनों के काम में दखल नहीं दिया चाहता मगर साथ ही साथ बिना यह जाने कि तुम दोनों कौन हो और क्यों इन बेचारियों को कष्ट पहुँचा रही हो किसी को यहाँ से जाने देना भी नहीं चाहता।’’

उनमें से एक औरत ने तनकर जवाब दिया, ‘‘हम दोनों महाराज गिरधरसिंह की रिश्तेदार हैं, मेरा नाम चमेली है (साथ वाली को बताकर) और इसका नाम जूही है। यह मेरी बहिन है, ये दोनों शैतान की खालायें हमारी लौड़ियाँ थीं और हमारा ही नमक खाकर पलीं मगर न जाने क्या इनके मन में आया कि हम लोगों को धोखा देकर इस मकान में बन्द कर दिया और खुद हमारी जगह जा बैठीं। किसी तरह हम दोनों इस कैद से छूटीं और इन्हें अब इनके कुकर्मों की सजा दे रही हैं!’’

उसकी यह बात सुनते ही वे दोनों पहली औरतें चिल्ला उठीं, ‘‘झूठ, बिलकुल, झूठ! यह एकदम गलत कह रही हैं, ये दोनों हमारी लौड़ियाँ थीं। आप तिलिस्म तोड़ने वाले हैं और इसलिए हमारे ईश्वर के तुल्य हैं, आप ही हमारा इन्साफ कीजिए कि वास्तव में कसूरवार कौन है!’’

प्रभाकरसिंह यह सुन और भी चक्कर में पड़े। उनकी कुछ समझ में नहीं आया था कि क्या करें या कहें, साथ ही जब उन्होंने गौर से इन औरतों की शक्ल देखी तो यह जान उनका ताज्जुब और भी बढ़ गया कि इन चारों की शक्ल-सूरत और पोशाक बिलकुल एक सी है, किसी की शक्ल में तिल भर भी फर्क नहीं है, चारों की चारों एक ही साँचे में ढली जान पड़ती थीं। इस समय अचानक उन्हें तिलिस्मी किताब की वह बात याद आई-‘‘यह सब धोखा है!’’ अब उन्होंने बातचीत में आगे समय नष्ट करना फजूल समझा और अपना तिलिस्मी डण्डा लेकर आगे बढे़ उनका यह भाव देख औरतें चीखने-चिल्लाने लगीं पर प्रभाकरसिंह ने एक न सुनी और पारी-पारी से उन चारों के सिर अपने तिलिस्मी डंडे से छू दिये।

तिलिस्मी डंडे का उनके सिर के साथ छूना था कि वे चारों बड़े जोर से चिल्लाईं और जमीन पर गिर पड़ीं। इसके साथ ही धीरे-धीरे उनकी शक्लें बदलने लगीं।वह गोरा गुलाबी चेहरा सिकुड़ कर काला और भयानक होने लगा, नाजुक कलाइयाँ मोटी भद्दी और काली हो चली, हाथ-पाँव भद्दे और बदसूरत हो गये, पोशाक भी बदल गई, और रेशमी साड़ियों के बजाय लाल जाँघिये उनकी कमर में दिखाई पड़ने लगे। ताज्जुब और घबराहट के साथ प्रभाकरसिंह ने देखा कि दस ही मिनट पहिले जहाँ चार खूबसूरत कमसिन औरतें उनके सामने खड़ी थीं वहीं अब वे चारों तिलिस्मी शैतान पड़े हुए थे जिन्हें कई बार पहिले देख चुके थे। इन शैतानों की डरावनी शक्ल देख और पिछली कार्रवाई याद कर प्रभाकरसिंह घबड़ा गये और डरकर इनकी तरफ देखने लगे।

थोड़ी देर के बाद जब प्रभाकरसिंह ने देखा कि वे चारों शैतान बिलकुल जुम्बिश न खाकर बेहोश या मुर्दों की तरह पड़े हुए हैं तो उनके हवास कुछ ठिकाने हुए और वे यह सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। उन्होंने अपनी तिलिस्मी किताब खोली और पढ़ने लगे।यह लिखा पायाः-

