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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान


डर से काँपता हुआ भूतनाथ भागा और अपने सामने पानी का एक हौज देख उसके अन्दर कूद पड़ा।

यह हौज सिर्फ पानी का खजाना न था बल्कि एक तिलिस्मी रास्ता भी था जिसके अन्दर कूदने के साथ ही भूतनाथ को तनोबदन की सुध न रह गई। उसे बिल्कुल न मालूम हुआ कि इसके बाद लोहगढ़ी की क्या हालत हुई अथवा उसकी करनी का क्या नतीजा निकला, मगर हमारे पाठक बखूबी जानते हैं कि इसके बाद एक ही क्षण में लोहगढ़ी की समूची इमारत उड़ गई। मिट्टी, पत्थर, चूने और लोहे के ढोंके सब तरफ फैल गए जिससे केवल वह कुंड पट ही नहीं गया बल्कि वह समूचा स्थान इस तरह भर गया कि उस कुंड का दिखना भी बन्द हो गया।

भूतनाथ जब होश में आया उसने अपने को एक झोंपड़े के अन्दर पत्तों के बिछावन पर पड़े हुए पाया। उसका बन्द-बन्द टूट रहा था और सिर में इस शिद्दत का दर्द हो रहा था कि आँख नहीं खुलती थी। पर फिर भी किसी तरह अपने को सम्हाल जब उसने सिर उठाकर चारों तरफ देखा तो पहिली बात उसे यही दिखाई पड़ी कि उसके तमाम बदन पर पट्टियाँ बँधी हुई हैं। वह किस तरह इतना जख्मी हो गया या किसने उसकी मरहम-पट्टी की इस बात को वह बहुत सोचने पर भी समझ न सका मगर इतना जरूर हुआ कि सोचने-विचारने के लिए दिमाग दौड़ाने पर सिर का दर्द बहुत ज्यादा बढ़ गया जिससे लाचार होकर उसने यह कोशिश छोड़ दी और दूसरी बातों की तरफ ध्यान देने लगा।

उसने देखा कि वह छोटा झोंपड़ा बाँस की पत्तियों और डालों का बना हुआ है और उसकी छत किसी तरह के बड़े-बड़े पत्तों से छाई हुई है। उसके ठीक सामने झोंपड़े का दरवाजा था जो बाँस की जालीदार टट्टी से मजबूत बन्द किया हुआ था। उसने यह भी देखा कि उसने सिरहाने की तरफ हाथ की पहुँच के अन्दर पानी का एक घड़ा तथा लोटा रक्खा हुआ है और दूसरी तरफ एक दूसरा मिट्टी का बरतन है जिसमें शायद खाने का कुछ सामान होगा। बस इसके सिवाय उस झोंपड़े के अन्दर कुछ भी नहीं था।

इन चीजों की देखभाल के साथ-ही-साथ भूतनाथ को एक दूसरी फिक्र पैदा हुई। उसका ऐयारी का बटुआ जिसके अन्दर बहुत-सी बेशकीमत चीजें थीं कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा था। उसका हाथ अपनी कमर पर गया पर वहाँ कुछ भी न था। चारों तरफ देखा, पर कहीं अपना बटुआ दिखाई न पड़ा और यह एक ऐसी बात थी जिसने उसको एकदम से घबड़ा दिया। यद्यपि वह बहुत ही कमजोर हो रहा था फिर भी चौंककर उठ बैठा और चारों तरफ देखने लगा। मगर कहीं भी उसकी वह जान से प्यारी चीज, उसका ऐयारी का बटुआ, उसे नजर न आया। वह परेशान हो गया और घबड़ाकर तरह-तरह की बातें सोचने लगा, मगर किसी तरह की भी बात सोचने के साथ ही उसके सिर का दर्द बढ़ जाता था जिससे लाचार हो कुछ सायत बाद उसने सोचना-विचारना फिर बन्द कर दिया और यह जानने की फिक्र में पड़ा कि उसकी चोटें किस तरह की हैं और कैसे उसे लगीं। इतना तो उसे याद था कि उस शैतान की बातों से डर और अपनी मशाल फेंक वह पानी के एक हौज में कूद पड़ा था पर इसके बाद का कुछ भी हाल उसे याद न था। आखिर उसने बदन की एक पट्टी खोल डाली और घाव को बड़े गौर से देखने लगा। वहाँ का स्थान अभी तक नीला था और बीचोबीच में एक इस तरह की गहरी खरोंच लगी हुई थी मानों किसी ने उसे पत्थर के ढोंके या ऐसी ही किसी नोकीली भारी चीज से मारा हो। किसी तरह की पत्ती पीसकर उसकी लुगधी वहाँ रख पट्टी बाँध दी गई पर बूटी ने उस चोट का दर्द बहुत-कुछ कम कर दिया था और खून बहना तो एकदम ही बन्द हो गया था। भूतनाथ ने एक दूसरी पट्टी खोली और उस घाव को भी देखा। पहिले ही की तरह पाया और इस पर वह धीरे-से बोल उठा, ‘‘मालूम होता है, लोहगढ़ी उड़ गई और उसके ढोंके पानी में गिरे जिन्होंने मुझे इस कदर जख्मी किया। लेकिन अगर यही बात है जो जरूर मैं बहुत देर तक बेहोश रहा हूँ, बल्कि कई दिनों तक बेहोश पड़ा रहा होऊँ तो भी ताज्जुब नहीं।’’

वह कहाँ पर है, जिस हौज में वह कूदा था वह कितनी दूर है, लोहगढ़ी वाला टीला यहाँ से कितने फासले पर है, उसे यहां पर कौन लाया और किसने मलहम-पट्टी की, इत्यादि बहुत-सी बातें भूतनाथ के दिमाग में दौड़ने लगीं जिसका कोई भी जवाब वह न पा सका।आखिर वह यह सोचने लगा कि अभी वह किसी तरह का सफर करने या कहीं आने-जाने लायक नहीं है परन्तु बिना कुछ खाए-पीए इस तरह उस झोंपड़े के अन्दर भी कब तक बैठा रह सकता था। आखिर वह उठा खड़ा हुआ और झोंपड़े के दरवाजे की तरफ बढ़ा मगर दो-एक कदम से ज्यादा जा न सका, सिर में चक्कर आ गया जिससे लाचार हो उसे झोंपड़े की दीवार थाम खड़े हो जाना पड़ा। मगर भूतनाथ इस तरह सहज ही में मानने वाला जीव भी न था, जरा देर रुककर वह फिर आगे बढ़ा और कई कदम चलकर झोंपड़े के बीचोबीच तक पहुँच गया मगर यहाँ आकर उसकी ताकत ने एकदम जवाब दे दिया और उसे जमीन पर बैठ जाना पड़ा।

भूतनाथ जमीन पर बैठा तो कमजोरी और सिर में चक्कर आने के कारण पर उसकी तीक्ष्ण बुद्धि ने उस वक्त भी उसका साथ छोड़ा न था तथा वह तुरन्त ही एक बात पर गौर करने लगा जिसने उसका ध्यान आकर्षित किया था और जो यह थी कि जिस जगह पर वह बैठ गया था उस जगह की जमीन उसे कुछ नर्म मालूम हुई जिसके अन्दर उसके हाथ की हथेली धँस गई थी। उस झोंपड़ी की समूची सतह गोबर से लिपी हुई और बड़ी साफ-सुथरी तथा ठोस थी जिसके विपरीत इस स्थान को ऐसा पा उसे शक हुआ और उसने हाथ ही से वहाँ पर खोदना शुरू किया। शीघ्र ही मालूम हो गया कि उस जगह कोई गड्ढा था जो मामूली ढंग से मिट्टी भरकर बन्द कर दिया गया था और ऊपर से लिप जाने की वजह सरसरी निगाह से उसका पता नहीं लगता था। भूतनाथ ने सहज ही में उस गड्ढे की मिट्टी बाहर निकाल डाली और तब उसके नीचे अपना ऐयारी का बटुआ अपने ही एक कपड़े में लपेटा हुआ रक्खा पाया। बटुआ पाते ही उसके मुँह से आश्चर्य की चीख निकल पड़ी। उसकी गाँठ पर निगाह डालते ही वह जान गया कि किसी ने उसे खोला नहीं है फिर भी उसने उसको खोल डाला और भीतर की चीजों की जाँच की। सब कुछ ठिकाने से और दुरुस्त पा वह और भी प्रसन्न हुआ। उसने बटुए में से एक शीशी निकाली और उसमें की कुछ दवा खाने के बाद पुनः अपनी जगह यानी उस पत्तियों वाले बिछावन पर आ बैठा, तब बटुए में से एक छोटी-सी किताब निकाल कर उसे पढ़ने लगा।हमारे पाठक शायद इस किताब को पहिचान गए होंगे क्योंकि यह वही है जिसे भैयाराजा से गोपालसिंह ने पाया था और जिसे नन्हों ने उन्हें धोखा देकर ले लिया था अथवा जिसे भूतनाथ ने नन्हों को भी उल्लू बनाकर अपने कब्जे में कर लिया था।

