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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


बावली के नीचे या सुरंग के अन्दर झाँकने पर मालती को न-जाने कौन-सी ऐसी ताज्जुब की बात दिखाई पड़ी कि वह आश्चर्य की एक चीख मार कर उसके अन्दर कूद गई, उसके जाते ही वह रास्ता बन्द हो गया और ताज्जुब में डूबे हुए प्रभाकरसिंह खड़े देखते ही रह गए।

कुछ सायत इसी तरह बीत गए। इसके बाद प्रभाकरसिंह ने अपने को काबू में किया और फिर से उस रास्ते को खोलने का उद्योग करने लगे जो मालती के जाने पर बन्द हो गया था मगर उनकी कोई भी तरकीब कारगर न हुई, जिस सुरंग के अन्दर झाँककर प्रभाकरसिंह ने कोई ताज्जुब की चीज देखी थी अथवा जिसके अन्दर मालती गायब हुई थी उसका मुँह इस समय कुछ इस तरह पर बन्द हो गया था कि अब इस बात का भी कुछ पता न लगता था कि वह राह कहाँ पर थी।आखिर सब तरह से लाचार हो प्रभाकरसिंह उसी जगह सीढ़ी पर बैठ गए और तिलिस्मी किताब निकाल कर पढ़ने लगे, यह लिखा हुआ पायाः-

‘‘तुमको मुनासिब है कि जैसे ही बावली सूखे तुम उसके अन्दर उतर जाओ। कुछ सीढ़ियाँ उतरने के बाद बगल में एक छोटा रास्ता दिखाई पड़ेगा। उसके अन्दर घुस जाओ और फुर्ती से जितना दूर निकल जा सको निकल जाओ क्योंकि वह रास्ता बहुत जल्द ही बन्द हो जाएगा और एक बार वह रास्ता बन्द हो जाने पर फिर तुम उसे किसी तरह भी खोल न सकोगे।

इतना पढ़ प्रभाकरसिंह ने चिन्ता के साथ मन-ही-मन कहा, ‘‘तब क्या होगा? अब तो रास्ता बन्द हो गया। न-जाने मालती को कौन-सी चीज ऐसी उधर दिखाई पड़ी कि वह इस तरह उतावली हो गई? या उसे कोई ऐसी बात नजर आई जो मैं देख न पाया था? पर अब क्या होगा? क्या मैं इसी जगह बैठा रह जाऊँगा? यह तो जरूर है कि मालती को आगे का पूरा-पूरा हाल मालूम है और अब कहाँ जाना तथा क्या करना है यह भी वह जानती है फिर भी औरत की जात न-जाने कहाँ कैसी गफलत कर बैठे।

अगर उसने सब काम ठीक-ठीक किया तब तो फिर वह भाग टूट जाने पर मेरी उसकी भेंट हो सकेगी लेकिन अगर किसी तरह की कोई गलती हो गई तब मुश्किल होगी। खैर देखें आगे चलकर यह किताब क्या कहती है?’’ प्रभाकरसिंह पुनः बड़े गौर से मन लगा कर किताब को पढ़ने लगे।

प्रभाकरसिंह की एकाग्रता को यकायक किसी मीठी सुरीली आवाज ने भंग किया। उनके कान में किसी कोमल कंठ के यह कहने की आवाज पड़ी, ‘‘अब आप व्यर्थ का परिश्रम न करें और यहाँ से आगे जाने का विचार छोड़ दें, यह किताब इस बारे में आपको कुछ न बतावेगी।’’

प्रभाकरसिंह चौंक कर चारों तरफ देखने लगे। यह कौन बोला? सब तरफ निगाह घुमाई मगर कहीं कोई दिखाई न पड़ा। शायद यह भी कोई तिलस्मी खेल हो यह सोच फिर किताब की तरफ झुके और उसके पन्ने उलटने लगे मगर कुछ ही देर बाद आवाज पुनः सुनाई पड़ी और उसी मुलायम कंठ ने फिर कहा, ‘‘क्या आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ?’’ प्रभाकरसिंह फिर चौंक और सिर घुमाकर इधर-उधर देखने लगे। यह कौन औरत है जो बार-बार उनको तंग कर रही है? ताज्जुब और खोज की निगाहें सब तरफ डाल रहे थे कि एक तरफ से फिर आवाज आई, ‘‘क्या आप मुझको देख नहीं पाते? यहाँ आपके सामने ही तो हूँ।’’ अबकी प्रभाकरसिंह ने बोलने वाले को लक्ष्य कर लिया और आश्चर्य से देखा कि वही तिलिस्मी पुतली जिसके हाथ से उन्होंने अभी थोड़ी ही देर पहिले तीर कमान लिया था यह बातें कह रही है। क्या तिलिस्मी पुतलियाँ बात भी कर सकती हैं? आश्चर्य करते हुए वे अपनी जगह से उठे और इस पुतली की तरफ मुखातिब होकर बोले, ‘‘क्या तुम्हीं मुझसे बातें कर रही हो!’’

वह पुतली कुछ मुस्कुरा कर बोली, ‘‘जी हाँ, इस दासी ने ही आपको सम्बोधन किया था और फिर कहती है कि अब आप उस राह से आगे नहीं जा सकते जो बन्द हो चुकी है।’’

प्रभा० : (ताज्जुब से) मगर सो क्यों?

पुतली० : इसलिए कि वह राह सिर्फ एक ही बार खुलने के लिए बनाई गई है। लेकिन अगर आप इस दासी के साथ चलना स्वीकार करें तो मैं एक दूसरी राह आपको ऐसी बता सकती हूँ कि जो आपको वहाँ पहुँचा सके जहाँ वह राह ले जाती है,

प्रभा० : (और भी ताज्जुब से) अगर आगे जाने की कोई दूसरी भी राह है और उसका हाल तुमको मालूम है तो क्या उसका जिक्र इस किताब में न होगा?

पुतली० : जी नहीं, क्योंकि वह राह सिर्फ हम लोगों के ही आने-जाने के लिए है, कोई गैर आदमी उसको इस्तेमाल नहीं कर सकता।

प्रभाकरसिंह चिन्ता के साथ सोचने लगे कि यह क्या बात है, कहीं यह कोई धोखा तो नहीं है? मगर उनको चिन्ता में पड़ा देख वह पुतली फिर बोली। ‘‘आप किसी तरह सन्देह न करिए और बेखटके मेरे साथ आइए। मैं आपसे सत्य कहती हूँ कि आपको आगे जाने का रास्ता बता दूँगी।’’

प्रभाकरसिंह ने कुछ सोच कर कहा, ‘‘अगर यहाँ से आगे जाने की कोई राह और भी है तथा मैं उसके जरिए बेखटके आगे जा सकता हूँ तो इस किताब में उसका जिक्र कहीं-न-कहीं जरूर होगा। कम-से-कम मैं इस विषय में अपना सन्देह तो दूर कर ही लेना चाहता हूँ।’’ उस पुतली ने जवाब दिया, ‘‘आप बेशक अपना सन्देह निवृत्त कर लें, मगर मैंने जो कुछ कहा वह बहुत ठीक है।’’

प्रभाकरसिंह देर तक उस तिलिस्मी किताब के पन्ने उलटते रहे मगर कहीं भी इस विषय में कोई बात लिखी उन्हें दिखाई न पड़ी। न तो उस दूसरे रास्ते का कहीं जिक्र था और न यही कही लिखा हुआ था कि जिस पुतली के हाथ से तुमने तीर-कमान लिया वही तुमको आगे जाने का कोई रास्ता भी बतला सकेगी।आखिर कुछ देर बाद उन्होंने किताब बन्द कर दी और चिन्ता के साथ ऊपर की तरफ देखा। उस पुतली की निगाह एकटक उनके ऊपर पड़ रही थी जो उनको सिर उठाता देखते ही फिर बोली। ‘‘मैं पुनः निवेदन करती हूँ कि अब आप और विलम्ब न कीजिए और मेरे साथ आइए।’’