‘‘जो सूरतें तुम अपने सामने देख रहे हो इन्हें पहिले भी देख चुके होने पर इनसे घबराने की कोई जरूरत नहीं, ये सिर्फ पुतले हैं जो तिलिस्मी कारीगरी की बदौलत जीते-जागते आदमियों की तरह काम करते दिखाई देते हैं, इन्हें महज इस तिलिस्म की हिफाजत और सफाई के लिए यहाँ रक्खा गया है और आगे भी इसी तरह के पुतले तुम्हें कई जगह मिलेंगे। तुम्हें इनसे डरने की कोई जरूरत नहीं, अपने तिलिस्मी डंडे की बदौलत जब चाहो तुम इन्हें बेकार कर सकते हो-खैर।’’

‘‘इस शीशमहल का तिलिस्म तोड़े बिना अगर तुम इसके बाहर चले जाओगे तो फिर यहाँ लौट कर आना मुश्किल होगा, अस्तु पहिले यहाँ का काम खत्म कर लो तब आगे बढ़ो। दीवार के साथ जो पुतले खड़े हैं उनके सिर से अपना तिलिस्मी डण्डा छुला दो। आगे की कार्रवाई ये पुतले तुम्हें बतावेंगे।’’

यह जानकर कि तिलिस्मी शैतान जिन्होंने उनको इस कदर परेशान किया था और कुछ नहीं सिर्फ तिलिस्मी कारीगरी है, प्रभाकरसिंह को बहुत कुछ संतोष हुआ और अब वे अपेक्षाकृत कुछ अधिक शांति के साथ आगे काम करने को तैयार हो गये।

जैसा कि हम पहिले लिख आये हैं कमरे की दीवार के साथ दस पुतले बने हुए थे, प्रभाकरसिंह इन पुतलों के पास गये और बारी-बारी से उनके सिर के साथ तिलिस्मी डण्डा छुलाने के बाद अलग जा खड़े हुए।

डंडे का छूना था कि उन पुतलों के बदन में हरकत पैदा हुई, धीरे-धीरे उनके अंग प्रत्यंग हिलने लगे। आँखें इधर-उधर घूम-फिर कर मानों अपने चारों तरफ का दृश्य देखने लगीं, कुछ देर बाद सिर और भी हिलने लगे। ताज्जुब के साथ प्रभाकरसिंह ने देखा कि उन पुतलों में आपुस में बातें हो रही हैं।अगर उस तिलिस्मी किताब ने उन्हें आगाह न कर दिया होता तो शायद वे इन पुतलों की बातें दिलचस्पी के साथ न सुनते पर अब उन्हें कोई कौतूहल न रह गया था और वे सिर्फ यह देखना चाहते थे कि ये पुतले करते क्या हैं।

हम लिख आये हैं कि इन पुतलों में औरत-मर्द-लड़के सभी की शक्लें बनी हुई थीं। कुछ देर की बातचीत के बाद उनमें से दो औरतें आगे बढ़ आईं और उन चारों तिलिस्मी शैतानों के पास खड़ी होकर कुछ हुकूमत के साथ बाकी पुतलों से बोली, ‘‘अब तुम लोग सिर्फ बकवास ही करते रहोगे या कुछ काम भी करोगे। इन शैतानों की लाशों को हटाओ और यह जगह साफ कर दो।’’

दो-तीन आदमी आगे बढ़ आये और गौर से उन लाशों की तरफ देखकर बोले, ‘‘इन्हें कहाँ फेंके?’’

जवाब में दो लड़के बोल उठे, ‘‘हमारे शेर को बहुत दिनों से खाने को नहीं मिला है, उसी के पिजड़े में डाल दो, खा जायगा!’’

औरतों ने कहा, ‘‘हाँ ठीक है, ऐसा ही करो!’’

शेर के कटघरे का दरवाजा खोला गया और बारी-बारी से वे चारों लाशें उस पिजड़े के अन्दर डाल दी गईं, जिस समय प्रभाकरसिंह ने उस शेर को उन लाशों पर टूटते देखा तो उनके मुँह से आप से आप निकल गया, ‘‘धन्य हैं वे लोग जिन्हें इतनी बातें मालूम थीं! क्या इस समय इस शेर को देखकर कोई कह सकता है कि यह बनावटी है!’’

