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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान


पत्थर की उस विकराल मूरत ने दोनों हाथ बढ़ा प्रभाकरसिंह को पकड़कर अपनी तरफ खींचा और उनका सिर अपनी दाढ़ों के बीच में दबा लिया।

इस अचानक की विपत्ति ने प्रभाकरसिंह के होश-हवाश गायब कर दिए और उनके मुँह से अनजाने ही एक चीख निकल पड़ी। पर ताज्जुब की बात थी कि इस चीख की आवाज सुन उस मूरत के गले से डरावनी हँसी निकली। उसने अपना मुँह खोल दिया और प्रभाकरसिंह ने जल्दी से अपना सर बाहर निकाल लिया पर बहुत कोशिश करने पर भी उसके वज्र जैसे हाथों से छूट न सके। उसी समय मूरत के मुँह से निकला, ‘‘बस खबरदार, छूटने की कोशिश न करो नहीं तो मैं जिन्दा ही चबा जाऊँगा!’’

बड़ी कोशिश से अपने को सम्हाल कर प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘आखिर कुछ मालूम भी तो हो कि तुम मुझसे क्यों इतने नाराज हो गए हो कि अकारण ही मुझे चबा जाना चाहते हो?’’

मूरत ने जवाब दिया, ‘‘मेरा नाम भूतनाथ है, मैं रोहतासमठ का पुजारी हूँ और यहाँ पर उस खजाने की हिफाजत करने के लिए बैठाया गया हूँ जो शिवगढ़ी में बन्द है।’’

प्रभाकरसिंह ने ताज्जुब से कहा, ‘‘मगर तब मुझसे तुम्हारी क्या दुश्मनी हो सकती है?’’

भूतनाथ : खास तौर पर तो कुछ भी नहीं मगर जब तुम मेरे कब्जे में आ ही गए हो तो तुम्हें छोड़ना भी नहीं चाहता, हाँ एक काम तुम कर सको तो अलबत्ता तुम्हें छोड़ सकता हूँ।

प्रभाकर : सो क्या?

भूतनाथ : मैं बहुत दिनों से प्यासा हूँ और मेरी प्यास खून से ही मिट सकती है। तुम्हारे साथ एक औरत है, उसका सिर काटकर ताजा लहू अगर मुझे पिला सको तो मैं तुम्हें छोड़ दूँ।

यह जानकर कि यह शैतान चाहता है कि मालती का लहू पिए प्रभाकरसिंह का बदन गुस्से के मारे काँपने लगा और आँखें कबूतर के खून की तरह सुर्ख हो गईं। क्रोध के मारे उनके मुँह से किसी तरह की आवाज न निकली, मगर उन्हें ऐसी हालत में देख वह मूरत पुनः बोली, ‘‘क्यों चुप क्यों हो गए? शायद सोच रहे होगे कि यदि ऐसा करने पर भी मैं तुम्हें न छोड़ूँ तो तुम क्या करोगे? पर मैं भी विश्वास दिलाता हूँ कि यदि तुमने ऐसा किया तो मैं न-केवल तुम्हें छोड़ ही दूँगा बल्कि शिवगढ़ी का खजाना भी, जो बिल्कुल मेरे ही कब्जे में है, तुम्हारे सुपुर्द कर दूँगा। उसमें इतनी दौलत है कि तुम दस जन्म में भी उसे खर्च नहीं कर सकते। बताओ अब तो मेरी बात तुम्हें मंजूर है!’’

क्रोध के मारे प्रभाकरसिंह कुछ कह न सके पर वे जोर करके उस प्रेत के हाथों से छूटने की कोशिश अवश्य करने लगे। उनके इस उद्योग को देख उस मूरत ने अपने हाथों को जरा कस लिया और प्रभाकरसिंह को ऐसा मालूम हुआ कि वह अगर अब जरा सा भी और दबाएगा तो उनकी हड्डियाँ कड़कड़ा जाएँगी। अपने को मौत के मुँह से छुड़ाने की कोई तरकीब इस समय उन्हें नजर न आती थी और वे यह सोच ही रहे थे कि अब क्या करना मुनासिब है कि इसी समय वह मूरत फिर बोल उठी, ‘‘मालूम होता है कि अब भी तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं हुआ और या फिर तुमने शिवगढ़ी के खजाने की अद्भुत दौलत का हाल नहीं सुना। उसमें ऐसी-ऐसी अनूठी चीजें हैं कि उन्हें पाकर तुम अपने को धन्य समझोगे अच्छा मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ।जाओ अपने दोस्तों से इस खजाने के बारे में दरियाफ्त करो, इसके बाद अगर तुम्हारा मन करे तो अपनी साथिन को लेकर फिर मेरे पास आना और उसके खून से मेरी प्यास बुझाना। बस उसी दम वह खजाना तुम्हारे लिए खुल जाएगा।’’