प्रभाकरसिंह ने मन में कहा, ‘‘जरूर यह भी कोई तिलिस्मी कारीगरी है और शायद इसके अन्दर भी किसी तरह का रहस्य छिपा हुआ है, कम-से-कम देखना तो चाहिए ही कि यह मुझे कहाँ ले जाना या क्या करना चाहती है,’’ और तब अपनी सब चीजें सम्हाल वे उठने को तैयार हो गए।उस पुतली के चेहरे पर प्रसन्नता की झलक दिखाई दी और जैसे ही प्रभाकरसिंह सीढ़ियाँ चढ़ बावली के ऊपर पहुँचे वैसे ही उसने झुक कर बड़ी नम्रता से उन्हें प्रणाम किया, इसके बाद ही वह घूम कर अपने बगल वाली दूसरी से बोली, ‘‘अरी रामकली, खड़ी क्या है, मालिक को सलाम नहीं करती! हमारे भाग्य जागे हैं जो इन्होंने हमारे साथ चलना स्वीकार किया,’’ उस दूसरी पुतली ने यह सुनते ही प्रणाम किया और बोली, ‘‘हम लोग आज कृतार्थ हो गईं।’’ इसके बाद वे दोनों घूमीं और अपने पिछली तरफ बने बनावटी पहाड़ की तरफ दोनों हाथों से इशारा करती हुई बोली, ‘‘श्रीमान इधर चलें!’’

प्रभाकरसिंह ने सिर हिला कर कहा, ‘‘सो न होगा, तुम लोग आगे-आगे चलो। जब तक मेरी इच्छा होगी मैं भी तुम्हारे साथ पीछे-पीछे चलूँगा। कौन ठिकाना तुम लोगों के मन में किसी तरह की दगा हो और तुम पीछे से मुझ पर वार कर बैठो।’’ एक पुतली ने दाँत तले जीभ दबा कर कहा, ‘‘राम-राम-राम, जो कुछ होना था सो हो गया, अब आप हमारे स्वामी हैं और हम लोग आपकी दासियाँ। फिर भी आपकी आज्ञा मान हमीं आगे होने को तैयार हैं,’’ आगे-आगे वे दोनों पुतलियाँ और पीछे-पीछे प्रभाकरसिंह उस बनावटी पहाड़ की तरफ रवाना हुए जो नकली बाग के एक हिस्से में बना हुआ उस जगह से सिर्फ कुछ ही कदमों के फासले पर था।

नकली पहाड़ के बगली हिस्से में एक छोटी सुरंग या गुफा थी जिसके अन्दर आदमी झुककर जा सकता था। वे दोनों पुतलियाँ इसी गुफा की तरफ बढ़ रही थीं, जब उसके पास पहुँचे तो प्रभाकरसिंह को उसके मुहाने पर दाहिनी तरफ कुछ मजमून लिखा दिखाई पड़ा। रुके और गौर करके पढ़ना चाहा मगर कुछ समझ में न आया। दूसरी तरफ निगाह गई तो बाईं तरफ भी कुछ लिखा देखा मगर इस तरफ से अक्षर बड़े और मजमून साफ था। यह लिखा पाया।-‘‘तिलिस्म का यह हिस्सा सिर्फ सैर और तफरीह के लिए बनाया गया है, मगर सम्हल कर जाने वाले को बहुत-सी नई बातें भी मालूम होंगी।’’ पढ़कर प्रभाकरसिंह कुछ निश्चिन्त हुए मगर उनका ध्यान पुनः उस दाहिनी तरफ वाली लिखावट की तरफ गया जो समझ में न आई थी। उसे समझे बिना अन्दर जाना मुनासिब न जान उसकी तरफ बढ़े ही थे कि एक पुतली बोल उठी, ‘‘आप रुक क्यों गए? किसी तरह का अन्देशा न करिए और बेखटके चले आइए। देर करना मुनासिब न होगा,’’ मगर प्रभाकरसिंह ने उसकी बात की कोई जवाब न दिया और आगे बढ़कर गौर से उस लिखावट को पढ़ने लगे। पहिले तो कोई मतलब समझ में न आया मगर जरा गौर करने पर आशय प्रकट हो गया और वे मुस्कुरा उठे, पाठकों के कौतूहल के लिए हम उस मजमून को यहाँ दे देते हैं-

दो    ला    छु    र    या    थि

ह    स्मी    लि    ति    च    हुँ

प      में      न      व     भ   णि

म      र      औ     हीं   न   ठो

बै      हीं      क      र    ग    म

ओ    जा       र     या    शि   हो


प्रभाकरसिंह को देर करते देख दूसरी पुतली बोली, ‘‘क्या श्रीमान कुछ विश्राम करना चाहते हैं!’’ प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘नहीं-नहीं, मैं चलने को तैयार हूँ’’ और तब आगे बढ़े। ये पुतलियाँ भी एक-दूसरे पर मतलब-भरी निगाह डाल आगे बढ़ीं।

ज्यों-ज्यों सुरंग के अन्दर घुसते जाते थे अँधेरा बढ़ता जाता था क्योंकि इसके अन्दर किसी तरह की कोई रोशनी न थी, जो कुछ चाँदना था वह बाहर वाले कमरे से ही आता हुआ यहाँ पड़ रहा था मगर इससे जो कुछ तकलीफ होती वह इस बात से कम भी हो रही थी कि ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे सुरंग लम्बी-चौंड़ी-खुलासी और ऊँची होती जाती थी। आगे-आगे वे दोनों पुतलियाँ जा रहा थीं और पीछे–पीछे प्रभाकरसिंह बेधड़क अपना तिलिस्मी डंडा मजबूती से हाथ में पकड़े बढ़े जा रहे थे। लगभग तीस-चालीस कदम के इनको जाना पड़ा और तब वह सुरंग खतम हुई। एक ड्योढ़ी-सी लाँघनी पड़ी और तब एक ऐसी जगह सब कोई पहुँचे जिसकी लम्बाई या ऊँचाई का कुछ भी अन्दाज लग न सकता था क्योंकि इस जगह घनघोर अन्धकार था, मगर यह अवस्था देर तक न रही। एक पुतली ने आगे बढ़ कर न-जाने कौन तर्कीब ऐसी की कि वह जगह तेज रोशनी से भर गई और तब मालूम हुआ कि वह एक लम्बा-चौड़ा कमरा है जिसमें मनुष्य की साधारण जरूरतों के लायक सभी चीजें मौजूद हैं। प्रभाकरसिंह ने एक पुतली से पूछा, ‘‘क्या यही तुम्हारा स्थान है?’’ उसने अदब से जवाब दिया। ‘‘जी नहीं, मगर यहाँ से अब ज्यादा दूर भी नहीं है, (अपनी साथिन से) तू जा और ताली लाकर बाग वाला दरवाजा खोल, तब तक मैं महाराज को इस सिंहासन पर बैठाती और हवा करती हूँ,’’ वह पुतली यह सुन सिर झुका किसी तरफ को चली गई और दूसरी खूँटी से टंगा पंखा उतारती हुई बोली, ‘‘श्रीमान इस जगह जरा बैठ जाँय जलपान के लिए....’’ प्रभाकरसिंह मुस्कुरा कर बोले, ‘‘इतनी तकलीफ करने की जरूरत नहीं और न मैं किसी तरह भूखा ही हूँ, बल्कि अगर तुम मेरी प्रसन्नता चाहती हो तो इधर मेरे पास आओ और जो कुछ मैं पूँछूँ उसका मुझे जवाब दो।’’

पुतली बेधड़क प्रभाकरसिंह के पास आ गई और उनके सामने खड़ी हो हाथ जोड़कर बोली, ‘‘आज्ञा?’’