शैतानों को शेर के हवाले करने के बाद उन पुतलों ने उस जगह का फर्श भी झाड़-पोछकर बिल्कुल साफ कर दिया और इसके बाद कुछ देर तक इकट्ठे खड़े कुछ बातें करते रहे। थोड़ी देर बाद बातें बन्द हो गईं और एक-एक करके वे पुतले फिर अपनी जगह पर जाने लगे यहाँ तक कि कुछ देर में सब पहिले जिस तरह खड़े थे उसी तरह दीवार के साथ जा खड़े हुए। उनके बदन की हरकतें बन्द हो गईं और वे पुनः पुतलों के मानिन्द बेजान हो गये।

अब तक प्रभाकरसिंह इस विचार में थे कि ये पुतले ही किसी तरह आगे की कार्रवाई उन्हें बतावेंगे जैसाकि तिलिस्मी किताब ने उन्हें बताया था पर अब जब उन्होंने देखा कि वे सब अपना काम समाप्त करके पुनः बेजान पुतलों की तरह अपनी जगह जा खड़े हुए तो उन्हें ताज्जुब हुआ और सोचने लगे की यह क्या मामला है? कुछ देर तक तो उन्हें यह गुमान रहा कि शायद इन पुतलों के बदन में फिर हरकत हो और इनसे कुछ पता लगे पर जब दो-एक घड़ी बीत जाने के बाद भी कुछ न हुआ तो वे चिन्ता में पड़ गये कि अब क्या करना चाहिए उन्होंने अपनी तिलिस्मी किताब खोली मगर उसमें इस विषय में कुछ भी लिखा न पाया सिवाय उन बातों के जिन्हें वे पहिले पढ़ चुके थे। आखिर उन्होंने किताब बन्द कर जेब के हवाले की और सोचने लगे कि क्या करना चाहिए।

यकायक उनका ध्यान उस शेर की तरफ गया। उनके मन में खयाल हुआ कि और पुतले तो अपना काम समाप्त करके अपनी जगह चुपचाप खड़े हो गये हैं पर इस शेर का काम अर्थात उन लाशों को चीरना-फाड़ना अभी तक जारी है। शायद इसमें भी कोई मतलब हो, यह समझकर प्रभाकरसिंह उस पिजंड़े के पास गये और कौतूहल के साथ उस शेर की तरफ देखने लगे जो इस समय जमीन पर पैर के बल बैठा हुआ अगले पंजों से एक लाश दबाये अपने लबें और खूंखार दांतों की मदद से उसकी हड्डियाँ चिचोड़ रहा था।

प्रभाकरसिंह का उस पिजड़े के पास जाकर खड़ा होना था कि शेर इनकी तरफ देखकर बड़ी जोर से गुर्राया। जब वे अपनी जगह से हटे नहीं तो वह लाश पर से उठ खड़ा हुआ और अपनी भयानक आँखों से इनकी तरफ देखता हुआ दहाड़ने लगा। जब इस पर भी ये न हटे तो वह एकदम इनकी तरफ बढ़ आया और तब बड़े जोर से गरजकर ऐसी भयानक रीति से इनकी तरफ झपटा कि यह जानते हुए भी कि वह बनावटी है, प्रभाकरसिंह को घबड़ाकर एक कदम पीछे हट जाना पड़ा। वह शेर उसी जगह पिजड़े के पास खड़ा हो गया और अपनी भयानक आँखों से प्रभाकरसिंह को देखने लगा।

मालूम होता है कि प्रभाकरसिंह का हट कर खड़ा होना भी उस शेर को नहीं भाया क्योंकि कुछ देर तक एकटक उनकी तरफ देखने के बाद उसने फिर एक दहाड़ मारी और अपने ताकतवर पंजो से उस पिजड़े के छड़ों को पक़ड कर जोर से झकझोरा। घबराहट और कुछ देर बाद डर के साथ प्रभाकरसिंह ने देखा कि हिलने और झोंका खाने से वह दरवाजा जिसे खोलकर पुतलों ने वे लाशें अन्दर डाली थीं और जिसे मजबूती से बंद करना शायद वे लोग भूल गये थे, खुल गया। दूसरी सायत में वह खूँखार जानवर पिजड़े के बाहर निकल आया और प्रभाकरसिंह की तरफ बढ़ा।

