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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


खास बाग के अपने सोने वाले कमरे में कुंअर गोपालसिंह अभी-अभी सो कर उठे हैं और खिड़की की राह आने वाली मन्द-मन्द हवा के झोंके का आनन्द ले रहे हैं।

परन्तु यकायक वे चिहुँक पड़े। पहिले तो अधलेटे-से तकिए के सहारे पड़े थे, पर अब उठकर बैठ गए और गौर से खिड़की की राह नीचे बाग की तरफ देखने लगे। मगर इतने पर भी मन न माना, कुछ आगे को झुके और खिड़की में से झाँक कर नीचे देखने बाद आप से आपही बोल उठे, ‘‘बेशक वही है!’’

पर वे चमक पड़े जब किसी ने पीछे से उनकी बात के जवाब में पूछा, ‘‘कौन वही है?’’

उनके सोने वाले कमरे में इस तरह बिना इत्तिला इस वक्त आने वाला कौन है जिसने यह बात कही? चौंककर गोपालसिंह ने गर्दन घुमाकर पीछे देखा और साथ ही इन्द्रदेव को एक काला लबादा ओढ़े पलंग के पैताने खड़े पा आश्चर्य से बोल उठे, ‘‘हैं, आप इस वक्त यहाँ?’’

इन्द्रदेव ने लबादा उतार कर पलंग के पैताने की एक संगमर्मर की चौकी पर रख दिया और तब सामने आकर कहा, ‘‘एक बड़े ही जरूरी काम से ऐसे बेमौके पर आपसे मिलने आना पड़ा। वह तो कहिए आपके दिए निशान की बदौलत बेरोक-टोक यहाँ तक आ पहुँचा नहीं तो न जाने कितनी देर रुकना पड़ता!’’

गोपालसिंह ने पलंग से उतरते हुए पूछा, ‘‘ऐसा जरूरी काम क्या निकल आया जिसने ऐसे बेवक्त आपको यहाँ आने पर मजबूर किया? मगर आपकी सूरत देखने से मालूम होता है कि आप रात-भर के जगे हुए हैं और साथ ही कहीं दूर का सफर करते हुए भी आ रहे हैं।’’

इन्द्रदेव ने कहा, ‘‘हाँ आपके दोनों ही अनुमान सही हैं और मैं अभी बताऊँगा कि वह काम क्या है पर आप पहिले यह बतलाइए कि नीचे बाग में किसको इतने गौर से देख रहे थे कि मेरे आने की आहट तक आपको न मिली?’’

गोपालसिंह ने यह सुनते ही चौंककर कहा, ‘‘हाँ, यह भी एक ताज्जुब की बात है! (पुनः खिड़की के पास जाकर और नीचे बाग में देख कर) नहीं है, कहीं चली गई!’’

इन्द्रदेव : (खिड़की के पास पहुँचकर) क्या कोई औरत थी? कौन थी वह?

गोपाल ०: आपको याद होगा कि कुछ दिन हुए इसी तरह सुबह के वक्त मैंने नीचे बाग में एक औरत को घूमते हुए देखा था और जब उसका पीछा किया तो उसको तीसरे दर्जे में पाया, पर वह वहाँ से भी गायब हो गई फिर कहीं नजर न आई!

इन्द्र० : हाँ-हाँ, मुझे बखूबी याद है। उस घटना के बाद ही एक लौंडी को हम लोगों ने बातें सुनते पकड़ा था और बहुत कुछ तकलीफ उठाने पर भी उसने कुछ न बताया कि वह क्यों ऐसा कर रही थी। (१. देखिए भूतनाथ तेरहवाँ भाग, पहिला बयान।)

गोपाल० : हाँ-हाँ, वही औरत आज फिर नीचे घूमती-फिरती दिखाई पड़ी, मगर आपके आने के साथ कहीं गायब हो गई।

इन्द्र० : अच्छा, आश्चर्य की बात है! लेकिन क्या वह उस दिन के बाद फिर आज ही दिखाई पड़ी! इस बीच में कहीं एक दफे भी दिखाई नहीं दी?