प्रभाकर० : तुम लोगों का रंग-ढंग, बातचीत, चलना-फिरना आदि देखकर मैं बड़े ताज्जुब में पड़ गया हूँ और यह जानना चाहता हूँ कि तुम आखिर हो क्या चीज? यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि तुम लोग जीते-जागते मनुष्य अथवा स्त्रियाँ हो, पर यदि मनुष्य नहीं हो तो क्या वस्तु हो और किस शक्ति की बदौलत ठीक मनुष्यों की ही तरह काम कर रही हो, यह मैं जानना चाहता हूँ, अगर बता सकती हो तो बताओ?

पुतली० : अब मैं क्या बताऊँ कि हम लोग क्या हैं? बस यही समझ लीजिए कि पापी आत्माएँ हैं जो तिलिस्म के अन्दर कैद होकर अपनी मुसीबत-भरी जिन्दगी काट रही हैं और रात-दिन मनाती रहती हैं कि किसी तरह इस तिलिस्म की उम्र समाप्त हो और इसके तोड़ने वाले का प्रादुर्भाव हो जो इसको नष्ट-भ्रष्ट कर हम लोगों की जान को भी स्वतन्त्रता दे।

प्रभाकर० : इस तरह का गोलमोल जवाब मैं नहीं माँगता और न मैं यही विश्वास कर सकता हूँ कि तुम्हारे भीतर कोई आत्मा है। आत्मा ईश्वरीय कृति है और वह किसी के वश में नहीं हो सकती। पर तुम लोग तिलिस्म बनाने वालों की कृति हो और उतना ही कर रही हो जितना करने के लिए मुकर्रर की गई हो, आत्मा को जब कोई स्वतन्त्र शरीर मिलता है तो उसको अन्तःकरण अर्थात मन-बुद्धि चित्त और अहंकार भी प्राप्त होता है और उनके द्वारा स्वतन्त्र रूप से सोचने-समझने और अपनी करनी से अनुभव प्राप्त करने की स्वतन्त्रता मिलती है।अवश्य ही तुम लोगों में वह सब नहीं है यह मैं जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि तुम लोग कुछ कल-पुर्जों और मसालों के जोर से बनाई गई पुतलियाँ मात्र हो जो तिलिस्म बनाने वाले की कारीगरी और बुद्धिमानी का नमूना है। जो बात मेरी समझ में नहीं आती वह यह कि वह कौन-सी शक्ति है जो तुम लोगों से ठीक मनुष्य की तरह काम करा रही है अर्थात जिसकी बदौलत तुम चल-फिर या बोल सकती हो, क्योंकि आत्मा तो किसी के बनाए बन नहीं सकती।

पुतली० : (हँस कर) मनुष्य-शरीर के अवयवों की तरह आत्मा भी क्या एक रासायनिक पदार्थ नहीं हो सकती महाराज!

प्रभाकर० : इसका क्या मतलब?

पुतली० : आप पूछते हैं कि हमारे भीतर कौन-सी शक्ति है जो हमसे ठीक मनुष्य की तरह काम करा रही है। आप यह देख ही रहे हैं कि हम लोग ठीक मनुष्य की तरह ही सब काम कर रही हैं और कर सकती हैं। मनुष्य की ही तरह हमारे हाथ, पाँव, आँख, नाक-कान आदि अवश्य हैं। किन पदार्थों के किस प्रकार के संयोग से मनुष्य शरीर बना है यह बात तो आजकल के कम बुद्धि वाले वैज्ञानिक भी जानते हैं और वे उन्हीं वस्तुओं के उसी प्रकार संयोग से उसी प्रकार के पदार्थ बना भी लेते हैं बल्कि बहुत ही निम्न श्रेणी के कुछ जीव बना सकने में भी समर्थ हुए हैं। तब जब मनुष्य के अंग-प्रत्यंग बनाए जा सकते हैं तो क्या मनुष्य की आत्मा भी नहीं बनाई जा सकती?

प्रभा० : (ताज्जुब से) क्या तुम्हारा मतलब यह कि तिलिस्म बनाने वालों ने तुम्हारे शरीर की तरह तुम्हारी आत्मा की भी रचना कर डाली है?

पुतली० : बेशक! अवश्य ही पूर्ण परमब्रह्म का अंश और स्वयमेवपूर्ण वह सूक्ष्म आत्मा नहीं जो आप जैसे भाग्यवानों के शरीरों का संचालन कर रही है पर एक तरह की निकृष्ट अपूर्ण बन्धनयुक्त कम प्रतिभाशाली पराधीन आत्मा या आत्मा से ही मिलती-जुलती-सी कोई शक्ति उन प्राचीन महात्माओं ने बनाने में सफलता प्राप्त कर ली थी जिनका बनाया यह तिलिस्म है, वही शक्ति इस तिलिस्म के भीतर काम करने वाली हम पुतलियों के भीतर मौजूद है और वही हमसे काम करा रही है।

प्रभा० : तुम्हारा उत्तर इतना गम्भीर है कि मुझे उस पर विचार करना पड़ेगा, साथ ही उसके सम्बन्ध में कई बातें भी पूछनी पड़ेंगी अगर तुम उसका जवाब दे सको, मगर पहिले इतना तो बताओ कि तुम लोग तरह-तरह का काम करने में स्वतन्त्र हो या सिर्फ उतना ही काम कर सकती हो जितना कि तुम्हारे बनाने वालों ने तुमको करने के लिए मुकर्रर कर दिया।मसलन इस वक्त मुझसे तुम्हारी जो बातचीत हो रही है। उसके विषय में मैं पूछता हूँ कि क्या तुम्हारे अन्दर मन की तरह की कोई चीज है जिससे तुम मेरी बातें सुनती या खुद सोच-सोच कर उनका जवाब दे रही हो अथवा यह सब बातें तुम्हारे बनाने वालों ने तुम्हारे अन्दर किसी जगह और किसी तरह भर दी हैं जिन्हें सिर्फ तुम दोहरा-भर सकती हो। (कुछ रुक कर) लेकिन नहीं, अगर भर दी गई हैं तो मेरी इन बातों का जवाब न दे सकती क्योंकि तुम्हारे बनाने वालों को भला क्या मालूम था कि मैं यहाँ पर किस तरह की बातें तुमसे पूछूँगा। तुमने मेरी जिन बातों का जिस तरह पर जवाब दिया है उससे कोई ऐसा भान होता है मानों तुम्हारे में सोचने और समझने की ताकत हो!

पुतली० : (मुस्कुरा कर) तो क्या आप समझते हैं कि आपके मन में इस समय जो सवाल उठे हैं उनका किसी को पता नहीं लग सकता था? क्या आप उन ज्योतिषियों को भूल गए जो लोगों के मन की बातें बता देते हैं और मूक प्रश्नों का उत्तर दे देते हैं?

प्रभा० : मैंने ऐसे ज्योतिषियों की बातें सुनी ही नहीं बल्कि उनको देखा और उनकी अद्भुत सामर्थ्य का कुछ परिचय पाया भी है, पर इससे यह तो नहीं सोचा जा सकता कि आज से हजारों बरस पहिले यह तिलिस्म बनाने वाले इस बात को जान सके होंगे कि मैं आज इस तरह इस जगह पहुँचूँगा और तुमसे, एक बोलने-चालने वाली मसाले की पुतली से, इस तरह की बातें पूछूँगा? क्या तुम्हारा यह मतलब है कि तिलिस्म बनाने वालों को यह मालूम हो चुका था कि मेरे साथ फलाने दिन फलानी घटना घटेगी अथवा मैं तुमसे फलाने मौके पर फलानी बात पूछूँगा और इसको जान कर उस तरह का जवाब भी तभी से तुम्हारे अन्दर भर दिया गया था कि जो इस समय तुमने मुझे दिया या आगे मेरी बातों के जवाब में दोगी?

