मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 6 भूतनाथ - खण्ड 6देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण
पाँचवाँ बयान
एक तो भूतनाथ पहिले ही का जख्मी कमजोर, ऊपर से यह अचानक की विपत्ति, नतीजा यह हुआ कि कूएँ में गिरने के साथ ही वह बदहवास हो गया और उसे तनोबदन की सुध न रह गई।
जब वह होश में आया तो उसने अपने को उस कूएँ की जगत पर पड़ा हुआ पाया, उसके चारों तरफ कई आदमी थे जो बड़ी होशियारी और जानकारी के साथ उसका तरह-तरह से उपचार करते हुए उसको होश में लाने की कोशिश कर रहे थे और जिस समय उसने आँखें खोली उनमें से एक उसकी नब्ज पकड़े ऊपर झुका हुआ उसकी सूरत गौर से देख रहा था। आँखें खुलते ही भूतनाथ की निगाह उस पर पड़ी और वह कुछ सायत तक गौर से देख ताज्जुब के साथ बोला उठा, ‘‘है, रामेश्वर! तुम यहाँ कैसे!’’ रामेश्वरचन्द्र ने जवाब दिया, ‘‘जी हाँ गुरुजी, मैं ही हूँ, और परमात्मा को हजार धन्यवाद है कि हम लोग आपको जीते-जागते पा रहे हैं,’’ और तब भूतनाथ के पैरों पर गिर पड़ा।
भूतनाथ ने प्रेम से उसको उठाया और तब चारों तरफ के बाकी आदमियों पर भी निगाह की। देखते ही वह पहिचान गया कि ये सब भी उसके शागिर्द हैं जो उसको होश में आया हुआ देख बड़ी ही प्रसन्नता के साथ सामने आ-आकर दण्ड प्रणाम कर रहे थे। भूतनाथ इन लोगों को देखकर बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘मालूम होता है कि तुम्हीं लोगों ने मुझको कूएँ के बाहर निकाला है?’’ रामेश्वरचन्द्र बोला, ‘‘जी हाँ, हम लोगों ने दूर ही से लक्ष्य किया कि कूएँ पर किसी तरह की दुर्घटना हुई है और जब यहाँ आए तो आपको अन्दर गिरा पाया।’’
भूत० : (चौंककर) मगर तुम लोगों ने उस शैतान को पकड़ने की भी कोई कोशिश की जिसने मेरे साथ इस तरह दगा की?
रामेश्वर० : बलदेव और रामगोविन्द ने उसका पीछा किया मगर वह जंगल के अन्दर न-जाने कहाँ गायब हो गया कि पता लग न सका, मगर वह था कौन आदमी?
भूत० : ताज्जुब की बात है, कि मैं उसको बिल्कुल पहिचान न सका। सरसरी निगाह से देख मैंने उसे कोई देहाती पंडित समझा और धोखा खा गया (इधर-उधर देख कर) क्या तुम लोगों ने मेरा बटुआ और बाकी सामान कहीं रक्खा है या....
रामेश्वर० : हम लोगों ने तो यहाँ सिवाय आपके कपड़ों के और कोई चीज नहीं पाई और अगर इस जगह किसी तरह का दूसरा सामान था तो मानना पड़ेगा कि वह उस शैतान के ही कब्जे में चला गया।
यह एक ऐसी बात थी कि जिसे सुनते ही भूतनाथ चमक कर उठ बैठा और बेचैनी के साथ इधर-उधर देखता हुआ बोला, ‘‘ओफ ओह, तब तो वह कम्बख्त मुझे एकदम बरबाद करके ही गया है। तुम लोगों ने बड़ी गलती की जो उसको देखकर भी हाथ से निकल जाने दिया, अफसोस!’’
रामेश्वर० : क्या आपके साथ कोई कीमती चीज थी?
भूत० : ऐसी कीमती कि उसके चले जाने की बनिस्बत मैं जान दे देना ज्यादा अच्छा समझता! केवल मेरी ऐयारी का बटुआ ही मेरे साथ न था जिसमें एक से एक बढ़कर नायाब दवाएँ और सामान थे, बल्कि दो-एक और भी ऐसी चीजें थीं जिनके लिए मैं वर्षों से परेशान था और अपना खून-पानी एक करके जिन्हें अभी हाल ही में मैंने कब्जे में किया था। अफसोस, रामेश्वरचन्द्र, यह बड़ी बुरी बात हुई। तुम लोगों से पुनः मिलने की, नहीं, बल्कि अपनी जान बचाने की, मुझे जितनी खुशी न हुई उससे हजार गुना ज्यादा रंज उन चीजों के जाने का हुआ वो अगर मेरे किसी दुश्मन के हाथ में पड़ गई तो जरूर मुझे बरबाद करके छोड़ेगी और वह भी निश्चय मेरा कोई जानी दुश्मन ही होगा जिसने मेरे साथ इस तरह की दगा की, अफसोस, अफसोस, रामेश्वचन्द्र, तुमने व्यर्थ ही मेरी जान बचाई।
गई हुई चीजों के गम में भूतनाथ ने अपना सिर झुका लिया और लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा। रामेश्वचन्द्र कुछ देर तक तो अफसोस और रंज के साथ उसकी तरफ देखता रहा तब बोला, ‘‘आखिर कौन-सी ऐसी चीज आपकी जाती रही जिसके लिए आप इस कदर रंजकर रहे हैं? बड़ी-से-बड़ी मुसीबत आने पर भी मैंने आपको कभी इस तरह अफसोस करते हुए नहीं पाया था।’’
भूत० : बस इसी से समझ सकते हो कि कितनी भारी चीज चली गई। सच पूछो तो आज मैं बरबाद हो गया, मेरी जिन्दगी की उम्मीद जाती रही, और जब तक मेरे हाथ में वे चीजें पुनः नहीं आ जातीं तब मुझे दर-दर मारा-मारा फिरना पड़ेगा। अफसोस रामेश्वरचन्द्र, तुमने उस शैतान को भाग जाने देकर आज बस यह समझ लो कि मेरा खून कर डाला और क्या कहूँ!
रामे० : (अफसोस से) मैं बिल्कुल नहीं समझ सका कि कौन-सी चीज आपकी जाती रही फिर भी आपको इस तरह निराश होते मैं नहीं देख सकता। अगर आप कहें तो मैं इसी समय जाऊँ और जिस तरह भी हो सके उस शैतान का पता लगाकर उससे आपकी चीज वापस लाऊँ, आखिर वह बन का गीदड़ जाएगा किधर?