गोपाल० : नहीं, बिल्कुल नहीं।

इन्द्र० : (चिन्ता के साथ) न-जाने कौन बला है! खास बाग के अन्दर इस तरह किसी का मनमाने आना-जाना बड़े ताज्जुब और साथ ही तरद्दुद की बात है!

गोपाल० : इसमें क्या शक है, कहीं यह भी उसी गुप्त कुमेटी की कोई कार्रवाई तो नहीं है!

इन्द्रदेव : (सोचते हुए) हो सकता है, खैर देखा जाएगा।

गोपाल० : (चौंक कर) देखिए-देखिए, फिर वह दिखलाई पड़ी!

इन्द्रदेव ने खिड़की में से देखा। एक कमसिन औरत नीचे के बाग में रविशों पर चहलकदमी कर रही थी। एक सायत के लिए उसकी निगाह ऊपर उस खिड़की की तरफ उठी जिसमें से ये दोनों देख रहे थे और तब तुरत ही न-जाने क्यों जरा चिहुँक वह पीछे की ओर हटी और चमेली की झाड़ियों में जा निगाह को ओट हो गई इसके साथ ही गोपालसिंह से यह कह झपटते हुए इन्द्रदेव कमरे के बाहर हुए—‘‘आप यहाँ ठहरिए, मैं उसका पीछा करता हूँ।’’

गोपालसिंह एक कुरसी खिड़की के पास खींच उस पर बैठ गए और नीचे का हाल देखने लगे। अभी सूर्योदय होने में बहुत विलम्ब था और इसी कारण बाग में कोई चलता-फिरता नजर नहीं आता था। गोपालसिंह ने देखा कि इन्द्रदेव छिपते हुए उन्हीं चमेली की झाड़ियों की तरफ बढ़े और एक जगह रुक कुछ आहट लेने बाद उन्हीं झाड़ियों के अन्दर जा कहीं गायब हो गए।

आधे घण्टे से ऊपर समय तक इन्द्रदेव गायब रहे और तब तक गोपालसिंह भी अपनी जगह से न टले। आखिर उन्हीं टट्टियों के आड़ से निकलते हुए इन्द्रदेव को उन्होंने देखा पर वे अकेले थे जिससे यह समझ गए कि वह औरत इन्द्रदेव के हाथ न लगी। बीच का रास्ता तय कर जैसे ही इन्द्रदेव ने कमरे में पैर रक्खा वैसे ही गोपालसिंह ने पूछा—‘‘मालूम होता है वह आपके हाथ नहीं लगी!’’

परेशानी की मुद्रा से इन्द्रदेव एक कुर्सी पर बैठ गए और बोले, ‘‘हाँ ऐसी है बात है, उसका पीछा करता हुआ मैं बहुत दूर तक चला गया पर वह गायब हो ही गई। न-मालूम वह कौन थी या किस मतलब से यहाँ घूम रही थी, पर इसमें कोई शक नहीं कि उसे तिलिस्म का हाल बहुत कुछ मालूम है।’’

गोपाल० : तो क्या वह तिलिस्म के अन्दर चली गई?

इन्द्र० : हाँ मगर साथ ही एक ताज्जुब की चीज मेरे लिए छोड़ गई?

गोपाल० : वह क्या?

इन्द्रदेव ने एक छोटा-सा कागज का टुकड़ा निकालकर गोपालसिंह के सामने रख दिया और कहा, ‘‘जहाँ से वह आखिरी दफे मेरी आँखों की ओट हुई वहाँ यह कागज का टुकड़ा पड़ा हुआ मिला जिसे शायद वह मेरे ही लिए छोड़ गई थी।’’

गोपालसिंह ने वह कागज का टुकड़ा उठा कर पढ़ा। किसी बहुत ही हलकी स्याही से जो शायद किसी पौधे का रस भी हो सकता था लिखा हुआ था—

‘‘मुझे दुश्मनों ने चक्रव्यूह में बन्द कर रक्खा है। क्या कोई दयालु वह तिलिस्म खोलकर मुझे छुड़ावे और मेरे माँ-बाप के पास पहुँचावेगा? मैं अकेले ही वहाँ बन्द नहीं हूँ बल्कि मेरी तरह और भी कई दुखिया वहाँ बन्द मुसीबत की घड़ियाँ काट रहे हैं।’’