पुतली० : जी मेरा यह मतलब है कि तिलिस्म बनाने वालों को अच्छा वैज्ञानिक, अच्छा रासायनिक, अच्छा कलाविद और अच्छा ज्ञानी होने के पहिले एक बहुत ही अच्छा ज्योतिषी होने की आवश्यकता है। भविष्य में क्या होने वाला है अगर वह जान नहीं सकता है तो न तो वह तिलिस्म ही बाँध सकता है और न फिर तिलिस्म बाँधने का असल तात्पर्य ही निकाल सकता है।

प्रभा० : (अविश्वास के साथ) क्या तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि इस तिलिस्म के बनाने वालों ने पहिले ही से केवल यही नहीं जान लिया था कि आज के दिन कौन यहाँ पर किसलिए आवेगा बल्कि यह भी जान लिया था कि उसके मन में उस समय किस तरह के विचार उत्पन्न होंगे?

पुतली० : (बात पर जोर देकर) अवश्य, विचार मनोविज्ञान का एक अंग है और काल, स्थान तथा पात्र से सम्बन्ध रखता है। किसके मन में कब कौन विचार उठता है साधारण रीति से उस आदमी के स्वभाव से कुछ भी परिचय रखने वाला उसका कुछ आभास पा सकता है, मगर विशेष ज्ञान रखने वाला इससे कहीं अधिक जान सकता है। खैर हाथ कंगन को आरसी क्या? अगर आप सहज ही में जान जायेंगे कि भविष्य तिलिस्म बनाने वालों के हाथ की पटरी पर पड़ी कुछ लकीरें मात्र था।

प्रभा० : (उत्कण्ठा के साथ) मैं बड़ी खुशी से उस जगह चलने को तैयार हूँ, लो तुम्हारी साथिन भी तो आ गई।

वह दूसरी पुतली भी इसी समय आ मौजूद हुई दोनों में धीरे-धीरे कुछ बातें हुई और तब वे प्रभाकरसिंह को पीछे आने का इशारा कर एक तरफ को चल पड़ीं, आगे-आगे वे दोनों पुतलियाँ और पीछे प्रभाकरसिंह चलने लगे।

वह कमरा और उसके बाद कितने ही कमरे, कोठरियों, दालानों और बालाखानों को पार करती हुई वे पुतलियाँ प्रभाकरसिंह को लिए हुए एक ऐसे स्थान पर पहुँची जहाँ एक बहुत ही बड़ा कमरा कई जगमगाते हुए गोलो की रोशनी से रोशन हो रहा था।इस कमरे की छत मामूली से कहीं ज्यादे ऊँची थी और प्रभाकरसिंह ने ऊपर देखकर अन्दाज किया कि किसी हालत में भी वह बीस गज से कम ऊँची न होगी, छत के बीचोबीच में एक गोल छेद-सा दिखाई पड़ रहा था मगर उसके अन्दर क्या था-कोई दूसरा कमरा था अथवा खुला हुआ आसमान, इसका ठीक-ठीक पता नहीं लगता था। बहुत बड़ा होते हुए भी वह कमरा किसी तरह के सामान से एकदम खाली था और इसकी दीवारों पर कोई रोगन इस तरह का किया हुआ था कि वे शीशे की तरह चमक रही थी। दोनों पुतलियाँ इस जगह आकर रुक गईं और उनकी आकृति से ऐसा मालूम होने लगा मानों वे किसी विचार में पड़ गई हों जिसे देख प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘क्यों रुक काहे को गईं? यह तो मणि-भवन नहीं है!’’

एक पुतली बोली, ‘‘जी नहीं, यह तो नहीं है मगर इसके बाद ही वह जगह पड़ती है और वहाँ जाने के लिए (छत की तरफ दिखा कर) सिर्फ यही एक राह है। हम लोग यही सोच रही थीं कि आपको किस तरह वहाँ तक ले जाँय?’’

प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘क्या वहाँ तक जाने की कोई तरकीब नहीं बनी है?’’ जिसके जवाब में उसने कहा, ‘‘हम लोगों के जाने लायक तो रास्ता है मगर आपके जाने योग्य नहीं है ’’

प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘सो क्यों? जिस तरकीब से तुम लोग वहाँ तक पहुँच सकती हो जरूर उसी तरह से मैं भी पहुँच सकता हूँ, इसमें तरद्दुद कौन-सा है?’’

प्रभाकरसिंह की बात सुन वह पुतली अपने साथ वाली की तरफ देखकर मुस्कुराई और तब बोली, ‘‘अच्छी बात है, तो आप देख लीजिए कि हमारी राह आपके काम आ सकती है या नहीं।’’

पुतली कमरे की दीवार के पास गई और वहाँ लगी हुई एक खूँटी को उसने किसी क्रम से उमेठ दिया। इसके बाद वह पुनः अपनी जगह पर वापस लौट आई और उसी समय प्रभाकरसिंह ने देखा कि लोहे की एक पतली तार ऊपर वाले उस छेद की राह नीचे की तरफ उतरी।धीरे-धीरे लटकती हुई वह तार जमीन तक आ पहुँची और तब एक ने दूसरी की तरफ देखकर कहा, ‘‘बहिन, तू पहिले ऊपर जा जिसमें ये देख लें कि हम लोग किस तरह आते-जाते हैं।’’ जवाब में ‘अच्छा’ कह उस पुतली ने आगे बढ़ उस तार को पकड़ लिया और तब उसको दो-तीन बार हाथ में लपेटे मजबूती से थाम लिया।इसके बाद उसने कई झटके उस तार को दिये जिसके साथ ही वह तार ऊपर की तरफ उठने लगी और उसी के साथ-साथ लटकती हुई वह पुतली भी ऊपर को जाने लगी। दूसरी पुतली ने प्रभाकरसिंह को लक्ष्य कर कहा, ‘‘हम लोगों का बदन हलका है इससे हम ऐसा कर सकती हैं पर आप किसी तरह ऐसा नहीं कर, सकते।’’ प्रभाकरसिंह उस ऊपर को उठती हुई पुतली की तरफ देखते हुए सोचने लगे कि ऊपर जाने की क्या तर्कीब हो सकती है। उनके देखते-देखते वह तार समूची ऊपर को उठ गई और उस छेद के अन्दर गायब हो गई तथा उसके साथ-साथ वह पुतली भी आँखों की ओट हो गयी। अब दूसरी पुतली ने प्रभाकरसिंह से कहा, ‘‘कहिए क्या आप इस तरह ऊपर जा सकेंगे?''

प्रभाकरसिंह ने जवाब दिया, ‘‘तार बहुत ही पतली है इससे कुछ संदेह होता है नहीं तो जाना कुछ विशेष मुश्किल तो नहीं था।’’

यकायक वह पुतली बोली, ‘‘अच्छा मुझे एक तर्कीब सूझ गई है, ठहिरए मैं अभी आई।’’

प्रभाकरसिंह को वहीं छोड़ वह पुतली पीछे की तरफ लौट गई और थोड़ी ही देर में कपडे़ का एक झूला लिए उस जगह आ पहुँची जिसे दिखाकर उसने कहा, ‘‘मै इसको उस तार के साथ बाँध दूँगी और आप इसमें बैठकर बेखटके ऊपर जा सकेगे।’’

इतना कह बिना जवाब की राह देखे वह उसी खूंटी के पास पहुँची और पहिले की तरह फिर उसको उमेठा। उसी तरह पुनः वह तार लटकने लगी और धीरे-धीरे जमीन से आ लगी। जमीन से आ लगी पुतली ने झूले को तार के साथ मजबूत बाँधा और तब प्रभाकरसिंह से कहा, ‘‘आइए विराजिए, यह आपको सही-सलामत ऊपर तक पहुँचा देगा।’’

प्रभाकरसिंह ने दो-तीन बार कड़ा झटका देकर तार की मजबूती की थाह ली। तार यद्यपि पतली थी मगर थी बहुत ही मजबूत अस्तु उन्हें विश्वास हो गया कि वह निर्विघ्न उन्हें ऊपर तक पहुँचा देगी। फिर भी न-जाने क्या सोच वे बोले, ‘‘अच्छा तुम पहिले इस पर ऊपर पहुँच जाओ तो मैं भी चलूँ।’’

पुतली ने हाथ जोड़कर जवाब दिया, ‘‘मुझे ऐसा करने में कोई उज्र नहीं हैं मगर ऐसा करने में मुश्किल यह होगी कि आप ऊपर न जा सकेंगे, इस तार को ऊपर से नीचे मँगाने के लिए जो खास तरकीब की जाती है वह आप कर न सकेंगे और इसीलिए ऊपर भी जा न सकेंगे।’’

प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘मैंने देखा है कि ऐसा करने के लिए तुम उस खूँटी को उमेठती हो, क्या वही तरकीब मैं नहीं कर सकता?’’