भूत० : जरूर ऐसा करना ही पड़ेगा और जैसे भी हो उससे वे चीजें वापस लेनी ही पड़ेंगी, मगर इस वक्त मुझे तुमसे बहुत-सी दूसरी बातें कहनी हैं, मेरा विचार यह होता है कि इस वक्त तुम अपने साथियों को तो उस आदमी का पता लगाने के लिए भेज दो और खुद यहाँ रुक कर जो कुछ मैं कहता हूँ उसे सुन लो। विश्वास रक्खो कि उन चीजों के चले जाने से अब मेरी जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं रह गया है और न-जाने कब मुझे यह दुनिया छोड़ देनी पड़े अस्तु ऐसी हालत में अपना कुछ जरूरी भेद मैं तुमसे कह जाना चाहता हूँ।
इतना कह भूतनाथ ने किसी तरह का इशारा किया जिसे समझ रामेश्वरचन्द्र ने अपने साथियों की तरफ देखा और कहा, ‘‘जब गुरुजी का ऐसा जरूरी सामान चला गया है तो हम लोगों का कर्तव्य है कि जिस तरह भी हो उसको वापस लावें और जिसने इस तरह की दगा की है उसको गहरी सजा दें, अस्तु बिना किसी तरह का भी विलम्ब किए आप लोगों को इस मुहिम पर रवाना हो जाना और ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि जल्दी से जल्दी गुरुजी की चीजें वापस मिलें और उनकी तबीयत ठिकाने आवे।’’
भूतनाथ के शागिर्दों ने यह सुनकर कहा, ‘‘हम लोग अभी जाते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि अगर वह आदमी पाताल में चला गया होगा तब भी उसको पकड़ कर गुरुजी के चरणों में हाजिर करेंगे! मगर कुछ अन्दाजा हमें मिल जाना चाहिए कि कौन-सी चीज गई है और किसका यह काम हो सकता है, ऐसा होने से हम लोगों को अपना काम करने में बहुत मदद मिलेगी।’’
भूत० : मैं उस आदमी को बिल्कुल नहीं पहचान सका, मगर इसमें कोई शक नहीं कि वह मेरे दुश्मनों में से ही कोई था। तुम लोगों को सब तरफ निगाह रखते हुए काम करना पड़ेगा क्योंकि मेरे दुश्मन चारों ही तरफ है।
गई हुई चीजें मेरा बटुआ, एक पीतल की सन्दूकड़ी और एक लपेटी हुई तस्वीर हैं, और इन्हें ही तुम्हें खोज निकालना है। यद्यपि इसमें कोई शक नहीं कि काम मुश्किल होगा और दुश्मन बहुत ही होशियार और बेईमान है मगर अपनी तरफ से जो कुछ मैं कह सकता हूँ वह यही है कि अगर तुम लोग मेरी गई हुई चीजों को वापस ला सके तो मैं यही समझूँगा कि मेरी जान तुमने बचाई और जिन्दगी-भर तुम लोगों को इसी तरह मानता भी रहूँगा।
शागिर्द : अगर यह बात है तो फिर हम लोग भी कसम खाते हैं कि जिस तरह बनेगा उस शैतान का पता लगाकर उसे आपके सामने लावेंगे और जब तक ऐसा न करेंगे आपके चरणों का दर्शन न करेंगे। बस अब देर करने की जरूरत ही क्या?
रामेश्वर : शाबाश बहादुरों, मुझे पूरी उम्मीद है कि तुम लोग इस काम में कामयाब होगे, तो बस अब जय माया की, शुभस्य शीघ्रम।
शागिर्द : जय माया की! (भूतनाथ से) आप हम लोगों को आशीर्वाद दीजिए कि जो काम हम लोगों ने उठाया है उसमें हमें सफलता मिले।
सब शागिर्दों ने भूतनाथ का चरण छूआ और उसने आशीर्वाद देकर सभी को विदा किया। उसका इशारा पाकर रामेश्वरचन्द्र के अलावा केवल रामगोविन्द और बलदेव उस जगह रह गए और बाकी सबके सब एक-एक कर कूएँ के नीचे उतर उसी जंगल की तरफ रवाना हो गए जिधर भूतनाथ को कूएँ में ढकेल वह दगाबाज मुसाफिर भाग गया था।
बहुत देर तक भूतनाथ उन्हीं लोगों की तरफ देखता रहा और जब वे सबके सब जंगल में घुसकर उसकी आँखों की ओट हो गए तो उसने एक लम्बी साँस लेकर उधर से सिर घुमाया। उसके तीनों प्यारे और विश्वासी शागिर्द बेचैनी के साथ उसकी तरफ देख रहे थे जिन्हें लक्ष्य कर उसने कहा–
भूत० : मेरे प्यारे शागिर्दों, इन लोगों को मैंने सिर्फ इसीलिए बिदा नहीं किया है जिसमें ये मेरे दुश्मन का पता लगावें बल्कि इसलिए भी यहाँ से हटा दिया है कि जिससे मैं तुम लोगों को एक ऐसे भेद का खुलासा हाल कह सकूँ जिसको आज तक अपनी जुबान से मैंने किसी से नहीं कहा था और जिसके बारे में मै कल तक यही समझता आया था कि कभी किसी पर उसका सच्चा भेद न तो प्रकट हुआ, न होने पावेगा, मगर अब मालूम हुआ कि मेरा वह खयाल गलत था और मेरी बदनामी का एक सबसे बड़ा जरिया पैदा हो गया है जो मुझे कहीं का न छोड़ेगा। मगर मुझे पूरा विश्वास है कि तुम लोग इस भेद को मन्त्र की तरह छिपाओगे और जान रहते कभी किसी पर प्रकट न करोगे।
रामे० : आप विश्वास रखिए कि चाहे हम लोगों की जान भी चली जाय मगर आपका कोई भेद हमसे किसी तरह जाहिर न होगा।
भूत० : ठीक है, मुझे यही विश्वास भी है। अच्छा तो गौर से सुनो जो मै कहता हूँ। (कुछ रुककर) इधर चार-पाँच रोज के भीतर का हाल तो शायद तुमको न मालूम होगा?
रामे ०: हम लोग सिर्फ इतना ही जानते हैं कि आप बलदेव को लेकर तिलिस्म के भीतर कहीं गए थे और वहाँ से लौटकर अकेले लोहगढ़ी के अन्दर गए। आपके जाने के कुछ ही देर बाद लोहगढ़ी उड़ गई और हम लोगों ने यही समझा कि हो न हो, आप भी उसी के साथ....! (रुककर) इस समय ईश्वर की दया से आपको जीता-जागता देख रहे हैं नहीं तो हम लोग तो बुरी कल्पना करने लगे थे।
भूत० : मैं सब हाल खुलासा कहता हूँ सुनो, नन्हों, गौहर और मुन्दर इधर बहुत दिनों से मेरे पीछे पड़ी हुई थीं और मुझे बरबाद करने की कोशिश कर रही थीं जिसका पता मुझे लग चुका था और जिसका कुछ हाल तुम लोगों को भी मालूम है। बात असल में यह है कि इन सभी को मेरे एक गुप्त भेद का पता लग चुका था और उसी का दबाव मुझ पर डालकर ये शायद अपना कोई गूढ़ मतलब सिद्ध करना चाहती थीं। वह भेद क्या था यह मैं अभी तुम लोगों को बताऊँगा पर पहिले इतना कह लूँ कि मुझे पता लगा कि नन्हों राजा गोपालसिंह को धोखा देकर एक तिलिस्मी किताब उनसे लेना चाहती है और इस काम के लिए तिलिस्म के अन्दर घुसने वाली है। उस किताब की मुझे भी जरूरत थी मगर मैं खुद गोपालसिंह को किसी तरह का धोखा कैसे दे सकता था, इसलिए इस खबर को सुन मैंने मौका अच्छा समझा और अपनी कार्रवाई कर डाली जिसका नतीजा यह निकला कि वह किताब मेरे हाथ आ गई और नन्हों बिल्कुल उल्लू बन गई।
रामे० : आपको इसका पता कैसे लगा कि नन्हों इस तरह की कार्रवाई करना चाहती है और वह किताब अब कहाँ है?