यकायक उस मूरत के हाथ ढीले पड़ गए और प्रभाकरसिंह ने अपने को छूटा हुआ पाया, मगर इस समय उनकी ऐसी बुरी हालत हो रही थी कि होशहवाश ठिकाने न थे।वे उसी जगह जमीन पर, उस पिशाच से कुछ ही दूर हटकर, बैठ गए और बहुत देर के बाद उनके हवाश ठिकाने आए तो इस नीयत से तिलिस्मी किताब खोलकर देखने लगे कि शायद उसमें इस भयानक मूरत या इसकी खौफनाक बातों का कोई जिक्र हो, पर उसमें इसका कोई भी जिक्र न था बल्कि यह लिखा हुआ था :—

‘‘लोहगढ़ी के तिलिस्म के चार हिस्सों में से पहिले हिस्से के तोड़ने पर हम तुम्हें बधाई देते हैं। अब तुम्हें दूसरा और तीसरा हिस्सा तोड़ने में हाथ लगाना चाहिए और इसके लिए बेहतर होगा कि अगर तुम लोग दो आदमी हो तो दोनों अलग होकर काम करो।गोलाम्बर वाले बुर्ज के तिलिस्म को तोड़ने के लिए एक अलग हो जाय और उसी रीति से काम करे जैसे कि पहिले लिखा जा चुका है, और दूसरा जो दोनों में अधिक जिस्मानी ताकत रखता है तिलिस्म के तीसरे दर्जे को तोड़ने का काम हाथ में ले।

‘‘तुम जिस जगह अब अपने को पाओगे उस दालान के बाहर जाने की जरूरत नहीं, अगर जाओगे तो खतरे में पड़ सकते हो। (प्रभाकरसिंह ने दिल में कहा—ठीक लिखा है, मैंने ही इधर आकर गलती की और अपने को इस भूतनाथ के हाथ में फँसाया) उस फर्श में एक जगह का पत्थर और पत्थरों से कुछ उभरा हुआ पाओगे, उसे उखाड़ लो और उसके नीचे से जो रास्ता तीसरा हिस्सा शुरू हो उसको साफ कर उसकी राह उस बाग में पहुँचो जहाँ से तिलिस्म का तीसरा हिस्सा शुरू होता है।

‘‘तिलिस्म का यह हिस्सा यद्यपि बहुत छोटा है और आठ पहर के अन्दर तुम इसको तोड़ सकते हो पर इसको तोड़ने में ताकत, होशियारी और फुर्ती की बहुत ज्यादा जरूरत पड़ेगी और अगर तुम कहीं से भी चूकोगे तो भारी नुकसान उठाओगे। इसलिए आगे लिखी बातों को खूब गौर के साथ कई बार पढ़कर दिल में अच्छी तरह नक्श कर लो ताकि कहीं किसी तरह की गलती न होने पावे।’’

प्रभाकरसिंह ने ऐसा ही किया अर्थात् इसके आगे जो कुछ बातें लिखी हुई थीं उनको कई बार पढ़ा और जब वे सब अच्छी तरह याद हो गईं तो आगे काम करने के लिए उठ खड़े हुए।