पुतली ने जवाब दिया, ‘‘जी नहीं, उसको एक खास तरकीब के साथ उमेठना पड़ता है जो बतलाने की इजाजत हम लोगों को नहीं है।’’

प्रभाकरसिंह इस बात को सुन कुछ गौर में पड़ गए, पहिले तो उन्होंने सोचा कि उस तरकीब को जानने की जिद्द करें मगर फिर यह सोचकर कि शायद यह बात पुतली नहीं ही बतावे तो झगड़ा हो पड़ेगा और फिर मणि-भवन पहुँचना भी कठिन नहीं हो जायगा, उन्होंने कुछ सोच-समझकर पुतली की ही बात स्वीकार की और पैर लटकाकर उस झूले में जा बैठे। पुलती ने तार को तीन-चार झटके दिए और वह ऊपर को उठने लगी।

झूला धीरे-धीरे ऊपर को उठ रहा था और प्रभाकरसिंह भी क्षण-क्षण ऊँचे होते जा रहे थे कि यकायक उन्हें कोई बात खयाल आ गई। गुफा के बाहर वाले मजमून ने उन्हें कहीं भी बैठने को मना किया था। यह खयाल आते ही वे चौंके और बैठने के बजाय उस झूले में खड़े होने की कोशिश करने लगे, उसी समय उन्होंने यह भी देखा कि जमीन पर खड़ी उस पुतली का भाव बदल गया है। सके चेहरे से नम्रता और आधीनता के बदले घृणा और द्वेष प्रकट होने लगा है और वह बड़े ही गुस्से की निगाहों से उनकी तरफ देखती हुई अपने कपड़ों के अन्दर से कोई चीज निकालने की कोशिश कर रही है। इधर प्रभाकरसिंह सम्हल कर अपने स्थान पर खड़े हुए ही थे कि उधर पुतली ने एक पतली तलवार जो उसके कपड़ों के अन्दर छिपी हुई थी निकाल ली और ‘‘दुष्ट, तिलिस्म तोड़ने का मजा चख,’’ कहते हुए बड़ी तेजी से प्रभाकरसिंह पर चलाई। उसका निशाना प्रभाकरसिंह की गर्दन पर था पर उसी सायत में वे उछकर खड़े हो गये जिससे निशाना बहक गया। फिर भी उनकी जाँघ में तलवार जोर से लगी, चमड़ा कट गया और खून बहने लगा, परन्तु, उन्होंने इसकी परवाह न की और अपना तिलिस्मी डंडा झुक कर पुतली के सिर से छुला दिया। तिलिस्मी डंडे का छूना था कि उस पुतली ने एक चीख मारी और फुलझड़ी की तरह बल उठी। उधर वह झूला प्रभाकरसिंह को लिए हुए ऊपर को उठने लगा और कुछ ही देर बाद वे उस कमरे की छत वाले सुराख तक जा पहुँचे। बाहर होते हुए उन्होंने देखा कि वह पुतली बल कर राख हो गई थी।

प्रभाकरसिंह को विश्वास था कि वह तार उन्हें छत पर पहुँचाकर ही रह जाएगी मगर ऐसा न हुआ और छत के बाहर होने के बाद वह झूला उन्हें लिए नीचे उतरने लगा। जिस तरह के कमरे में से अभी-अभी चले आ रहे थे ठीक उसी तरह का उतना ही बड़ा और वैसी ही ऊँची छत वाला एक दूसरा कमरा उन्हें अपने नीचे नजर आया जिसकी सतह पर उस झूले ने धीरे-धीरे नीचा होकर उन्हें पहुँचा दिया। उसी जगह पास ही में वह पहिली पुतली भी खड़ी उनको दिखी जिसने झूले को थाम लिया और उनके उतरने में सहायता करते हुए कहा, ‘‘मेरी साथिन इसी झूले की मदद से आ जाएगी। चलिए हम लोग आगे बढ़ें क्योंकि देर बहुत हो गई और अब सुबह होने में कुछ ही कसर बाकी होगी, सुबह हो जाने पर हमारी काम करने की शक्ति नष्ट हो जायगी।’’

प्रभाकरसिंह ने जवाब में केवल इतना ही कहा, ‘‘मैं आगे चलने को तैयार हूँ।’’ और वह पुतली मुड़कर एक तरफ को बढ़ी।

दाहिनी तरफ की दीवार के पास पहुँच कर उस पुतली ने कोई तरकीब ऐसी की कि वहाँ एक दरवाजा प्रकट हो गया जिसके अन्दर से होते हुए दोनों आदमी एक छोटे से कमरे में पहुँचे और वहाँ से भी बाहर होकर एक दालान में आए जिसके सामने एक छोटा-सा मगर खुशनुमा बाग नजर आ रहा था। सुबह होने में कुछ ही कसर बाकी थी और अरुणोदय की लाली पूरब तरफ के आसमान को लाल करती हुई उस छोटे बाग के बीचोबीच की अद्भुत इमारत को प्रकट कर रही थी। प्रभाकरसिंह ने देखा कि यह इमारत एक खुशनुमा बंगले के तर्ज पर बनी हुई है और उसकी दीवारों, खम्भों तथा बाहर से दिखने वाले सब हिस्सों पर रंगीन शीशे इस कारीगरी से जड़े हुए हैं कि तरह-तरह के बेल-बूटे बन गए हैं जिनकी बदौलत यह बेतरह चमक रही है। इस समय की हलकी रोशनी में इसका जब यह हाल है तो धूप पडऩे पर यह कैसी चमकती होगी। प्रभाकरसिंह इसी बात को सोच रहे थे कि उस पुतली ने कहा, ‘‘महाराज, देखिए वह सामने मणि-भवन है, मेरी सखी आ जाए तो हम लोग उधर चलें।’’

तिलिस्मी किताब में दिए निशान से प्रभाकरसिंह ने भी समझ लिया कि यही वह मणि-भवन है जिसे देखने की उनकी बहुत बड़ी उत्कंठा थी। पुतली की बात सुन वे बोले, ‘‘अब अपनी सखी से मिलने का ध्यान छोड़ो और अगर मुझे वहाँ तक ले चल सकती हो तो ले चलो नहीं तो मेरा सलाम लो, मैं अकेला ही चला,’’ इनकी बात सुनते ही वह पुतली जल्दी से बोली, ‘‘नहीं, नहीं, आप चलिए मैं आपको ले चलती हूँ।’’ और दालान से उतरकर उस बंगले की तरफ बढ़ी, प्रभाकरसिंह भी साथ हुए।

यह बाग जिसके अन्दर से होकर प्रभाकरसिंह जा रहे थे बहुत बड़ा न होने पर भी तरह-तरह के गुलबूटों से बहुत अच्छी तरह सजा हुआ था। प्रभाकरसिंह ने देखा कि इसमें तरह-तरह के मेवों के पेड़ भी बहुतायत से हैं। जिन्हें खाकर आदमी अपना गुजर बखूबी कर सकता है। पानी की भी यहाँ कमी न थी और एक नहर की बदौलत वह बाग हर वक्त सरसब्ज बना रहा करता था। चक्करदार रविशों पर से होते हुए ये दोनों उस ‘मणि-भवन’ के पास पहुँचे और तब प्रभाकरसिंह ने देखा कि जिसको दूर से उन्होंने शीशे के टुकड़े समझा था वे वास्तव में जवाहिरात हैं जो बड़ी खूबी और बहुतायत के साथ उस इमारत की दीवारों पर जड़े हुए हैं। प्रभाकरसिंह उन्हें देखते हुए ताज्जुब के साथ सोचने लगे कि तिलिस्म बनाने वालों के पास कितनी दौलत थी जो जवाहिरात इस लापरवाही के साथ इमारतों में जड़े हुए हैं!