इस समय प्रभाकरसिंह की कुछ विचित्र अवस्था थी। वे जानते थे कि यह शेर बिल्कुल बनावटी और बेजान है और सिर्फ तिलिस्मी कारीगरी की बदौलत यह सब हरकतें कर रहा है परन्तु यह जानते हुए भी उसकी भयानक आकृति और डरावना ढंग उन्हें घबड़ाये दे रहा था। जिस समय तड़पकर वह शेर उनके सामने आ खड़ा हुआ तो उनसे सिवाय इसके और कुछ न बन सका कि अपने तिलिस्मी डण्डे को हाथ में ले लें और बचाव की फिक्र करें, केवल यही नहीं, उन्होंने उस डंडे के मुट्ठे को कुछ विचित्र ढंग से इस तरह पर दबाया कि उसके सिरे से आग की लपटे और चिनगारियाँ निकलने लगीं, ये लपटें और चिनगारियाँ ठीक वैसी ही थी जैसी कि सर्यू को छुड़ाने जाकर दारोगा पर अपना असर पैदा करने के लिए प्रभाकरसिंह ने प्रकट की थी। इस तिलिस्मी डंडे में जो विचित्र गुण थे उनका कुछ परिचय पाठक उस अवसर पर पा चुके हैं और आशा है कि वे बातें उन्हें भूली न होंगी।

इन चिनगारियों और आग की लपटों ने उस शेर का जोश काफूर कर दिया कहाँ तो वह प्रभाकरसिंह पर हमला करने की तैयारी कर रहा था और कहाँ अब अपनी जगह पर दबक कर पिछले पाँव सिकोड़ धीरे-धीरे पीछे को हटने लगा। प्रभाकरसिंह की हिम्मत बढ़ी। वे आगे बढ़े और झपटकर वह डण्डा उन्होंने शेर के माथे से छुला दिया। डंडे का सिर से लगना था कि शेर की बची-खुची हिम्मत भी जाती रही, वह एकदम बिल्ली हो गया और अपनी दुम हिलाता हुआ प्रभाकरसिंह के पैरों पर लोटने लगा।

प्रभाकरसिंह की हिचक जाती रही और डर की जगह खुशी और हिम्मत ने ले ली। वे झुककर उस बनावटी शेर का सिर थपथपाने लगे और साथ ही साथ यह भी सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। मगर उन्हें ज्यादा सोचना न पड़ा। दो-एक मिनट तक उनके पैरों पर लोट-पोट करने के बाद शेर उठ खड़ा हुआ और अपनी पीठ उनके पैरों के साथ रगड़ता हुआ इस तरह का भाव जाहिर करने लगा मानों वह कहीं जाना चाहता है। वह इस समय एक बहुत ही बड़े प्रेमी कुत्ते की तरह जान पड़ता था जो बहुत दिनों के बाद अपने मालिक को देखकर खुशी से फूला न समाता हो, अचानक प्रभाकरसिंह के मन में न जाने क्या समाया कि वे कूदकर उस शेर की पीठ पर चढ़ बैठे। इनका बैठना था कि शेरे के मुँह से खुशी की एक हलकी गुर्राहट निकली और वह इनको लिये धीरे-धीरे कमरे के बाहर की तरफ बढ़ा।

इस कमरे का दरवाजा खुला हुआ था मगर पर्दा पड़ा था जिसे एक तरफ को हटाता हुआ यह शेर प्रभाकरसिंह को लिए हुए कमरे के बाहर निकल गया। उस समय प्रभाकरसिंह ने देखा कि बाहर एक बहुत बड़ा बरामदा है जिसका सामने का हिस्सा तो खुला हुआ है मगर दायें और बायें दोनों तरफ उसका फैलाव बहुत दूर तक चला गया है, प्रभाकरसिंह को लिए हुए वह शेर बाईं तरफ को मुड़ा और मस्तानी चाल चलता हुआ सीधा जाने लगा।प्रभाकरसिंह ने अपने चारों तरफ गौर से देखकर गुमान किया कि यह उसी ऊँचे कमरे या शीशमहल का ही ऊपरी हिस्सा है क्योंकि इस समय उनके बाई तरफ थोड़ी-थोड़ी दूर पर बंद दरवाजे दिखाई पड़ते थे और दाहिनी तरफ जिधर खुला हुआ था देखने से पेड़ों की चोटियाँ बताती थीं कि यह कोई बहुत ऊँची जगह या किसी मकान की ऊपरी मंजिल है।खैर वह स्थान चाहें जो कुछ भी हो या जहाँ भी हो इसमें किसी तरह की विशेषता ऐसी न थी जो ध्यान आकर्षित करती। वह केवल किसी लंबे-चौड़े महाराजी धर्मशाला का ऊपरी हिस्सा जान पड़ता था जिसमें किसी तरह की भी खूबसूरती न थी।

