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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

।। सोलहवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

चुनारगढ़ से लगभग चार कोस हट कर जंगल के किनारे पर बने हुए एक बड़े और पक्के कूएँ पर हम पाठकों को ले चलते हैं।

सुबह का समय है, सूरज अभी नहीं निकला है फिर भी उसकी आवाई जान रँग-बिरँगी चिड़ियाँ जाग उठी हैं और टहनियों पर बैठ कर अपनी मनोहर बोलियों से जंगल को गुँजा रही हैं।

इस कूएँ पर जिसका जिक्र हमने ऊपर किया है, इस समय पाँच-छः आदमियों की एक छोटी मंडली दिखाई पड़ रही है जो अभी यहाँ पहुँची है और अपना बोझ उतार हलकी हो रही है। इनमें से एक आदमी सरदारी के तौर पर एक हलके बिछावन पर जा बैठा है जो इसके लिए इसके साथियों ने आते ही बिछा दिया है और बाकी के इधर-उधर बैठे हुए सुस्ताते तथा साथ-साथ बातें भी करते जाते हैं। पाठकों को तरद्दुद में न डाल हम बताये देते हैं कि ये लोग वे ही हैं जिनका हाल हम पन्द्रहवें भाग के उन्नीसवें बयान में लिख आए हैं अथवा जो उस गुफा में से गौहर और मुन्दर को ले भागे थे। हमारे पाठक यह भी जानते हैं कि जब तक उस आदमी के असली नाम का पता न लग जाए जो इन लोगों की सरदारी कर रहा है तब तक के लिए हमने उसका नाम घनश्याम रख दिया है। अस्तु इस समय हम तब तक उसे इस बनावटी नाम से ही पुकारते जाँयगे जब तक कि उसके असली नाम का पता नहीं लग जाता।

घनश्याम के सामने कपड़े में बँधी दो बड़ी गठरियाँ पड़ी हुई हैं जिनमें बेहोश गौहर और मुन्दर बँधी हुई हैं। इस समय घनश्याम की आँखें उन्हीं गठरियों पर पड़ रही हैं और वह उनकी तरफ गौर से देखता हुआ कुछ सोच रहा है।

कुछ देर बाद घनश्याम ने एक आदमी की तरफ देख कर कहा, ‘‘रामू, अगर तुम सुस्ता चुके हो तो जरा इधर आओ और इन गठरियों को खोल कर दोनों बेहोशों को बाहर निकालो ताकि उनके बदन में भी इस वक्त की ताजी हवा लग जाय।’’

यह सुनते ही वह आदमी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और पास पहुँचकर उन गठरियों को खोलने की फिक्र में लगा। बात की बात में दोनों बेहोश औरतें गठरी से खोल कर जमीन पर लेटा दी गईं और घनश्याम ने पारी-पारी से दोनों की नब्ज देखते हुए कहा, ‘‘इनकी बेहोशी दूर हो रही है, हवा लगने से दोनों जल्दी होश में आ जाँयगी।’’

रामू यह सुन बोला, ‘‘कहिए तो इन्हें पुनः बेहोशी की दवा सुँघा कर कुछ घण्टों के लिए मुर्दा कर दूँ।’’ घनश्याम ने जवाब दिया, ‘‘कोई जरूरत नहीं, मैं चाहता हूँ कि ये होश में आ जाँय और इनसे बातचीत करके कुछ पता लगाऊँ कि ये कौन हैं। (दोनों की सूरतें गौर से देखता हुआ) जरूर इनकी सूरतें बनावटी हैं।’’

रामू० : हुक्म हो तो कूएँ के पानी से इनका चेहरा धोकर साफ कर डालूँ?

घनश्याम० : ऐसा ही करो। (गौहर की तरफ बता कर) इसकी सूरत तो मुझे कुछ-कुछ पहिचानी सी लगती है, जरूर इसे मैंने पहिले कहीं देखा है, मगर इस दूसरी के बारे में कुछ कह नहीं सकता।

रामू० : देखिए अभी सब मालूम हुआ जाता है।

अपने सामान में से रामू ने कपड़े का डोल और पतली डोरी निकाली और बात की बात में कूएँ से पानी खींच कर बेहोशों के पास जा पहुँचा। घनश्याम की आज्ञानुसार दोनों का चेहरा धो कर साफ किया गया।

रंग दूर होते ही और चेहरा साफ होने के साथ ही घनश्याम चौंक पड़ा और बोला, ‘‘हैं, यह तो गौहर है! तब तो बड़ा गजब हुआ!’’

रामू० : क्यों क्या हुआ!

घनश्याम० : (घबराहट के साथ जेब से कुछ निकाल कर रामू को देता हुआ) यह होश में आना ही चाहती है, पहिले यह चीज सुँघा कर इसे बेहोश करो तब कुछ पूछना।

बेहोशी की दवा सुँघा कर गौहर पुनः गहरी बेहोशी में डाल दी गई और तब रामू ने घनश्याम की चीज उसे लौटाते हुए कहा, ‘‘क्या यह वही गौहर है जिस पर हमारे महाराज लट्टू हो रहे हैं?’’

घनश्याम० : हाँ।

रामू० : तो इन्हें देख कर आप घबरा क्यों गए? यह तो हम लोगों के मेल ही की निकलीं, इनको तो बल्कि होश में लाकर पूछना चाहिए कि इनकी साथिन कौन है, उस गुफा में ये कैसे पहुँची और वह भयानक शैतान जिसे हम लोगों ने देखा (काँप कर) और जिसकी याद से अब भी कँपकँपी आती है, कौन था?

घनश्याम० : तुम तो गधे हो! महाराज से जरा-सी यह शिकायत कर देंगी तो हम सब मारे जाँयगे!!

रामू० : शिकायत! क्यों और किस बात की?

घनश्याम० : यही कि हम लोगों ने इन्हें बेहोश किया और बेइज्जती के साथ इस तरह गठरी में बाँध कर लाए।

रामू० : वाह यह भी कोई बात है, हम लोगों ने कुछ जानबूझ कर ऐसा थोड़े ही किया। अँधेरी रात, मुसीबत की घड़ी, अनजानी जगह, तिस पर सूरत बदली हुई! भला हम लोग कोई देवता थे कि वैसी हालत में भी इन्हें पहिचान लेते!

घनश्याम० : तुम्हें अभी इनके मिजाज का पता नहीं तभी ऐसा कह रहे हो, वह आनन्दसिंह वाली बात भूल गए?

रामू० : कौन सी?

घनश्याम० : ठीक है, तुम उन दिनों थे नहीं, अगर होते तो ऐसा न कहते।

रामू० : कौन सी बात! क्या हुआ था?