‘मणि-भवन’ की इमारत कमर-भर ऊँची कुर्सी देकर बनी हुई थी। चारों तरफ कुछ जगह खुली छूटी हुई थी जिसके बाद एक नीचा दालान और तब कई किता* दरवाजे पड़ते थे जो सब-के-सब बन्द थे। वह पुतली प्रभाकरसिंह को लेकर जगत पर चढ़ गई और उस दालान में पहुँच नीचे वाले दरवाजे के सामने जा खड़ी हुई जो अगल-बगल वाले दरवाजे की बनिस्बत कुछ बड़ा था।दरवाजे के ऊपर के एक छोटे संगीन आले में एक मूर्ति गणेशजी की रक्खी हुई थी जिसके नीचे की तरफ एक छोटा चूहा भी बना हुआ था। यह समूची मूर्ति किसी तरह के कीमती पत्थर को काटकर बनाई गई थी और देखने में दीवार के साथ जड़ी हुई मालूम पड़ती थी पर जिस समय पुतली ने उस चूहे को पकड़कर अपनी तरफ खींचा तो वह जरा-सा उठ आया और इसके साथ ही एक हलकी आवाज देता हुआ सामने के दरवाजे का एक पल्ला भी खुल गया। भीतर से पीतल के बने हुए एक सिपाही ने जो आदमी के कद का और हूबहू फौजी सिपाही के रंग-ढंग और शकल-सूरत का बना हुआ था झाँककर बाहर की तरफ देखा और साथ ही उसके गले से आवाज निकली, ‘‘कौन है और क्या चाहता है?’’

पुतली ने जवाब दिया, ‘‘महाराज है, दरबार देखना चाहते हैं,’’ पीतल के सिपाही ने यह बात सुनकर एक बार झाँककर प्रभाकरसिंह की शकल देखी तब पीछे हट गया और दरवाजा भीतर से बन्द हो गया।

प्रभाकरसिंह ने पुतली से पूछा, ‘‘यह सब क्या मामला है और कौन से दरबार का तुमने जिक्र किया है?’’ पुतली बोली, ‘‘इस मणि-भवन के अन्दर इस तिलिस्म को बनवाने वाले महाराज सूर्यकान्त के दरबार का दृश्य दिखाया गया है। अपनी जीवितावस्था में वे जिस तरह दरबार किया करते थे और जो-जो लोग उसमें उपस्थित रहते थे उन सब का खाका इसके भीतर खींचा गया है और विशेषता यह है कि कोई खास तरकीब करने पर, जिसका हाल मुझे मालूम नहीं, वे सब मूर्तियाँ जीवित मनुष्यों की तरह बातचीत और कामकाज करती दिखाई पड़ती हैं। पर दरबार....’’

पुतली ने अपनी बात खतम नहीं की थी कि दरवाजा फिर खुला और उसी सिपाही ने सामने होकर कहा, ‘‘हुक्म हुआ है कि इनको इज्जत के साथ हुजूर में पेश किया जाय।’’ इसके साथ ही दरवाजे का दूसरा पल्ला भी खुल गया और उस तरफ खड़ा एक और सिपाही नजर आया। दोनों सिपाहियों ने झुककर प्रभाकरसिंह को सलाम किया और एक ने हाथ का इशारा करते हुए कहा, ‘‘पधारिए, बड़े महाराज आपकी राह देख रहे हैं।’’

प्रभाकरसिंह एक सायत के लिए रुके। तेजी के साथ मन-ही-मन वे एक बार उन बातों को दोहरा गए जो तिलिस्मी किताब में ‘मणि-भवन’ के बारे में पढ़ी थीं और वहाँ पहुँचकर क्या करना होगा इसको भी ध्यान में बैठा लिया, इसके बाद उन्होंने कमरे के अन्दर पैर रक्खा। उसी समय बाहर खड़ी पुतली ने कहा, ‘‘मुझे क्या हुक्म होता है!’’

प्रभाकरसिंह ने पलटकर जवाब दिया, ‘‘सिवाय इसके कि तुम भी अपने बनाने वाले के पास जाओ और मैं कह ही क्या सकता हूँ!’’ और तब फुर्ती से उसके सिर से अपना तिलिस्मी डंडा छुला दिया। छुलाने के साथ ही वह बड़े जोर से चिल्लाई और उसके सिर से आग की लपटे निकलने लगीं, मगर प्रभाकरसिंह ने उधर ध्यान न दिया और उन सिपाहियों के पीछे हो लिए जिन्होंने उनको भीतर कर दरवाजा बन्द कर लिया, इसके बाद एक सिपाही उनकी तरफ मुखातिब हुआ और अदब के साथ बोला। ‘‘श्रीमान सीधे दरवाजे में जाना चाहते हैं या जो कुछ चीजें यहाँ देखने लायक हैं उनको देखने के बाद वहाँ चलेंगे!’’ प्रभाकरसिंह ने जवाब दिया। ‘‘मैं सब कुछ देखता हुआ जाना चाहता हूँ।’’ जिसके जवाब में उसने पुनः सलाम किया और तब ‘‘इधर से आइए’’ कहता हुआ एक तरफ को मुड़ा।

एक के बाद की एक कितने ही छोटे-बड़े कमरे उस जगह बने हुए थे जिनमें एक-एक करके प्रभाकरसिंह घूम आए, इन कमरों में क्या-क्या चीजें थीं और प्रभाकरसिंह को उनके देखने से क्या लाभ हुआ इसके बारे में हम इस जगह कुछ न बतावेंगे कदाचित आगे चलकर इसका हाल प्रकट हो, हाँ इतना कह सकते हैं कि इन चीजों को देखने में प्रभाकरसिंह को बहुत ज्यादा देर लग गई यहाँ तक कि सू्र्य देव आसमान में बहुत ऊपर चढ़ आए। वे समूची रात के जागे और काम करते हुए बहुत ही थक गए थे फिर भी इस जगह उन्हें कुछ ऐसी आश्चर्य की चीजें दिखाई पड़ रही थीं तथा और भी दिखने की आशा थी कि उनकी आँखों में तो नींद का नाम-निशान था और न बदन में थकावट का चिह्न। जब वे सब तरफ के कमरों में घूम-फिर आए तो पुनः उसी स्थान में पहुँचे जहाँ से दरवाजे की राह इस इमारत में घुसे थे। उस समय एक सिपाही ने कहा, ‘‘अब अगर आज्ञा हो तो आपको दरबार में पेश किया जाय!’’ जिसके जवाब में उन्होंने कहा, ‘‘जरूर।’’ सामने का बहुत बड़ा दरवाजा खोल दिया गया और प्रभाकरसिंह ने एक आश्चर्यजनक दृश्य देखा।