बड़े ताज्जुब के साथ गोपालसिंह यह मजमून पढ़ गए और तब देर तक कुछ गौर करते रहे। यकायक वे उठे और एक आलमारी खोल उसमें से कोई चीज निकाल लाये। इन्द्रदेव ने देखा कि वह भी कागज का एक छोटा-सा टुकड़ा है।

गोपालसिंह के कहने से उन्होंने उसे पढ़ा, उसी तरह की फीकी रोशनाई से उस कागज पर यह लिखा हुआ था—‘‘मैं चक्रव्यूह में कैद हूँ।’’ पढ़कर इन्द्रदेव ने गोपालसिंह की तरफ देखा जिन्होंने कहा, ‘‘आपको याद होगा कि पिछली मर्तबा जब वह मुझे देखकर गायब हुई तो यह पुर्जा मिला था, पर उस समय मैं यह निश्चय नहीं कर सका था कि यह वास्तव में उसी की चीठी है या किसी दूसरी घटना का सूत्रपात है, पर आपका यह पुर्जा विश्वास दिलाता है कि यह भी उसी का लिखा हुआ है जिसकी यह पहिली चीठी थी।’’

इन्द्रदेव ने दोनों चीठियों के अक्षर मिलाकर कहा, ‘‘दोनों के अक्षर एक ही से हैं। बेशक ये दोनों मजमून एक हाथ के लिख हुए हैं!’’

गोपाल० : तब इससे क्या समझा जाय?

इन्द्र० : क्या बताऊँ, मेरी अक्ल तो आप हैरान है, अगर लिखने वाले का कहना सही है तो वह जरूर ऐसी जगह बन्द है जहाँ से बढ़कर भयानक स्थान तिलिस्म भर में कोई न होगा और जहाँ से किसी को खोज निकालना या उसे छुड़ा लाना भी कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है। फिर अगर वह बन्द ही है तो बार-बार इस तरह स्वतन्त्रता के साथ घूमती-फिरती हम लोगों को क्यों दिखाई देती है? अगर यह कहा जाय कि यहाँ तक आने की उसे स्वतन्त्रता है तो वह तिलिस्म में कैद किस तरह मानी जा सकती है, और ऐसी हालत में फिर उसका लिखना गलत साबित होता है।

गोपाल० : बेशक ऐसा ही है और फिर अगर उसका कहना सही भी मान लिया जाय तो उसका छुड़ाना भी तो कोई मामूली बात नहीं है। चक्रव्यूह का तिलिस्म कोई ऐसा तिलिस्म नहीं है कि जब चाहे उसके अन्दर चला जाय और उसमें फँसे हुए किसी व्यक्ति को छुड़ा लावे बल्कि मैं तो समझता हूँ कि बिना उस तिलिस्म को तोड़े यह काम हो ही नहीं सकता।

इन्द्र० : कदापि नहीं, बिना तिलिस्म टूटे उसके अन्दर से कोई कैदी किसी तरह नहीं निकाला जा सकता और तिलिस्म टूटना कोई खिलवाड़ नहीं तिस पर चक्रव्यूह का!

गोपाल० : मैने चाचाजी (भैयाराजा) की जुबानी सुना था कि चक्रव्यूह ऐसा भयानक तिलिस्म है कि तिलिस्म का राजा भी अगर वहाँ के चक्कर में पड़ जाय तो कुछ कर नहीं सकता। मगर वे यह भी कहते थे कि उसके अन्दर ऐसी-ऐसी अनूठी चीजें हैं कि देख कर अचम्भा होता है पर बिना तिलिस्म तोड़े वे किसी को मिल नहीं सकतीं। उनका यह भी कहना था कि उस तिलिस्म के चक्कर में जो कोई फँस जाय वह बिना तिलिस्म टूटे किसी तरह भी बाहर निकल नहीं सकता।

इन्द्र० : बहुत ठीक बात है, जहाँ तक मुझे पता है उसके ऐसा भयानक तिलिस्म कोई दूसरा नहीं है।