भूतनाथ इस तिलिस्मी किताब के पढ़ने में इतना मग्न हुआ कि उसे तनोबदन की सुध न रह गई और न यही खयाल रहा कि वक्त कितना बीत गया है। वह शायद उसे समाप्त किए बिना सिर न उठाता पर यकायक झोंपड़े का दरवाजा खुलने की आहट पा और वहां किसी की छाया देख चौंक पड़ा।सिर उठाकर देखा तो एक वृद्ध बाबाजी को दरवाजा खोलकर अन्दर आते हुए पाया जिनके एक हाथ में लोटा तथा दूसरे में कुछ और सामान था। उसने फुर्ती के साथ किताब बन्द कर बटुए के हवाले की और तब बटुआ अपनी कमर में बाँधता हुआ उठा खड़ा हुआ। इस बीच में बाबाजी भी उसके पास पहुंच और उसे जाँचने वाली निगाह से देखने के बाद बोले, ‘‘भगवान की बड़ी कृपा है जो मैं तुम्हें सब तरह से दुरुस्त और होशहवास में पाता हूँ।’’

भूतनाथ ने गौर की निगाह से महात्मा को देखा और तब हाथ जोड़ प्रणाम करने के बाद कहा, ‘‘मालूम होता है आप की ही कृपा से मैं इस स्थान में हूँ और आप ही की बाँधी हुई अद्भुत बूटी के प्रभाव से मेरे घाव अच्छे हुए हैं।’’

महात्मा ने उसे अपने स्थान पर बैठने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘हाँ तुम ऐसे ही समझो, अब इस समय दर्द कैसा है?’’ भूतनाथ बोला, ‘‘बहुत कम बल्कि नहीं के बराबर है, घाव करीब-करीब पुर गए हैं, और सिवाय कमजोरी के और किसी तरह की तकलीफ नहीं जान पड़ती, मगर मैं यह जानने के लिए व्याकुल हूँ कि मैं किस तरह इस जगह पहुँचा और मुझे इस हालत में कितना समय गुजर चुका है?’’

महात्मा ने जवाब दिया, ‘‘तुम अपने स्थान पर जाकर बैठो तब मैं तुम्हारी बातों का जवाब दूँगा। तुम बहुत सख्त जख्मी हुए थे और इसमें कोई शक नहीं कि अब भी बहुत कमजोर होगे।’’भूतनाथ बोला, ‘‘नहीं, नहीं, अब मैं बिल्कुल दुरुस्त हूँ फिर भी आपकी आज्ञा मानने को तैयार हूँ, पर आप भी तो कहीं आसन ग्रहण कीजिए।’’ वह अपने स्थान पर जा बैठा और महात्मा भी अपने हाथ का सामान जमीन पर रखकर उसके सामने ही मगर कुछ दूर हट कर एक जगह बैठ गए।दोनों में बातचीत होने लगी।

भूत० : हाँ महाराज, अब बताइए कि यह कौन-सी जगह है और जमानिया यहाँ से कितनी दूर है?

महात्मा : जमानिया यहाँ से दस कोस पर है और यह झोंपड़ी मेरा निवास स्थान है।

भूत० : आपने मुझे कहाँ और कब पाया?

महात्मा : आज तीन रोज हुआ मैंने यहाँ से थोड़ी दूर पर तुम्हें जंगल में एक नाले के किनारे बहुत ही चुटीली हालत में पाया।

भूत० : तीन रोज हुए!

महात्मा : हाँ, तीन दिन हुए, तुम्हारी हालत बहुत ही खराब थी और ऐसा जान पड़ता था मानों तुम किसी बहुत ही ऊँची जगह से गिरकर चुटीले हो गए अथवा कोई भारी चीज तुम्हारे ऊपर लुढ़क पड़ी हो। कुछ लोगों की मदद से मैं तुम्हें यहाँ उठवा लाया और इलाज करने लगा। बारे ईश्वर की दया से आज तुम्हें अच्छी हालत में देख रहा हूँ नहीं तो मैं तुम्हारी जिन्दगी से नाउम्मीद हो गया था।

भूत० : (कुछ रुकता हुआ) क्या आप कुछ कह सकते हैं कि जमानिया में किसी तरह की दुर्घटना हुई है?

महात्मा : सिवाय इसके और कोई समाचार तो मैंने नहीं सुना कि किसी दुष्ट ने लोहगढ़ी नामक इमारत को सुरंग लगाकर जड़-मूल से उड़ा दिया। मगर क्यों, तुम्हारे पूछने का क्या मतलब है?

भूत० : कुछ नहीं मैंने यों ही पूछा।

महात्मा ने यह बात सुन कुछ जवाब न दिया और यद्यपि उनकी आकृति से भूतनाथ को कुछ शक अवश्य हो गया फिर भी इस सम्बन्ध में ज्यादा बात करने की उसकी इच्छा न थी अस्तु वह चुप रहा और न-जाने क्या सोचने लगा। महात्मा ने यह देख अपने हाथ की पोटली में से कुछ निकालते हुए कहा, ‘‘अच्छा तुम यह दवा की गोली खा लो और सिरहाने जो पानी रक्खा हुआ है उसमें से दो-चार घूँट पीकर लेट जाओ।’’

भूत० : (सिर हिलकर) आपकी कृपा के लिए मैं बड़ा ही अनुगृहीत हूँ पर अब मैं एकदम ठीक हो गया हूँ और किसी दवा की मुझे जरूरत नहीं है। मैं अब आपको धन्यवाद देकर इस जगह के बाहर चला जाना चाहता हूँ।

महात्मा : (मुस्कुराकर) मालूम होता है कि तुम मेरी दवा को शक की निगाह से देख रहे हो पर तुम्हें याद रखना चाहिये कि इसी दवा ने तुम्हारी जान बचाई है नहीं तो इस तीन दिन के भीतर जब कि तुम एकदम बेहोश और लाचार थे कई बार मौत के किनारे पहुँच चुके थे।

भूत० : नहीं-नहीं, मुझे आपकी दवा पर किसी तरह का शक नहीं है, मेरा कहना सिर्फ यह है कि अभी-अभी मैंने अपनी निज की एक दवा खाई है जो बहुत जल्द ताकत पैदा करती है और उसका असर भी होने लगा है इसलिए आपकी दवा खाने की अब जरूरत न पड़ेगी।

महात्मा : खैर तुम्हारी मर्जी, मैं इस बारे में जोर देने की जरूरत नहीं देखता लेकिन जब तुमने अपने पर ही मुनहसिर रहना चाहते हो तो मैं समझता हूँ कि उन चीजों को भी खाना पसन्द न करोगे जो मैं तुम्हारे लिये ले आया था, फिर भी कम-से-कम यह मेवा तो तुम्हें खा ही लेना चाहिये जिसे लाने के लिये ही मैं तुम्हें अकेला छोड़कर गया था।

कह कर बाबाजी ने अपनी गठरी के अन्दर से कुछ मेवा और फल निकाल कर भूतनाथ के सामने रक्खा और उस लोटे की तरफ इशारा किया जो अपने हाथ में लिए हुए यहाँ आए थे तथा जिसमें दूध भरा हुआ था। न जाने क्या सोचकर भूतनाथ ने इन चीजों को खाने में आपत्ति न की और बहुत शीघ्र ही उन्हें समाप्त कर घड़े से पानी उड़ेल हाथ-मुँह धोकर फिर अपने स्थान पर आ बैठा।बाबाजी उससे कहना या पूछना ही चाहते थे कि इसी समय भूतनाथ उनकी तरफ देखकर बोल उठा, ‘‘अच्छा अब बताओ कि तुमने मेरे सामने यह रूपक क्यों रच रक्खा है?’’

भूतनाथ की बात सुन बाबाजी ने चौंककर कहा, ‘‘इसके क्या माने?’’ जिसके जवाब में भूतनाथ ने कहा, ‘‘इसके माने यह कि मैंने अपने दगाबाज भाई को पहिचान लिया और जानना चाहता हूँ कि वह अब किस नीयत से मेरे सामने आया है?’’ बाबाजी ने और भी आश्चर्य से कहा, ‘‘मैं नहीं समझ सका कि तुमने मुझे क्या समझा जो ऐसी कड़ी बात कह दी!’’ भूतनाथ हँसकर बोला, ‘‘मैंने तुम्हें शेरसिंह समझा और ठीक समझा है, अगर तुम्हें विश्वास न हो तो कहो अभी तुम्हारी दाढ़ी उखाड़कर साबित कर दूँ!’’

इतना सुन वह बाबाजी भी हँस पड़े और खुद ही अपनी दाढ़ी अलगकर बोले ‘‘बेशक भूतनाथ, तुम बड़े ही होशियार आदमी हो।’’ दाढ़ी हटते ही शेरसिंह ऐयार की सूरत मालूम पड़ने लगी और जब उन्होंने एक रूमाल गीला कर वह हलका रंग भी पोंछ डाला जो चेहरे पर लगा हुआ था तब तो कोई शक ही न रह गया।

शेर० : इसके पहिले कि मैं यह पूछूँ कि तुमने क्योंकर मुझे पहिचाना मैं यह जानना चाहता हूँ कि तुमने मुझे अपना ‘दगाबाज भाई’ क्यों कहा?