जिस दालान में से निकलकर वे आँगन में पहुँचे थे अब वे लौटकर पुनः उसी दालान में पहुँचे। कुछ ही कोशिश से उस पत्थर का पता लग गया जिसके बारे में तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था और उन्होंने उसको उखाड़ने की कोशिश की मगर इस काम को उन्होंने जैसा सहज समझा हुआ था वैसा न पाया क्योंकि उनके पास कोई ऐसी चीज न थी जो पत्थर उखाड़ने में काम आ सकती और इसीलिए इस काम में उनका बहुत ज्यादा वक्त खराब हुआ।आखिर किसी तरह यह काम पूरा हुआ और प्रभाकरसिंह ने वह सिल्ली उठाकर अलग रख दी। नीचे जाने के लिए कुछ सीढ़ियाँ नजर पड़ीं पर दो-तीन डण्डों के बाद पानी और कीचड़ नजर आया। प्रभाकरसिंह ने कपड़े उतारे, केवल लंगोट पहिन रक्खा और तब उस रास्ते को साफ करने लगे।भीतर का कीचड़ निकाल-निकालकर बाहर करने में इनको आधे घण्टे से ऊपर समय लग गया पर आखिरकार किसी तरह यह काम भी पूरा हुआ और कीचड़ सब निकल गया पर उसकी जगह-न-जाने कहाँ से आता हुआ पानी उन सीढ़ियों पर दिखाई पड़ने लगा। वे समझ गए कि यदि इस राह से कहीं जाना होगा तो इस पानी के भीतर से होकर ही जाना पड़ेगा।

कुछ देर तक तो प्रभाकरसिंह इस नीयत से इधर-उधर सीढ़ियों के चारों तरफ वाली दीवारों की जाँच करते रहे कि शायद और कोई रास्ता नजर आ जाय पर जब कोई दिखाई न पड़ा तो लाचार पानी में उतरे। लगभग सात या आठ डण्डा सीढ़ियाँ उतर जाने के बाद पानी गरदन तक आ पहुँचा।यह देख दम बाँधकर उन्होंने गोता लगाया और पानी के अन्दर धँसे। सामने की तरफ बढ़कर आँखें खोलीं तो कुछ उजाला-सा नजर आया और ऐसा मालूम हुआ कि यह पतली सुरंग बावली, तालाब या ऐसे ही किसी खुलासे जलाशय में जाकर समाप्त हुई है जिसके ऊपर चमकने वाले आसमान की रोशनी पानी के अन्दर से इस तरह झलक मार रही है। वे पुनः पीछे लौट आए, अपने कपड़ों के अन्दर तिलिस्मी किताब जहाँ तक सावधानी से हो सका कसकर लपेट के रक्खी और तब बाकी सामानों को रख एक गठरी बाँध कमर में लगाई, तिलिस्मी डण्डा हाथ में लिया और भगवान का नाम ले फिर पानी में उतरे। खूब गहरा दम लेकर गोता लगाया और अगल-बगल की दीवारों का सहारा लेते हुए जहाँ तक तेजी के साथ बन पड़ा आगे की तरफ बढ़े।

फासला जितना कि प्रभाकरसिंह ने अन्दाज किया उससे कहीं ज्यादा निकला और यद्यपि वे अच्छे तैराक थे और एक साँस में नदी पार करने का कई दफे उनको मौका मिल चुका था पर इस तंग और अनजानी जगह में उनका दम उखड़ने की नौबत आ गई, यहाँ तक कि जिस समय इस सुरंग को उन्होंने तय किया और उनका दम एकदम टूट चुका था। फटते हुए कलेजे के साथ वे पानी के ऊपर आए और तब आधी बदहवासी की हालत में कुछ देर के लिए सुस्त पड़ गए।