भूत० : दारोगा के एक आदमी को धोखा देकर मैंने यह बात मालूम की। असल में खुद दारोगा को उस किताब की जरूरत थी और वह बहुत दिनों से उसे दस्तयाब करने की फिक्र में पड़ा हुआ था। उसी ने नन्हों को इस काम पर मुकर्रर किया था और उसके जरिए अपना काम निकालना चाहता था। मैंने किया यह कि नन्हों के साथी एक ऐयार को जिसे अपने साथ ले दारोगा की मदद से वह तिलिस्म में घुसी थी, गिरफ्तार कर उसकी जगह इस तुम्हारे साथी बलदेव को अन्दर कर दिया। नन्हों ने गोपालसिंह से वह किताब लेकर इसी बलदेव को दी और बलदेव इसको बेहोश कर बाहर-बाहर मेरे पास ले आया। मैंने असल किताब के सूरत-शकल की एक बनावटी किताब तैयार करके उसके हवाले कर दी और असली। खुद लेकर चल दिया। वही किताब मेरे बटुए में थी जो इस समय उस कम्बख्त ने मुझे कूएँ में गिराकर खुद ले ली।
रामे०: (बलदेव से) इतना हाल तो हम लोगों को मालूम हुआ था मगर यह हम लोग जान न सके, आपके लोहगढ़ी में जाने के बाद क्या-क्या हुआ और लोहगढ़ी क्योंकर उड़ गई तथा आप किस तरह उसके बाहर हुए।
भूत० : वह सब हाल भी मैं तुमसे कहता हूँ। असल में नन्हों ने उस किताब के लिए दारोगा को भी उल्लू बनाया था और यह सब कोशिश रोहतासगढ़ के राजा दिग्विजयसिंह के लिए कर रही थी जो बरसों से उस किताब की फिराक में था।
रामे० : मगर आखिर उस किताब में ऐसी कौन-सी नायाब बात थी जो इतने आदमी उसकी फिराक में थे?
भूत० : मैं सब कहता हूँ तुम चुपचाप सुनते चलो। वह किताब एक बहुत बड़े भेद का खजाना है बल्कि यह कहना चाहिए कि एक बहुत बड़े खजाने का भेद उसके अन्दर छिपा हुआ है। मुझे उसकी क्या जरूरत थी यह हाल मैं आगे चल कर तुमसे कहूँगा, पहिले यह सुन लो कि मेरे लोहगढ़ी के अन्दर चले जाने पर क्या हुआ। जिस लिए मैं लोहगढ़ी के अन्दर गया वह सबब यह था कि मुझे पता लग चुका था कि मेरे सब दुश्मन....गौहर, मुन्दर, नन्हों तथा दलीपशाह और दिग्विजयसिंह के कई आदमी....।।उसके अन्दर पहुँच कर एक कमेटी करने वाले हैं जिसमें मुझे बर्बाद करने की तरकीब सोची जायगी, अस्तु मैं खुद उन सभी को दीन-दुनिया से दूर कर देने का विचार करके वहाँ गया पर हुआ कुछ उलटा ही। मैंने बम के गोले से उस सभी को उड़ा देना चाहा पर इस बात का पता न रहने के कारण कि लोहगढ़ी में तोप और गोले-बारूद का भी बहुत बड़ा खजाना रहता है धोखा खा गया और अपने बचाव का मुनासिब इन्तजाम कर न सका, नतीजा यह हुआ कि मेरे गोले की तासीर से उस बारूद के खजाने में भी आग लग गई जिससे वह समूची इमारत ही उड़ गई। मेरे दुश्मन तो सब के सभी जान से मारे गए मगर मैं खुद भी उसी मुसीबत में गिरफ्तार हो गया!
रामे० : फिर आप किस तरह बचे?
भूत० : मेरी जान किसी तरह मेरे गुरुभाई शेरसिंह ने बचाई जो असल में तो है राजा दिग्विजयसिंह का ऐयार और उन्हीं के किसी काम से यहाँ आया हुआ था, मगर फिर भी मुझसे मुहब्बत करता है। न जाने किस तरह उसने वहाँ पहुँचकर मुझे बाहर निकाला जिसका ठीक-ठीक हाल उसने मुझे नहीं बताया मगर इसमें कोई शक नहीं कि मेरी जान बचने का सबब वही है। उसी ने मेरी मलहम-पट्टी की, और उसी की लगाई हुई एक अनमोल बूटी की बदौलत मेरी जान बची। उसने मेरा बटुआ और बाकी सब सामान भी मुझे वापस किया जिसमें और चीजों के इलावे वह तिलिस्मी किताब भी थी जो मैंने इतनी जान-जोखिम के बाद पाई थी और जिसे यह कम्बख्त मुझे कूएँ मे ढकेल कर ले भागा।
रामे० : अफसोस! मगर आप विश्वास रक्खें कि आपके शागिर्द बिना उस आदमी का पता लगाए न लौटेंगे जिसने ऐसी गंदी धोखेबाजी का काम किया है।
भूत० : मैं परमात्मा से मनाता हूँ कि वह तुम्हारा विश्वास पूरा उतारे, पर केवल वही चीज मेरे साथ न थी। उसके साथ-साथ एक ऐसी भी चीज थी कि जिसके जाने से मैं एकदम अधमूआ हो गया हूँ। और भी मुश्किल की बात यह कि उस चीज का बयान मैं अपने आदमियों के सामने कर भी नहीं सकता था। फिर भी उसका वापस पाना सबसे ज्यादा जरूरी है और अगर वह पुनः मेरे कब्जे में न आई तो दुनिया में मेरा जीता रहना मुश्किल हो जायगा।
रामे० : वह दूसरी कौन-सी चीज है?
भूत० : इसी बात को बताने के लिए मैंने तुम लोगों को यहाँ रोक लिया है और चाहता हूँ कि तुम उस चीज का परिचय जान लो और तब इस तरह पर उसे खोज निकालो कि किसी को न तो उसके अस्तित्व का पता लगे और न कोई यही जानने पावे कि उसका क्या रहस्य है मगर उसका भेद बताने के पिहले मैं तुमसे यह प्रतिज्ञा करा लेना चाहता हूँ कि तुम लोगों के पेट के अन्दर ही वह भेद छिपा रह जायगा, कभी किसी कारण से भी बाहर न आवेगा।
रामे० : आपको एक पल के लिए भी यह तो सोचना ही न चाहिए कि आपका कोई गुप्त भेद हम लोगों द्वारा प्रकट हो जायगा, फिर भी अगर आप चाहते ही हैं तो मैं दुर्गा की शपथ खाकर (खंजर हाथ में लेकर) प्रतिज्ञा करता हूँ कि वह भेद कभी मेरी जुबान के बाहर न आवेगा।
भूतनाथ ने यह सुन बदलेव और रामगोविन्द की तरफ देखा और उन्होंने भी उसका मतलब समझ खंजर हाथ में लेकर प्रतिज्ञा की, इसके बाद वह बोला-
भूत० : तुम लोग यह मत समझना कि मुझे तुम्हारी सचाई या बुद्धिमानी पर विश्वास नहीं है जो मैंने इस तरह की प्रतिज्ञा तुमसे करवाई, नहीं, मैं तुमको अपने लड़के से भी बढ़कर मानता हूँ और इस प्रतिज्ञा के लेने का कारण सिर्फ यही है कि जिस चीज का भेद आज मैं तुमसे कहने जा रहा हूँ उसके बारे में अगर दुनिया में किसी तरह भी कुछ प्रकट हो गया तो मैं जीते-जी मुर्दे से बदतर हो जाऊँगा और किसी को मुँह दिखाने लायक न रहूँगा। खैर अब आगे बढ़ आओ और गौर से सुनो कि मैं क्या कहता हूँ।
भूतनाथ के तीनों शागिर्द आगे बढ़ आए और गौर तथा ताज्जुब के साथ उसकी तरफ देखते हुए सोचने लगे कि कौन-सी आश्चर्य की बात अब उन्हें सुनाई जाती है। भूतनाथ थोड़ी देर तक चुपचाप कुछ सोचता रहा, तब आँख बन्द कर एक लम्बी साँस लेने बाद उसने इस तरह कहना शुरू कियाः-
भूत० : तुम लोगों को यह बात मालूम है कि एक बार मैंने जमानिया की बड़ी महारानी अर्थात महाराज गिरधरसिंह की रानी का कुछ काम किया था जिसके इनाम में शिवगढ़ी के खजाने की ताली मुझे मिली थी।
रामे० : जी हाँ, यह हाल आप कह चुके हैं मगर यह अभी तक हम लोगों को न मालूम हुआ कि कौन-सा वह काम था जो आपसे बन पड़ा और शिवगढ़ी कौन-सी जगह थी उसके अन्दर किस तरह का खजाना बन्द है?