भूत० : इसलिए कि तुमने कम्बख्त नन्हों, गौहर और मुन्दर का साथ देकर मुझे आफत में फँसाया।

शेर० : (सिर हिलाकर) कभी नहीं, मैंने किसी कारण से उन लोगों का साथ जरूर दिया पर तुम्हें किसी तरह की आफत में नहीं डाला।

भूत० : क्या तुमने उन लोगों के साथ मिलकर वह विचित्र नाटक नहीं रचा जिसने मुझे पागल बना दिया, और क्या तुमने मेरे कब्जे से शिवगढ़ी की ताली ले लेने का उद्योग नहीं किया।

शेर० : मैं बिल्कुल नहीं जानता कि तुम किस नाटक की तरफ इशारा कर रहे हो, और न मैंने तुम्हारे कब्जे से शिवगढ़ी की ताली लेने का ही कोई उद्योग किया। यह जरूर है कि मुझे महाराज दिग्विजयसिंह ने इसी काम के लिए यहाँ भेजा था पर वह ताली तुम्हारे पास है इसका पता तो मुझे उस दिन नन्हों वगैरह की ही जुबानी लगा, इसके पहिले इस बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता था।

भूत० : (सिर हिलाकर) मुझे तुम्हारी बातों पर विश्वास नहीं होता और जब तक कि तुम इसके विपरीत साबित न कर दोगे मैं यही समझता रहूँगा कि तुम्हीं ने मेरे सत्यानाश का उपाय रचा, नन्हों, गौहर और दिग्विजयसिंह के ऐयारों को मेरा छिपा भेद—वह भेद जिसके खुल जाने की बनिस्बत मैं मौत को ज्यादे पसन्द करता हूँ—वह भुवनमोहिनी वाला भेद बताया, और तुम्हीं ने मेरी प्यारी चीज शिवगढ़ी की ताली लेने के लिये मुझे अपने जाल में फँसाया। मुझे तुम्हारी करतूतों का सच्चा-सच्चा पता लग चुका है और तुम मुझे किसी तरह धोखा नहीं दे सकते।

शेर० : (अफसोस की मुद्रा से सिर हिलाकर) मेरी समझ में नहीं आता कि तुम किसी बुनियाद पर मेरे ऊपर इतना बडा कलंक लगा रहे हो? मालूम होता है कि किस ने मेरे विरुद्ध तुम्हारा कान भर दिया है। मैं अगर तुम्हें धोखा देना चाहता ही तो क्या अब तक वैसा न कर सकता था? इसी बेहोशी की हालत में ही क्या मैं तुम्हारे बटुए को गायब नहीं कर सकता था अथवा उसके सामानों की तलाशी लेकर उन चीजों को निकाल नहीं सकता था जिनको तुम जान से बढ़कर मानते हो?

भूत० : बेशक, और किस सबब से तुमने ऐसा नहीं किया यही सोच-सोच मैं ताज्जुब कर रहा हूँ। जरूर इसमें भी तुम्हारी कोई गहरी चाल होगी। खैर जाने दो, तुम मेरे साथ चाहे जैसा व्यवहार करो पर मैं तो तुमको बराबर अपना गुरुभाई और दोस्त ही समझता चला जाऊँगा और कभी किसी तरह की तकलीफ तुम्हें न दूँगा। अब जब मैं उन सबूतों के साथ-साथ नन्हों आदि शैतान की खालाओं को भी जमीं-दोज कर चुका हूँ तो अकेले तुम मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, हाँ, यह जरूर होगा कि आज से मैं तुम पर विश्वास कभी न करूँगा और न अपना कोई भेद ही तुम्हें बताऊँगा, अब तुम मेरा आखिरी सलाम लो और मुझे रुखसत दो।

इतना कहकर भूतनाथ उठ खड़ा हुआ मगर उसी समय शेरसिंह ने झपटकर उसकी कलाई पकड़ ली और कहा, ‘‘नहीं, तुम इस तरह से इतना बड़ा इलजाम लगाकर बिना मुझे यह बताये हुए नहीं जा सकते कि इन बातों का सबूत तुम क्या रखते हो!’’

भूतनाथ ने एक ऐसी निगाह शेरसिंह पर डाली जिसमें क्रोध और अफसोस दोनों ही मिला हुआ था, इसके बाद अपना बटुआ खोला और उसके अन्दर से एक चीठी निकाल कर शेरसिंह को दिखाते हुए कहा, ‘‘सबूत! एक सबूत तो देखो यही है।’’ शेरसिंह ने वह चीठी उसके हाथ से ले ली और पढ़ी, यह लिखा हुआ था :—

‘‘आपका खयाल ठीक है और जरूर ये चीजें भूतनाथ से ही सम्बन्ध रखती हैं, आप वही कार्रवाई कीजिए जो हम लोगों ने सोची है।’’

इसके नीचे किसी का नाम न था और न यही कुछ पता लगता था कि यह किसको लिखी गई है शेरसिंह उसको पढ़कर ये दोनों ही बातें बखूबी समझ गए फिर भी अपना शक मिटाने की नीयत से उन्होंने पूछा, ‘‘यह चीठी तुम्हें कहाँ से मिली?’’

भूत० : इसको पूछकर तुम क्या करोगे? क्या तुम इस बात से इनकार करना चाहते हो कि यह लिखावट तुम्हारी नहीं है?

शेर० : नहीं बल्कि मंजूर करूँगा कि यह चिठी मेरी ही लिखी हुई है और तब यह बताऊँगा कि कब और किस नीयत से यह लिखी गई। तुम पहिले बताओ कि इसे कहाँ पाया?

भूत० : इसे मैंने नन्हों की तलाशी लेने पर पाया।

शेर० : (चौंक कर) इसे तुमने नन्हों के पास से पाया?

भूत० : हाँ-हाँ और जरूर तुमने ही उसके पास भेजा होगा?

शेर० : नहीं, मैंने यह चीठी न तो नन्हों को लिखी और न उसके पास भेजी ही। इसे मैंने किसी दूसरे के लिए लिखा था और यह सुनकर कि तुम्हें यह नन्हों के पास से मिली मुझे बहुत ताज्जुब हो रहा है। मगर भूतनाथ, क्या सचमुच यह चीठी तुमने नन्हों के पास ही पाई या तुम मुझसे कोई मजाक कर रहे हो?

भूत० : नहीं-नहीं, मैं बहुत ठीक कह रहा हूँ। नन्हों गोपालसिंह के कब्जे से तिलिस्मी किताब लेने की नीयत से तिलिस्म के अन्दर घुसी थी। मेरे एक शागिर्द ने इसकी खबर मुझे दी और मैंने नन्हों को धोखा दे वह किताब उससे ले ली। उसी समय नन्हों की तलाशी में यह चीठी मेरे हाथ लगी।

शेर० : और वह तिलिस्मी किताब भी तुम्हें मिल गई?

भूत० : हाँ, वह तिलिस्मी किताब भी मुझे मिल गई। (बटुए में से तिलिस्मी किताब निकाल और शेरसिंह को दिखाकर) यह देखो वह किताब।

उस किताब पर एक निगाह पड़ते ही शेरसिंह चौंक पड़े और हाथ बढ़ाकर बोले, ‘‘हैं, यह किताब तुम्हारे हाथ लग गई! जरा दो तो देखूँ मैं।’’ पर भूतनाथ ने उसे फिर अपने बटुए के हवाले किया और कहा, ‘‘माफ कीजिए, अब मैं आप पर इतना विश्वास नहीं करता कि ऐसी कीमती चीज आपके हाथ में दे दूँ। इसे तो सिर्फ अपनी बात के सबूत में मैंने दिखाया।’’

शेर० : क्या तुम मुझ पर इतना अविश्वास करने लगे?

भूत० : बेशक, क्योंकि तुम मेरे साथ दगा करने लगे।

शेर० : फिर तुमने वही बात कही! मैं तुमसे कहता हूं कि आज तक कभी मैंने तुमसे किसी तरह की दगाबाजी नहीं की और न जिन्दगी रहते करूँगा। अगर तुम सिर्फ इस चीठी के कारण मुझ पर शक करने लगे गए हो तो समझ रक्खो कि यह चीठी मैंने बिल्कुल दूसरे ही मतलब से किसी दूसरे ही के पास भेजी थी और मैं बड़े ही ताज्जुब में हूँ कि यह नन्हों के पास किस तरह जा पहुँची।

भूत० : तुमने किसके पास यह चीठी भेजी थी ?

शेर० : यह मैं तुम्हें नहीं बता सकता।

भूत० : क्यों?

शेर० : क्योंकि उस आदमी का भेद छिपा ही रहना मुनासिब है, मगर इतना मैं कह सकता हूँ कि जिस वक्त तुमको उसका नाम मालूम होगा या तुम यही जानोगे कि किस मतलब से यह चीठी लिखी गई तो बहुत ही खुश होगे।

भूत० : यह सब तुम्हारी बहानेबाजी है और मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुमने मेरे दुश्मनों के साथ मिलकर मुझे बर्बाद करने में अपने भरसक कोई बात उठा न रक्खी।

शेर० : इसी चीठी के सिवाय किसी और बात से भी क्या तुम्हारा मतलब है? इतना मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मौका आने पर इस चीठी की तरफ से तुम्हारी पूरी दिलजमाई कर दूँगा।

भूत० : अजी सिर्फ एक यही बात थोड़ी है! क्या तुम समझते हो कि मुझे तुम्हारे शागिर्दों गोपाल और श्यामसुन्दर की करतूतों का पता नहीं है, क्या तुम समझते हो कि उस बजड़े पर की चीजों का हाल मुझे मालूम नहीं है, क्या तुम समझते हो कि उस कैदी का हाल मुझे मालूम नहीं है जो शिवदत्त के कब्जे से गौहर की बदौलत छूटकर नन्हों के पास भेजा गया था पर जिसे बेगम के यहाँ से मेरे आदमी चुरा लाए, और क्या तुम समझते हो कि मुझे उन चीजों का पता नहीं है जिन्हें दारोगा, चंचलदास, शिवदत्त और दिग्विजयसिंह के यहाँ से तुम लोगों ने इकट्ठा किया और मुझे नाश करने का जरिया बनाना चाहा था? इसे ईश्वर की कृपा ही कहना चाहिये कि मैं ठीक मौके पर लोहगढ़ी में पहुँचकर उन चीजों के साथ कम्बख्त नन्हों और मुन्दर को भी जड़-मूल से नाश कर सका नहीं तो क्या तुम लोगों ने मुझे चौपट करने में कोई कसर उठा रक्खी थी!