घनश्याम० : तुमने सुना तो होगा ही, वही जब महाराज ने राजा बीरेन्द्रसिंह के लड़कों को पकड़ने का जिक्र किया था और इसी गौहर ने इस काम का बीड़ा उठाया था।

रामू० : मैंने कुछ उड़ती खबर सुनी थी परन्तु ठीक-ठीक हाल नहीं मालूम हुआ, बल्कि मैं पूछने वाला था कि क्या हुआ था!

घनश्याम० : खैर पूरा हाल तो फिर बताऊँगा, मुख्तसर यह है कि गौहर ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को गिरफ्तार करके हमारे महाराज के पास ले आने का वादा किया, हम कई ऐयार लोग इनकी मदद पर दिए गए, हम लोगों ने अपना जाल रचा जिसमें आनन्दसिंह तो फँस गए मगर इन्द्रजीतसिंह को रानी माधवी फँसा ले गई इससे वे हमारे हाथ न लगे।आनन्दसिंह को गिरफ्तार करके शिवदत्तगढ़ ले जाने की मैंने सलाह दी पर इन हजरत को न जाने क्या सूझी कि एक मकान में उन्हें बन्द कर रक्खा जहाँ से बीरेन्द्रसिंह के ऐयार उन्हें छुड़ा ले गए। मगर इसका इलजाम हम लोगों के सिर थोपा गया।न जाने महाराज को क्या समझा दिया कि वे मुझे ही दोषी समझ बैठे और मुझे उनकी बहुत कड़ी डाँट सुननी पड़ी। तब से मैं इससे बहुत डरता हूँ। इस समय मैंने इसके काम में दस्तन्दाजी की है, अगर फिर इसने कोई शिकायत महाराज से कर दी तो मैं कहीं का न रहूँगा।

रामू इसके जवाब में कुछ कहा ही चाहता था कि यकायक इसके साथियों में से एक जो जरूरी कामों के लिए गया हुआ था दौड़ता हुआ वहाँ आ पहुँचा और कुछ घबराहट के साथ बोला, ‘‘महाराज आ रहे हैं!’’

घनश्याम ने यह सुनते ही चौंक कर कहा, ‘‘कौन! महाराज आ रहे हैं?’’

उसने जवाब दिया, ‘‘हाँ, शिकार के लिए आज वे बहुत सवेरे ही सिर्फ दो आदमियों को लेकर निकले और इसी तरफ आ रहे थे जब रास्ते में मुझे देख कर अचानक रुक गए और सब हाल पूछ कर इधर ही को बढ़े आ रहे हैं। मैं दौड़ कर खबर देने आ गया!’’

घनश्याम के मुँह से यह सुनते ही ‘‘बुरा हुआ!’’ निकल गया और उसने हाथ गौहर की तरफ बढ़ा कर कहा, ‘‘जल्दी से इसकी सूरत बदल दो!’’ मगर इस बात का कोई भी मौका न मिला क्योंकि उसी समय पास के जंगल से निकल कर आते हुए तीन घुड़सवारों पर नजर पड़ी।उसके मुँह से निकल पड़ा, ‘‘आ पहुँचे!’’ और वह कुछ बेचैनी के साथ उठ खड़ा हुआ। उसके बाकी साथी भी खड़े हो गए बल्कि सब लोग अगवानी के लिए कूएँ से उतर कर उस तरफ बढ़े जिधर से महाराज शिवदत्त सवारों के साथ आ रहे थे।

अपने आदमियों को सामने देख शिवदत्त ने घोड़ा रोका और उनके सलामों का जवाब देते हुए घनश्याम की तरफ देख कर कहा, ‘‘क्यों जी खुदाबख्श, तुमने आने में इतनी देर क्यों कर दी? मैं आज कई दिनों से तुम लोगों की राह बेचैनी से देख रहा हूँ।’’

उसकी बात के जवाब में खुदाबख्श (जिसे अब तक घनश्याम के नाम से पुकारते आए हैं) अदब के साथ बोला, ‘‘हुजूर का हुक्म पाते ही हम लोग इधर के लिए रवाना हो गए मगर रास्ते में दो दिन की देर इसलिए हो गई कि मुझे पता चला कि गौहरजी किसी मुसीबत में पड़ गई हैं। इसी बात का पता लगाने और उनकी मदद करना जरूरी समझने से मुझे रुक जाना पड़ा।’’

शिवदत्त० : (चौंककर) गौहर, मुसीबत में! सो क्या, वह इस वक्त कहाँ है?

खुदाबख्श० : बड़ी मुश्किल से मैंने उन्हें और उनकी एक साथिन को कई बदमाशों के हाथ से छुड़ाया है, (हाथ से बताकर) उस जगह कुएं पर हैं। वे अभी तक बेहोश हैं, अभी हम लोग उन्हें होश में लाकर पूरा हाल-चाल पूछने ही वाले थे कि महाराज के आने की खबर मिली।

यह सुनते ही शिवदत्त उतावली के साथ कूएँ की तरफ बढ़ा और खुदाबख्श तथा उसके साथी तथा वे दोनों सवार भी जो शिवदत्त के साथ थे उसके पीछे हो लिए। कूएँ के पास पहुँच शिवदत्त घोड़े पर से उतर पड़ा। खुदाबख्श ने घोड़े की लगाम पकड़ कर अपने साथी रामू के हवाले कर दी और ऐसा करते हुए धीरे से उसके कान में कह दिया, ‘‘सभों को होशियार कर दो कि अगर महाराज पूछें तो यही कहें कि हमने इन दोनों को दुश्मनों के हाथ से छुड़ाया है।’’

तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ शिवदत्त कूएँ पर चढ़ गया और वहाँ गौहर को बेहोश पड़ा देखते ही उसके पास बैठकर गौर से उसकी नब्ज देखकर बोल पड़ा, ‘‘ओफ, इसे बहुत कड़ी बेहोशी दी गई है! (खुदाबख्श की तरफ घूमकर) तुमने इसे कहाँ पाया?’’

खुदा० : यहाँ से आठ कोस दूर एक पहाड़ी की तलहटी में, रात के वक्त कई आदमी इन्हें और (दूसरी औरत की तरफ बताकर) इसे बेहोश लिए जा रहे थे कि हम लोगों ने पता पाकर उन्हें घेर लिया और बड़ी मुश्किल और चालाकी से उनके पंजे से छुड़ाकर सीधे इसी तरफ लिए चले आ रहे हैं।

शिवदत्त० : वे लोग कौन थे जो इसे ले जा रहे थे? उनमें से कोई गिरफ्तार हुआ?