भूत० : (जरा काँप कर) वह काम जो मैंने किया था वह मैं अभी न बताऊँगा पर शिवगढ़ी कौन-सी जगह है और उसके अन्दर क्या है यह तुम लोग सुनो। शिवगढ़ी वास्तव में रोहतासगढ़ की अमलदारी में बना हुआ एक बहुत पुराना छोटा-सा किला है जिसके अन्दर कहा जाता है कि किसी पुराने जमाने की बहुत ही बेइन्तहा दौलत गड़ी हुई है। रोहतासगढ़ के किले से दस कोस दक्खिन वह स्थान है। एक छोटी-सी पहाड़ी जिसे इधर वाले लुटिया पहाड़ी’ के नाम से पुकारते हैं, क्योंकि वह दूर से देखने में बिल्कुल लुटिया की शक्ल की दिखाई देती है- उन पहाड़ियों के लम्बे सिलसिले से एकदम अलग जो रोहतासगढ़ के इलाके में दूर तक चला गया है-पहाड़ी है, और उसकी चोटी पर एक छोटा-सा किले या गढ़ी की तरह का एक मकान बना हुआ है जो यद्यपि जमाने के हाथों बहुत चोटें सह चुका है फिर भी अभी पचासों बरसातें सम्हालने लायक है। तुम लोग जानते ही होगे कि मेरा गुरुभाई शेरसिंह रोहतासगढ़ में ही नौकर था जिस सबब से प्रायः मुझे वहाँ जाने की जरूरत पड़ती थी। जब कभी मैं उस तरफ जाता तो इस शिवगढ़ी का भी एक चक्कर जरूर लगाता था क्योंकि उस गढी के अन्दर एक मन्दिर पड़ता है जिसके पुजारी से मेरा परिचय हो गया था और वह मुझसे मिलकर बहुत प्रसन्न होता था।
रामे० : तो क्या शिवगढ़ी में लोग रहते भी थे?
भूत० : है तो वह एकदम सूनसान जंगल में एक वीरान स्थान पर जिसमें कोई भी रहता नहीं बल्कि आस-पास के गाँवों वाले उधर-जाते डरते हैं, क्योंकि उसके बारे में यह मशहूर है कि वहाँ भूत-प्रेतों का अड्डा है, मगर वह पुजारी न-जाने क्यों अकेला ही, सिर्फ अपनी एक लड़की के साथ उस जगह रहता था गढ़ी के अन्दर एक बहुत बड़ा मन्दिर है जिसकी एक विशेषता यह है कि प्रायः और मन्दिर तो किसी देवी-देवता के होते हैं और उन्हीं की मूरत उसके अन्दर बैठाई रहती है पर यह मन्दिर महाकाल का था जिसकी एक बड़ी ही विकराल मूर्ति उसके अन्दर बैठाई थी। वह पुजारी उसी मूर्ति की पूजा किया करता था और खुद उस गढ़ी के बाहर और पहाड़ी के नीचे लगे हुए एक छोटे मकान में रहता था जो कि साधुओं के मठ के किते का बना हुआ था और जिसे वह रोहतासमठ कह के पुकारा करता था। उस पुजारी को रोहतासगढ़ के राजा की तरफ से कुछ महीना मुकर्रर था और जैसाकि मैंने कहा, न-जाने किस सबब से वह अपनी एक लड़की के साथ अकेला उसी मठ में रहा करता और उस मूरत की पूजा किया करता था। उस पुजारी की लड़की का नाम नन्हों था।
रामे० : क्या नाम था? नन्हों! क्या वह यही नन्हों तो नहीं जिसने आपको....
भूत० : हाँ, वह यही नन्हों थी। पुजारी की लड़की यह नन्हों विधवा थी और इसकी चालचलन कुछ खराब हो गई थी शायद इसी सबब से ही वह बस्ती से अलग एकदम ऐसे सूनसान और निर्जन स्थान में रहा करता था। जब कभी मैं पुजारी के पास जाता तो यह नन्हों भी घण्टों मुझसे बातें किया करती और पहिले-पहल इसी की जुबानी यह बात मेरे सुनने से आई कि वह शिवगढ़ी वास्तव में रोहतासगढ़ के सदर तिलिस्म का एक हिस्सा है और उसके अन्दर बेहिसाब दौलत भरी है।
नन्हों ये यह जान कर कि शिवगढ़ी के अन्दर बहुत बड़ा खजाना बन्द है मुझे उसका भी हाल जानने की फिक्र पैदा हुई और लोगों से पूछताछ कर जल्दी ही मैंने इस सम्बन्ध में बहुत कुछ हाल मालूम कर लिया मुझे मालूम हुआ कि यह पुजारी वास्तव में शिवगढ़ी के तिलिस्म का दारोगा है और उसके पास कोई किताब है जिसमें उस तिलिस्म का पूरा हाल तथा उसको खोल कर खजाना निकालने की सब तर्कीब लिखी हुई है, तिलिस्म की सैर करने का मुझे बहुत बड़ा शौक था और खजाना भला कौन न चाहता होगा, अस्तु मैंने जिस तरह भी हो उस शिवगढ़ी का खजाना लेने का निश्चय कर लिया और इसी मतलब से वहाँ आना-जाना बहुत बढ़ा दिया खूबसूरत, दगाबाज और उस जगह का बहुत कुछ हाल जानने वाली उस काली नागिन नन्हों से इस काम में बहुत मदद मिलने की उम्मीद थी, अस्तु मैंने उसके साथ भी अपनी रफ्त-जफ्त कुछ बढ़ा दी।
खैर, किस तरह मैंने क्या-क्या किया यह सब कहने की कोई जरूरत नहीं, मुख्तर में समझ लो कि एक रात उस पुजारी को बेबस करके मैंने वह किताब उससे ले ली और इस काम में खास नन्हों ने मेरी मदद की जो अपने बूढ़े बाप को बिल्कुल नहीं चाहती थी बल्कि उससे सख्त नफरत करती थी। उसको भी तिलिस्म देखने और खजाना पाने का बेहद शौक था। हम दोनों ने एक साथ ही उस किताब को पूरा-पूरा पढ़ा और तब मालूम हुआ कि केवल उस एक ही किताब की मदद से शिवगढ़ी का तिलिस्म नहीं टूट सकता और न असल खजाना ही हाथ आ सकता है, हाँ तिलिस्म की सैर की जा सकती है और कुछ मामूली दौलत मिल सकती है जो तिलिस्म के बाहरी हिस्सों में रक्खी हुई है, असल और बड़ा खजाना पाने के लिए एक और किताब की जरूरत है जो कहीं बहुत छिपा कर रक्खी हुई है, बिना दोनों किताबें साथ हुए असली तिलिस्म टूट नहीं सकता, यह पढ़ मुझे अफसोस हुआ मगर खैर जो कुछ मिले वही सही, यह सोच हम लोगों ने तिलिस्म के अन्दर घुस उसकी सैर करने का निश्चय किया और ऐसा ही किया भी।
किताब की मदद से गुप्त रास्ता खोल हम लोग उस तिलिस्म के अन्दर घुसे। अब तुम लोगों से मैं क्या बताऊँ कि क्या-क्या चीजें उसके अन्दर हम लोगों ने देखीं और कैसे-कैसे नायाब सामान नजर आए। थोड़ा-बहुत खजाना भी हम लोगों के हाथ मगर उससे असली दौलत को हासिल करने की भूख और भी बढ गई।
शिवगढ़ी की इमारत देखने में तो बहुत छोटी और बिल्कुल मामूली-सी जान पड़ती थी पर उसके अन्दर का तिलिस्म बहुत ही बड़ा और बड़ी दूर-दूर तक फैला हुआ था, यहाँ तक कि उसकी एक सुरंग जमानिया के खासबाग में, दूसरी अजायबघर में, और तीसरी उस लोहगढ़ी के अन्दर तक गई थी जो उस दिन मेरी करनी से टूट-टाट कर नष्ट हो गई! कई दिनों बल्कि हफ्तों तक हम दोनों ने उस तिलिस्म की जहाँ तक हुआ अच्छी तरह सैर की और उसके अन्दर के अद्भुत और इन्द्र के स्वर्ग को भी मात कर देने वाले स्थानों का पूरा लुफ्त उठाया। मगर जैसा कि मैंने कहा-इससे असली तिलिस्म को खोलने और असली खजाने को पाने की मेरी इच्छा कई हजार गुना बढ़ गई और यही हाल नन्हों का भी हुआ।