शेर० : यह तुम कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो भूतनाथ? एक जरा-सी चीठी देख के तुम जब इस तरह की बातें सोचने लगे हो तो मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसा दिमाग ले कर किस तरह कोई भारी काम कर सकोगे? मैं तुमसे बार-बार कह चुका कि अगर सिर्फ यही चीठी तुम्हारे सब शकों का कारण है तो किसी दिन इस बारे में मैं तुम्हारी पूरी तरह से दिलजमाई कर दूँगा।

भूत० : (गरम होकर) अजी क्या सिर्फ यही चीठी! तुम्हारी शैतानी के और भी कितने सबूत मेरे पास हैं। (बटुए में हाथ डाल कर और एक दूसरी चीठी निकालकर) देखो यह चीठी भी तुम्हारी ही लिखी हुई है या नहीं?

शेरसिंह ने ताज्जुब करते हुए यह दूसरी चीठी ले ली और उसे पढ़ा, इसमें यह लिखा हुआ था:—

‘‘श्रीमान दारोगा साहब,

‘‘एक बहुत ही जरूरी काम आ पड़ने के कारण आपको यह पत्र लिखना पड़ रहा है। कृपा कर पत्रवाहक को अपने साथ ले जाकर एक बार ‘शिवगढ़ी’ दिखा दीजिए। उस ‘भूतनाथ’ के आस-पास की इमारतों को देखने की इन्हें कुछ जरूरत है। शायद आप किसी तरह से या कोई बात सोच कर इनकार करें तो मैं कह देना चाहता हूँ कि यह बहुत ही जरूरी काम है और ऐसा न करने से आपको ‘आँचल पर गुलामी की दस्तावेज’ लिखाने के जुर्म का मुजरिम बनना पड़ेगा जिसका नतीजा क्या होगा, यह आप खुद सोच सकते हैं।

‘‘मैं यह भी अच्छी तरह जानता हूँ कि आप उस स्थान तक जाने या दूसरे को वहाँ ले जाने की सामर्थ्य रखते हैं। अस्तु किसी तरह का बहाना या सुस्ती नुकसान पहुँचा सकती है।

आपका दोस्त—

शेरसिंह।’’

शेरसिंह ने इस चीठी को भी ताज्जुब के साथ पढ़ा और तब भूतनाथ को वापस करते हुए कहा, ‘‘बेशक यह चीठी मैंने दारोगा के पास भेजी थी और इसके भेजने का भी एक खास सबब था, मगर इससे भी तुम्हारा क्या सम्बन्ध है? यह तो हम लोगों के बीच के एक खास काम के लिए लिखी गई थी।

भूत० : वाह क्या भोले-भाले हैं! इससे मुझे क्या सम्बन्ध? अजी क्या तुमने भूतनाथ को इतना बेवकूफ समझ रक्खा है कि वह इतना भी नहीं समझ सकता कि इस चीठी को पा और इसमें दी गई गुप्त धमकी से डर कर दारोगा ने तुम्हारे आदमी को शिवगढ़ी पहुँचा दिया और उसने वहाँ का सब दृश्य देखकर उसकी वह नकल तैयार की जहाँ मेरे सम्बन्ध की वे सब चीजें रख कर वह नाटक मुझे दिखाया गया था जिसका मैंने तुमसे जिक्र किया। क्या इसको पढ़ने के बाद भी मुझे तुम्हारी शैतानी में कोई सन्देह रह सकता है?

शेर० : अफसोस कि तुम उसी ढंग की बातें कहते चले जा रहे हो! मैं इस चीठी की बारे में भी तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि यह किसी बुरी नीयत से लिखी नहीं गई, जरूर तुमने इसको दारोगा से पाया होगा?

भूत० : नहीं बल्कि यह भी नन्हों के पास से ही मुझे मिली।

शेर० : (यकायक खुश होकर) ठीक है ठीक है, अब मैं सब बात समझ गया। यह सब शैतानी कम्बख्त नन्हों की है जिसने समूचा तूफान खड़ा किया है। उस कैदी को जीता-जागता न पा कर और यह सुनकर कि तुम्हारे ही आदमियों के कारण उसकी जान गई वह तुम्हारी दुश्मन बन बैठी और इसीलिए उसने दारोगा से मिल कर वह सब कार्रवाई की। मैं समझता हूँ कि तुम जानते होगे कि वह कैदी कौन था और उससे नन्हों का क्या सम्बन्ध था पर मुझे ताज्जुब है तो यही कि यह सब जान कर भी तुम मुझे ही दोषी समझ रहे हो!

भूत० : (ताज्जुब से) मैं नहीं जानता कि वह कैदी कौन था क्योंकि मैंने उसकी सूरत नहीं देखी। मुझे नन्हों के आदमियों की बातचीत से इतना मालूम हुआ कि उस आदमी को छुड़ाने के लिए कुछ लोग गए जिनसे मेरे आदमियों से झगड़ा हो गया और उस लड़ाई में किसी तरह वह आदमी मारा गया जिस पर नन्हों को इतना क्रोध आया कि वह मेरी जान की दुश्मन बन बैठी।

शेर० : और तुम्हें यह पता नहीं लगा कि वह कैदी कौन था?

भूत० : नहीं क्योंकि उसकी लाश बेगम और नन्हों के आदमी उठा ले गये थे।

शेर० : ओह ठीक है, तभी तुम इस सन्देह में पड़े हुए हो और मुझ पर यह झूठी तोहमत लगा रहे हो!

भूत० : (ताज्जुब से) तो वह आदमी कौन था?

शेर० : मुझे बताने की इच्छा तो न थी पर जब तुमको मुझ पर इतने तरह के शक हो रहे हैं तो मैं बताए ही देता हूँ, लो सुनो और ताज्जुब करो कि वह आदमी....

शेरसिंह ने झुक कर भूतनाथ के कान में न-जाने क्या कहा कि सुनते ही उसकी तो यह हालत हो गई कि काटो तो बदन से लहू न निकले। देर तक वह भौचक्के की-सी हालत में खड़ा जमीन की तरफ देखता रह गया और जब उसके होश-हवाश कुछ ठिकाने हुए तो उसने शेरसिंह से कहा, ‘‘क्या यह तुम मुझसे ठीक कह रहे हो?’’ शेरसिंह ने अपनी कमर से लटकते हुए खंजर को हाथ लगाकर कहा—‘‘मैं दुर्गा की शपथ खाकर कहता हूँ कि यह बात बिल्कुल सही है!’’

भूत० : मगर क्या वह आदमी अभी तक जीता था?

शेर० : हाँ, और यही बात ताज्जुब की है क्योंकि तुम्हारी तरह सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि सारी दुनिया यह समझती थी कि वह मर गया। मगर नहीं, वह वास्तव में मरा नहीं था बल्कि महाराज शिवदत्त की कैद में था।

भूत० : (कुछ सोचकर) शिवदत्त की कैद में! और नन्हों तथा मेरे आदमियों की लड़ाई में वह मारा गया?

शेर० : हाँ कम-से-कम नन्हों तो यही समझती है।

भूत० : इसका क्या मतलब?

शेर० : इसका मतलब यह कि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि वह मारा नहीं गया। यद्यपि उसे लड़ाई में कुछ चोट जरूर आई पर मुझे इस बात में कुछ भी सन्देह नहीं है कि इस मामले में किसी तरह की बहुत ही गहरी ऐयारी की गई और वह अभी तक जीता-जागता इस दुनिया में कहीं मौजूद है।

भूत० : जीता-जागता मौजूद है?

शेर० : हाँ।

भूत० : मरा नहीं!

शेर० : नहीं।

भूत० : मगर मेरे सुनने में तो यही आया था कि वह मारा गया बल्कि उसकी लाश उस बजड़े पर लाई गई जिस पर नन्हों के आदमी सवार थे।

शेर० : ठीक है, मशहूर यही किया गया, मगर वास्तव में वह मरा नहीं। इसी बात का ठीक-ठीक पता लगाने के लिए और यह जानने के लिए कि इसके भीतर क्या रहस्य छिपा हुआ है मैं नन्हों और उसके साथियों से मिला और उनका दिल लेने के लिए उनका कुछ काम भी मैंने किया जिनमें से एक वह था जिसके सम्बन्ध में यह चीठी मुझे दारोगा को लिखनी पड़ी। तुम अच्छी तरह जानते हो कि उस आदमी से तुम्हारा कितना बड़ा सम्बन्ध है और उसका जीता-जागता रहना तुम्हारे लिए क्या मानी रखता है, अस्तु इस सम्बन्ध में मेरा कोशिश करना वास्तव में तुम्हारे ही फायदे के लिए था, क्या इसे तुम नामुनासिब समझते हो?

भूत० : नहीं, अगर तुम्हारा कहना ठीक है और वह आदमी सचमुच जीता है उसके बारे में तुम्हें जो कुछ करना पड़े या कराना पड़ा हो वह सभी ठीक होगा। मगर शेरसिंह, मुझे अब भी विश्वास नहीं होता कि वह सचमुच अभी तक जीता है, कहीं तुम मुझे धोखा तो नहीं दे रहे हो?