खुदा० : अफसोस कि कोई हाथ न आया जिससे पता लगता कि वे कौन थे, मगर शायद ये बता सकती हों कि वे कौन थे? इन्हें होश में लाने से सब पता लग जाएगा।

यह कहकर खुदाबख्श ने लखलखे की डिबिया निकाली मगर उसी समय शिवदत्त ने रोककर कहा, ‘‘नहीं, मैं कुछ दूसरी ही बात सोचता हूँ! मेरी इच्छा है कि इसे सीधा महल ले जाऊँ और तब वहीं होश में लाकर हाल-चाल दरियाफ्त करूँ। तुम लोगों के सुपुर्द मैं एक दूसरा और बहुत जरूरी काम करना चाहता हूँ जिसे मैं अकेले में तुमसे कहूँगा।’’

शिवदत्त ने चारों तरफ देखा जिसके साथ ही उसका मतलब समझ और लोग कुछ दूर हट गए और केवल खुदाबख्श वहाँ पर रह गया जिसकी तरफ झुककर कान में महाराज ने कुछ कहा। सुनते ही वह चौंक पड़ा और ताज्जुब के साथ बोला, ‘‘क्या महाराज ठीक कह रहे हैं?!’’

शिवदत्त ने कहा, ‘‘मुझे बहुत ठीक खबर लगी है और इसीलिए मैं चाहता हूँ कि बिना एक सायत की भी देरी किए तुम अपने ऐयारों को साथ ले उसी तरफ रवाना हो जाओ। देर होने से बहुत नुकसान होने की सम्भावना है!’’

खुदा० : बेशक, इसमें क्या शक है। मगर हम लोगों को क्या-क्या करना होगा, बता दिया जाए।

थोड़ी देर तक शिवदत्त और खुदाबख्श में धीरे-धीरे कुछ बातें होती रहीं। इसके बाद शिवदत्त उठ खड़ा हुआ और कूएँ के नीचे उतर अपने घोड़े पर सवार हुआ, उसकी आज्ञानुसार बेहोश गौहर उसके घोड़े पर बैठा दी गई और दूसरी औरत (मुन्दर) उसके साथी सवार के घोड़े पर।शिवदत्त ने ऐयारों से कुछ बातें कीं और तब घोड़े का मुँह शिवदत्तगढ़ की तरफ घुमाया। उसके साथी दोनों सवार भी पीछे हुए। इस समय हम खुदाबख्श वगैरह का साथ छोड़कर शिवदत्त के पीछे चलते और देखते हैं कि वह गौहर और मुन्दर को लेकर किधर जाता अथवा क्या करता है।

गौहर की जब बेहोशी टूटी तो उसने अपने को एक पहाड़ की कंदरा में पाया जो बहुत लम्बी-चौड़ी और कुशादा थी। वह मुलायम पत्तियों के बिछावन पर पड़ी हुई थी और उसके बगल ही में उसकी साथिन अर्थात् मुन्दर पड़ी हुई थी जो अभी तक बेहोश थी। इन दोनों से कुछ हटकर गुफा के मुहाने के पास महाराज शिवदत्त बैठे हुए कुछ कर रहे थे। गुफा के बाहर की तरफ आग जल रही थी जिसके पास बैठे दो आदमी खाने की चीज़ें तैयार कर रहे थे। एक मरा हुआ हरिण भी उसी जगह पास ही में पड़ा हुआ था।

महाराज शिवदत्त को पहिचान एक दफे तो गौहर चौंक गई और उसने पुनः अपनी आँखें बन्द कर लीं मगर कुछ देर बाद पुनः खोलीं और जमीन का सहारा लेकर उठ बैठी। उसके बदन में इस समय बेतरह दर्द हो रहा था जिसका कारण वह कुछ नहीं समझ सकती थी, साथ ही यह भी उसकी समझ में नहीं आता था कि वह जहाँ पर है वह कौन सी जगह है, वहाँ वह कैसे आई और राजा शिवदत्त यहाँ क्योंकर आ पहुँचे।

गौहर इन बातों को सोच ही रही थी कि शिवदत्त ने घूम कर उस तरफ देखा और उसे होश में आया देख उठ कर उसके पास आ गया। उसके हाथ में एक लोटा था जिसे उसने गौहर की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘बारे तुम होश में तो आईं! इतनी कड़ी बेहोशी तुम्हें दी गई थी कि मैं तो सब तरह की कोशिश कर लाचार हो गया था। लो पानी से अपना मुँह धोओ ताकि दिमाग ठिकाने आवे तब बताओ कि तुम कहाँ और किस आफत में पड़ गई थीं?’’

गौहर ने पानी ले लिया और अपनी आँखों पर कई छींटे दिए तथा मुँह अच्छी तरह धोया जिससे उसके सिर का चक्कर और माथे का दर्द कुछ कम हुआ। इसके बाद वह मुन्दर की तरफ गई और उसकी जाँच करने से उसे मालूम हुआ कि वह अभी तक बहुत गहरी बेहोशी में है।उसने अपनी कमर से लखलखा निकालना चाहा मगर देखा कि वह ऐयारी का बटुआ मौजूद नहीं है जिसे वह बराबर अपने साथ रखती थी। लाचार उधर से हटी और महाराज शिवदत्त के पास पहुँची जो उसका हाल जानने के लिए बेचैन जान पड़ते थे। हाथ पकड़ कर उसे उन्होंने अपने पास बैठा लिया और बड़ी मुहब्बत के साथ पूछा, ‘‘अब तबीयत कैसी है?’’

गौहर० : सिर्फ सर में दर्द है जो बेहोशी के कारण है—मगर मुझे इस बात का ताज्जुब है कि मैं यहां किस जगह आ पहुँची और आप यहाँ कैसे दिखाई पड़ रहे हैं?

