मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 6 भूतनाथ - खण्ड 6देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण
दूसरा बयान
यकायक कई आदमियों ने आकर सांवलसिंह को चारों तरफ से घेर लिया और ‘‘यही है, यही है, इस औरत का खूनी यही है’’ कह-कह कर चिल्लाने लगे।
सांवलसिंह चौंक कर खड़ा हो गया और ताज्जुब से इन सबों की तरफ देखता हुआ सोचने लगा कि ये सब कौन हैं जो ऐसे बेमौके यहाँ आ मौजूद हुए? बहुत गौर करने पर भी वह उन्हें पहिचान तो न सका मगर यह जरूर समझ गया कि ये ऐयार हैं और अपनी सूरतें बदले हुए हैं। आखिर उसने एक से जो उन सभों का सरदार मालूम होता था, ‘‘आप लोग कौन हैं और किस बात का इल्जाम मुझ पर लगाना चाहते हैं?’’
उस आदमी ने गुस्से में भरे हुए जवाब दिया, ‘‘हम लोग उसी के नौकर हैं जिसका तुमने खून किया है।’’
साँवलसिंह ने मुन्दर की लाश की तरफ बताकर कहा, ‘‘मेरी समझ में तो आप लोग शायद किसी भ्रम में पड़ गए हैं, यह औरत कौन है क्या आप जानते हैं?’’
आदमी : हम लोग किसी तरह की भूल नहीं कर रहे हैं, यह औरत जिसका तुमने खून किया है हमारे मालिक सेठ राधाकृष्ण के घराने की है और हम लोग इसे पटना पहुँचाने जा रहे थे। रास्ते में यकायक यह गायब हो गई और ढूँढ़ते तथा परेशान होते हम लोग अब यहाँ इसकी लाश देख रहे हैं।
साँवल० : अगर सिर्फ इतनी ही बात है तो मैं आपको बहुत जल्द विश्वास दिला सकता हूँ कि यह औरत वह नहीं है। आगे बढ़िए और गौर से लाश को देख कर पहिचानिए कि क्या यह वही औरत है?
वह आदमी आगे बढ़ा और गौर से मुर्दा मुन्दर की सूरत देखने लगा। शायद सूरत से कुछ फर्क जाहिर हुआ क्योंकि उसने ताज्जुब के साथ गर्दन हिलाई और कुछ सोचने लगा।
उसकी हालत देख उसके साथियों में से एक आगे बढ़ गया और बोला, ‘‘आप किस फेर में पड़े हुए हैं! यह ऐयार आपको अपनी बातों के जाल में फँसाना चाहता है। आप पहिले इस बदमाश से कहिए कि अपनी सूरत धोकर साफ करे और तब इस लाश का चेहरा धोकर देखिए, आप ही सब भण्डा फूट जाएगा!’’
उस आदमी ने यह सुनते ही कहा, ‘‘हाँ, यह तुम बहुत ठीक कहते हो! किसी से कहो एक लोटा पानी ले आवे, हम जरूर इस ऐयार की सूरत धुलवा कर देखेंगे।’’
मगर ताज्जुब की बात थी कि जब एक आदमी ने आगे बढ़कर पानी का लोटा सामने रख दिया तो सांवलसिंह ने चेहरा धोने से इनकार किया और कहा, ‘‘मालूम होता कि आप लोग मेरी बेइज्जती करने पर तुले हुए हैं। मैंने जो कुछ कहा ठीक कहा है और मैं किसी तरह भी चेहरा धोना मंजूर न करूँगा।’’
उस दूसरे आदमी ने यह सुन कहा, ‘‘देखा आपने, मैं कहता था न कि यह ऐयार आपको धोखा देना चाहता है! बताइए अगर यह सच्चा होता तो चेहरा धोने से क्यों इनकार करता?’’