कुछ देर बाद उनके होश हवाश ठिकाने आए और उन्होंने अपने चारों तरफ निगाह डाली। काले संगमर्मर से बनी हुई एक बावली के किनारे सीढ़ी पर उन्होंने अपने को पाया जो किसी बगीचे या मैदान के बीच में बनी हुई मालूम होती थी और जिसके चारों तरफ बनी इमारत का कुछ हिस्सा यहां से उन्हें नजर आ रहा था। प्रभाकरसिंह कुछ गौर के साथ उन इमारतों की तरफ देख ही रहे थे जो उन्हें कुछ पहिचानी हुई सी जान पड़ती थीं कि यकायक अपने पास ही में जल में किसी तरह की खलबलाहट की आवाज सुन चौंके और उधर देखते ही घबरा कर जल्दी-जल्दी कई सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ गए। दो घड़ियालों पर उनकी निगाह पड़ी जिनके भयानक मुँह और बहुत बड़े-बड़े दाँत डर पैदा करते थे और जो अपनी काँटेदार दुम से पानी को मथते और क्रूर हरी आँखों से उनकी तरफ देखते हुए धीरे-धीरे बड़े आ रहे थे दो–तीन सीढ़ियाँ और ऊपर उठ कर उन्होंने अपने को उन डरावने जानवरों की पहुँच से एकदम बाहर कर लिया और तब कुछ देर उनकी तरफ गौर से देखते रहने के बाद धीरे से यह कहते हुए बावली के बाहर हुए—‘‘क्या ये असली जानवर हैं या नकली?’’

बावली के बाहर निकल कर जब प्रभाकरसिंह ने अपने चारों तरफ निगाह की तो उन्हें मालूम हुआ कि वे एक छोटे से बाग में हैं जिसे चारों तरफ से तरह-तरह की ऐसी इमारतों ने घेरा हुआ है जिनमें से कई उनकी पहले की देखी हुई हैं। उस पहले स्थान अर्थात् ‘भूतनाथ’ वाले आँगन से जो इमारतें उन्हें अपने दाहिनी तरफ दिखाई दी थीं वे ही इस समय उनके बाईं तरफ मौजूद थीं और इससे उन्होंने गुमान किया कि उस पानी वाली सुरंग के जरिए वे उन इमारतों के नीचे से होते हुए इस दूसरी तरफ आ गए हैं और इसी बात से उन्होंने यह भी समझ लिया कि ये इमारतें लम्बाई में चाहे जहाँ तक भी फैली हुई हों पर इनकी चौड़ाई या मोटाई बहुत अधिक नहीं है।

इस बाग में बड़े पेड़ तो अधिक न थे पर छोटे मेवों के दरख्त बहुतायत से थे और वे एक नहर की मदद से जो बाग के बीच में से होती हुई बह रही थी हर दम हरे-भरे रहते थे। उन्होंने अपने कपड़े इन पेड़ों पर सूखने को डाल दिए और तब जरूरी कामों से निपट तथा उसी नहर के पानी से स्नान कर सन्ध्या-पूजा आदि से छुट्टी पाई, इसके बाद कुछ मेवा खाया और सब तरह से निश्चिन्त हो तिलिस्म तोड़ने के काम में लगे क्योंकि तिलिस्मी किताब ने उन्हें बता दिया था कि अब आगे उन्हें इन बातों की सुविधा न मिलेगी और तिलिस्म का यह हिस्सा तोड़ने में कई पहर लग सकते हैं।

अपने कपड़े पहिन तिलिस्मी किताब कमर में खोंस और तिलिस्मी डंडा हाथ में ले प्रभाकरसिंह उस बाग के चारों तरफ घूमने लगे। उनका लक्ष्य वे इमारतें या दीवारें थीं जिन्होंने चारों तरफ से बाग को घेरा हुआ था और उन्हीं पर गौर की निगाह डालते हुए वे अपने मतलब की चीज खोज रहे थे। आखिर घूमते-फिरते वे एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ से लगभग दो पुरसा की ऊँचाई तक की दीवार तो एकदम साफ थी पर उसके ऊपर की तरफ एक बड़ी बारहदरी बनी हुई दिखाई पड़ रही थी। इस जगह की दीवार को बहुत गौर के साथ देखने पर उन्हें एक स्थान पर एक चौकोर निशान इस ढंग का दिखाई पड़ा जिससे यह गुमान किया जा सकता था कि शायद यहाँ कोई गुप्त दरवाजा या खिड़की है।