शिवदत्त० : मैं संक्षेप में बताए देता हूँ। यह जगह शिवदत्तगढ़ के पास ही है। मैं शिकार खेलने दो रोज से इधर आया हुआ था। आज सुबह एक हिरन के पीछे घोड़ा छोड़े सरपट जा रहा था कि यकायक पाँच-छः आदमी दिखाई पड़े जो गठरियाँ उठाए चले आ रहे थे। मुझे देख वे लोग कुछ घबड़ाये और छिपने की कोशिश करने लगे जिससे मुझे शक मालूम हुआ और मैं हिरन का खयाल छोड़ उनके पास चला गया और पूछने लगा कि तुम लोग कौन हो, किधर जा रहे हो और इन गठरियों में क्या है? मेरे सवालों का वे लोग कुछ ठीक जवाब न दे सके जिस पर मैंने डपट कर उनसे कहा कि मालूम होता है कि तुम लोग चोर हो और इन गठरियों में चोरी का माल है। गठरियाँ खोलकर मुझे दिखलाओ कि क्या है? जब मैंने गठरी खोलने का नाम लिया तो वे सब बिगड़ खड़े हुए, गठरी खोलकर दिखाने से इनकार किया बल्कि मेरा मुकाबला करने को तैयार हो गए। नतीजा यह निकला कि मुझे अपनी तलवार से काम लेना पड़ा।दो आदमी जख्मी होकर गिर पड़े और उसी समय मेरे ये दोनों सवार (गुफा के बाहर वाले दोनों आदमियों को दिखाकर) भी आ पहुँचे जिन्हें देखकर उन लोगों की हिम्मत एक दम छूट गई और वे गठरियाँ छोड़कर भाग गए। जब मैंने गठरियाँ खोल कर देखा तो एक में तुम और एक में वह औरत (मुन्दर की तरफ इशारा करके) बंधी हुई दिखाई पड़ीं जिसे देख मेरे ताज्जुब का हद्द न रहा।मैं तुम दोनों को इस गुफा में उठा लाया और होश में लाने की कोशिश करने लगा मगर जाने किस तरह की बेहोशी तुम लोगों को दी गई थी कि मेरी कोई भी कोशिश कारगर न हुई, लाचार यहाँ लेटा कर कुछ खाने की तैयारी में लगा था कि तुम होश में आ गई। अब बताओ कि वे लोग कौन थे जो तुम्हें उठाए लिए जा रहे थे और तुम उनके पंजे में क्योंकर फँस गईं?

गौहर० : मैं खुद भी कुछ नहीं बता सकती कि वे लोग कौन थे। क्या उनमें से कोई गिरफ्तार भी हुआ?

शिवदत्त० : अफसोस कि एक भी नहीं, सब भाग गए। मगर यह तुम ताज्जुब की बात कह रही हो कि जिन्होंने तुम्हें गिरफ्तार किया उनको तुम खुद भी नहीं जानतीं; आखिर कुछ अन्दाज तो कर सकती हो?

गौहर० : (कुछ सोचती हुई) सिवाय इसके और कुछ नहीं कह सकती कि सम्भव है कि वे सब भूतनाथ के साथी हों। शिव० : (चौंक कर) भूतनाथ के साथी!

गौहर० : हाँ।

शिव० : (ताज्जुब से) ऐसा शक तुम्हें क्योंकर होता है?

गौहर० : इसीलिए कि मैं भूतनाथ को सताकर लौट रही थी जब गिरफ्तार कर ली गई।

शिव: यह तो और भी ताज्जुब की बात तुमने कही! लेकिन अब इस तरह पहेली बुझाने से कोई नतीजा न निकलेगा। साफ सब हाल कहो तो कुछ पता लगे। तुम तो प्रभाकरसिंह तथा इन्दुमति आदि को गिरफ्तार करने का बीड़ा उठा मुझसे बिदा होकर जमानिया गई थीं! वहाँ जाकर फिर भूतनाथ के पीछे क्यों पड़ गईं!!

गौहर० : (हँसकर) आप ही ने न कहा था कि अगर भूतनाथ किसी तरह आपका मददगार बन जाय तो आपका काम खूब मजे में निकल सकता है!

शिव० : हाँ कहा तो था।

गौहर० : तो इसीलिए मैं भूतनाथ के पीछे पड़ी हुई थी और उसे आपकी तरफ करने का उद्योग कर रही थी।

शिव० : लेकिन देखता हूँ कि सो न करके उससे झगड़ा मोल ले बैठीं। आखिर क्या हुआ, कुछ खुलासा बताओ भी तो!

गौहर० : खुलासा हाल तो बहुत लम्बा चौड़ा है जिसे पूरा-पूरा कहने में घंटों लग जायँगे।इस समय संक्षेप में मैं आपको सुनाए देती हूँ कि जिस समय मैं जमानिया में थी मुझे भूतनाथ के एक गुप्त भेद का पता लग गया और उसका पूरा हाल जानने की फिक्र में मैं पड़ गई क्योंकि मुझे खयाल हुआ कि अगर मैं उस भेद का पूरा पता लगा सकूँगी तो भूतनाथ को अपने बस में करने का एक अच्छा औजार हम लोगों के हाथ में आ जायगा।

शिव० : तब क्या हुआ! उस भेद का कुछ पता लगा?

गौहर० : हाँ बहुत कुछ। (बेहोश मुन्दर की तरफ बताकर) भाग्यवश इनसे मेरी भेंट हो गई और मुझे उस सम्बन्ध में बहुत कुछ बातें मालूम हो गईं—यहाँ तक कि मैं भूतनाथ से मिली और उस भेद की तरफ इशारा किया जिसे सुनते ही वह इतना डरा और घबराया कि बेहोश हो गया।

शिव० : (ताज्जुब से) ऐसा! वह भेद क्या था?

गौहर० : (मुस्करा कर) सो मैं अभी न बताऊँगी।

शिव० : ऐसा! मगर सो क्यों?

गौहर० : अभी उसका मौका नहीं आया, वक्त आने पर सब बता दूँगी।

शिव० : खैर खुशी तुम्हारी! मैं तुम्हारी मर्जी के खिलाफ उसे जानने पर जोर न दूँगा। खैर तब क्या हुआ—जब तुम्हारी बातें सुन वह बेहोश हो गया तब तुमने क्या किया?

गौहर० : उसी समय उसके कुछ साथी आ पहुँचे जिससे मुझे वहाँ से भागना पड़ा। लेकिन उसके बाद ही मैं दुश्मनों के हाथ पड़ गई और मुझे गुमान होता है कि वे लोग जिन्होंने मुझे और मेरी साथिन को पकड़ा अथवा जिनके हाथ से आपने हम लोगों को छुड़ाया जरूर भूतनाथ के वे आदमी ही होंगे।

शिव० : सम्भव है ऐसा ही हो। जब तक मुझे पूरा-पूरा हाल न बताओ तब तक मैं कोई गुमान करने में असमर्थ हूँ।

गौहर० : मैं जरूर सब हाल पूरा-पूरा और खुलासा आपको सुनाऊँगी मगर इस समय नहीं, मौके पर, अभी तो मुझे खुद सब हाल नहीं मालूम हुआ है मगर इन (बेहोश मुन्दर की तरफ बताकर) का साथ अगर कुछ समय तक और रहा तो सब कुछ मालूम हो जायगा।

शिव० : यह कौन औरत है?