यकायक वह शेर एक जगह पहुंच कर रुक गया, यह एक बड़ा दरवाजा था जो किसी कमरे में जाने का था मगर बन्द होने के कारण यह पता नहीं लगता था कि इसकी दूसरी तरफ क्या है, शेर के रुक जाने से प्रभाकरसिंह को गुमान हुआ कि शायद यहीं तक आकर उसका काम समाप्त हो जाता हो और इसी दरवाजे के अन्दर जाने की उन्हें जरूरत हो, यह सोच वे शेर पर से उतर पड़े।उनका खयाल था कि शायद वह शेर अपनी जगह लौट जायगा पर वह ज्यों का त्यों खड़ा रहा बल्कि उस दरवाजे की चौखट को अपने नखों से खरोंचने लगा, अब प्रभाकरसिंह को कोई संदेह न रहा कि इसी के अन्दर उन्हें जाना है। वे दरवाजे के पास गए और उसे धक्का देकर देखा कि वह बहुत मजबूती से बन्द है। वे उसे गौर से देखते हुए सोचने लगे कि इसे खोलने की क्या तर्कीब हो सकती है।

बहुत गौर से देर तक देखने के बाद भी प्रभाकरसिंह को उस दरवाजे में कोई ऐसी बात न दिखाई पड़ी जिससे उसके खोलने में उन्हें सहायता मिलती या यही गुमान होता कि इस जगह कोई कार्रवाई करने से दरवाजा खुलने की उम्मीद हो सकती है।हाँ अगर किसी ऐसी चीज पर ध्यान जा सकता था तो सिर्फ वे पीतल के चार अंगुल के फूल जो उस दरवाजे के तीन तरफ अर्थात ऊपर, दाहिने और बांये बराबर-बराबर फासले पर लगे हुए थे।पर ये खूबसूरती के लिये भी लगे हो सकते थे। प्रभाकरसिंह अपनी जगह से हटकर कुछ आगे बढ़े तो वैसा ही एक दूसरा दरवाजा दिखाई पड़ा जो ठीक उसी रंगढंग और नाप का था पर वैसे फूल इसमें भी न थे।अब प्रभाकरसिंह को विश्वास हो गया कि इन फूलों का केवल इसी दरवाजे पर होना जिसके सामने शेर ने उन्हें पहुँचा दिया था कोई कारण अवश्य रखता है और इस विचार के आते ही उन्होंने कुछ गौर के साथ उन फूलों को देखना और जाँचना शुरू किया।

ये फूल जो एक ही रंग-ढंग के और लगभग एक बालिश्त की बराबर दूरी पर दरवाजे को घेरे हुए बने थे। गिनती में पाँच थे, और इतने साफ और चमकदार थे कि यही जान पड़ता था मानों कोई अभी-अभी इन्हें साफ करके गया है, प्रभाकरसिंह ने इन फूलों को देखना और जाँचना शुरू किया।

हिलाते-डुलाते-दबाते और खींचते हुए वे जब अपने दायें हाथ के चौथे फूल के पास पहुँचे तो इन्हें वह कुछ हिलता हुआ दिखाई पड़ा उन्होंने उसे हिलाना-डुलाना चाहा। घूमा तो वह नहीं पर जब जोर किया तो उसे अपनी तरफ खिंचता हुआ पाया जिससे यह शक हुआ कि अगर और जोर किया जाय तो सम्भव है कि वह आगे खिंच आवे या दरवाजे की चौखट (जिस पर ये फूल जड़े थे) छोड़कर अलग हो जाय।आखिर उन्होंने दीवार में पैर अड़ा और दोनों हाथ से पकड़कर जोर किया और साथ ही वह कोई छः अंगुल आगे को निकल पड़ा जिसके साथ ही एक खटके की आवाज प्रभाकरसिंह के कान में पड़ी वे अलग हो गये और उसी समय उन्होंने देखा कि उस फूल के बगल वाली दीवार पर से, जो संगीन बनी हुई थी, एक पतली सिल्ली झूलकर नीचे को गिर गई और उसके नीचे से संगमरमर का एक चौखूटा पत्थर निकल आया जिस पर बारीक अक्षरों में कुछ लिखा हुआ था, खुशी-खुशी प्रभाकरसिंह उस मजमून को पढ़ने लगे।