मुझे मालूम था कि जमानिया के दारोगा साहब को तिलिस्मी मामलों में बहुत कुछ दखल है और वे इन बातों की अच्छी जानकारी रखते हैं, अस्तु मैंने उनसे उस विषय में अपनी इच्छा प्रकट करने का विचार किया, असल तो यह है कि उन दिनों खास उनका भी एक बहुत जरूरी काम अटका हुआ था जिसके लिए मेरी मदद की उन्हें जरूरत थी, अस्तु इस मामले में एक-दूसरे की मदद करने की प्रतिज्ञा की, दारोगा ने कसम खाई कि शिवगढ़ी की असल कुंजी मुझे देगा और मैंने वादा किया कि उसका काम पूरा कर दूँगा। दारोगा ही ने मुझे बताया कि उस तिलिस्म की असल ताली उसकी महारानी अर्थात महाराज गिरधरसिंह की रानी के कब्जे में है जो उन्हें अपने नैहर से दहेज में मिली थी, (तुम लोगों को मालूम ही होगा कि बड़ी महारानी रोहतासगढ़ के राजा त्रिभुवनसिंह की लड़की थीं जिनका लड़का दिग्विजयसिंह आजकल रोहतासगढ़ के तख्त पर बैठा है) और उसने यह भी कहा कि अगर महारानी साहबा का एक काम मैं बजा लाऊँ तो वह ऐसी कोशिश करेंगे कि इनाम में शिवगढ़ी की ताली मुझे मिल जाय।
मुख्तसर यह कि दारोगा की ही कोशिश से महारानी साहिबा ने मुझ पर मेहरबानी की और अपना वह काम बताया जिसको वह कराया चाहती थीं, वह काम क्या था यह मैं अभी कहना पसन्द नहीं करता। तुम लोग फकत इतना जान लो कि किसी-न-किसी तरह मैंने उसको पूरा उतार दिया और इनाम में वह ताली महारानी से पा ली।
पर ऐन मौंके पर कम्ब्ख्त नन्हों मेरे साथ दगा कर गई। न-जाने किसी दूसरे ने उससे यह काम कराया या वह खुद ही तिलिस्म खोल कर उस सब दौलत की अकेली मालकिन बनना चाहती थी अथवा क्या बात थी कि वह मुझे ही धोखा देने पर आमादा हो गई और एक रात कोई नशीली चीज खिला उसने मुझे बेहोश कर दिया, उसका मतलब मेरे कब्जे में वे दोनों तिलिस्मी किताबें उड़ाना था पर उसकी आधी ही इच्छा पूरी होकर रह गई। महारानी से मिली हुई तिलिस्म किताब तो मैं एक बड़ी हिफाजत की जगह पर रख आया था अस्तु वह तो उसे न मिली मगर वह पहली किताब जो उसके बाप से मुझको मिली थी उसने चुरा ली और कहीं भाग गई। नतीजा यह हुआ कि महारानी से असली किताब पाकर भी मैं लंडूर ही रह गया क्योंकि जैसाकि मैंने कहा, तिलिस्म खोलने के लिए दोनों किताबों की जरूरत थी और मेरे पास पुनः केवल एक ही बच गई थी।
मैंने नन्हों का पता लगाने की बहुत कोशिश की मगर न-मालूम वह कहाँ छिप गई थी कि उसका कुछ भी पता न लगा। उस किताब की खोज में परेशान मैने महीनों जगह-जगह की खाक छानी पर न तो उसका पता लगना था और न लगा ही।
वही किताब यह थी जो न-जाने किस तरह घूमती-फिरती राजा गोपालसिंह के कब्जे में पहुँच गई थी, जो उनसे नन्हों ने ली, और जो नन्हों को धोखा देकर मैंने ले ली थी। वही किताब आज उस शैतान ने मुझसे छीन ली।
मालूम तो मुझे यह होता है कि मेरे पास से वह किताब ले लेने पर भी नन्हों उसे अपने पास रख न सकी, किसी तरह वह उसके हाथ से भी निकल गई और राजा गोपालसिंह के पास जा पहुँची। जरूर वह उसको लेने की फिक्र में पड़ी रहा करती होगी और अन्त में उसको ऐसा करने का मौका मिल भी गया, वह तिलिस्म में घुसी और गोपालसिंह को धोखा दे उनसे वह किताब ले ली। वह तो कहो कि अगर मैं किताब उससे उड़ा न लिए होता तो जरूर वह अपना काम कर गुजरती अर्थात शिवगढ़ी का तिलिस्म खोल उसका खजाना ले भागती और तब मैं लंडूरा ही रह जाता।
रामेश्वर : मगर ऐसा कैसे हो सकता था? शिवगढ़ी की असल ताली तो आपने कहा न कि अभी तक आपके पास ही है, तब अकेली उस एक किताब की मदद से नन्हों कैसे तिलिस्म तोड़ सकती थी?
भूत० : यह बात भी मुझे उसी कम्बख्त की जुबानी मालूम हुई। (बलदेव की तरफ देख कर) क्यों बलदेव, तुम्हीं ने मुझसे कहा था न कि किताब को तुम्हारे हाथ में देकर नन्हों बोली कि बस अब दूसरी किताब राजा बीरेन्द्रसिंह वाली उसके हाथ में आई कि शिवगढ़ी का तिलिस्म खुला!’’
बलदेव : जी हाँ। बेशक उसने यही बात मुझसे कही थी मगर चूँकि मै इस बारे में कुछ भी नहीं जानता था इसलिए चुप रह गया ताकि किसी तरह की कोई ऐसी बात मेरे मुँह से न निकल पड़े जिससे उस धूर्त पर यह प्रकट हो जाये कि मैं उसका असली साथी नहीं हूँ।
भूत० : तुमने बहुत अच्छा किया और विशेष पूछताछ करने की कोई जरूरत थी भी नहीं। उसकी इस बात से ही मैंने पूरा मतलब निकाल लिया। असल बात यह है कि शिवगढ़ी के तिलिस्म का हाल कई किताबों में लिखा हुआ हैं जिसमें से कोई भी दो पास में होने से वह खोला जा सकता है। यह बात पहले मुझे मालूम न थी नहीं तो मैं अब तक कभी का अपना काम बना लिए होता क्योंकि मुझे मालूम था कि राजा बीरेन्द्रसिंह को विक्रमी तिलिस्म में एक किताब ऐसी मिली है जिसमें किसी और भी बड़े तिलिस्म को तोड़ने की तरकीब लिखी हुई है। अब तक मैं उस किताब को अपने किसी मसरफ की न समझ कर उधर से बेफिक्र था पर नन्हों की बात ने मुझ पर यह प्रकट कर दिया कि अगर वह किताब भी हाथ में आ जाय तो मेरा काम निकल सकता है। नन्हों का विचार वास्तव में यह था कि राजा गोपालसिंह वाली किताब उसे मिल जाय तो फिर वह राजा बीरेन्द्रसिंह वाली किताब को काबू में करे और इस तरह उन दोनों किताबों की मदद से शिवगढ़ी का खजाना निकाल ले। इसके लिए उसने बहुत कुछ बाँधनूँ बाँधे भी थे।
रामे० : तो क्या यही काम आप नहीं कर सकते? अर्थात आप क्या राजा बीरेन्द्रसिंह वाली वह किताब ले उसकी तथा आपके पास जो मौजूद है उसकी, इन दो किताबों की मदद से अपना काम निकाल नहीं सकते?