गौहर० : यह भी एक ऐयारा ही है, कुछ ही दिन से मेरा इसका साथ हुआ है। यद्यपि यह कम उम्र है मगर बड़ी होशियार और चालाक है। इसका भी पूरा हाल जब मैं बताऊँगी तो सुनकर आप ताज्जुब में पड़ जाएँगे। मगर ताज्जुब है कि यह अभी तक होश में नहीं आई!

शिव० : मैंने कहा न कि तुम दोनों को न जाने किस तरह की बेहोशी दी गई थी, मैं घण्टों कोशिश करके हार गया पर किसी तरह होश में न ला सका। मालूम होता है कि किसी अनाड़ी ऐयार की तैयार की हुई थी। ऐसी बेहोशी प्रायः नुकसान पहुँचाती है और कभी-कभी तो दिमाग पर भी असर कर बैठती है, खुदा का शुक्र है कि तुम पर कोई बुरा असर न हुआ।

गौहर० : सिर में तो मेरे बेहिसाब दर्द था और अभी तक भी बना हुआ है, शायद स्नान वगैरह के बाद दूर हो, मगर इसे अब होश में लाना चाहिए।

शिवदत्त० : (अपनी कमर से लखलखे की डिबिया निकाल और गौहर को देकर) लो जरा इसे सुँघा कर देखो तो सही, शायद अब होश आ जाय।

गौहर ने डिबिया शिवदत्त के हाथ से ले ली और बेहोश मुन्दर के पास पहुँची। पहिले तो उसे हिला-डुला कर होश में लाना चाहा पर जब देखा कि वह अभी भी कड़ी बेहोशी में पड़ी है तो लखलखे की डिबिया उसकी नाक से लगाई मगर बहुत देर तक सुँघाने पर भी कोई असर न पड़ा। यह देख उसने शिवदत्त की तरफ देखा और कहा, यह तो अभी भी होश में नहीं आ रही है! न जाने किस तरह की बेहोशी में पड़ी है।’’

शिवदत्त ने यह सुन जल से भरा एक लोटा उठा लिया और गौहर के पास आ उसके हाथ में देकर कहा, ‘‘इसके छींटे मुँह पर दो, मैं पंखे से हवा करता हूँ।’’

ऐसा ही किया गया और दोनों की बहुत देर की कोशिश के बाद बेहोश मुन्दर ने हाथ-पाँव हिलाए और कुछ होश में आने के लक्षण दिखाई देने लगे। शिवदत्त ने यह देख कहा, ‘‘इसे बाहर ले चलना चाहिए, साफ हवा लगने से शायद जल्दी होश में आ जायगी।’’

दोनों मिल कर बेहोश मुन्दर को बाहर मैदान में लाए। बार-बार मुँह पर पानी छिड़कने, हवा करने और लखलखा सुँघाने से बहुत देर के बाद मुन्दर के हवास कुछ ठिकाने हुए, उसके बदन में हलकी कँपकँपी आई, दो-चार छींके आईं और थोड़ी देर बाद उसने करवट बदली, गौहर उसके सिहराने बैठी हुई थी, उसने प्रेम से मुन्दर के माथे पर हाथ फेरते हुए पूछा, ‘‘बहिन, अब तबीयत कैसी है? जरा होश में आओ। आँखें खोलो।’’ मुन्दर ने आँखें बन्द किए हुए ही पूछा, ‘‘मैं कहाँ हूँ! तुम कौन हो?’’

गौहर ने जवाब दिया, ‘‘मैं तुम्हारी सखी गौहर हूँ। तुम दोस्तों के बीच में हो! इन लोगों ने तुम्हें और हमें छुड़ाया है। जरा आँख खोलो और उठ के बैठो।’’

मुन्दर ने अपने सिर को हाथों से दबाते हुए कहा, ‘‘ओफ! सिर फटा जाता है, कुछ याद नहीं पड़ता कि मैं कौन हूँ और कहाँ हूँ और तुम कौन हो! गौहर, गौहर! कौन गौहर?’’

गौहर ने पुनः पानी का छींटा मुँह पर दिया जिससे मुन्दर ने आँखें खोल दीं और अपने चारों तरफ देखा, मगर मालूम होता था कि अभी उसकी आँखों में देखने और पहिचानने की शक्ति पूरी तरह से नहीं आई है, आँखें मलते हुए उसने चारों तरफ देखा और तब गौहर से पूछा, ‘‘यह कौन सी जगह है? ये लोग कौन हैं? तुम कौन हो?’’

गौहर ने ताज्जुब से कहा, ‘‘है सखी, तुम मुझे नहीं पहिचानतीं! यह तुम्हारी क्या हालत है! मैं गौहर हूँ! अभी कल तक हम लोगों का साथ रहा है, क्या वह सब बातें तुम भूल गईं? उस भयानक पिशाच का हाल भूल गईं जिसे गुफा में देखा था!’’

अपना सिर दोनों हाथों से दबाती हुई मुन्दर ने कहा, ‘‘ओफ सिर फटा जाता है! गौहर! मेरी सखी, हाँ ठीक है, याद आया। पिशाच! वह भयानक नर-कंकाल! ओफ!! यह मेरी क्या हालत हो गई है!’’ शिवदत्त ने झुककर धीरे से गौहर के कान में कहा, ‘‘अनाड़ी ऐयारों की बनाई बेहोशी की दवा का यही असर होता है। इसे जरा ले जाओ और उस नाले के किनारे टहलाओ, जरा-चले-फिरेगी और ठंडी-ठंडी हवा लगेगी तो होश ठिकाने आवेगा नहीं तो घण्टों इसी हालत में रह जायगी।वह तो कहो ईश्वर ने बड़ी कृपा कर दी कि तुम पर बेहोशी का ऐसा बुरा असर नहीं हुआ।

गौहर ने बेहोश मुन्दर का हाथ पकड़कर उठाया और कहा, ‘‘उठो, जरा घूमो तो फिर तुम्हारे हवास ठिकाने हों,’’ उसने कोई उज्र न किया और हाथ का सहारा लेकर खड़ी हुई। गौहर उसे सहारा देती और तरह-तरह की बातें करती हुई उस नाले की तरफ ले चली जो वहाँ से थोड़ी ही दूर पर बह रहा था और जिसके दोनों तरफ के सायेदार पेड़ों ने उस जगह को बड़ा ही रमणीय और गुंजार कर रक्खा था।दो-चार चक्कर इधर-उधर देने और ठंडी हवा लगने से मुन्दर के होशहवास धीरे-धीरे काबू में आने लगे, वह एक जगह रुक कर खड़ी हो गई और गौर से गौहर की सूरत देखकर यह कहती हुई उसके गले से लिपट गई, ‘‘आह मेरी प्यारी सखी! मैंने तुम्हें पहिचाना!’’