गोपाल० : मैंने उनसे एक बार जिद्द की थी कि उसके अन्दर ले चल कर मुझे वहाँ की सैर करा दें जिस पर वे बोले कि उसका भेद बताने वाली एक तिलिस्मी किताब है, जब तक वह हाथ में न हो कोई उसके अन्दर जा नहीं सकता। अगर जाने की कोशिश करेगा तो फँस जायगा और अपनी जिन्दगी से हाथ धोएगा।

इन्द्र० : (कौतूहल के साथ) आपने उनसे पूछा नहीं कि वह किताब कहाँ है या कैसे मिल सकती है?

गोपाल० : पूछा, पर उन्होंने कहा कि मुझे मालूम नहीं, हाँ, बड़ों से सुनने में आया है कि किसी बहुत ही गुप्त जगह पर छिपा कर रक्खी हुई है और तभी प्रकट होगी जब उस तिलिस्म की उम्र समाप्त होने को आवेगी। अब मालूम नहीं कि वे सही कहते थे या बहाना करके सिर्फ टाल देने की नीयत से उन्होंने यह बात कही थी।

इन्द्र० : नहीं-नहीं, उन्होंने बहुत सही कहा था, एक बार बड़े महाराज से बातें होने पर उन्होंने मुझसे यही बात कही थी!

गोपाल० : खैर जाने दीजिए इस विषय को, अब यह बताइए कि आप इतनी सुबह किस जरूरी काम से आए थे?

इन्द्र० : हाँ मैं भी यही बताया चाहता हूँ, क्योंकि अब तक मुझे यहाँ से चले जाना चाहिए था, मैं इस वक्त दो कामों से आया था।

गोपाल० : कौन-कौन?

इन्द्र० : (एक लम्बा कागज उनके आगे रख कर) पहिला काम यह है।

गोपाल० :(कागज उठा कर पढ़ते हुए ताज्जुब के साथ) ये नाम किनके हैं?

इन्द्र० : यह उस गुप्त कमेटी के बचे हुए मेम्बरों के नामों की फेहरिस्त है, जिन लोगों का नाम मैं पहिले आपको बता चुका हूँ उनके इलावे ये इतने लोग उस कमेटी से सम्बन्ध रखने वाले और हैं और अगर ये गिरफ्तार कर लिए जाएँ तो बस वह कमेटी टूट जायेगी!

गोपाल० : (खुश होकर) वाह-वाह, यह तो बड़ी अच्छी चीज आप लाये! (नामों को पढ़ते हुए रुक कर) मगर यह मैं किसके नाम इसमें देख रहा हूँ—रामनाथ मिश्र, श्रीनिवासदास, गोविन्दसिंह, रघुनन्दन शुक्ल, गोकुल, छोटे, शारदा क्या आपका कहना है कि ये सभी उस गुप्त कमेटी के सदस्य हैं जिसने मेरे पिता की जान ली है?

इन्द्र० : जी हाँ।

गोपाल० : (पुनः सूची पढ़ते हुए) ताज्जुब की बात है! मुरलीधर ओझा, रामदहिन शर्मा, प्यारेलाल—क्या सचमुच ये लोग भी उस कमेटी में शामिल हैं या आपको किसी तरह का धोखा हुआ है?

इन्द्र० : (हँसकर) मुझे किसी तरह का धोखा नहीं हुआ है और ये सब लोग निश्चित रूप से उस कम्बख्त कमेटी के मेम्बर हैं। आप बेखटके इन लोगों को गिरफ्तार कीजिए और सजा दीजिए। ये नाम मुझे ऐसे जरिये से मालूम हुए हैं कि इनके सही होने में किसी तरह का शक हो ही नहीं सकता।

गोपाल० : इस बात का क्या मतलब? क्या आपको ये नाम किसी दूसरे से से मिले हैं? क्या आपने स्वयम् इनका पता नहीं लगाया है? तब तो माफ कीजिएगा जरूर इनमें कोई-न-कोई गलती हुई है, क्योंकि मैं मान नहीं सकता कि ये ऐसे-ऐसे लोग जिनके हवाले मैं बेफिक्री से अपनी जान कर सकता हूँ उस कमेटी के मेम्बर होंगे।