प्रभाकरसिंह गौर के साथ उस निशान को देखने लगे और साथ ही इस बात को जानने का भी उद्योग करने लगे कि किस प्रकार यहाँ पर रास्ता पैदा किया जा सकता है। बहुत ही बारीक एक दरार चारों तरफ घूमी हुई किसी रास्ते के उस जगह होने का शक जरूर पैदा कर रही थी पर इससे ज्यादा और कुछ न था। प्रभाकरसिंह उस स्थान को दबाने, ठोंकने, पीटने और जाँचने लगे पर किसी तरह भी यह पता न लगा कि यहाँ पर रास्ता कैसे पैदा किया जा सकेगा।आखिर उस जगह से कुछ पीछे हट कर वे पुनः गौर करने लगे। उस बाग के नीचे की तरफ का जमीन का एक छोटा सा हिस्सा उन्हें कुछ उभरा-सा दिखाई पड़ा, मानों उसके नीचे कोई चीज गड़ी हुई हो। प्रभाकरसिंह उस जगह को खोदने लगे। कुछ मेहनत के बाद वहाँ एक छोटा-सा गढ़ा हो गया जिसके नीचे की तरफ पत्थर की एक सिल्ली, जिसमें कड़ी लगी हुई थी दिखाई पड़ी। गड़हे को और बड़ा कर प्रभाकरसिंह ने उस सिल्ली को बाहर किया। उसके नीचे पत्थर का एक चौकोर टांका सा नजर आया जिसकी तह में कोई चीज दिखाई पड़ रही थी। गौर से देखने के बाद हाथ डाल कर उसको निकाला। किसी तरह के सुफेद पत्थर की एक बालिश्त लम्बी और इससे कुछ कम चौड़ी एक तख्ती थी जिस पर बारीक अक्षरों में कोई मजमून लिखा हुआ था।

प्रभाकरसिंह उस मजमून पर गौर करने लगे, आखिर कुछ देर की मेहनत में उन्होंने उसका मतलब निकाल ही लिया। पाठकों का कौतूहल दूर करने के लिए हम वह मजमून यहाँ लिखे देते हैं

दीरर

वासाक रतर

पबाबा ररह जोकर

निसखीं शाकच नरलो दिठोऔ

खाकोर ईतघ पबड़ि ड़पया ताल्लेलों

हैकीको उतखि सरला केहओ

ऊऊबा पपव ररली

के उमें दाठा से

हिओजो

नेसकु

कोबछ नेशमि

कोरीले एरउ कभीसे

बातउ ररठा बामक एंतर

कोडाय नेलहाँ कोनाला चासाओ रमऔ

बानेर रजोइ नीकुसी चेछके

केदिअं कोखाद नोंईर

कोपड़ा दोड़ेल

औजोदो

प्रभाकरसिंह ने वह तख्ती वहीं छोड़ दी और पुनः दीवार के पास पहुँचे, अपने हाथ में तिलिस्मी डण्डे से किसी खास क्रम के साथ उन्होंने उस चौकोर निशान के चारों कोनों को ठोंकना शुरू किया।

कुछ ही देर बाद एक खटके की आवाज हुई तब कुछ जोर लगाते ही वहाँ का उतना टुकड़ा चूहेदानी के पल्ले की तरह नीचे से पीछे ऊपर की तरफ उठ गया और हाथ-डेढ़ हाथ लम्बा चौड़ा एक रास्ता दिखाई देने लगा। जमीन पर लेट कर प्रभाकरसिंह ने अपना अगला धड़ उस छेद में डाल दिया और भीतर की तरफ देखने लगे। एक बहुत लम्बी कोठरी दिखाई पड़ी जिसके पिछले हिस्से में क्या था यह अंधकार के कारण नजर न आता था क्योंकि वहाँ जो कुछ रोशनी थी वह उसी छेद की थी जिसकी राह प्रभाकरसिंह अपना धड़ अन्दर दिए हुए थे पर सामने की तरफ जमीन पर एक औरत की लाश पड़ी जरूर दिखाई दी जिसकी छाती में एक छुरा घुसा हुआ था ।यकायक एक ऐसी चीज जिसके देखने की भी उम्मीद न हो सकती थी अपने सामने पा प्रभाकरसिंह घबड़ा गए पर फिर कुछ सोच-विचार कर उन्होंने हिम्मत की और लाश को खींच कर बाहर निकाला।