भूत० : बेशक निकाल सकता हूँ! यद्यपि राजा साहब के कब्जे से वह किताब लेना कुछ सहज न होगा फिर भी यह किया जा सकता है अगर तुम लोग मेरी भरपूर मदद करो।
रामे०: अवश्य ही हम लोग तो दिलोजान से हर तरह की मदद करने को तैयार ही हैं और फिर इस काम में तो और भी दूने उत्साह से मदद करेंगे। भला आपकी बदौलत एक बार तिलिस्म की सैर तो करने को मिल जायगी।
भूत० : इसमें भी कोई शक है! बल्कि मैं तो वादा करता हूँ, कि अगर यह काम हो जाय तो जो कुछ माल मिलेगा उसमें से इतनी रकम तुम लोगों को दूँगा कि जिन्दगी-भर के लिए मालामाल हो जाओगे और फिर कभी किसी की ताबेदारी करने की जरूरत न रहेगी।
रामे० : अफसोस, आपने पहले यह बात न कही!
भूत० : मुझे इस बात की खबर ही कहाँ थी जो तुम लोगों से कहता? कोई भी दो तिलिस्मी किताबें पास होने से यह काम हो सकेगा यह तो मैंने नन्हों की बातों से सार निकाला और न-जाने उस कम्बख्त को यह बात कैसे मालूम हुईं!
रामे० : तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसका कथन झूठा हो और हम लोग व्यर्थ की झंझट में पड़ कर अन्त में बेवकूफ बन जायँ।
भूत० : यही आशंका मुझको भी है और इसीलिए मैं उस नन्हों द्वारा मिली हुई किताब के जाने का इतना गम कर रहा था।
रामे० : खैर तो फिलहाल आप कम-से-कम कुछ समय के लिए तो अपना रंज और गम दूर कीजिए और उस आदमी की फिक्र जाने दीजिए जो आपको धोखा देकर वह किताब ले गया है, आगे का काम सोचिए और हम लोगों को बताइए।
भूत० : केवल वह किताब ही अगर मेरे कब्जे से निकल गई होती तो मैं इतना अफसोस न करता। मैंने तुम लोगों से कहा न कि उसके साथ एक चीज और भी ऐसी चली गई है जिसके जाने के खयाल ही ने मुझे अधमूआ कर दिया है।
रामे० : वह क्या चीज? क्या वही तस्वीर जिसका जिक्र आपके अपने शागिर्दों से किया था?
भूत० : हाँ।
रामे० : वह तस्वीर किसकी है?
भूत० : अफसोस कि मैं उसका कोई हाल अपनी जुबान पर लाते डरता हूँ। अगर किसी तरह पर भी उसका कोई भेद किसी गैर पर जाहिर हो गया तो मैं दुनिया में कहीं का न रहूँगा।
रामे० : अगर आप यह समझते हों कि हम लोग आपका भेद प्रकट कर देंगे तो इस खयाल को तो आप हमेशा के लिए दिल से निकाल दीजिए। हम लोगों ने अभी-अभी आपके सामने जो प्रतिज्ञा की है उसका ख्याल कीजिए और विश्वास रखिए कि हमारे जीते-जी हमारी जुबान से आपका कोई भी भेद किसी तरह पर जाहिर न होगा चाहे कुछ भी क्यों न हो जाय!
भूत० : सो तो मुझे विश्वास है मगर....
रामे० : और फिर यह भी सोचिए कि अगर उस तस्वीर को आप वापस पाना चाहते हैं तो जब तक उसका कुछ हाल हम लोगों को बताइयेगा नहीं तब तक हम लोग किस तरह उसे वापस पाने का उद्योग कर सकेंगे!
भूत० : (एक लम्बी सांस लेकर) सो सब भाई रामेश्वरचन्द्र, मैं सोचता-समझता और जानता हूँ। फिर भी उसका हाल प्रकट करते इस लिए डरता हूँ कि वह मेरी जिन्दगी के इतिहास का सबसे काला पृष्ठ है। और जितने भी कुकर्म मैं कर चुका या जितनों का हाल संसार में प्रकट हो चुका हूँ उनमें सबसे बढ़ कर वही है जिसका जिक्र उस तस्वीर में है और जिसकी बदौलत में कभी अपने को दुनिया में मुँह दिखाने लायक न समझूँगा। अगर उसका हाल लोगों पर जाहिर हो जायगा तो....
रामे० : खैर तो मैं उसको जानने के लिए बहुत आग्रह भी नहीं करता, आपकी इच्छा उसका हाल कहें या न कहें। लेकिन अगर आप यह चाहते हों कि उसे वापस पावें या इस काम में हम लोग आपकी मदद करें तो कम-से-कम उसका कुछ परिचय तो हम लोगों को देना ही पड़ेगा। बिना कुछ भी हाल जाने हम लोग किस तरह उसका पता लगा सकते हैं? यही नहीं, किस तरह यह भी समझ सकते हैं कि यही वह तस्वीर है जिसकी आपको जरूरत है?
भूत० : (कुछ सोच कर) खैर इतना मैं इस जगह अभी तुम लोगों को बता सकता हूँ कि वह एक बड़ी तस्वीर पुलिन्दे की तरह लपेटी हुई है और उसके अन्दर एक भयानक घटना का चित्र खींचा हुआ है।
बस इससे ज्यादे मैं अभी तुम लोगों से कुछ नहीं बता सकता और केवल इतना ही कहता हूँ कि अब तुम लोग उसकी फिक्र छोड़ो और जो पिछली बात मैंने कहीं हैं उनको अन्जाम दो अर्थात राजा बीरेन्द्रसिंह के कब्जे से उनकी तिलिस्मी किताब को निकाल लेने की फिक्र करो। अगर यह काम हो गया और मैं शिवगढ़ी का खजाना निकाल सका तो फिर कोई हर्ज की बात न रहेगी। दौलत मेरे सब ऐबों पर पर्दा डाल देगी और रुपये की मदद से मैं अब भी दुनिया में नेकनाम और....
‘‘झूठ। बिल्कुल झूठ!’’
यकायक जोर की आवाज उस जगह गूँज उठी। चारों आदमी उस आवाज को सुनकर चौंक गए और खास कर भूतनाथ तो उसे सुनते ही चिहुँक कर चारों तरफ देखने लगा क्योंकि उसको यह आवाज पहिचानी हुई-सी जान पड़ी आखिर उससे न रहा गया और वह बोलने वाले का पता लगाने की नीयत से उठना ही चाहता था कि एक काली शकल सीढ़ियाँ चढ़ कूँए की जगह पर आती हुई दिखाई पड़ी जिसे देखते ही वह अपनी जगह पर ठिठका हुआ रह गया।
यह आने वाला, जिसका सिर से पैर तक समूचा बदन काले कपड़े से बिल्कुल ढका हुआ था, जगत पर पहुँच कर कई कदम इन लोगों की तरफ बढ़ आया और तब फिर बोला, ‘‘झूठ, बिल्कुल झूठ।’’
भूतनाथ तो न-जाने क्यों सकते की-सी हालत में होकर अपनी जगह पर चुप बैठा रह गया मगर रामेश्वरचन्द्र ने इस आने वाले से पूछा, ‘‘आप कौन हैं और आपकी बात का क्या मतलब है?’’