उस सरदार ने कहा, ‘‘बेशक यही बात है’’ और तब सांवलसिंह की तरफ देखकर कहा, ‘‘अब खैरियत इसी में है कि चुपचाप में मेरे साथ चले चलो नहीं तो हम लोगों को जबर्दस्ती करनी पड़ेगी और हाथ-पाँव बाँध कर तुम्हें अपने मालिक के सामने पहुँचाना पड़ेगा।
‘‘जब तक दम में दम है तब तक कदापि नहीं!’’ कहते हुए सांवलसिंह ने अपना खञ्जर कमर से खींच लिया और उसकी देखा-देखी उन आदमियों ने भी अपने-अपने हथियार निकाल लिए।
सांवलसिंह को विश्वास था कि ये सब के सब एक साथ ही उस पर टूट पड़ेंगे मगर ऐसा न हुआ और उसके सामने सिर्फ वही एक आदमी हुआ जो अभी तक उससे बातें कर रहा था। सांवलसिंह के हाथ में खञ्जर देख उसने भी अपनी तलवार कमर में रख खञ्जर निकाल लिया और उसी से सांवलसिंह पर हमला किया।
इसमें कोई शक नहीं कि दोंनों ही अपने-अपने ढंग पर बहुत ही अच्छे और होशियार लड़ाके थे जिन्होंने आधी घड़ी तक बड़ी बहादुरी, तेजी और हिम्मत से एक-दूसरे का मुकाबला किया यहाँ तक कि दोनों ही के बदन पर हल्के-हल्के कई जख्म दिखाई पड़ने लगे और दोनों ही में दम फूलने और थकावट के चिह्न नजर आने लगे। क्षण भर के लिए दोनों ने अपने-अपने हाथ रोके और एक-दूसरे की तरफ गौर से देखा।
यकायक वह सरदार धीरे से बोल उठा, ‘‘मालूम होता कि अब पानी न बरसेगा!’’ जवाब में चौंककर सांवलसिंह ने कहा, ‘‘नहीं, क्योंकि हवा का रुख बदल गया।’’ इतना सुनना था कि सरदार ने अपने खंजर फेंक दिया और सांवलसिंह के गले से लिपट गया जिसने अपना खंजर दूर फेंक उसको छाती से लगा लिया।
कुछ देर बाद दोनों अलग हुए और सांवलसिंह ने कहा, ‘‘भला यह किसको उम्मीद हो सकती थी कि यहाँ दलीपशाह की सूरत दिखाई पड़ जाएगी?’’ जवाब में सरदार ने कहा, ‘‘और अर्जुनसिंह के ही यहाँ होने का गुमान कौन कर सकता था!’’ दोनों ने फिर प्रेम से एक-दूसरे का हाथ दबाया और तब बातें करते हुए थोड़ा एक तरफ हट गए।
सरदार अर्थात् दलीपशाह ने कहा, ‘‘वह तो कहो कि मुझे कुछ शक हो गया और मैंने परिचय का शब्द कहा नहीं तो आज न-जाने यह लड़ाई कहाँ खत्म होती!’’
सांवलसिंह बने हुए अर्जुनसिंह ने जवाब दिया, ‘‘मुझे भी कुछ-कुछ सन्देह होने लगा था। खैर जो कुछ हुआ अच्छा ही हुआ, पर तुम अचानक यहाँ कैसे आ पहुँचे और यह मुन्दर किसके हाथ से मारी गई?’’
दलीप : यह तो हम लोगों की कारीगरी है। वह कोई असली लाश नहीं है बल्कि मोम की बिल्कुल बनावटी है और सिर्फ तुमको धोखा देने के लिए यहाँ रक्खी गई थी। वास्तव में हम लोग बहुत देर से तुम दोनों का पीछा करते हुए इस बात का मौका ढूँढ़ रहे थे कि कोई ठिकाने की जगह आ जाए तो गिरफ्तार करें पर जाने किस तरह खबर पाकर मुन्दर होशियार हो गई और हमारे कब्जे से निकल भागी, फिर भी तुम्हें धोखे में डालने और परिचय लेने के लिए हमने। यह कार्रवाई की थी। अब तुम बताओ कि कैसे उस शैतान के पीछे हो लिए और किधर जा रहे थे?