प्रभाकरसिंह को उम्मीद थी कि इस पत्थर पर उस दरवाजे को खोलने की तर्कीब लिखी होगी पर जो कुछ उस पर लिखा हुआ था वह ऐसा था कि उसका कोई मतलब ही उनकी समझ में न आया, कुछ अजीब बेमतलब की लिखावट उस पर खुदी हुई थी जिसका किसी तरह कोई अर्थ नहीं निकलता था।

प्रभाकरसिंह बहुत देर तक इस मजमून पर गौर करते रहे, आखिर बड़ी मुश्किल से तरह-तरह का खयाल दौड़ाने के बाद उन्होने उस लिखावट का अर्थ लगा ही लिया और तब खुश होकर बोले, ‘‘समझ गया!’’

पत्थर पर लिखी तर्कीब से प्रभाकरसिंह ने सहज ही में वह दरवाजा खोल लिया और तब पुनः शेर पर सवार हो गये जो उन्हें लिए हुए उसी मस्तानी चाल से भीतर की तरफ रवाना हुआ।

पाठकों की जानकारी के लिए हम वह मजमून आगे लिख देते हैं —

अ             ब           र

अ             ४          ओ

ढ़ा            क्ष             गे

हो

ते मा

भे दू भ

क्षी खो त्र प

ब  हे थे छ पे

ठ               क्ष

ठी                    वै                       अ       ल

पें भि क्षे पु ठा

वि ह ह बो

ठ गौ

ये ब प

झो

पु               शि        लों

से               *           र

या               त          हो


हमारे पाठक जानना चाहते होंगे कि इस मजमून का क्या अर्थ था और प्रभाकरसिंह ने वह दरवाजा खोलने की क्या तरकीब की, परन्तु इस समय हम उसे बताने में असमर्थ हैं, हाँ यह जरूर कह देंगे कि उस मजमून का मतलब लगा लेना बहुत मुश्किल नहीं है, थोड़ी ही कोशिश करने से आप उसका मतलब समझ जाएँगे। अब हम आगे का हाल लिखते हैं।

यह जगह जिसके अन्दर प्रभाकरसिंह ने अपने को पाया एक चौखूटा सफेद संगमर्मर का बना हुआ सुन्दर कमरा था जिसका फर्श काले और सफेद चौखूटे पत्थरों से बना हुआ और बिल्कुल खाली था अर्थात इस कमरे के बीचोबीच में कोई भी सामान न था पर हाँ इसकी दीवारों के साथ चारों तरफ पत्थर के कमर-बराबर ऊँचे गोल खम्भों पर तरह-तरह की मूरतें बनी हुई रक्खी थीं और प्रत्येक दो खम्भों के बीच में एक दरवाजा था जो इस समय बन्द था, ऊपर छत की तरफ निगाह करने से प्रभाकरसिंह ने उसे रंग-बिरंगे शीशों से जड़ा हुआ पाया जो चारों तरफ बने हुए रोशनदानों की रोशनी में चमकते हुए बड़े ही सुन्दर मालूम हुए।इन रोशनदानों के दोनों तरफ भी तरह-तरह की मूरतें बनी हुई थीं परन्तु प्रभाकरसिंह को इस कमरे की मूरतों या दूसरी चीजों को देखने की मोहलत न मिली। जैसे ही इन्हें लिए हुए वह शेर सामने वाले दरवाजे के पास पहुँचा वैसे ही एक खटके की आवाज आई और उस दरवाजे के बीचोंबीच में बनी एक छोटी खिड़की खुल गई जिसके भीतर से किसी ने झाँक कर इनकी तरफ देखा और फिर तुरन्त ही मुँह हटा लिया।अभी वे सोच ही रहे थे कि यह देखने वाला कौन है कि एक हलकी आवाज के साथ उस दरवाजे के पल्ले खुल गए और सामने दो सिपाही नजर पड़े जो फौजी वर्दी पहिने और हथियारों से लैस, बड़े ही ताकतवर और बहादुर जान पड़ते थे।इन सिपाहियों ने प्रभाकरसिंह को फौजी सलाम अदा की और तब दोनों ने बगल हटकर मानों उनको भीतर आने की जगह दे दी। शेरसवार प्रभाकरसिंह एक नये कमरे के अन्दर पहुँचे जो तरह-तरह के विचित्र और डरावने सामानों से भरा हुआ था।