दोनों औरतें एक साफ पत्थर की चट्टान पर बैठ गईं और बातें करने लगीं। मुन्दर ने कहा, ‘‘ओफ, न जाने किस तरह की बेहोशी दी गई थी कि अभी सिर भन्ना रहा है और पुरानी बातें खयाल नहीं आ रही हैं। तुम जरा फिर से बताओ तो सही कि हम लोग कहाँ तक साथ-साथ थे और मैं कैसे बेहोश होकर यहाँ पहुँची!’’

गौहर० : हम लोग काशीजी पहुँचकर भूतनाथ के मकान पर गई थीं और वहाँ उससे भेंट कर तथा उसे अपनी बनावटी शकलें दिखा बदहवास कर उसके बटुए में से कुछ जरूरी कागजात लेकर निकल भागी थीं, वहाँ से हम लोग अपने ठिकाने उस गुफा में पहुँची जहाँ मैंने अपना घोड़ा रक्खा था पर उस गुफा के अन्दर एक भयानक पिशाच दिखाई पड़ा जिसके बदन में सिर्फ हड्डियाँ थी, उसे देखकर हम लोग भागीं तो किसी ने हमें पकड़ लिया और बेहोश कर दिया।उसके बाद का हाल मैंने इन लोगों की जुबानी सुना और वह यह है कि वे लोग हम लोगों को लिए भागे जा रहे थे कि शिवदत्तगढ़ के राजा शिवदत्तसिंह ने उन्हें देखा और उनके पंजे से हम लोगों को छु़ड़ा कर यहाँ लाए।

मुन्दर० : ठीक है, अब मुझे कुछ-कुछ याद आने लगा है। वह भयानक पिशाच और उसकी डरावनी हँसी मुझे खयाल आती है। अच्छा तो ये लोग क्या महाराज शिवदत्त के आदमी हैं?

गौहर० : वे खास महाराज शिवदत्त थे जो तुम्हें पंखा कर रहे थे!

मुन्दर० : अच्छा वे ही राजा शिवदत्त है! तुम्हारी इनकी जान-पहिचान क्योंकर और कब हुई?

गौहर० : (मुस्कराकर) क्या तुम भूल गई? इनका हाल तो मैंने तुम्हें उस लोहगढ़ी में सुनाया था!

मुन्दर० : सुनाया था? मुझे याद नहीं आता! शायद धीरे-धीरे याद आ जाय। मगर न जाने मेरे दिमाग को क्या हो गया है! कुछ काम नहीं कर रहा है। तुम कुछ और हाल सुनाओ, भूतनाथ से हम लोगों ने क्या बातें की थीं! हम लोग किसी दूसरे की सूरत बनकर उससे मिले थे?

गौहर० : हाँ हाँ, क्या तुम्हें याद नहीं? तुम भुवनमोहिनी बनी थीं और मैंने कामेश्वर का रूप धरा था। (हंस कर) भूतनाथ हम लोगों को देखकर इतना डरा कि बेहोश हो गया।

मुन्दर० : हाँ अब मुझे भी कुछ याद आने लगा है, शायद वहाँ किसी गली में हम लोगों की भूतनाथ से भेंट हुई थी।

गौहर० : हाँ-हाँ, गली में भेंट हुई थी और कुछ ही देर बाद वहाँ उसके कुछ साथी भी आ पहुँचे जिनके कारण हम लोगों को भागना पड़ा था नहीं तो और भी कुछ काम की चीजें हाथ लगतीं। मगर वे लोग न आ जाते तो उन थोड़े से कागजों के अलावा जो उसके बटुए में से निकले थे और भी कुछ न कुछ हम लोग जरूर पाते।

मुन्दर० : वे कागजात सब कहाँ रक्खे तुमने? होशियारी से रक्खे हैं तो?

गौहर० : हाँ हाँ यह देखो इसी से तो मैंने उन्हें अपने में नहीं रक्खा।

कह कर गौहर ने अपनी चोली में हाथ डाला और साथ ही उसके मुँह से ताज्जुब और घबराहट की एक चीख निकल पड़ी। मुन्दर ने पूछा। ‘‘क्या हुआ?’’ वह घबराये हुए गले से बोली, ‘‘वे कागज किसी ने निकाल लिए’’

मुन्दर० : (घबड़ा कर) निकाल लिए? तब तो बड़ा गजब हो गया!

जिसके लिए इतनी जान-जोखिम की गई, इतने-इतने खतरों में अपने को डाला गया, वे ही कागज गायब!

गौहर० : (परेशानी और घबराहट से) बेशक यह काम उन्हीं लोगों का है जिन्होंने हमें गिरफ्तार किया था। अफसोस! यह बहुत ही बुरा हुआ। हम लोगों की सारी मेहनत बेकार गई।

मुन्दर० : केवल मेहनत ही बेकार नहीं गई बल्कि अगर वे कागज किसी दूसरे के हाथ लग गये तो गजब हो जायगा।

गौहर० : इसमें क्या शक है? अच्छा तुम्हारे पास जो कागज थे उन्हें तो देखो, सही-सलामत हैं या नहीं?

मुन्दर ने अपने कमर में हाथ डाला और साथ ही चौंक कर बोली, ‘‘हैं! मेरा बटुआ कहाँ गया! तो क्या वे कागज भी गये! हाय अब क्या होगा?’’ उसने अच्छी तरह तलाश किया मगर कहीं कोई चीज न मिली और वह बदहवास होकर बैठ रही।

थोड़ी देर तक दोनों अपनी इतनी मेहनत बरबाद जाने का अफसोस करती रहीं, इसके बाद गौहर ने कहा, ‘‘खैर अब अफसोस करने से कोई फायदा नहीं इस वक्त तो उठो। जरूरी कामों से निपट कर स्नान वगैरह करें ताकि तबीयत कुछ ताजी हो, फिर सोचा जायगा कि अब क्या करना मुनासिब है, जहाँ तक मैं समझती हूँ। यह काम भूतनाथ का है।’’

मुन्दर बोली, ‘‘बेशक अफसोस करने का अब कोई नतीजा नहीं- मगर मेरी महीनों की मेहनत अकारथ गई!’’ गौहर ने दम-दिलासा देकर उसे शान्त किया और तब दोनों जरूरी कामों की फिक्र में लगीं।

महाराज शिवदत्त इन दोनों की राह बेचैनी के साथ देख रहे थे। जिस समय लगभग घण्टे भर के बाद ये दोनों उस जगह पहुँची तो उन्होंने पुकार कर कहा, ‘‘आप लोग कहाँ चली गई थीं राह देखते-देखते मैं तो घबरा गया था कि किसी नई मुसीबत में तो नहीं पड़ गई।’’ गौहर ने जवाब दिया। ‘‘नहीं, मुसीबत में तो नहीं पड़ी मगर एक बहुत बुरी बात हो गई,’’ शिवदत्त ने चौंक कर पूछा, ‘‘सो क्या?’’