अर्जुन : मैं कल ही से उसके पीछे लगा हूँ। गौहर के साथ-साथ मुन्दर को भी भूतनाथ ने गिरफ्तार कर लिया था पर गौहर के ऐयार सांवलसिंह की मदद से दोनों छूट निकलीं। गौहर तो शिवदत्तगढ़ गई और मुन्दर अपने घर की तरफ चली। मौका समझ मैं सांवलसिंह का रूप धर कर उसके साथ हो लिया और इस फिक्र में लगा कि जमानिया के पास पहुँच जाऊँ तब उसे बेहोश करके ठिकाने ले चलूँ पर न-जाने कैसे—जैसा कि तुमने कहा—वह होशियार हो गई और निकल भागी। अब तुम यह बताओ कि तुमने हम लोगों की सुनगुनी कहाँ पाई और कब से उन दोनों के साथ हो?’’
एक साफ जगह देख कर बैठते हुए दलीपशाह ने कहा, ‘‘तुमसे कहीं पहले से मुझे इन्द्रदेवजी ने खबर कर दी कि उन्होंने तिलिस्म के अन्दर गौहर और मुन्दर को कामेश्वर तथा भुवनमोहिनी का भेष धारण करते हुए देखा....’’
पास ही बैठते हुए अर्जुनसिंह ने चौंक कर कहा, ‘‘क्या कहा, कामेश्वर और भुवनमोहिनी का रूप धरते?’’
दलीप : हाँ, और इस पर उन्हें हद से ज्यादा ताज्जुब हुआ। इस भेद के साथ मेरा कितना घनिष्ट सम्बन्ध है यह तुम जानते ही हो अस्तु उन्होंने इसकी खबर मुझे दी और यह पता लगाने को कहा कि ये दोनों इस रूप में कहाँ जाती हैं और क्या करती हैं तथा यह भेद इन दोनों को मालूम किस तरह हुआ। बस उसी समय से मैं या मेरे शागिर्दों में से कोई-न-कोई बराबर ही इन दोनों के साथ लगे हुए हैं। अभी तक गौहर के पीछे मेरे दो आदमी लगे हैं और इस समय मैंने यही सोचा था कि मुन्दर को पकड़ कर उधर ही जाऊँ और देखूँ कि उस तरफ क्या हाल है पर अफसोस, मुन्दर कम्बख्त हाथ आकर निकल गई।
इतना कह दलीपशाह ने गौहर और मुन्दर का वह सब हाल जो उन्हें मालूम था कह सुनाया। अर्जुनसिंह गौर से और ताज्जुब से सब कुछ सुनते रहे और अन्त में बोले, ‘‘यह तो बड़े आश्चर्य की बात है! मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसा छिपा हुआ भेद जिसे गिनती के कुछ आदमी ही जानते हैं इन छोकरियों ने क्योंकर जान लिया! साथ ही जो मैं खयाल करता हूँ तो मालूम होता है कि और चाहे कुछ हो या न हो अब कम-से-कम भूतनाथ की कुशल नजर नहीं आती। उसके कुछ पाप प्रकट हो रहे थे उन्हीं के मारे वह छिपा-छिपा और भागा-भागा फिरता था, अब यह भेद प्रकट होकर उसको कहीं का भी न छोड़ेगा!’’
दलीप० : इसमें क्या शक है, उसे दुनिया में मुँह दिखाना मुश्किल हो जाएगा बल्कि ताज्जुब नहीं कि जान दे देनी पड़े।
अर्जुन : बहुत सम्भव है। लेकिन उसे जब इस बात की खबर लग चुकी है और गौहर तथा मुन्दर कामेश्वर तथा भुवनमोहिनी के रूप में उससे मिल भी चुकी हैं तो वह इस फिक्र में होगा कि असल बात का पता लगाए और बन पड़े तो उस भेद को फिर से जमीन में गाड़ दे।
दलीप : जरूर ऐसा करेगा पर इसमें कहाँ तक सफल होगा यह अभी कहा नहीं जा सकता, मगर इस सम्बन्ध में तरद्दुद में डालने वाली बात कुछ दूसरी ही है।
अर्जुन : वह क्या?