शेर० : ओफ, तुम्हारा भी कैसा शक्की मिजाज है! अब तक भी मुझ पर शक बना ही हुआ है? अच्छा तुम्हारे विश्वास के लिए उसके जीते रहने का एक सबूत मैं तुम्हें दिखाता हूँ।

इतना कहकर शेरसिंह ने अपने कपड़ों के अन्दर हाथ डाला और कपड़े का एक छोटा सा पुलिन्दा बाहर निकाला जो वास्तव में एक तस्वीर थी। शेरसिंह ने यह तस्वीर खोल कर भूतनाथ के सामने रक्खी और कहा, ‘‘इस तस्वीर को गौर से देखो और वह बगल वाली लिखावट पढ़ो।’’

इस तस्वीर पर निगाह पड़ना था कि भूतनाथ के मुँह से एक चीख निकल पड़ी और वह दोनों हाथों से अपनी आँखें बन्द करके बोला, ‘‘हटाओ-हटाओ, इसे मेरे सामने से हटाओ, मुझे इस दृश्य के देखने की सामर्थ्य नहीं है! बस-बस, अब मैं बखूबी समझ गया कि वह अभी तक जीता है और मेरी असली दुर्दशा के दिन बाकी ही नहीं बल्कि शीघ्र ही आने वाले हैं!’’ इतना कह भूतनाथ ने गर्दन घुमा ली और आँखें बन्द कर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा। शेरसिंह ने वह तस्वीर लपेट कर ठिकाने रक्खी और तब भूतनाथ से कहा, ‘‘कहो अब तो तुम्हें मेरे कहने का विश्वास हुआ?’’

भूतनाथ ने काँपती हुई आवाज में कहा, ‘‘हाँ अच्छी तरह विश्वास हुआ और इस बात का भी विश्वास हो गया कि मेरे लिए इस दुनिया में सुख और प्रसन्नता नहीं है। मैं नरक का कीड़ा हूँ और नरक ही मेरा उपयुक्त स्थान है। भला इतने दिनों के बाद भी यह आदमी जिसे मैं मरा ही नहीं बल्कि पञ्चतत्व में मिल गया हुआ समझता था जीता रह जाएगा इसका किसी को कभी विश्वास हो सकता था? नन्हों आदि को मार और इस घटना से मेरा सम्बन्ध साबित करने वाले सब सबूतों को भी नष्ट कर मैं समझे हुए था कि अब अपने पिछले इतिहास की इस दुःखद घटना का सदा के लिए मैंने नाम-निशान मिटा दिया, पर नहीं, अब मालूम हुआ कि मेरे दुःख की घड़ी तो अब आने वाली है। ओफ, लोहगढ़ी को उठा कर मेरे हाथ कुछ औरतों के मारने का व्यर्थ का पाप ही मात्र लगा और वास्तविक लाभ कुछ भी न हुआ। जब यह आदमी खुद ही जीता-जागता मेरे दुष्कर्मों की कहानी कहने को मौजूद है तो भला नन्हों वगैरह को मारने से फायदा ही क्या हुआ? समचुम मेरी किस्मत ही ऐसी है, अपनी नेकनामी की चादर को ज्यों-ज्यों मैं धोकर साफ करना चाहता हूँ त्यों-त्यों वह और भी गन्दी होती जा रही है। हे भगवान, अब क्या होगा!!’’

इसी तरह की बहुत-सी न-जाने कैसी-कैसी बातें भूतनाथ देर तक बकता रहा। आखिर शेरसिंह ने उसे रोका और कहा, ‘‘भूतनाथ, इस तरह घबड़ा जाना तुम्हें शोभा नहीं देता। जरा शान्त होवो और सोचो कि अब तुम्हें क्या करना मुनासिब है। हिम्मत न हारो बल्कि गम्भीरता से विचार करो और उस मुसीबत से बाहर होने की तर्कीब सोचो जो कि इस आदमी के प्रकट होते ही तुम्हारे ऊपर आ सकती है। इस तरह से निराश होने से कोई फायदा नहीं है।’’

भूत० : क्या तुम्हें अब भी कोई आशा बाकी है? क्या इससे बड़ी कोई और भी निराशा हो सकती है?

शेर० : इस बात को मैं मानता हूँ कि इस आदमी का जीता-जागता प्रकट हो जाना तुम्हारे हक में बहुत ही बुरा है पर फिर भी तुम चालाक हो, बुद्धिमान हो, अगर सोचोगे और गौर करोगे तो अपने बचाव की कोई-न-कोई तर्कीब निकाल ही लोगे।

भूत० : (लाचारी की मुद्रा से सिर हिला कर) नहीं, अब सिवाय मर जाने के और कोई तर्कीब बाकी नहीं है। सच तो यह है कि मैं इस घटना का सूत्रपात पहिले ही से देख रहा था। जिस समय वह सन्दूकड़ी जिसे मैं नष्ट हो गया हुआ समझता था मुझे नजर आई उसी समय मेरा दिल काँप गया था और मैं समझ गया था कि लक्षण अच्छे नहीं हैं पर फिर भी मैं आशा को अपने दिल में जगह दिये हुए था और नन्हों तथा उन सब सबूतों को मिटाकर सोचता था कि कुछ निश्चिन्त हुआ। पर अब मालूम हुआ कि वह सिर्फ मेरा भ्रम था, मेरी मौत मेरे पीछे ही मौजूद है और उस सन्दूकड़ी का भेद प्रकट हुए बिना न रहेगा।

शेर० : तुम्हारा मतलब किस सन्दूकड़ी से है?

यह सुन भूतनाथ ने अपने बटुए के अन्दर से वह पीतल की सन्दूकड़ी निकाल कर शेरसिंह को दिखाई जिसे उसने नागर और मुन्दर के कब्जे से पाया था। शेरसिंह इस सन्दूकड़ी के देखते ही चौंक कर और घबड़ाकर बोले, ‘‘हैं, यह सन्दूकड़ी अभी तक मौजूद है?’’ उन्होंने उसे हाथ में उठाकर देखा और तब जमीन पर रख काँपती हुआ आवाज में कहा, ‘‘सचमुच भूतनाथ, तुम बड़े ही बदकिस्मत हो।’’ (१. देखिए भूतनाथ सोलहवाँ भाग, पहिले बयान का अन्त।)

भूत० : आज इसका पूरा-पूरा विश्वास मुझे हो गया। अभी तक बराबर मैं किस्मत के साथ लड़ता और पहिले जमाने में जो कुछ भूलें और गलतियाँ मुझसे हो चुकी थीं उनको मिटाने की कोशिश करता चला आया, पर अब मालूम हुआ कि वह सब कोशिशें बेकार थीं। मुझे सिर्फ कुछ जाने लेने का पाप ही मिला और इसके सिवाय कोई नतीजा उन कोशिशों का न निकला, अस्तु अब मैं समझता हूँ कि मेरा इस दुनिया से उठ जाना ही अच्छा है। अब और जीने से उन पापों का फल भोगने के सिवाय और कोई लाभ नहीं हो सकता।

शेर० : नहीं-नहीं, तुम इस तरह निराश न होवो। आओ हम लोग मिलकर कोशिश करें और सोचें कि इस मुसीबत से बचने की कौन-सी तर्कीब हो सकती है।

भूत० : नहीं जी नहीं, यह सब सोचना अब फजूल है, अब मेरे लिये सिर्फ यही रास्ता रह गया है कि दुनिया के पर्दे से अपने को छिपा लूँ, किसी को अपना काला मुँह न दिखाऊँ, और जमाने में यही जाहिर कर दूँ कि भूतनाथ मर गया। मगर मेरे दोस्त, क्या एक बात में तुम मेरी मदद कर सकते हो?

शेर० : मैं हमेशा और सब तरह से तुम्हारी मदद करने को तैयार हूँ मगर पहिले तुम यह बताओ कि तुम्हें मेरी तरफ से जो शक था वह दूर हुआ या नहीं? तुम्हारी बातों से मुझे बेहद तकलीफ हुई जिस पर मैंने यह खबर तुम्हें दी, नहीं तो मेरा इरादा यही था कि इस बात को बिलकुल ही पचा जाता और कम-से-कम अभी तुमको इसका कोई जिक्र न करता क्योंकि मैं अच्छी तरह समझता था कि इसको सुनकर तुम्हारी क्या हालत होगी। तुम्हारी बातों ने मुझे दिली तकलीफ पहुँचाई और इसी से मुझे तुमसे यह हाल कहना पड़ा।

भूतनाथ : नहीं-नहीं मेरे दोस्त, मेरा तुम्हारे ऊपर अब किसी तरह का शक नहीं है और मेरी गलती थी कि मैंने तुम पर कभी भी शक किया। जो कुछ मैंने तुमसे कहा उसके लिये मैं सच्चे दिल से तुमसे माफी माँगता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि तुम उस बारे में मेरी तरफ से कोई बुरा भाव अपने दिल में आने न दोगे। मैं अच्छी तरह समझता हूँ कि उस आदमी के जीते रहने की खबर पाकर तुम इसके सिवाय और कुछ कर ही नहीं सकते थे। मगर एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि नन्हों को क्योंकर इस बात का विश्वास हो गया कि वह आदमी मर गया! तुम जानते ही हो कि वह इस पर किस तरह मरती थी। इसे जीता पाकर फिर कैसे उसने इसकी उम्मीद छोड़ दी और इसे मरा समझ लिया?