एक बहुत ही बड़ा और ऊँची छत वाला कमरा किसी महाराजाधिराज के दरबार के रूप में सजाया हुआ नजर आया जिसमें एक-से-एक बढ़कर खूबसूरत, नायाब और कीमती चीजें इस बहुतायत से सजाई हुई थीं कि उनकी कीमत का अन्दाजा नहीं किया जा सकता था। एक बड़े ही वृद्ध तपस्वी महात्मा बैठे हुए थे जिनकी रूई की तरह सुफेद दाढ़ी नाभी के नीचे लटक रही थी और जिनकी सूरत से तपस्या और ज्ञान का तेज चमक रहा था। अब तक जिन-जिन कमरों में घूम-फिर कर प्रभाकरसिंह ने जो कुछ देखा-सुना था शायद उन्हीं की मदद से उन्होंने देखते ही समझ लिया कि ये इस तिलिस्म के बनाने वाले महाराज सूर्यकान्त तथा उनके गुरु सोमदत्त हैं, महाराज के सिंहासन के दोनों तरफ रक्खी हुई सोने तथा चाँदी की कुर्सियों पर एक से एक बढ़कर खूबसूरत और दिलावर जवान बैठे हुए दिखाए गए थे जिनको प्रभाकरसिंह गौर और ताज्जुब से देख ही रहे थे कि यकायक किसी तरह की आवाज सुनकर चमक गए। उनके सामने की मूरतों में से एक के मुँह से निकला, ‘‘ये कौन है और क्या चाहते हैं?’’ प्रभाकरसिंह के साथ आने वाले एक चोबदार ने अदब से कहा, ‘‘धर्मावतार, ये तिलिस्म तोड़ते हुए यहाँ तक पहुँचे हैं और दरबार का दर्शन करने के इच्छुक थे। आज्ञानुसार हाजिर किए गए हैं,’’ बोलने वाले ने महाराज सूर्यकान्त की तरफ देखा, उन्होंने सिर हिला कर कुछ इशारा किया, वह मूरत फिर बोली, ‘‘इन्हें कुर्सी दो,’’ दो चोबदार दौड़े हुए गए और सोने की कुर्सी लाकर बगल में रख दी जिस पर प्रभाकरसिंह बैठ गए और ताज्जुब के साथ अपने चारों तरफ देखते हुए सोचने लगे कि क्या ये मोम और धातु की बनी हुई बेजान पुतलियाँ हैं या जीते-जागते मनुष्य!

प्रभाकरसिंह के बैठते ही महाराज सूर्यकान्त की मूरत ने सिर घुमाकर अपने गुरु सोमदत्त की तरफ देखा और पूछा, ‘‘गुरुदेव। आज पहिले-पहिले यहाँ मैं एक जीवित मनुष्य को देख रहा हूँ, यह क्या बात है?’’ महाराज का गम्भीर स्वर उस कमरे में गूँज गया। प्रभाकरसिंह उसे सुन कुछ कौतूहल और उत्कण्ठा के साथ जरा आगे को झुककर सुनने लगे।महाराज का सवाल सुन उनके गुरु की मूरत ने जरा-सा सिर घुमाकर प्रभाकरसिंह की तरफ देखा और तब कहा, ‘‘राजन, क्या तुम भूल गए?आज ही के लिए न उस रोज मैंने तुमसे कहा था! हम लोगों की इतनी मेहनत, तुम्हारे अतुलित धन-व्यय और मेरे विज्ञान-बल से बंधे हुए इस तिलिस्म की आयु शेष प्रायः होने पर आ गई है, यह बात मैंने उस दिन तुमसे कही थी।वही शुभ घड़ी आज से प्रारम्भ हुई है। आज इस तिलिस्म का एक भाग टूटने पर आया है और उसको तोड़ने वाला तुम्हारे वंश का दीपक यह बहादुर तुम्हारे सामने मौजूद है।’’

महाराज की मूरत ने जरा घूमकर आश्चर्य, उत्कण्ठा, कौतूहल और प्रेम की दृष्टि प्रभाकरसिंह पर डाली और तब अपने गुरु महाराज की तरफ घूमकर कहा, ‘‘जी हाँ, बखूबी याद है कि आपने कहा था कि अब इस तिलिस्म की उम्र समाप्त होने को आ गई है, तो क्या समझूँ कि मेरा वह सब धन अब उन लोगों के हाथ लग जायेगा जिनके लिए हम लोगों ने इतने दिनों से उसको सुरक्षित रख छोड़ा है,।’’

गुरु महाराज बोले, ‘‘सब तो नहीं मगर कुछ अंश अब अपना गुप्त स्थान छोड़ कर संसार में प्रकट हो जायेगा। तिलिस्म के कुल बारह भाग करके मैंने तुम्हारी दौलत बारह जगहों में तुम्हारे बारह वंशजों के लिये छिपा कर रख दी थी, उनमें से पहिला अंश तुम्हारी लड़की के वंश में उत्पन्न यह बहादुर ले चला। बहुत जल्द तुम्हारे छोटे लड़के जयदेवसिंह के खानदान के बहादुर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह आगे आएँगे और तिलिस्म के दो हिस्सों को तोड़कर उसका माल पाएँगे। इसके बाद तुम्हारे बड़े लड़के धीरसिंह के खानदान में प्रतापी गोपालसिंह का समय आवेगा और वह एक भाग तोड़कर उसका धन प्राप्त करेगा। बस इस पीढ़ी में इतना ही होकर रह जायेगा। बाकी के आठ हिस्से अगली पीढ़ी में टूटेंगे और उस समय इस तिलिस्म की आयु एकदम समाप्त हो जायगी।’’

आश्चर्य और कौतूहल के साथ प्रभाकरसिंह वे बातें सुन रहे थे। गुरु सोमदत्त जी की बातों ने उन पर कुछ ऐसा असर किया कि वे इस बात को बिल्कुल भूल गए कि वे कुछ पुतलियों के सामने खड़े हैं या एक तिलिस्मी नाटक मात्र देख रहे हैं। वे उनकी बात समाप्त होते ही वे यकायक अपनी जगह पर खड़े हो गए और हाथ जोड़कर बोल उठे। ‘‘गुरुदेव, क्या मैं एक बात पूछ सकता हूँ?’’

कुछ मुस्कुरा कर गुरु महाराज की मूरत बोल उठी, ‘‘तुम जो कुछ पूछोगे वह मैं जान गया हूँ तथापि पूछो क्या पूछते हो। सिर्फ यह ख्याल रक्खो कि समय थोड़ा है, तुम्हें अभी बहुत काम करना है, महाराज के उठने का समय हो गया है, और दरबार समाप्त होने ही बेला है।’’

प्रभा० : मैं बहुत ही संक्षेप में यह जानना चाहता हूँ कि तिलिस्म किस लिए बनाया जाता है और उसको तोड़ने की क्यों जरूरत पड़ती है?

गुरु० : इसका पूरा जवाब तुम्हें एक पुस्तक में मिलेगा जो आगे चलकर तुम्हारे हाथ लगेगी। पर संक्षेप में सुन लो कि यह लक्ष्मी अस्थिरा है, आज है और कल नहीं। बाहु और बुद्धि के बल से कोई प्रतापी अगाध धन संग्रह करता है और उसी का लड़का राह का भिखारी हो जाता है। इसलिए वे लोग जिनके पास आवश्यकता से अधिक धन है अपने धन का कुछ भाग भविष्य के लिए इस प्रकार सुरक्षित कर जाना चाहते हैं कि वह नष्ट न हो बल्कि उन्हीं के वंश के किसी प्रतापी आदमी को कुछ वर्षों या शताब्दियों के बाद मिल जाय, कभी-कभी निज की सन्तान न होने या नालायक होने पर भी उसको सब धन न देकर कुछ अंश तिलिस्म बनाकर उसके अन्दर रख दिया जाता है कि जिसमें आगे की पीढ़ियों में किसी बुद्घिमान और प्रतापी के हाथ लगे और वह उससे संसार का कुछ उपकार कर सके। ऐसे ही धन को हिफाजत से रखने के लिए तिलिस्म बनाया जाता है और जिसके नाम पर वह तिलिस्म बाँधा जाता है उसके सिवाय और कोई उसको खोल या धन निकाल नहीं सकता।

प्रभा० : ठीक है, मैं समझ गया। मुझे यह जान अकथनीय प्रसन्नता हुई कि मैं वृद्ध श्री महाराज के वंश का एक तुच्छ चिह्न हूँ। आपने इस तिलिस्म के शीघ्र ही टूटने वाले जिन अन्य हिस्सों का जिक्र किया उनके तोड़ने वाले महापुरुषों को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ और आज यह जान मेरी प्रसन्नता की हद न रही कि उनसे मेरा कुछ सम्बन्ध भी है। पर यह जानने का मुझे कौतूहल हो रहा है कि काल के प्रभाव से जिस तरह महाराज के वंश के चार व्यक्ति आज एकत्र और उपस्थित हो रहे हैं, उसी तरह महाराज के गुरु अर्थात आपके वंश का भी कोई ऐसा व्यक्ति क्या इस समय नहीं है जो आजकल के इस जमाने में उपस्थित हो?