दलीप० : भूतनाथ का शक घूम-फिर कर मुझी पर जाएगा और वह यही समझेगा कि मैंने ही इस छिपे हुए रहस्य को प्रकट कर दिया है। एक तो दयाराम वाले मामले के कारण वह पहले ही से मुझ पर जला-भुना है, ऊपर से अगर यह शक भी उसे हो गया तो वह मेरा जानी दुश्मन बन बैठेगा और मुझे दुनिया से ही उठा देने की कोशिश करेगा।
अर्जुन : बेशक यह सोचना आपका बहुत ठीक है, उसका शक सीधा आप ही पर जाएगा क्योंकि आप ही को इस मामले से सबसे गहरा सम्बन्ध है।
दलीप : और तब....(रुक कर और सामने से आते हुए आदमी की तरफ गौर से देखकर) यह लो गिरिराजकुमार आ पहुँचा। इसे मैंने मुन्दर की टोह में भेजा था, पर इसका साथी इस समय साथ नहीं है, मालूम होता है उसे कहीं छोड़ मुझे खबर देने आ रहा है। मगर इसकी पीठ पर एक गठरी भी है, जरूर किसी को गिरफ्तार करके ला रहा है। कहीं मुन्दर ही न हो!बात की बात में वह आदमी पास आ गया और पीठ पर की गठरी उतार जमीन पर रखने बाद एक खास इशारे के साथ प्रणाम करता हुआ बोला, ‘‘गुरुजी, आपका सोचना बहुत ठीक निकला। उस बजरे वालों ही का वह काम था और मुन्दर को होशियार करके वे ही उसे अपने साथ ले भी गए।’’
दलीपशाह ने कहा, ‘‘अच्छा आओ यहाँ बैठो, कुछ सुस्ताओ, और बताओ कि इस गठरी में किसे ला रहे हो?’’
गिरिजा : उस बजरे के एक माझी को पकड़ लाया हूँ, शायद इसकी सूरत बन कुछ काम निकाला जा सके, और सहदेव को उन लोगों का पीछा करने के लिए छोड़ आया हूँ। मगर गुरुजी, वह बजरा तो मुझे आफत का घर-सा दिखाई पड़ता है। उसके अन्दर तो बड़ी-बड़ी ताज्जुब की चीजें मैंने देखीं जिनका हाल सुन आप आश्चर्य में पड़ जाइएगा।
दलीप : सो क्या
गिरिजाकुमार यह सुन सांवलसिंह बने अर्जुन की तरफ देखने लगा। उसको आश्चर्य में पड़ा देख दलीपशाह ने हँस कर कहा, ‘‘घबराओ नहीं, ये वास्तव में अर्जुनसिंह हैं, किसी कारणवश सांवलसिंह बनकर मुन्दर का पीछा कर रहे थे।’’
इतना सुनते ही गिरिजाकुमार ने प्रसन्न होकर अर्जुनसिंह को प्रणाम किया और तब उस बजरे पर जो कुछ देखा था उसे बयान करना शुरू किया। इस जगह हम यह नहीं बताएँगे कि गिरिजाकुमार ने क्या-क्या कहा, हाँ यह कह सकते हैं कि इन लोगों में घण्टे भर से ज्यादा देर तक बातचीत और सलाह-मशविरा होता रहा और इस सिलसिले में गिरिजाकुमार ने जो कुछा कहा उसे इन दोनों आदमियों ने गौर से सुना और पसन्द किया।
बातें समाप्त होने पर दलीपशाह ने गिरिजाकुमार से कहा, ‘‘बस तो तुम जाओ और अपने साथियों को लिए-दिए उस जगह पहुँचो, मैं इस माझी की सूरत बनकर बजरे पर जाता हूँ और ये अर्जुनसिंह मदद के लिए मेरे साथ रहेंगे। लाओ मल्लाह को मेरे सामने करो।’’
गिरिजाकुमार ने मल्लाह की गठरी खोल उसे बाहर निकाला और दलीपशाह अपने बटुए में से सामान निकाल अपनी शकल उसके जैसी बनाने लगे। जल्दी ही उन्होंने इस काम से छुट्टी पा ली और तब उस मल्लाह के कपड़े पहिन तथा अपने कपड़े गिरिजाकुमार के हवाले करने के बाद उठ खड़े हुए। गिरिजाकुमार ने कहा, ‘‘यह बताना मैं भूल गया कि इस मल्लाह का नाम रामा है।’’
दलीपशाह ने कहा, ‘‘बस ठीक है, बस रामा मल्लाह हो गया। (अर्जुनसिंह की तरफ देखकर) क्यों ठीक सूरत बनी या कोई कसर है?’’