शेर० : जरूर इस बारे में कोई बहुत ही बड़ी चालाकी की गई है जिसका ठीक-ठीक पता मुझे भी अभी तक लगा नहीं है पर तब यह बात जरूर थी कि और लोगों को भी इस आदमी के जीते रहने की खबर लग चुकी थी और वे इसे छुड़ाने की फिक्र में थे, जरूर वे मौका पाकर अपना काम कर गुजरे, इसका पूरा-पूरा हाल मैं जान न सका पर जितना कुछ मैं ठीक-ठीक जान सका हूँ वह यही कि यह आदमी अभी तक जीता-जागता ही है, मरा नहीं।

भूत० : वह बात तो यह तस्वीर और इसका मजमून ही बता रहा है और किसी सबूत की जरूरत क्या है? अच्छा हाँ, यह तो मैंने तुमसे पूछा ही नहीं कि यह तस्वीर तुम्हारे हाथ कैसे लगी?

शेर० : बस यही बात तुम मुझसे मत पूछो। यह एक ऐसे आदमी से मुझे मिली है जिसने उस कैदी से खुद बातें की हैं और जिसका नाम इस वक्त तुम्हारे सामने लेना मैं उचित नहीं समझता। किसी दूसरे समय मौका होने पर मैं जरूर यह बात भी तुम्हें बता दूँगा पर आज नहीं। हाँ, इस समय इतना कह सकता हूँ कि इस तस्वीर के लिए ही वह चीठी मुझे उस आदमी को लिखनी पड़ी थी जो तुमने मुझे पहिले दिखाई और कहा कि नन्हों से तुम्हें मिली है मगर मैं अभी तक इस ताज्जुब में हूँ कि वह नन्हों के पास क्योंकर पहुँची?

भूत० : खैर अब तो नन्हों रही नहीं जो इस बात का जवाब देगी और इसको जानने का मुझे कोई कौतूहल भी नहीं है, अब सिर्फ एक आखिरी अभिलाषा मेरी है जो अगर तुम पूरी कर दोगे तो मैं उम्र भर तुम्हारा शुक्रगुजार रहूँगा।

शेर० : वह क्या? तुम बेधड़क कहो, मैं जो कुछ भी तुम्हारे लिए कर सकूँगा जरूर और निःसंकोच होकर करूंगा।

भूत० : इसकी प्रतिज्ञा करते हो?

शेर० : इसकी प्रतिज्ञा की जरूरत समझते हो तो प्रतिज्ञा ही सही, कहो वह क्या काम है?

भूत० : यह तो तुम समझते ही होगे कि इस समय मेरे पुराने दुश्मन के प्रकट हो जाने के बाद अब मेरा दुनिया में रहना व्यर्थ है। यह जगह-जगह मेरा पीछा करेगा और मेरी जिन्दगी बर्बाद कर देगा, अस्तु अब मेरा मर जाना ही मुनासिब है, जिन्दा रहने से कोई फायदा नहीं।

शेर० : नहीं-नहीं भूतनाथ, मैंने पहिले भी कहा और अब भी कहता हूँ कि तुम इस तरह निराश न हो और अपने को कलंक से बचाने की कोई तर्कीब सोचो। बार-बार इस तरह मर जाने की बात कहना तुम्हारे मुँह से शोभा नहीं देता।

भूत० : मैं चाहे कितनी भी कोशिश करूँ पर उसका नतीजा कुछ न निकलेगा। मेरा यह पुराना पाप बहुत भयानक रूप धर के जहाँ-जहाँ मैं जाऊँगा वहाँ-वहाँ मेरा पीछा करेगा और मुझे मुर्दे से बदतर कर देगा। अस्तु मेरा दुनिया से उठ जाना ही मुनासिब है, यद्यपि मेरी तरह से तुम भी जानते ही हो कि इस मामले में मेरा कसूर कहां तक था और किस तरह की लाचारी की हालत में मुझे वह काम करना पड़ा था पर फिर भी किससे मैं यह बातें कहता फिरूँगा।

शेर० : कोशिश करने से सब कुछ सम्भव है, तुम इस मामले में अपने दोस्तों की मदद लो, इन्द्रदेव से मिलो....

भूत० : वाह खूब कही, वे यह खबर पाकर और इस पुराने किस्से का सच्चा हाल सुनकर खुद मेरी ही जान के ग्राहक बन जायँगे कि मेरी मदद करेंगे! और फिर जितने समय मैं अपनी बेकसूरी साबित करने का सामान जुटाऊँगा उतने समय में तो मेरा दुश्मन मुझे बर्बाद कर डालेगा।

शेर० : हाँ यह कहना तुम्हारा कुछ अंश में जरूर सही है मगर इसकी भी यह तर्कीब हो सकती है कि तुम कुछ दिनों के लिए गायब हो जाओ और जब अपनी बेकसूरी साबित करने लायक बन जाओ तब प्रकट हो जाओ।

भूत० : ठीक यही बात मैं सोच रहा था और इस काम में तुम्हारी मदद माँगना चाहता था, इस वक्त जो लोग मुझे जानते हैं या जिन्हें मेरी पिछली कार्रवाई की कुछ खबर है उन्हें सहज में यह विश्वास दिलाया जा सकता है कि लोहगढ़ी के साथ-साथ भूतनाथ भी उड़ गया, क्योंकि आखिर यह बात छिपी तो रहेगी नहीं, एक दिन प्रकट होगी कि वह कार्रवाई मेरी ही थी।

शेर० : तब तुम्हारा क्या मतलब है?

भूत० : मैं यह मशहूर कर देना चाहता हूँ कि भूतनाथ मर गया, इसके बाद गायब होकर इस मामले में, जिसका ढिंढोरा यह तस्वीर पीट रही है, अपनी बेकसूरी साबित करने की कोशिश करूँगा। अगर सफल हुआ तो अपना मुँह दिखाऊँगा, नहीं दुनिया की निगाहों में मरा ही रह जाऊँगा।

शेर०: तुम्हारा यह ख्याल कुछ बेजा नहीं है, तुम कहो कि इस काम में मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ?

भूत० : दो तरह से मेरी मदद कर सकते हो, एक तो जमाने पर यह जाहिर करके कि लोहगढ़ी में भूतनाथ भी मर गया, और दूसरे....

शेर० : और दूसरे?

भूत० : अगर मानों तो बताऊँ नहीं तो क्यों कहूँ?

शेर० : आखिर कुछ कहो भी तो, मैंने तो सब तरह से तुम्हारी मदद करने की प्रतिज्ञा ही कर दी है

भूत० : ठीक है, तो उसी प्रतिज्ञा पर विश्वास करके मैं कहता हूँ कि—यह तस्वीर मेरे हवाले कर दो जो तुम्हारे पास है।

शेर० : (चौंक कर) हैं क्या कहा? यह तस्वीर भला मैं तुम्हें क्योंकर दे सकता हूँ? यह एक बड़े ही ऊँचे रुतबे वाले आदमी ने मेरा बहुत बड़ा विश्वास करके एक खास काम के लिए मुझे दी है और जल्दी ही इसको उन्हें वापस कर देना मेरा धर्म है!

भूत० : (उदास होकर) तब फिर लाचारी है, और कोई तर्कीब फिर मेरे जिन्दा रहने की नहीं है। यद्यपि मैं समझता हूँ कि अब यह भेद छिपा रह न सकेगा पर इस तस्वीर के रहते हुए यह बात कल की होती आज ही होगी। यह मुझे न मिली तो मुझे सचमुच ही अपनी जान दे देनी पड़ेगी।

शेर० : नहीं-नहीं भूतनाथ, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि वह तस्वीर न तो किसी ऐसे के हाथ पड़ेगी जो तुम्हारा दुश्मन होगा और न कोई आँखें इसे देख ही सकेंगी।

भूत० : (सिर हिलाकर) नहीं, सो असम्भव है, खैर, जाने दो, मैं समझ लूँगा कि मेरी जिन्दगी बस इतनी ही थी।

कहकर भूतनाथ ने सिर झुकाया और उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे। शेरसिंह उसकी यह हालत देख बहुत दुःखी हुए और आखिर रह न सके। उन्होंने वह तसवीर पुनः निकाली और भूतनाथ की तरफ बढ़ाकर कहा, ‘‘खैर जब तुम ऐसा ही समझते हो तो जो प्रतिज्ञा मैंने तुमसे की उसे पूरा करता हूँ, लो यह तस्वीर तुम लो और इसका जो करना चाहते हो सो करो।’’

शेरसिंह ने वह तस्वीर भूतनाथ की तरफ बढ़ाई जो उनकी बात सुन अविश्वास और प्रसन्नता की दृष्टि से उनकी तरफ देखने लग गया था। उसने खुशी-खुशी तस्वीर लेने के लिए हाथ बढ़ाया मगर उसी समय यकायक कहीं से जोर की आवाज आई—‘‘ठहरो।’’ दोनों आदमी चौंक कर इधर-उधर देखने लगे। झोंपड़े के दरवाजे पर किसी की छाया दिखाई पड़ी साथ ही एक आदमी ने झोंपड़े के अन्दर पैर रक्खा।

इस आदमी की सूरत-शक्ल कैसी थी इसका कुछ भी पता न लग सकता था क्योंकि इसने सिर से पैर तक अपने को एक काली पोशाक से ढंका हुआ था और इसके चेहरे पर भी एक काली नकाब पड़ी हुई थी। भूतनाथ और शेरसिंह के देखते-देखते यह उन दोनों के सामने आकर खड़ा हो गया और कड़ी आवाज में भूतनाथ से बोला, ‘‘गदाधरसिंह, तू अपने गुरुभाई और दोस्त को अपनी बातों से भले ही धोखा दे ले मगर मैं खूब समझता हूँ कि इस तस्वीर को ले लेने से तेरा क्या मतलब है। तू अभी कुछ दिन और इस दुनिया में रहना तथा कुछ दिन और लोगों को अपनी चालबाजी से धोखा देना चाहता और तेरा इरादा है कि इस तस्वीर को नष्ट कर अपने पाप को कुछ दिनों तक और छिपाए रहे, मगर याद रख कि तेरा यह इरादा कभी पूरा न हो सकेगा।’’