गौहर० : कई कागजात जो बहुत जरूरी थे और जिन्हें हम लोग बड़े एहतियात से छिपा कर अपने पास रक्खे हुई थीं गायब हो गये हैं। मालूम होता है कि किसी ने बेहोशी की हालत में हम लोगों की तलाशी लेकर उन्हें निकाल लिया है।

शिवदत्त० : ऐसा हुआ हो तो कोई ताज्जुब नहीं क्योंकि वे लोग जरूर ऐयार थे जिनके कब्जे से मैंने तुम लोगों को छुड़ाया था, अगर उन लोगों ने बेहोशी की हालत में कोई चीज निकाल ली हो ताज्जुब क्या है!

गौहर० : हम लोगों के बटुए भी नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। आपने तो नहीं रक्खा है?

शिव० : नहीं, मुझे उनकी भला क्या खबर? वे भी उन लोगों के हाथ लग गए मालूम होता है। खैर अब इस वक्त यह गोश्त तैयार हो रहा है खाओ और जरा सा आराम करो, फिर देखा जायगा। अगर उन कागजों का मिलना निहायत जरूरी है तो मैं अपना एक ऐयार तुम्हारी मदद के लिए भेज दूँगा, तुम लोगों की कोशिश से उनका पता लग जाना कोई बड़ी बात नहीं जिन्होंने तुमको गिरफ्तार किया था, क्योंकि तुम्हारी चालाकी मैं खूब जानता हूँ, तुम ऐयारी में मामूली ऐयारों की नाक काट सकती हो, और ईश्वर की दया से तुम्हारी साथिन भी कम नहीं जान पड़ती!

गौहर और मुन्दर अपनी तारीफ सुन मुस्करा उठीं और इसके बाद तीनों आदमी उन तरह-तरह की लजीज खाने की चीजों पर हाथ साफ करने लगे जिसे राजा शिवदत्त के आदमियों ने तैयार किया था। शिवदत्त ने अपनी लच्छेदार बातों के जाल में मुन्दर को भी इस तरह फँसा लिया कि कुछ ही देर बाद वह भी पूरी तरह हिल-मिल गई।

भोजन के बाद शिवदत्त ने कहा, ‘‘अब थोड़ी देर आराम करके तब कोई काम किया जायेगा।’’ पेड़ के नीचे मामूली बिछावन बिछा हुआ था जिस पर एक तरफ वह और दूसरी तरफ गौहर तथा मुन्दर लेट गईं, नाले के किनारे की तरी पहुँचाने वाली ठंडी हवा आ रही थी जिसने सभों की आँखें बन्द करनी शुरू कर दीं और थोड़ी ही देर बाद शिवदत्त तो नहीं मगर गौहर और मुन्दर मीठी नींद की गोद में हिलोरे लेने लगीं।

इन लोगों से थोड़ी दूर हट कर एक दूसरे घने पेड़ की आड़ में शिवदत्त के बाकी साथी पड़े गप-शप कर रहे थे। गौहर और मुन्दर को गहरी नींद में मस्त देख शिवदत्त खड़ा हुआ और अपने साथियों के पास जा पहुँचा। इसे देख वे सब के सब उठ बैठे और बैठने के लिए जगह करते हुए बोले- ‘‘क्या वे दोनों सो गईं?’’

शिवदत्त ने हँसते हुए कहा, ‘‘हाँ गौहर पूरी तरह बेहोश हो गई मगर उसके साथ-साथ तुम्हारा बलदेव भी गाफिल हो गया है। अब एक आदमी जाओ और उसे होश में लाकर यहाँ बुला लाओ, गौहर तो मुझे विश्वास है कि बिना होश में लाए जल्दी न उठेगी फिर भी उसकी चौकसी का इन्तजाम कर देना,’’

एक आदमी ने कहा, ‘‘जी कभी नहीं, जो बेहोशी मैंने दी है वह घण्टों के लिए काफी है!’’ शिवदत्त ने कहा, ‘‘तो बस ठीक है, तुम्हीं चले जाओ और बलदेव को ले आओ। हाँ अब जरा वे चीजें तो मुझे फिर से दिखाओ जो इन कम्बख्तों के पास से हम लोगों को मिली हैं।’’

एक आदमी तो गौहर और मुन्दर की तरफ गया और दूसरे ने उठकर एक गठरी शिवदत्त के आगे ला रक्खी जिसमें कई चीजे बँधी हुई थीं। शिवदत्त ने उसे खोलने का इशारा किया और इसी समय मुन्दर को लिए हुए वह आदमी भी वहाँ आ पहुँचा, शिवदत्त ने उसकी तरफ देखकर कहा, ‘‘यहाँ बैठो। अपनी सूरत साफ करो, और बताओ कि तुमने उस धूर्ता और गौहर के पेट से क्या बातें निकालीं।’’

एक साथी ने गीला अँगोछा आगे बढ़ा दिया जिससे मुँह पोछतें ही मुन्दर की शक्ल एकदम बदल गई और नाजुक खूबसूरत औरत की जगह एक कम उम्र ऐयार की सूरत निकल पड़ी। एक दूसरा अँगोछा लेकर शिवदत्त ने अपना मुँह भी साफ किया और शिवदत्त की जगह साफ भूतनाथ ऐयार की सूरत दिखाई पड़ने लगी।

हमारे पाठक तो समझ ही गये होंगे कि यह भूतनाथ की ही चालाकी थी जिसने शिवदत्त बनकर खुदाबख्श वगैरह के हाथ से मुन्दर और गौहर को छु़ड़ा लिया था और उसका भेद जानने की फिक्र में पड़ा हुआ था। भूतनाथ को इन दोनों का पता कैसे लगा यह भी थोड़े ही में बताये देते हैं। जब खुदाबख्श और उसके साथी बेहोश गौहर और मुन्दर को लेकर शिवदत्तगढ़ की तरफ भाग गए तो भूतनाथ ने उनका पीछा करने का विचार छोड़ दिया और इन्द्रदेव के कैलाशभवन की तरफ चल पड़ा मगर अपने साथी के जिम्मे यह काम जरूर करता गया कि वह इस बात का पता लगावे कि वे लोग कौन हैं और दोनों बेहोंशों को लेकर किधर जाते हैं। जिस समय इन्द्रदेव से मिलकर वापस लौट रहा था उस समय उसके उस साथी ने उसे सब बातों की खबर दी और उसी समय से भूतनाथ ने अपना जाल फैलाना शुरू किया जिसका यह नतीजा हुआ। अस्तु हम आगे का हाल लिखते हैं। (१. देखिये भूतनाथ तेरहवाँ भाग, सातवाँ बयान।)