‘‘सिर्फ एक कसर रह गई है।’’ कह कर अर्जुसिंह ने अपने बटुए में से एक शीशी निकाली जिसमें किसी तरह का अर्क था जो दलीपशाह के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘बस इसे थोड़ा-सा चेहरे पर मल लीजिए तो वह कसर भी दूर हो जाएगी।’’
दलीपशाह ने शीशी लेकर ताज्जुब के साथ पूछा, ‘‘वह कसर क्या है और इस शीशी में क्या चीज है जिससे वह मिट जाएगी?’’
अर्जुनसिंह ने हँस कर कहा, ‘‘आप यह भूल गए कि आप मल्लाह की शकल बने हैं जिसको हरदम पानी से काम पड़ता है। अगर आपके चेहरे पर पानी के छींटे पड़ गए या किसी कारणवश आपको पानी में उतरना पड़ा तो आपकी नकली सूरत क्या प्रकट न हो जाएगी?’’
दलीपशाह चौंक कर बोले, ‘‘ओ हो, यह बात तो मैं बिल्कुल भूल ही गया था। आपका कहना बेशक ठीक है। पानी रंग का दुश्मन है, और अगर मैं पानी में जाने से इनकार करूँगा तो लोगों को जरूर शक होगा, मगर यह दवा ऐसे मौके पर मेरी क्या मदद करेगी?’’
अर्जुन : यह दवा मैंने बड़ी मेहनत से तैयार की है। इसकी तारीफ यह है कि चाहे आप जिस तरह के भी रंग से जैसी भी सूरत बनावें, जरा-सा इस अर्क को हथेली में ले उससे अपना रंगा हुआ चेहरा तर कर लें, हवा लगते ही यह सूख जाएगा और फिर लाख पानी से धोया जाए क्या मजाल कि जरा-सा रंग छूट जाए।
गिरिजा० : (जो बड़े गौर से अर्जुनसिंह की बात सुन रहा था) और जब उस रंग को मिटाने की जरूरत पड़े तो क्या करना होगा?
अर्जुन : उस समय कच्चे पपीते के अर्क से आधी घड़ी तक अपना चेहरा तर रखें। उसकी तासीर से यह रोगन उतर जाएगा, तब नीचे वाला रंग पानी से धुल सकेगा।
गिरिजा० : (प्रसन्न होकर) वाह यह तो बड़े काम की चीज है!
अर्जुन : बेशक, और इसीलिए मैं बराबर इसकी एक शीशी अपने बटुए में रखता हूँ। इसकी एक तासीर और भी खूबी की है। बनावटी सूरत पर अगर पानी से मुँह धोएँगे तो वह ऊपरी रंग तो छूट जाएगा और नीचे वाली सूरत जिस पर यह रोगन लगाया गया था निकल आवेगी जिस पर पानी का असर न होगा। इस तरह पर बहुत मजेदार धोखा लोगों को दिया जा सकता है।
क्या तुम्हें याद नहीं कि एक मौके पर मैंने भूतनाथ को गहरा धोखा दिया था, यहाँ तक कि उसने खुद अपने ही हाथों अपने शागिर्द बहादुर और पारस की जान ले ली थी जिसका गम शायद वह अब तक भूला न होगा।१ (१. देखिए भूतनाथ आठवाँ भाग, सत्रहवाँ बयान।)
गिरिजा० : हाँ-हाँ, आपने वह हाल कहा था और मैं बहुत दिनों तक इस गौर में पड़ा रहा था कि आपने कैसी ऐयारी की कि भूतनाथ जैसा चालाक ऐयार इतना गहरा धोखा खा गया। तो वह इसी अर्क की करामात थी! अच्छा यह अर्क बनता किन मसालों से है?