भूतनाथ जो ताज्जुब और कुछ-कुछ डर की निगाहों से इस नकाबपोश को देख रहा था कमजोर आवाज में बोला, ‘‘आप कौन हैं और मुझसे क्या चाहते हैं?’’नकाबपोश ने फिर कड़क कर कहा, ‘‘क्या मेरी आवाज से तू मुझे पहिचान न सका? शायद न पहिचान सका हो, क्योंकि कैद की सख्तियों ने मेरे शरीर के साथ-साथ मेरी आवाज को भी बहुत कमजोर कर दिया है। अच्छा ले मेरी सूरत भी देख ले।’’

कहकर उस नकाबपोश ने अपने चेहरे पर की नकाब उलट दी। भूतनाथ ने जो इस तरह डर और काँप रहा था मानों उसे जूड़ी-बुखार चढ़ आया हो, देखा कि उसके सामने एक दुबला-पतला आदमी खड़ा है जिसका चेहरा यद्यपि इस समय बिल्कुल ही सूखा हुआ और एकदम पीला होकर यह बता रहा था कि बरसों का बीमार या शायद कोई लम्बी मुद्दत का कैदी है पर फिर भी आसार कह रहे थे कि वह किसी समय में गजब का खूबसूरत और सुडौल रहा होगा। मगर भूतनाथ इसे देखते ही इस तरह काँप गया मानों उसे गोली लग गई हो। उस आदमी ने तड़पकर कहा, ‘‘क्यों? सूरत देखकर भी तूने मुझे पहिचाना या नहीं?’’

भूतनाथ के काँपते गले से निकला, ‘‘आ....आ....आप!!’’ वह आदमी गरज कर बोला, ‘‘मैं कौन हूँ यह क्या अब भी तूने नहीं पहिचाना! सुन, मेरी सूरत देख के भी अगर तू समझ सका हो तो मेरा नाम सुनकर मुझे जान जा। मेरा नाम कामेश्वर है! कौन कामेश्वर? वही जिसकी बहिन अहिल्या को तूने ‘भूतनाथ’ की मूरत पर बलि चढ़ाया और अपना नाम भूतनाथ रक्खा। कौन कामेश्वर? वही जिसकी स्त्री भुवनमोहिनी को तूने शिवदत्त के हवाले किया और इनाम पाया, कौन कामेश्वर? वही जिसको मारकर तूने दारोगा से इनाम लिया। और जानता है वह भुवनमोहिनी कौन? वही भुवनमोहिनी जिसको मारकर तूने मायारानी से शिवगढ़ी की ताली पाई! मैं वही कामेश्वर इस वक्त तेरे सामने खड़ा हूँ जिसे मरा हुआ समझ अब तक तू निश्चिन्त था। कह अब तू क्या कहता है?’’

भूतनाथ के मुँह से कोई आवाज न निकली। वह एकदम पागल-सा हो गया था और पागलों की ही तरह अपनी आँखें फाड़-फाड़ अपने चारों तरफ इस तरह देख रहा था जिस तरह हरिन जाल में फंस और अपने बचाव का कोई रास्ता न पा व्याध की तरफ देखता है। कामेश्वर ने फिर गरजकर कहा, ‘‘कह, अब भी तूने मुझे पहिचाना या नहीं।’’

भूतनाथ मानों सचमुच पागल हो गया था। उसने कुछ कहने के लिए मुँह खोला पर उसके गले से कोई आवाज न निकली, उसने जमीन से उठना चाहा पर उसके हाथ-पाँव बेकार हो गए थे, वह केवल अपलक नेत्रों से इस नए आने वाले की तरफ देखता रह गया।

उसकी यह हालत देख आगन्तुक बड़े जोर से खिलखिलाकर हँसा, इसके बाद शेरसिंह की तरफ घूमा और उससे बोला, ‘‘क्यों शेरसिंह, अपने गुरुभाई की हालत देखते हो! इस समय कैसा बिल्ली बन बैठा है, मगर किसी समय इसने मेरे ऊपर कैसा कहर ढाया था, क्या इसे तुम नहीं जानते?’’

शेरसिंह ने कहा, ‘‘मैं थोड़ा-बहुत जानता हूँ मगर आप यह भी देख रहे हैं कि यह आपसे इतना नहीं डरा है जितना इस बात से डरा है कि आपके द्वारा इसकी बदनामी दुनिया में जाहिर हो जाएगी। असल में अपनी बदनामी से इस कदर डर गया है, और जो आदमी अपनी बदनामी से डरता हो, आप भी मानेंगे कि उसमें अब भी आदमीयत की बू बाकी है चाहे पूर्व में वह कैसे ही कर्म क्यों न कर चुका हो।

वह आदमी शेरसिंह की यह बात सुन हँसकर बोला, ‘‘नहीं-नहीं शेरसिंह, तुम इस तरह की बातें करके इसकी तरफ से मेरा दिल मुलायम नहीं कर सकते, क्योंकि शायद तुम भी नहीं जानते कि इस कम्बख्त गदाधरसिंह ने किस तरह मेरा खून सुखाया है। इसकी सच्ची करतूतों का हाल तुम अगर जानते तो इसकी सिफारिश करने के बजाय तुम भी इससे नफरत करते और इसका मुँह देखने में पाप समझते!’’

शेरसिंह ने यह सुन मुलायमियत के स्वर से कहा, ‘‘आपका कहना बहुत सही है पर आपसे मैं यह कहने की जुर्रत करता हूँ कि आपने अपने मामले में इसको जितना बड़ा कसूरवार समझा है अगर ठीक तौर पर जाँच करेंगे तो शायद यह उतना बड़ा कसूरवार नहीं साबित होगा। अभी-अभी यह मुझसे कह रहा था कि आपके बारे में अपनी बेकसूरी साबित कर सकता है और उसी काम के लिए यह कुछ थोड़ी मोहलत चाहता था।’’

उस आदमी ने शेरसिंह की बात सुन घृणा के साथ भूतनाथ की तरफ एक नजर देखा और तब कहा, ‘‘हाँ, मैंने इसकी वह बात सुनी थी, पर मैं खूब जानता हूँ कि यह सिर से पैर तक कसूरवार है और तुम्हें सिर्फ धोखा देना चाहता था। तुम्हारी इस बात को सुन मुझे विश्वास हो गया कि तुम भी इसका ठीक-ठीक और पूरा भेद नहीं जानते। मेरे पास आओ और सुनो, मैं तुम्हें बताता हूँ कि मेरे और मेरी स्त्री के साथ इसने क्या-क्या किया।’’

शेरसिंह उठा और वह नकाबपोश उसे झोंपड़े के एक कोने में ले जाकर उससे कुछ कहने लगा। अब तक तो भूतनाथ इस तरह अपनी जगह पर बैठा हुआ था कि मानों उसकी देह में जान ही न हो पर अब उस नकाबपोश के कुछ दूर हट जाने से मानों उसके दम-में-दम आ गया। उसने जल्दी-जल्दी कुछ सोचा और तब धीरे-से वह तस्वीर जो शेरसिंह ने उसे दिखाई थी और जिसे देख वह घबड़ा गया था उठा कर बगल में दबाई, ऐयारी का बटुआ हाथ में उठाया और इस आहिस्तगी से झोंपड़े के बाहर निकल गया कि बातचीत में मशगूल शेरसिंह और नकाबपोश को जरा गुमान तक न होने पाया। जिस समय उनकी बातें समाप्त हुईं और उस नकाबपोश ने भूतनाथ से कुछ कहने के लिए उसकी तरफ गर्दन घुमाई तो उसे गायब पाया और तब ताज्जुब की एक आवाज मुँह से निकाल वह झोंपड़े के दरवाजे की तरफ लपका, मगर अब वहाँ क्या था? भूतनाथ तो बाहर होते ही इस तरह सिर पर पैर रखकर वहाँ से भागा कि उसकी धूल का भी कहीं पता न था!