इन्द्र : (हँस कर) आपको मेरे काम में किसी तरह का भी शक करने की जरूरत नहीं है। यह फिहरिस्त खास उस कमेटी के मन्त्री द्वारा बनाई गई थी और इसकी सच्चाई पर किसी तरह का शक नहीं किया जा सकता।

गोपाल० : (और भी आश्चर्य के साथ) सभा के मंत्री द्वारा बनाई गई! वह मन्त्री कौन है और आपको पता क्योंकर लगा?

इन्द्र० : उस समय के मन्त्री मेरे ससुर ही थे और यह सूची उन्हीं की बनाई है।

गोपाल० : आपके ससुर यानी दामोदरसिंह! क्या वे उस सभा के मन्त्री थे? नहीं-नहीं, यह जरूर आप कोई दिल्लगी कर रहे हैं!

इन्द्र० : (हँस कर) नहीं, मैं दिल्लगी नहीं कर रहा हूँ, बहुत सही कह रहा हूँ।

मेरे ससुर उस कमेटी के मन्त्री थे। पहिले-पहल वह सभा इसलिए बनी थी कि राज्य के साथ भलाई करें और इसीलिए मेरे ससुर ने उसमें भाग भी लिया था, पर जब इसका ढंग बदलने लगा और उसने राज्य के साथ दुश्मनी करना शुरू किया तो वे उसका साथ छोड़ने को तैयार हुए पर दुश्मनी के डर से खुल्लमखुल्ला ऐसा न कर सके और मौके का इन्तजार करने लगे। उन्होंने उस कमेटी के सम्बन्ध के सब कागजात तथा सदस्यों के नाम उसकी सब कार्रवाईयों का एक कच्चा चिट्ठा तैयार किया और वह सब सामान एक विश्वासी आदमी के सुपुर्द कर दिया कि वक्त पर काम आये, पर दुश्मनों को इस कार्रवाई का पता लग गया और इसी से उनकी वह गति हुई। मेरे एक दोस्त ने अभी हाल ही में उन चीजों का पता लगाया और तभी मुझे भी ये बातें मालूम हुईं।

गोपाल० : वह कौन-सा दोस्त है?

इन्द्र० : गदाधरसिंह ऐयार!

गोपाल : गदाधरसिंह!

इन्द्र० : जी हाँ, अच्छा सुनिये मैं आपको सब हाल सुनाता हूँ क्योंकि बिना पूरा हाल सुने आपका सन्देह दूर न होगा, पर इन बातों को बहुत गुप्त रखियेगा, किसी के आगे कदापि जाहिर न होने दीजिएगा।

संक्षेप में और थोड़ा-बहुत घटा-बढ़ाकर इन्द्रदेव ने पिछला वह सब हाल उस कलमदान के सम्बन्ध में जिसमें दामोदरसिंह ने सभा के कागजात बन्द किए थे गोपालसिंह से कह सुनाया जो हम ऊपर के बयानों में लिख आये हैं, पर न-जाने क्यों दारोगा का नाम इस सम्बन्ध में न आने दिया। या तो उसकी दोस्ती का पास किया हो या भूतनाथ के साथ किए हुए अपने वादे का खयाल कर गए हों। गोपालसिंह बड़े ताज्जुब के साथ सब किस्सा सुनते रहे और जब वे समाप्त कर चुके तो बोले, ‘‘यह तो आपने बड़े ताज्जुब की बात सुनाई, आपका गदाधरसिंह तो सचमुच गजब का ऐयार जान पड़ता है!’’

इन्द्र० : इसमें क्या शक है, वह अगर जरा ऐयाश और लालची न होता तो कमाल का आदमी था। खैर इससे अब इतना तो आपको विश्वास हो ही गया होगा कि वे सब आदमी जिनके नाम आपके सामने हैं उस सभा के सदस्य हैं।

गोपाल : हाँ अब इस फिहरिस्त के सही होने में क्या शक हो सकता है! मैं आज ही इन शैतानों को इनकी करनी का फल चखाऊँगा। मगर जरा सोचिए तो सही कि कैसे-कैसे लोग इस काम में शामिल थे? क्या कभी इस बात का शक भी हो सकता था कि इस तरह के लोग मेरे साथ दुश्मनी कर रहे होंगे!