अर्जुनसिंह गिरिजाकुमार का यह सवाल सुन जोर से हँस पड़े और बोले, ‘‘ये बातें क्या इतनी सहज में बताई जाती हैं! । ऐसी-ऐसी दवाओं के बनाने और ईजाद करने में खून-पानी एक कर देना पड़ता है। तब कहीं जाकर ये तैयार होती हैं। क्या इतनी मुश्किल से मिली चीज ऐसे सहज में बता दूँ? हाँ इतना कर सकता हूँ कि तुम्हें भी इसमें की कुछ दवा दे दूँ।’’
पर गिरिजाकुमार ने यह बात स्वीकार न की और असल नुस्खा जानने पर ही जिद्द करने लगा। अर्जुनसिंह ने तरह-तरह के बहाने करके चलाना चाहा पर उसने यहाँ तक खुशामद की कि जमीन पर गिर पड़ा और दोनों पैर पकड़ उन पर सिर रखता हुआ बोला—‘‘जब तक आप बताइएगा नहीं मैं सिर नहीं उठाऊँगा!’’ अर्जुनसिंह ने लाख कोशिश की पर उसने पैर छोड़ना या सिर उठाना किसी तरह मंजूर नहीं किया।
दलीपशाह जो अपने शागिर्द के जिद्दी स्वभाव और किसी नई बात को जानने धुन से अच्छी तरह वाकिफ थे कुछ देर तक मुस्कुराहट के साथ यह द्वन्द्व देखते रहे, आखिर देर होती देख उन्होंने कहा, ‘‘अरे लड़के, इतना घबराता क्यों है? ये भी गुरु-तुल्य ही हैं, कभी-न-कभी बता ही देंगे, ऐसी जल्दी क्या है?’’ गिरिजाकुमार यह सुन अर्जुनसिंह का पैर पकड़े ही पकड़े बोला, ‘‘कहिए अब भी बताइएगा कि नहीं?’’ आखिर वे हँसकर बोले, ‘‘जब इनकी सिफारिश हो गई तो लाचार बताना ही पड़ेगा, मगर लड़कों को इतना जिद्दी नहीं होना चाहिए! (दलीपशाह से) तुमने अपने शागिर्दों को बहुत सिर चढ़ा रक्खा है!’’