अब हम थोड़ी देर के लिए शेरसिंह और उस नकाबपोश को यहीं छोड़ देते हैं और भूतनाथ के साथ चलकर देखते हैं कि वह कहाँ जाता या क्या करता है। भूतनाथ उस कुटिया के बाहर निकल कर जो भागा तो उसने एक बार पीछे फिर कर भी नहीं देखा। बस एकदम सरपट सामने की तरफ भागने का ही उसे ख्याल रहा। अपने और उस आदमी के बीच में ज्याद-से-ज्यादा फासला डाल देने के सिवाय, जिसे अब तक वह मरा हुआ समझता था पर जो आज ऐसी आश्चर्यजनक रीति से उसके सामने प्रकट हुआ था, उसे इस समय और किसी बात का ख्याल ही न था, अस्तु वह तब तक भागता ही चला गया जब तक की सूरज सिर पर न आ गया और गर्मी-पसीने-थकावट, धूप और कमजोरी से परेशान होकर वह कहीं रुक सुस्ताने की जरूरत न समझने लग गया।

रुककर चारों तरफ निगाह की तो सामने ही ऊँची जगत का एक पक्का कूआँ नजर आया जिसके ऊपर नीम के पेड़ों की घनी छाया पड़ रही थी। इसी जगह रुक कर कुछ दम ले लेने के विचार से कूएँ पर चढ़ गया, हाथ का और बगल का सामान जमीन पर रक्खा, और खुद उसके पक्के फर्श पर बैठकर सुस्ताने लगा। जब कुछ शान्त हुआ तो उसने अपना ऐयारी का बटुआ खोला और उसके अन्दर से लुटिया तथा डोरी निकाल कूएँ से पानी खींचने लगा।

इसी समय न जाने कहाँ से आता हुआ एक दूसरा मुसाफिर भी उस जगह पहुँच गया। इसके हाथ में भी लोटा तथा रस्सी थी और एक मामूली निगाह इस पर डालकर ही भूतनाथ समझ गया कि यह कोई देहाती पंडित है अस्तु उसने इस पर कोई ज्यादा ख्याल न किया मगर यह पंडित गजब का दगाबाज और बेईमान निकला। इसने भूतनाथ के पास आते ही यकायक पीछे से उसे ऐसा धक्का दिया कि वह किसी तरह सम्हल न सका और धड़ाम से कूएँ के अन्दर जा रहा।

इन नए मुसाफिर ने एक बार झाँक कर भी न देखा कि कूएँ के अन्दर गिरे भूतनाथ की क्या हालत हुई। यह सीधा भूतनाथ के सामान के पास पहुँचा और उन चीजों को ध्यान से देखने लगा जो वह वहाँ छोड़ गया था। पहिली निगाह इसकी उस पीतल की सन्दूकड़ी पर पड़ी जिसे इसने उठा लिया और देखने लगा। बहुत गौर से देखने बाद ‘‘बेशक यही है,’’ कह उसे रख दिया और तब तस्वीर उठाकर देखी जो भूतनाथ उड़ा लाया था। जरा-सा खोलकर देखते ही उसके मुँह से एक चीख निकल पड़ी। वह दूसरी निगाह उस पर डाल ही न सका, तस्वीर उसके हाथ से गिर पड़ी और वह जमीन पर बैठ लम्बी साँसें लेने लगा।

यकायक उस आदमी के कान में किसी तरह की आहट पड़ी। सिर उठाकर देखा तो कई आदमियों को तेजी के साथ मैदान में चलते हुए इसी तरफ आते पाया जिन्हें देखते ही वह चौंक पड़ा। बड़ी फुर्ती-फुर्ती उसने भूतनाथ के उन सब सामानों की, जो वहाँ पर पड़े थे, एक गठरी बनाई और उसे हाथ में लिए कूएँ के नीचे उतर गया।

ऊँची जगत के नीचे एक छोटी कोठरी भी बनी हुई थी जिसमें वह आदमी पहुँचा। यहाँ पर इसका कुछ सामान पड़ा हुआ था जिसे इसने उठा लिया और कोठरी के बाहर निकल गया।मैदान की तरफ निगाह की तो उन आदमियों को बहुत नजदीक पाया। लपकता हुआ कूएँ के पीछे की तरफ हो गया और तब बेतहाशा एक तरफ भागा। १


१.अपनी जीवनी लिखता हुआ भूतनाथ यहाँ पर नोट लिखता है—‘‘यह आदमी जिसने इस तरह मेरे साथ दगाबाजी की वास्तव में अर्जुनसिंह था, जिसने न केवल वह पीतल की संदूकड़ी और तस्वीर ही ले ली, बल्कि मेरे बटुए के अंदर से भी कई ऐसी चीजें निकाल लीं जिनके जाने का उस समय मुझे बड़ा ही अफसोस हुआ। सब से कीमती चीज जिसके जाने का मुझे हद्द से ज्यादा रंज हुआ और जिसके निकल जाने के कारण ही मैंने अर्जुनसिंह को जान से मार डालने की कसम खा ली, वह उन चीठियों का मुट्ठा था। जो दारोगा, हेलासिंह और जैपाल के बीच में आई-गई थीं और जिनके फलस्वरूप लक्ष्मीदेवी के बदले मुन्दर की शादी राजा गोपालसिंह के साथ हो गई। इन चीठियों को बड़ी मेहनत से बेनीसिंह बनकर और कुछ अपनी ऐयारी से मैंने इकट्ठा किया था और दारोगा, जैपाल, हेलासिंह वगैरह पर काबू रखने के लिए यही सबसे अच्छा जरिया भी मेरे पास था, जो इन चीठियों के निकल जाने से जाता रहा। अगर ये चीठियाँ मेरे पास रहतीं तो सम्भव था कि मुझे मरने की जरूरत न पड़ती और तब शायद मुन्दर की शादी भी राजा गोपालसिंह से न हो पाती पर एक तो इस मामले से, दूसरे उस पीतल की सन्दूकड़ी वाले मामले से, तीसरे गौहर, नन्हों और मनोरमा आदि की करतूतों से, चौथे शिवगढ़ी की ताली मेरे हाथ से निकल जाने से, और पाँचवे उस तस्वीर के कारण जो शेरसिंह से मैंने ली और इस तरह पर गवाँ दी थी, मैं पागल-सा हो गया और अन्त में दुनिया की निगाहों से उठ जाना ही मुझे अच्छा जान पड़ा। ऐसी हालत में लक्ष्मीदेवी या गोपालसिंह की क्या हालत होगी, इससे भी मैं गाफिल हो गया, फिर मैं इस धोखे में भी पड़ा रह गया कि कम्बख्त मुन्दर, गौहर और नन्हों आदि को मैंने लोहगढ़ी के साथ ही नेस्तनाबूद कर दिया है, पर यह भी मेरी गलती थी। वे किसी कारण बची ही रह गई जैसाकि पाठकों को आगे चलकर मालूम होगा और मैं उनको मरा समझ कर उनकी तरफ से निश्चिन्त बना रह गया, मेरा यह भी खयाल था कि इन चीठियों की ही बदौलत जैपाल ने प्रकट होकर मुझ पर काबू कर लिया। जैसाकि चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है, पर वास्तव में ऐसा न था। अर्जुनसिंह की बदौलत मेरा कोई भी नुकसान न हुआ, असल नुकसान इन्हीं चीठियों की उस नकल के चले जाने की बदौलत हुआ जो कम्बख्त रामदेई ने जैपाल को दी थी पर अवश्य ही उस समय इन बातों का मुझे पता न लगा और मैं कसूर अर्जुनसिंह का ही समझ कर उन्हें ही अपना जानी दुश्मन समझता रहा, उस पीतल की सन्दूकड़ी में क्या था, वह तस्वीर किस मामले को छिपाये थी, और अर्जुनसिंह वास्तव में कौन था यह सब बातें पाठकों को आगे चलकर मालूम हो जायंगी। इस जगह मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूं कि अर्जुनसिंह का भी कामेश्वर और भुवनमोहिनी के भेद से बड़ा ही घनिष्ट सम्बन्ध था और वह सन्दूकड़ी तथा तस्वीर उसी मामले का खजाना थी, यही सबब था कि अर्जुनसिंह उन्हें देख अपने को रोक न सका और उसने उन चीजों पर कब्जा कर लिया, सच तो यह है कि इतना बड़ा धोखा मैंने अपनी जिन्दगी भर में कभी न खाया था जो उस वक्त मुझसे हो गया। अगर मैं उस वक्त परेशान और घबराया हुआ न होता तो कभी मुमकिन न था कि सूरत बदले हुए होने पर भी अर्जुनसिंह को पहचान न जाता। असल बात यह है कि जो कुछ किस्मत में लिखा हुआ होता है वही होता है, मनुष्य का उद्योग कुछ कर नहीं सकता। मेरी किस्मत में जगह-जगह मारे-मारे फिरना और दुनिया की खाक छानना बदा था तो उसके विपरीत क्योंकर हो सकता था?

‘‘इसी घटना की तरफ अर्जुनसिंह ने इशारा किया था जबकि वे नकाबपोश बनकर मेरे सामने आए थे (देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति बीसवाँ भाग चौदहवाँ बयान) और यही वह तस्वीर थी जिसे दोनों कुमारों को दिखाकर अर्जुनसिंह ने कहा था कि कृपानाथ, बस मैं इसी का दावा भूतनाथ पर करूँगा! (देखिए बीसवाँ भाग दूसरा बयान) अथवा जिसे महाराज के सामने उनकी इच्छा समझ तथा इस भेद को छिपा ही रहने देने की नीयत से उसने फाड़ डाला था (देखिए बाइसवाँ भाग चौथा बयान)। वह पीतल की सन्दूकड़ी भी यही थी जिसे चीठियों के मुट्ठे के साथ जैपाल ने रामदेई की हरमजदगी से पा लिया था और जो उस गठरी के अन्दर से निकली थी जिसे तेजसिंह ने बलभद्रसिंह बने हुए जैपाल के हाथ से ले लिया था (देखिए बारहवाँ भाग पहिला बयान) तथा जो अन्त में महाराज की प्रतिज्ञा की बदौलत मुझे बन्द की बन्द मिल गई (बाईसवाँ भाग चौथा बयान।) असल में इन सब चीजों के मेरे हाथ में पड़ कर भी निकल जाने ही ने मुझे सब तरफ से लाचार कर दिया और इस घटना के बाद मैं कुछ भी करने लायक न रह गया।’

दक्खिन तरफ थोड़ी ही दूर पर एक घना जंगल दिखाई पड़ रहा था। सरपट भागता हुआ यह आदमी बहुत जल्द ही उस जगह पहुँच गया और जंगल ने उसे अपने अन्दर छिपा लिया।

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