इन्द्र० : ऐसे लोगों के हाथ में कमेटी होने के सबब से ही तो उसका भण्डा नहीं फूटता था, जिसको आप इस काम के लिए मुकर्रर करते थे कि उसका भेद लें वे खुद ही उसके सदस्य होते थे, फिर पता चलता तो क्योंकर!

गोपाल० : यही बात है, खैर यह तो आज एक बड़ा भारी काम हो गया, अच्छा अब वह दूसरा काम बताइए जिसके लिए आपका आना हुआ, क्योंकि आपने कहा था कि दो कारणों से आप इस वक्त आये थे?

इन्द्र० : हाँ ठीक है, वह दूसरी बात यह है कि—मगर ठहरिए, आपने अपनी शादी के बारे में क्या निश्चय किया?

गोपाल ० : खास तौर पर तो कुछ भी नहीं, क्यों?

इन्द्र० : बलभद्रसिंह का एक पत्र मेरे पास आया है। उनके ऊपर जो कुछ मुसीबतें आईं उनका हाल तो आपने सुना ही होगा।

गोपाल० : हाँ मैंने बहुत अफसोस के साथ सुना कि उनका लड़का जाता रहा।

इन्द्र० : केवल लड़का ही नहीं उनकी स्त्री का भी इन्तकाल हो गया।

गोपाल० : (चौंककर, अफसोस के साथ) यह कब की बात है? मैंने नहीं सुना!

इन्द्र० : परसों ही की तो। बस लड़के के जाने के दो ही तीन पहर बाद अफसोस और गम से उस बेचारी ने भी अपनी जान देदी।

गोपाल० : (रंज के साथ) अफसोस, उनका घर बर्बाद हो गया।

इन्द्र० : इसमें क्या शक है। बेचारे को वही एक लड़का था, और वैसी सुशीला स्त्री भी जल्दी किसी को नहीं मिलती, मगर इसी कारण से इन मौतों ने उस बेचारे को एकदम उदास कर दिया है। कल उनकी चीठी मुझे मिली उससे उस हाल के सिवाय यह भी मालूम हुआ कि उनका इरादा जल्द-से-जल्द अपनी बड़ी लड़की का ब्याह कर इस दुनिया से अलग होने का है

।गोपल : मगर ऐसा करने से फायदा क्या निकलेगा? अभी दो-दो लड़कियाँ और भी तो हैं।

इन्द्र० : उनका जिम्मा मैं उठाने को तैयार हूँ, बल्कि यह बात मैंने उन्हें लिख भी दी है। आपसे इस सम्बन्ध में मैं यही कहने आया था कि अगर आपका विचार किसी तरह बदला नहीं है तो आप जहाँ तक जल्द हो सके लक्ष्मी देवी से विवाह कर डालें।

गोपाल ० : आपकी सलाह मान इतना तो मैं पहिले ही निश्चय कर चुका हूँ कि इस साल विवाह कर डालूँगा।

इन्द्र० : हाँ सो तो आपने कहा था, पर अब इस बात में और भी जल्दी होनी चाहिए। महाराज को गुजरे काफी जमाना बीत चुका, इसलिए यह बाधा भी अब नहीं रही। अब इस काम से भी छुट्टी पा लेना ही मुनासिब है।

गोपाल० : (कुछ सोचकर) जैसी आपकी इच्छा, मुझे किसी बात में उज्र नहीं है, मैं यह काम भी आपके ही ऊपर छोड़ता हूँ, जो चाहे और जैसा चाहे प्रबन्ध कीजिए।

इन्द्र० : बस तो ठीक है, मैं आज ही से इस काम में लग जाता हूँ और दिन आदि का निश्चय कर बलभद्रसिंह को भी सूचना दे देता हूँ।

गोपाल : जो मुनासिब समझिए करिए।

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