गिरिजाकुमार ने हँसते हुए अपना सिर उठा लिया और तब हाथ बढ़ा कर कहा, ‘‘लाइए!’’ अर्जुनसिंह बोले, ‘‘मैंने कहा न कि बता दूँगा, ऐसी जल्दी क्या है, किसी मौके पर मालूम हो जाएगा।’’ मगर उसने सिर हिला कर कहा, ‘‘सो नहीं, अभी लाइए, आखिर देर करने से फायदा ही क्या होगा? शुभस्य शीघ्रम् न-जाने कब कैसा मौका आन पड़े।’’
उनको हीला-हवाला करते देख आखिर दलीपशाह ने कहा, ‘‘अजी क्या दिल्लगी करते हो, बता कर छुट्टी भी करो, यह कम्बख्त एक जिद्दी है, क्या बिना लिए तुम्हारा पिण्ड छोड़ेगा!’’ लाचार हो अर्जुनसिंह ने अपने बटुए में से एक कागज निकाला और उसे गिरिजाकुमार की तरफ बढ़ाया, उसने वह कागज दोनों हाथों से ले सिर से लगाया और पीठ ठोंककर कहा, ‘‘शाबास, मैं तुम्हारी जिद्द से नाराज नहीं बल्कि खुश हूँ, अच्छी चीज के हासिल करने की इतनी लगन हुए बिना कोई अच्छा ऐयार बन नहीं सकता।’’
अर्जुनसिंह के बटुए में एक शीशी उस अर्क की और मौजूद थी जिसे उन्होंने गिरिजाकुमार के हवाले किया और तब कहा, ‘‘लो बस तुम जाओ और इस मल्लाह को भी लेते जाओ। जैसी सलाह हुई है उस मुताबिक काम करना और जहाँ तक जल्द हो वहाँ पहुँच कर खूब सावधानी से रहना। हम दोनों में से कोई-न-कोई बहुत जल्द ही तुम्हारे पास पहुंचेगा।’’
‘‘बहुत अच्छा’’ कह कर गिरिजाकुमार ने बेहोश मल्लाह को पीठ पर लाद लिया और दोनों को प्रणाम करके वहाँ से हट अपने उन बाकी साथियों की तरफ बढ़ गया जो दलीपशाह को सलाह-मशविरे में मशगूल देख अपने काम के लिए इधर-उधर फैल गए थे। अर्जुनसिंह के बताए ढंग से दलीपशाह ने वह अर्क जहाँ रोगन इस्तेमाल हुआ था वहाँ लगा लिया तब शीशी ठिकाने रख दोनों आदमी आपस में बातें करते हुए गंगा के किनारे-किनारे नीचे की तरफ जाने लगे।
लगभग तीन-चार कोस तक तेजी से जाने के बाद गंगाजी के बीचोबीचो में से बहते हुए एक बड़े बजरे पर इनकी निगाह पड़ी। दलीपशाह ने कहा, ‘‘मालूम होता है यही वह बजरा है।’’ अर्जुनसिंह ने कहा, ‘‘जरूर वही होगा, मगर यह नीचे की तरफ जा रहा है और इससे गुमान होता है कि रामा मल्लाह की तरफ से ये लोग नाउम्मीद हो चुके हैं! ऐसी हालत में उस पार जाने में तरद्दुद होगा।’’ दलीपशाह ने कहा, ‘‘कोई तरद्दुद न होगा बशर्ते कि बजरा वही हो!’’
इसी समय पास ही कहीं से बजती हुई एक सीटी की हलकी आवाज इन लोगों के कानों में पड़ी जो शायद किसी अपने ही आदमी की बजाई थी क्योंकि उसे सुनते ही दलीपशाह ने भी उसके जवाब में सीटी बजाई और साथ ही एक आदमी को पेड़ों के झुरमुट से बाहर निकलते देखा।
पहिली ही निगाह ने बता दिया कि यह दलीपशाह का शागिर्द सहदेव है जिसने पास आ उन्हें एक खास इशारे के साथ प्रणाम किया और जवाब पाकर कहा, ‘‘मैं बहुत देर से आपकी राह देख रहा था।’’ दलीपशाह ने जवाब दिया, ‘‘हाँ मुझे जरूर कुछ देर हो गई और शायद इसी सबब से बजरे वाले रामा मल्लाह की आशा छोड़ चले जा रहे हैं। मैं समझता हूँ कि यह वही बजरा है जिसका गिरिजाकुमार ने मुझसे जिक्र किया था?’’
सहदेव : जी हाँ, वही है, और उस पार के लोग अपने मल्लाह से नाउम्मीद होकर नहीं गए हैं बल्कि किसी को लेने वास्ते उस पार जा रहे हैं, शीघ्र ही फिर वहाँ से वापस आवेंगे। उनके दो आदमी और भी अभी इसी पार हैं जो किसी काम से उतर गए थे और बजड़े के वापस आने पर पुनः सवार होंगे।
दलीप० : तब तो सब ठीक ही है, अच्छा तो अब हमें क्या करना चाहिए?
तीनों आदमी एक आड़ की जगह में चले गए और आपुस में सलाह करने लगे।
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