बाहर निकाल कर जब गौर से देखा तब मालूम हुआ कि वह लाश एकदम बनावटी है। उसका सिर मोम का और नखशिख से दुरुस्त था और समूचा बदन किसी तरह के ऐसे पदार्थ का बना हुआ था जो चमड़े और माँस की तरह दिखाई देता हुआ भी वास्तव में कुछ और ही वस्तु था। कुछ देर तक वे गौर से उसकी बनावट और कारीगरी को देखते रहे इसके बाद उसे उठा लिया और उसी बावली के पास पहुँचे जहाँ से इस बाग में आये थे। घाट की सीढ़ियाँ उतरते हुए जल के पास पहुँचे और सीढ़ी पर लाश रख घड़ियालों की राह देखने लगे। कुछ ही देर बाद वे दोनों जानवर पुनः तैरते हुए आते नजर आए। प्रभाकरसिंह ने वह लाश उठाकर पानी में डाल दी और आश्चर्य के साथ देखा कि लाश को देखते ही ये उस पर झपटे और अपने खौफनाक दाँतों से उसे पकड़ कर पानी के नीचे ले गए।

इस बात को घड़ी भर से ऊपर न बीता होगा कि यकायक वे दोनों जानवर पुनः जल के ऊपर दिखाई पड़े पर इस बार वे दोनों बड़ी बेचैनी और घबड़ाहट के साथ इधर-उधर भाग रहे थे और ऐसा जान पड़ता था मानों किसी तरह की गहरी तकलीफ में हैं, कभी नीचे जाते कभी ऊपर आते, कभी पानी के अन्दर से बाहर मुँह निकाल कर हाँफते और कभी पुनः गोता लगाते हुए उन लोगों ने समूची बावली छान डाली और तब एकाएक एक आखिरी तड़प दिखला कर सुस्त पड़ गए। उनका पेट ऊपर की तरफ हो गया और वे उल्टे होकर इस तरह तैरने लगे जैसे मरी हुई मछलियाँ जल पर तैरती हैं, पर यह अवस्था भी उनकी देर तक न रही। कुछ देर बाद बड़े जोर की आवाज के साथ उनके पेट फट गए और वे पुनः पानी में डूब गए।

मुरदा घड़ियालों का डूबना था कि बावली के पानी में एक तरह की खलबलाहट शुरू हुई और उसका जल तेजी से इस तरह कम होने लगा मानों तह के किसी छेद की राह कहीं निकला जा रहा हो। लगभग घड़ी भर के अन्दर ही आधे से ऊपर पानी कम हो गया। बाकी पानी भी जल्दी ही सूख गया और तह में सिर्फ कुछ कीचड़ रह गया। अब प्रभाकरसिंह आगे बढ़े और बाकी की सीढ़ियाँ तय कर नीचे पहुँचे। दोनों घड़ियाल जिनके पेट फूट की तरह फटे हुए थे आधे कीचड़ से दबे दिख रहे थे और उनके पास ही कोई चमकती हुई चीज नजर आ रही थी जो करीब हाथ भर के पेट में होगी। प्रभाकरसिंह ने आगे बढ़कर उस चीज को उठाना चाहा पर हाथ लगाने के साथ ही उनके बदन में ऐसा कड़ा झटका लगा कि वे बदहवाश हो गए और लौट आकर पुनः सीढ़ी पर बैठ बल्कि गिर गए, उस समय झटके ने उनके शरीर का पोर-पोर हिला दिया था और ऐसा मालूम हो रहा था मानों उनके बदन पर बिजली गिर पड़ी हो।