गुरु० : मैं तो आजन्म बह्यचारी था अस्तु मेरा वंश तो है ही नहीं पर यदि तुम मेरे शिष्य-वर्ग को मेरा वंश समझ लो तो घटनाचक्र से आज मेरे शिष्यों के चार वंशधर एकत्र हो हुए हैं और इस तिलिस्म के तोड़ने में उनका भी कुछ विशेष हाथ है, होगा और रहेगा।

प्रभा० : (कौतूहल के साथ) ऐसा! तो क्या मैं उनका परिचय पा सकता हूँ?

गुरु० : कहना उचित तो नहीं है, पर मैं जानता हूँ कि तुम इस बात को बहुत ही गुप्त रक्खोगे इसलिए कहे देता हूँ कि शेरसिंह, इन्द्रदेव, यदुनाथ और भूतनाथ मेरे ही चार शिष्यों के वंशज है और तिलिस्म के इस पीढ़ी में टूटने वाले चारों हिस्सों से इन चारों का विशेष सम्बन्ध है,

प्रभा० : है! शेरसिंह, इन्द्रदेव, यदुनाथ और भूतनाथ आपके शिष्यों की सन्ताने हैं!!

गुरु०: (मुस्कुरा कर) हाँ।

प्रभा० : (बढ़ते हुए आश्चर्य से) तो क्या मैं जान सकता हूँ कि इन लोगों का तिलिस्म से किस प्रकार का सम्बन्ध है?

गुरु० : विक्रमी तिलिस्म के चार टूटने वाले हिस्सों की तालियाँ इन चार मनुष्यों की हिफाजत में थीं, पड़ी या रहेंगी, तथा इनका वास्तविक कर्तव्य तिलिस्म तोड़ने वालों की सहायता करना है।

प्रभा० : क्या ये लोग खुद उन चाभियों की मदद से तिलिस्म खोल उसकी दौलत निकाल नहीं सकते?

गुरु० : केवल चाभी पास रखने ही से तिलिस्म टूट नहीं सकता। वह तो जिसके नाम पर बाँधा गया है उसी के हाथों टूट पावेगा, फिर भी यह जरूर रहेगा और चाभियाँ जिनके पास हैं उनका तिलिस्मी मामलों में कुछ दखल जरूर रहेगा और उनको दौलत की कमी भी किसी तरह न हो सकेगी।

प्रभा० : आपने जो नाम लिए घटनावशात मैं उन चारों ही को जानता हूँ और उसी जानकारी के बल पर यह कहने की घृष्टता करता हूँ कि जो नाम लिए उनमें से कुछ आज संसार में बड़े ही बदनाम हो रहे हैं।

गुरु०: (मुस्कुराकर) यह बात हम लोगों से छिपी हुई नहीं है। यदुनाथ और भूतनाथ मेरे शिष्य सम्प्रदाय का नाम बदनाम करने वाले लोग हैं। और शायद तुम कहोगे कि ऐसे आदमियों के हाथ में तिलिस्म की चाभी पड़ने का नतीजा अच्छा नहीं निकल सकता।

प्रभा० : (कुछ संकोच के साथ) जी हाँ, मैं यही कहना चाहता था। मुझे इस बात का आश्चर्य है कि ऐसे लोग आप जैसे महात्मा के वंश में किस तरह आ गए!

महात्मा : किसके वंश में कब कौन जन्म लेगा इस पर सिवाय भगवान के अन्य किसी का वश नहीं है और इस बात की चिन्ता करना भी बिल्कुल व्यर्थ है।

प्रभा० : यह ठीक है, पर मुझे यह जानने का कौतूहल है कि जब आप जानते थे कि ये दोनों ऐसे होंगे तो फिर इस प्रकार का नाजुक काम....

महात्मा : पर हम लोगों ने इसकी फिक्र कर रक्खी है। ये दोनों, यदुनाथ और भूतनाथ, दो तिलिस्म चाभियों को रखते हुए भी यह जान नहीं पावेंगे कि उनके पास कैसी कीमती चीज है। केवल जब समय आवेगा तभी घटनाक्रम इस बात को प्रकट कर देगा और उसी समय ये चीजें अर्थात तिलिस्म की चाभियाँ भी उनके हाथों से निकलकर उनके असली मालिकों के पास चली जाएँगी।

प्रभा० : ठीक है, मगर मुझे इन लोगों के बारे में भी कुछ कौतूहल है। इन लोगों का अन्त क्या होगा? इस समय घटनाचक्र जैसा चल रहा है और ये लोग जिस तरह कार्रवाइयाँ कर रहे हैं उनको देखते हुए....

महात्मा : इस संसार में सभी अपनी-अपनी करनी का फल भोगते हैं, ये भी भोगेगें। इन चारों में से केवल दो ही अपना कर्तव्य ठीक तरह से पालन करेंगे। बाकी दो को लालच पैदा होगी और वे तिलिस्म का धन खुद हड़पने की चेष्टा करेंगे, फल यह होगा कि स्वयं भी नष्ट होंगे और अपने साथियों को भी डुबाएँगे। इनमें से एक भूतनाथ तो शायद सम्हल भी जाय पर दूसरा, यदुनाथ, अन्त तक अपनी कुवासनाओं को रोक न सकेगा और एकदम नष्ट हो जायगा।

प्रभा० : सो कैसे महाराज? यदि हर्ज न हो तो कृपा कर दीजिए।

महात्मा : भविष्य के बारे में विशेष कौतूहल रखना या उसको जानने की चेष्टा करना कभी अच्छा नहीं होता, फिर भी तुम पूछते हो तो बताए देता हूँ कि जब गोपालसिंह के हाथों तिलिस्म का एक भाग टूटने का समय आवेगा तो यह यदुनाथ उस काम में बाधा देगा और तिलिस्म का मालिक खुद बनना चाहेगा। इसमें वह सफल तो होगा ही नहीं बल्कि खुद भी तिलिस्म के एक चक्कर में पड़कर दीन दुनिया से बेकाम होकर कुत्तों की मौत मारा जायगा।

प्रभा० : और भूतनाथ? उसकी क्या गति होगी?

महात्मा : लालच उसको भी विनाश के गढ़े में गिरावेगी। पर अन्त में एक....

महात्मा की बात पूरी न हुई थी कि उसी समय यकायक कहीं से जोर से शंख बजने की आवाज आई जिसे सुन वे चौंक पड़े और सिर घुमाकर एक तरफ देखने लगे। प्रभाकरसिंह भी यह देख ताज्जुब की निगाहें चारों तरफ डालने लगे, इसी समय बड़े जोर से उस कमरे का दरवाजा जो बन्द था खुल गया और कई आदमी कमरे के अन्दर आते हुए दिखाई पड़े। न-जाने ये लोग कौन थे कि प्रभाकरसिंह उन्हें देखते ही चौंक पड़े और ताज्जुब के साथ अपनी कुर्सी पर से उठ खड़े हुए।


पीछे लिखे तिलिस्मी मजमून का मतलब-


‘‘होशियार हो जाओ मगर कहीं बैठो नहीं और मणि-भवन में पहुंच तिलिस्मी हथियार छुला दो।’’

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