यहाँ पहुँचकर प्रभाकरसिंह की सवारी का शेर जरा देर के लिए रुक गया और प्रभाकरसिंह अपने चारों तरफ देखने लगे। उसी समय उन सिपाहियों ने सामने आकर पुनः सलाम किया और तब एक ने गभ्मीर आवाज में कहा, ‘‘परमात्मा को धन्यवाद है कि आज आपके चरण इन स्थानों में पहुँचे। अब हम लोगों का काम पूरा हुआ और उम्मीद हुई कि हमें इस जगह से रिहाई मिलेगी जहाँ सब तरह से स्वतन्त्र रहते हुए भी हम लोग अपने को कैदियों से बदतर समझते थे।’’

प्रभाकरसिंह ने ताज्जुब से पूछा, ‘तुम लोग कौन हो, यहाँ कैसे आए और क्या करते हो, तथा मेरे आने की खबर तुम लोगों को क्योंकर लगी?’’

उस सिपाही ने जवाब दिया, ‘‘हम लोग इस जगह के पहरे पर मुकर्रर किए गए हैं और बरसों से आपके आने का इन्तजार कर रहे हैं, आप अब आ गए हैं तो हमारा पूरा हाल सुन ही लेंगे, इस समय पहिले जो काम हम लोगों के सुपुर्द किया गया है उसे हम पूरा करते हैं, आप कृपा कर इधर आने का कष्ट करें,’’

कहता हुआ वह सिपाही कुछ आगे बढ़ गया और एक दरवाजे को खोलने के बाद इस तरह खड़ा हो गया मानों इस बात का इन्तजार करता हो कि प्रभाकरसिंह उसके भीतर आवें, प्रभाकरसिंह इसकी बातें सुनकर ताज्जुब तो कर ही रहे थे मगर साथ ही चौकन्ने होकर चारों तरफ देखते भी जाते थे और इन सिपाहियों से होशियार मालूम होते थे। वे उस पहिले सिपाही से बातें करते जाते थे और साथ ही कनखियों से उस दूसरे सिपाही पर भी नजर रक्खे हुए थे।उनकी निगाह जरा देर के लिए उस दरवाजे की तरफ घूमी ही थी जिसे उस पहिले सिपाही ने खोला था और वे जरा सा गाफिल हुए ही थे कि उस दूसरे सिपाही ने अपनी तलवार म्यान से निकाल ली और इस जोर से प्रभाकरसिंह की गर्दन पर वार किया कि अगर वे होशियार न होते तो जरूर उनका सिर कटकर दूर जा गिरता मगर दरवाजे पर के मजमून ने उन्हें होशियार किया हुआ था और दूसरे उस शेर ने भी इस समय उनकी मदद की जो एकदम दबककर जमीन से सट गया जिससे वह तलवार उनके सिर के ऊपर से होती हुई निकल गई। इसके साथ ही आगे बढ़कर उन्होंने अपना तिलिस्मी डण्डा उस सिपाही के सिर से छुला दिया, तिलिस्मी डण्डे का छूना था कि उस सिपाही ने बड़े जोर की चीख मारी और तब अपने सिर को दोनों हाथ से दबाए हुए पीछे को हटने लगा। उसी समय उसके सिर से आग का फौवारा निकला जिसकी एक चिनगारी दूसरे सिपाही पर पड़ते ही वह भी चिल्ला उठा। दूसरे ही सायत में उसका सिर भी उसी तरह भभक उठा और तब वे दोनों ही चीखते-चिल्लाते हुए उसी दरवाजे के अन्दर घुसकर गायब हो गए जिसे पहिले सिपाही ने खोला था। कुछ देर तक उनकी चिल्लाहट की आवाज प्रभाकरसिंह के कानों में आती रही। इसके बाद कम होती हुई बिल्कुल बन्द हो गई और तब दरवाजा भी आप से आप पहिले की तरह बन्द हो गया। अब प्रभाकरसिंह कुछ निश्चिन्त हुए और गौर के साथ अपने को चारों तरफ देखते हुए उस कमरे की चीजों पर निगाह दौड़ाने लगे। जो कुछ सामान उस कमरे में था वह डर और घबराहट के साथ ताज्जुब भी पैदा करने वाला था।

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