आगन्तुक ने यह सुन जवाब दिया, ‘‘मैं कौन हूँ यह जानकर भी तुम मुझे पहिचान न सकोगे मगर तुम्हारा गुरु भूतनाथ जरूर पहिचान लेगा बल्कि शायद उसने मुझे पहिचान भी लिया हो तो कोई ताज्जुब नहीं, बेशक-बेशक, उसने जरूर मुझे पहिचान लिया है, उसकी आकृति इस बात को साफ बतला रही है।मेरी आवाज से ही वह मुझे जान गया है। अस्तु अब मुझे अपना परिचय देने की कोई जरूरत नहीं रह गई। यह बात कि जो कुछ मैंने कहा उसका मतलब क्या है, सो वह तो साफ है। भूतनाथ ने अभी-अभी कहा कि दौलत सब ऐबों पर पर्दा डाल सकती है सो उसी के बारे में मैंने कहा कि यह बात एकदम झूठ है। दौलत चाहे बड़े-से-बड़े दुष्कर्म को दबा जाय पर उस महान पातक को किसी तरह छिपा नहीं सकती जो तुम्हारे गुरु ने किया और जिसका जिक्र उस तस्वीर में किया गया है जो किसी ने उसको बेवकूफ बनाकर ले ली है और जिसे वह मेरे ही सामने से उठा कर ले भागा था!’’
इतना कह आगन्तुक अजीब तौर पर भूतनाथ को देखने लगा। शायद वह सोचता होगा कि भूतनाथ बात सुन उस पर हमला करेगा या किसी और तरह से उससे पेश आवेगा मगर ऐसा न था। भूतनाथ की तो यह हालत हो गई थी कि मालूम होता था मानों किसी ने उसके तमाम बदन का खून निचोड़ लिया हो और उसमें हिलने की भी ताकत नहीं रह गई हो। वह केवल एकटक इस अजीब आदमी की तरफ देख रहा था। आगन्तुक कुछ देर तक उसको देखता रहा और तब उसके शागिर्दों की तरफ घूम कर कहने लगा।
आग० : जिस भेद को वह तस्वीर खोल रही है वह इतना भारी दुष्कर्म है कि कुबेर का भंडार भी उस पर पर्दा नहीं डाल सकता। क्या तुम लोग जानना चाहते हो कि उस तस्वीर में क्या था?
भूतनाथ के शागिर्दों ने तो इस बात का कोई जवाब न दिया मगर भूतनाथ ने कोशिश करके अपनी जुबान खोली और काँपते हुए स्वर में कहा, ‘‘क्या आप....?’’ मगर उसके मुँह से स्पष्ट आवाज न निकली और वह इतना ही कह रुक गया।
आगन्तुक उसकी तरफ देखकर हँसा और तब बोला, ‘‘हाँ, मैं वही हूँ जिसको तुम पहिचान गए और अभी कुछ ही देर पहिले जिसके सामने से भाग कर आए हो, मगर मैं वह नहीं हूँ जिसने तुम्हें कूएँ में धकेल तुम्हारी चीजें ले ली हैं!’’
बड़ी मुश्किल से किसी तरह भूतनाथ ने कहा, ‘‘क्या आप निराले में मुझसे कुछ बात....?’’ जवाब में उस आदमी ने कहा, ‘‘नहीं, मैं निराले या अकेले में कुछ कहना नहीं चाहता क्योंकि मैं तुम्हारी धूर्तता, दगाबाजी और बेईमानी का हाल अच्छी तरह जानता हूँ। अभी तुम मुझको धोखा देकर मेरी चीज लिए भागे चले आए हो और इस समय की अपनी कमजोर हालत में किसी तरह भी मैं तुम्हारा मुकाबला नहीं करता। तुमको जो कुछ कहना हो यहीं सबके सामने कह सकते हो।’’
भूत० : (काँपती आवाज में) नहीं-नहीं, मैं कसम खाता हूँ कि आपके साथ किसी तरह की दगा न करूँगा।
आग० : यह तुम उससे कहो जिसे तुम्हारी कसमों पर विश्वास हो। मैं तो तुम्हंक परले सिरे का झूठा, दगाबाज और कमीना समझता हूँ और तुम पर एक पल के लिए भी विश्वास नहीं कर सकता। जो कुछ तुम्हें कहना हो उसे या तो सभों के सामने होते हुए कहो और या फिर चुपचाप बैठे रहो और मुझे अपना काम करने दो।
भूत० : (कमजोर आवाज में) आप किस काम....?
आग० : तुमने मेरी जिन्दगी चौपट कर डाली और मुझे मुर्दों से बदतर बना डाला। मैंने भी प्रतिज्ञा कर ली है कि तुम्हारी भी वही हालत करके छोड़ूँगा तुम्हारा वह पाप जिसके प्रकट होने से तुम इतना डरते हो और जिसकी बदौलत मैं दीन-दुनिया से चौपट हो गया। मैं दुनिया-भर के एक-एक आदमी से कहूँगा और देखूँगा कि उसके प्रकट हो जाने पर तुम्हारी क्या हालत होती है, तथा यह काम मैं तुम्हारे शागिर्दों ही से शुरू करता हूँ। (रामेश्वरचन्द्र की तरफ देख कर) देखो जी रामेश्वरचन्द्र, जिस तस्वीर का हाल तुम्हारा गुरु तुमसे कहते डरता है वह मेरी ही बनाई हुई थी और आज सुबह उसे यह मेरे ही सामने से लेकर भागा था अस्तु उसका हाल जितना अच्छा मैं कह सकता हूँ वैसा कोई नहीं कह सकता। लो सुनो कि उस तस्वीर में क्या था।
आगन्तुक ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि भूतनाथ ने हाथ जोड़ कर बड़ी बिनती के भाव से उसकी तरफ देखा और भर्राये हुए गले से कहा, ‘‘आप दया कर मेरी एक बात सुन लें और विश्वास रक्खें कि मैं आपके साथ किसी तरह की दगा नहीं करना चाहता बल्कि एक सन्देह को जो आपके मन में बैठ गया है दूर कर देना चाहता हूँ।’’
आग० : (बिगड़ कर) चुप रह, हरामजादा बेईमान कहीं का! तू मुझी से इस तरह की बातें करता है? क्या तू मुझे फिर धोखा देना चाहता है? नमकहराम कमीना कहीं का! जब तू ने दयाराम को ही जान से मार डाला तो दूसरे किसी की कब परवाह कर सकता है?(शागिर्दों की तरफ देखकर) सुनो जी तुम लोग, तुम नहीं जानते कि तुम्हारा गुरु कितना भारी नमकहराम, पापी, हत्यारा और बेईमान आदमी है। मुझसे सुनो कि इसने मेरे दोस्तों के साथ क्या किया, रोहतासमठ का वह पुजारी मेरा दोस्त और गुरु था जिसकी मित्रता का अभी-अभी यह तुम्हारे सामने दम भरता था, मगर जिसकी लड़की नन्हों को इसने भ्रष्ट कर डाला। तुम जानते हो कि इसने उस पुजारी के साथ क्या किया? शिवगढ़ी की ताली पाने की नियत से इसने उस बेचारे को जीता ही हाथ-पाँव बाँध कर एक अंधे कूएं में फेंक दिया जहाँ वह भूख और प्यास के मारे तड़पकर मर गया, तुम जानते हो कि इसने बड़ी महारानी से शिवगढ़ी की ताली किस तरह ली? सुकर्म के इनाम में इसे वह ताली मिली। (भूतनाथ की तरफ देखकर) क्यों जी भूतनाथ क्या मैं तुम्हारे उन भले कामों का पूरा-पूरा विवरण इन तुम्हारे शागिर्दों को कह सुनाऊँ?’’