कुछ देर बाद अपने होशहवास सम्हाल वे फिर उठे और उस चीज से कुछ दूर ही खड़े हो कर उसे गौर से देखने लगे। वह मोटे दलदार शीशे का एक छोटा सन्दूक था जो न-जाने किस कारण ऐसा चमक रहा था कि उस पर निगाह नहीं ठहरती थी। पहिली दफे जब प्रभाकरसिंह उसके पास गए थे तो इस चमक पर उनका ध्यान न गया था, यह भी सम्भव है कि पहले वह चमक न रही हो और अब चमक पैदा हुई हो, और शीघ्र ही मालूम हो गया कि वास्तव में यही बात थी। बावली का पानी ज्यों-ज्यों कम होता जा रहा था उस बक्स की चमक भी बढ़ती जा रही थी। प्रभाकरसिंह को यह विश्वास था कि इसी चीज को उठाकर उस जगह ले जाने के बारे में तिलिस्मी मजमून ने उनको आज्ञा दी है पर इसे उठावें तो कैसे? इसका तो छूना तक भी गजब करता है, आखिर सोचते-विचारते उन्हें एक बात ख्याल आई। पहली दफे जब वे उसके पास गए थे तो अपना तिलिस्मी डंडा बाहर सीढ़ी पर ही छोड़ गए थे शायद पास में उसके न रहने से ही ऐसा हुआ हो यह सोच वे उसे उठा लाए और पुनः धीरे से उस चीज को हाथ लगाया। इस बार भी कुछ झटका तो उन्हें अवश्य लगा पर वह ऐसा न था कि बर्दाश्त के बाहर हो—यद्यपि कुछ तकलीफ जरूर हुई पर वे उस बक्स को उठा सीढ़ियाँ चढ़ते बावली के ऊपर हो गए। वह बक्स यद्यपि छोटा पर बड़ा ही भारी था यहाँ तक कि नीचे-ऊपर तक जाने में ही वे हाँफने लग गए, पर जरा सुस्ता कर फिर उन्होंने उसे उठाया और जल्दी-जल्दी चल कर उसी जगह पहुँचे जहाँ पहिले गए थे, पहिली तर्कीब से पुनः वह छेद प्रकट किया और तब जोर लगा कर उस शीशे के बक्स को उसके अन्दर फेंक दिया।

बक्स का अन्दर डालना था कि दीवार के दूसरी तरफ से तरह-तरह की आवाजें इस प्रकार की आने लगीं मानों बहुत-से कल-पुरजे तेजी के साथ चलने लग गए हों जिनके गूँजने की आवाज बाहर तक आ रही थी। यह आवाज तेजी के साथ बढ़ने लगी यहाँ तक कि प्रभाकरसिंह को दीवार पर उनकी कंपकपी मालूम होने लगी और थोड़ी देर के बाद तो ऐसा जान पड़ने लगा मानों वह दीवार काँप रही हो। यह हाल देख प्रभाकरसिंह वहाँ से हटकर कुछ दूर पर जा खड़े हुए, अपनी निगाह उस दीवार की तरफ ही रक्खी।

यकायक दीवार ने एक तरह की लहर-सी खाई और तब उसका वह हिस्सा जो प्रभाकरसिंह के सामने पड़ता था जोर से काँप कर गिर गया, यदि वे होशियारी कर के पहले ही दूर न हट गए होते तो इसमें शक न था कि दीवार के नीचे दब कर चुटीले हो गए होते।

मगर यह क्या प्रभाकरसिंह की आँखों का भ्रम है या कोई तिलिस्मी खेल? उनके सामने यह क्या माजरा दिखाई पड़ रहा है? वह कौन औरत है जो सामने के खम्भे के साथ बँधी हुई है! क्या मालती है? नहीं नहीं, मालती की यह दुर्दशा भला क्योंकर हो सकती है? तब और कोई है? नहीं-नहीं, मालती ही है, जरूर मालती है! और ये दोनों कौन हैं और क्या कर रहे हैं? हैं, ये तो तलवार हाथ में लिए हैं और किसी की जान लिया चाहते हैं! हैं, ये तो मालती की गर्दन मारना चाहते हैं! उनके मुँह से बरबस निकल पड़ा, ‘‘ठहर तो जाओ कम्बख्तों, जरा मुझे आ तो जाने दो!!’’

तड़प कर प्रभाकरसिंह उस टूटी दीवार के अन्दर झपटे पर अफसोस, दो-तीन कदम से ज्यादा न जा सके। लोहे की तरह मजबूत कई हाथों ने उनको दोनों तरफ से पकड़ लिया और साथ ही कहीं से यह आवाज आई, ‘‘अच्छे मौके पर यह भी आ गया।

इन्हीं दोनों ने समूचे तिलिस्म में तहलका मचा रक्खा था। अब इसे भी साथ ही में बलि दे दो और हमेशा के लिए सब झंझट मिटा डालो!’’

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