भूतनाथ ने अपने शार्गिद बलदेव की तरफ देखकर कहा, ‘‘क्यों बलदेव, उससे क्या-क्या पता लगा?’’ बलदेव बोला, गुरुजी बड़ी-बड़ी बातें मालूम हुईं आपकी चालाकी खूब काम कर गई! गौहर यही समझी कि सचमुच कड़ी बेहोशी ने मेरा दिमाग खराब कर दिया और मुझे पिछला कुछ भी हाल याद नहीं है, मैंने भी वह भड़ी दी कि उसने धीरे-धीरे सभी कुछ उगल दिया।’’

भूत० : (खुश होकर) हाँ! क्या मालूम हुआ?

बल० : पहिली बात तो यह कि आपका कोई बहुत पुराना भेद जिसके बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता इन दोनों को मालूम हो गया है। उसी का निश्चय करने और कुछ अधिक जानने के लिए गौहर ‘कामेश्वर’ बनी थी और मुन्दर ने ‘भुवनमोहिनी’ का रूप धरा था।

यह एक ऐसी बात थी कि जिसने एक बार पुनः भूतनाथ को दहला दिया और किसी पुराने पाप की याद ने उसके दिल के अन्दर पहुँच कर उसके कलेजे को जोर से ऐंठ दिया, मगर इस समय अपने ऐयारों और शागिर्दों के सामने उसने कोशिश करके अपने को बहुत सम्हाला और चेहरे से कुछ प्रकट न होने देकर कहा, ‘‘कामेश्वर और भुवनमोहिनी! मगर इन दोनों को उनका भेद क्योंकर मालूम हुआ?’’

बलदेव० : जमानिया में रहने वाले एक नौजवान को मुन्दर ने अपने ऊपर आशिक बनाया और उसी से सब बातें जानी।

भूत० : उस नौजवान का नाम?

बलदेव० : उसका नाम श्री विलास है और वह किसी चंचलदास का भतीजा है।

‘चंचलदास’ इस नाम का न जाने क्या असर भूतनाथ पर पड़ा कि उसके चेहरे से फिर घबराहट और परेशानी टपकने लगी। बड़ी कोशिश करके उसके पुनः अपने को सम्हाला और उस गठरी की देखभाल करने लगा जिसके अन्दर गौहर और मुन्दर की तलाशी लेने पर मिली हुई चीजें थीं।

कागजों के छोटे-छोटे कई मुट्ठे, कितनी ही चीठियाँ, कुछ डिबियाएँ, एक पुराना खंजर, दो-तीन अंगूठियाँ जिनके साथ पुरजे बँधे हुए थे, और कुछ कपड़ों के अलावे एक काठ का छोटा बक्स भी निकला, भूतनाथ सरसरी निगाह से उन चीजों को देख गया और उन्हीं में उसने वे कागजात भी पाए जो गौहर और मुन्दर उसे बेहोश करके ले भागी थीं।कागजों के मुट्ठों और अंगूठियों के साथ बँधे पुरजों को भूतनाथ ने कुछ गौर के साथ देखा और उनसे प्रकट होने वाले किसी भेद को याद कर उसका कलेजा पुनः धड़क उठा। फिर भी अपने को काबू में कर उसमें से कुछ जरूरी चीजें उसने बटुए के हवाले कीं और तब उस काठ के बक्स की तरफ झुका जो उन चीजों के साथ निकला था।भूतनाथ ने अपने एक शागिर्द की तरफ उसे खोलने का इशारा किया। मामूली ही कोशिश में वह बक्स खुल गया और उसके अन्दर से पीतल की एक छोटी सन्दूकड़ी निकल पड़ी जिस पर एक निगाह पड़ते ही भूतनाथ उसे पहिचान गया, बहुत कोशिश करके रोकने पर भी उसके मुँह से चीख निकल पड़ी और वह कुछ देर के लिए बदहवास हो गया।

भूतनाथ के शार्गिद अपने उस्ताद की यह हालत देख बड़े ताज्जुब में पड़ गए मगर डर के मारे किसी की हिम्मत न पड़ी कि उससे कुछ पूछे या उसकी बदहवासी दूर करने का कोई उपाय करे, सब लोग कुछ देर तक चुपचाप बैठे कभी उन चीजों को और कभी भूतनाथ की हालत को देखते रहे।थोड़ी देर के बाद धीरे-धीरे भूतनाथ के हवास ठिकाने हुए और उसने एक शागिर्द की तरफ देख इशारे से पानी माँगा। वह लोटे में ठंडा जल ले आया जिसके कई छीटे आँख पर देने और कुछ पीने के बाद उसके होशहवास ठिकाने हुए और वह पुनः उठ कर बैठ गया वह सन्दूकड़ी उसने उठा ली और गौर के साथ उलट-पलटकर चारों तरफ से देखने लगा।

यह छोटी सन्दूकड़ी जो किसी पुराने जमाने की होने पर भी साफ और चमकदार थी कुछ विचित्र ढंग की बनी हुई थी किसी तरफ कहीं भी कोई जोड़ का निशान इसमें दिखाई न पड़ता था और न इसी बात का कुछ पता लगता था कि यह किस तरह खुलेगी परन्तु भूतनाथ शायद इसको खोलने की तरकीब जानता था क्योंकि कुछ देर उलट-पुलट करने के बाद उसने एक खास जगह पर हाथ रख न जाने क्या तरकीब की कि एक हलकी आवाज के साथ सन्दूकड़ी का एक तरफ का हिस्सा खुल गया और उसके भीतर की चीजें दिखाई पड़ने लगीं।

न जाने उस सन्दूकड़ी के भीतर भूतनाथ को क्या दिखाई पड़ा कि उसकी हालत खराब हो गई, उसका चेहरा पीला पड़ गया, हवास बिगड़ गए और कलेजा धड़कने लगा। अगर अपने शागिर्दों से वह अपनी हालत छिपाया न चाहता तो शायद पुनः चिल्ला उठता परन्तु बड़ी कोशिश करके उसने फिर अपने को सम्हाला, फिर भी उस सन्दूकड़ी के अन्दर पुनः झाँकने की उसकी हिम्मत न पड़ी उसने उसका ढकना बन्द कर दिया और अपनी आँखें बन्द कर लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगा।

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