इस सवाल का कोई जवाब न दे भूतनाथ ने दोनों हाथों से अपना मुँह ढाँप लिया और लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगा। उसका वह दुश्मन इस बीच में उसे क्रोध और घृणा के साथ देखता रहा। बहुत देर के बाद भूतनाथ ने अपना मुँह उठाया और काँपते स्वर में कहा, ‘‘जो कुछ आपने कहा वह बहुत ठीक है मगर मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि इसमें मेरा कुछ कसूर नहीं था।’’
आगन्तुक : (बिगड़ कर) बेशक कुछ नहीं था और न उस बात में होगा जो मै अब इन लोगों से कहूँगा! (उन शागिर्दों की तरफ देखकर) इसने केवल इतना ही नहीं किया। उस तिलिस्मी ताली को पाकर इसके मन में तिलिस्म को खोलने की इच्छा पैदा हुई और जाने किस प्रकार यह समझ कर कि ऐसा करने से तिलिस्म खुल जायगा इसने एक दूसरी बेकसूर औरत का सिर अपने हाथ से काट डाला और उसके गले से टपकते हुए खून की बूँदे उस महाकाल की मूरत के मुँह में डालनी चाही, पर कोई विघ्न पड़ गया जिससे न तो वह काम ही पूरा हो सका और न वह तिलिस्म ही खुला, (भूतनाथ की तरफ देखकर) क्यों जी। यह बात भी सही है कि नहीं! या इस मामले में भी तुम बेकसूर हो?
डरे और दबके हुए भूतनाथ के गले से साफ आवाज नहीं निकल सकती थी। वह इतना ज्यादा घबड़ा गया था कि बड़ी मुश्किल से टूटे-फूटे शब्दों से बोला, ‘‘मैं सच....कहता ....हूँ ....मैंने....नहीं....’’
गुस्से में बिफर कर उस आदमी ने कहा, ‘‘तू वही बके जाता है! क्या तूने यह काम नहीं किया? क्या तूने भुवनमोहिनी को जहर नहीं दिया! क्या तूने अहिल्या का सिर अपने हाथ से नहीं काटा? बोलता क्यों नहीं? चुप क्यों हो गया? (उसके शागिर्दों की तरफ देखकर) तुम्हीं लोग देखो और बताओ कि क्या इसकी सूरत कहती है कि यह बेकसूर है? क्या इसके चेहरे से सचाई टपकती है!’’
बड़ी कठिनता से एक बार फिर भूतनाथ ने कहा, ‘‘मै फिर ....कहता....मैं बेकसूर....!’’ पर वह अपनी बात पूरी न कर सका। आगन्तुक का गुस्सा उसकी बात सुन और भभक उठा और वह गरज कर बोला, ‘‘तू फिर भी अपनी करनी से इन्कार किए ही जाता है! तब तो मुझे तेरी कुछ और भी कलई खोलनी पड़ेगी। (शागिर्दों से) तुम लोग अपने गुरु की नमकहरामी का कुछ और सबूत सुनो, जिस मायारानी से इतना भारी इनाम पाया, अपनी प्रकृति के मुताबिक यह उससे भी दगा कर गया अर्थात उससे यह कह के कि ‘भुवनमोहिनी को अपने हाथ से मार डालूँगा,’ यह उसको भी धोखा दे गया। उस भुवनमोहिनी पर चुनार का राजा शिवदत्त आशिक था। मायारानी को धोखा दे इसने भुवनमोहिनी को शिवदत्त के हवाले करने का निश्चय किया और शिवदत्त से वादा किया कि जैसे बनेगा वैसे भुवनमोहिनी को उसके हवाले करेगा। इसने भुवनमोहिनी को ऐसा जहर दिया कि जिससे वह मरे नहीं मगर मुर्दे से बदतर हो जाय, जब उसकी यह हालत हो गई तो इसने मशहूर किया कि उसे साँप ने काट लिया जिससे वह मर गई इस पर विश्वास कर उसके रिश्तेदारों ने उसे जंगल में ले जाकर गाड़ दिया जहाँ से यह तुम्हारा ओस्ताद अपने दोस्तों की मदद से खोद लाया और शिवदत्त के हवाले कर उससे भी उसने गहरा इनाम लिया, इसने स्वयं अपने हाथों उस बेहोश बल्कि मुर्दो से भी बदतर भुवनमोहिनी को ले जाकर शिवदत्त के सामने डाल दिया और कहा, ‘लीजिए, अपनी प्यारी को लीजिए और इसके आँचल पर गुलामी की दस्तावेज लिखिए!’’ विवाहिता स्त्री को व्यभिचार के लिए दूसरे को देने और उसकी मौत से भी बुरी हालत कर डालने वाला वही पापी यह तुम्हारा गुरु भूतनाथ है! क्यों जी भूतनाथ, क्या यह भी मैं गलत कह रहा हूँ!’’
आगन्तुक अपनी बात पूरी न कर पाया था कि भूतनाथ बड़ी कोशिश करके अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘नहीं-नहीं, आप भ्रम में पड़ गए हैं। मैंने ऐसा नहीं....!’’ पर वह अपनी बात पूरी न कर सका। उसके सर में चक्कर आया और वह लड़खड़ा कर जमीन पर गिर गया।
आगन्तुक ने लापरवाही के साथ सिर हिला कर रामेश्वरचन्द्र से कहा, ‘‘जिसने ऐसे-ऐसे काम किए उसी भूतनाथ को तुम लोग अपना गुरु बनाए हुए हो! सोचो और समझो कि दुनिया में क्या मान पैदा करोगे और किस प्रकार की इज्जत कमाओगे? अच्छा अब इसकी हिफाजत करो मैं चला!’’
वह नीचे जाने के लिए मुड़ा मगर यकायक रामेश्वरचन्द्र ने उसे रोक कर कहा, ‘‘कृपा कर जरा-सा ठहर जाइये और हम लोगों की एक बात का जवाब देते जाइए आप कौन हैं और कैसे आपको इन बातों का पता लगा, तथा उस तस्वीर में क्या है?’’
उसने जवाब दिया, ‘‘क्या मैं बता ही दूँ? अच्छा तो लो, मेरा नाम कामेश्वर है। वह भुवनमोहिनी मेरी ही स्त्री थी जिसकी भूतनाथ ने वह दुर्गति की, और वह अहिल्या मेरी बहिन थी जिसे इसने भूतनाथ की मूरत के सामने मारा। उस तस्वीर में मेरी बहिन के खून के समय का दृश्य बना हुआ है।यह हत्यारा भूतनाथ काले कपड़ों से अपने को छिपाए महाकाल की मूरत के आगे खड़ा है और मेरी बहिन के सिर से टपकते हुए खून की बूँदे उसके मुँह में देना चाहता है, यही उस तस्वीर में बना हुआ है।मैंने ही उसे बनाया और यह प्रतिज्ञा की थी कि जैसे बनेगा वैसे इस काम के करने वाले हत्यारे भूतनाथ को मटियामेट करके छो़ड़ूँगा मगर अफसोस, शिवदत्त ने मुझे कैद कर लिया और तब से अब तक मैं उसी के कैद में रहा जहाँ से अब छूट के आया हूँ और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने की कोशिश कर रहा हूँ!’’
इतना कह आगन्तुक ने एक बार फिर भूतनाथ की तरफ देखा और तब कूएँ के नीचे उतर कर घने जंगल की ओर चला गया।
बेहोश भूतनाथ उसी तरफ पड़ा रहा, उसके शागिर्द कभी उसकी तरफ और कभी उस व्यक्ति की तरफ देखते रहे मगर यह हिम्मत किसी की भी न हुई कि जाने वाले को रोके या उससे कुछ कहे।
।। अठारहवाँ भाग समाप्त ।।
छठवाँ खण्ड समाप्त
आगे का हाल जानने के लिये
भूतनाथ खण्ड 7
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