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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान


यकायक प्रभाकरसिंह को कई आदमियों ने पकड़ लिया और ‘‘यही है, यही है, पहिले इसी को बलि देना चाहिए’’ इत्यादि कह-कहकर चिल्लाने लगे।

इस अचानक की मुसीबत ने प्रभाकरसिंह को घबड़ा दिया फिर भी उन्होंने अपने होश-हवास कायम रक्खे और छूटने का उद्योग करने लगे मगर उनको पकड़ने वाले पंजे वज्र की तरह कड़े थे जिन्होंने उनके लाख उद्योग करने पर भी जुम्बिश न खाई। वे बहुत कुछ उछले-कूदे और जोर लगाया पर किसी तरह भी अपने को छुड़ा न सके बल्कि उनके उद्योग का नतीजा यह निकला कि वे और भी कस कर दबा दिए गए। लाचार उन्होंने छूटने का उद्योग छोड़ दिया और यह जानने की कोशिश करने लगे कि उनको पकड़ने वाले कौन हैं और जिस जगह वे आ पड़े हैं वह स्थान कैसा है।

पहिली बात का पता तो उन्हें सिर घुमाते ही लग गया, उन्हें दोनों तरफ से दो तिलिस्मी शैतानों ने पकड़ा हुआ था जिनके हड्डियों वाले हाथ उन्हें शिकंजों की तरह मालूम हो रहे थे, पर दूसरी बात का पता वे ठीक-ठीक लगा न सके। कारण जिस जगह वे थे वहाँ ऐसा अन्धकार था कि निगाह अच्छी तरह काम नहीं कर रही थी फिर भी इतना उन्होंने समझ लिया कि यह कोई बहुत बड़ा कमरा या बालाखाना है जिसकी छत इतनी ज्यादा ऊँची है कि बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ती। चारों तरफ फैले हुए तरह-तरह के कल-पुर्जे और सामान धुँधले-धुँधले दिखाई पड़ रहे थे जिनके बीच की जगह किसी तरह के सामान से एकदम खाली थी। इसी स्थान के सामने की दीवार का वह हिस्सा गिरा हुआ था जिसकी राह प्रभाकरसिंह आए थे और उस राह से जो चांदना आ रहा था उसकी मदद से प्रभाकरसिंह ने देखा कि उनके ठीक सामने की जगह दीवार के साथ संगमर्मर का एक ऊँचा चबूतरा है जिस पर कोई मूरत बैठी हुई है। उस चबूतरे पर दो औरतें लाचार खड़ी प्रभाकरसिंह को दिखाई पड़ीं जिनमें से एक का मुँह उन्हीं की तरफ घूमा होने के कारण उन्होंने तुरन्त पहिचान लिया कि मालती है पर वह दूसरी औरत कौन है यह वे कुछ जान न सके इन दोनों ही औरतों को दोनों तरफ से दो-दो तिलिस्मी शैतानों ने पकड़ा हुआ था। प्रभाकरसिंह मालती को देखकर चौंके और उससे कुछ पूछना ही चाहते थे कि उन्हें पकड़ने वालों ने उनको एक धक्का दिया और उसी मूरत के पास ले चले।

पहिले तो शायद घबड़ाहट, परेशानी और अन्धकार के कारण मालती प्रभाकरसिंह को पहिचान न सकी थी पर जब वे पास गए तो उसने इन्हें पहिचाना और दर्द-भरी आवाज में कहा, ‘‘हाय, क्या आप भी इन कम्बख्तों के हाथ में पड़ गए, अब जान बचना मुश्किल है।’’ प्रभाकरसिंह ने पूछा, ‘‘यह कौन जगह है और तुम यहाँ क्योंकर पहुँचीं?’’ जिसके जवाब में मालती ने कहा, ‘‘आपको तिलिस्म में फँसा देख यह सोचकर कि शायद इससे आपको कुछ मदद मिले मैं इस तिलिस्म का दूसरा दर्जा तोड़ने के काम में लग गई थी मगर महराब वाले बुर्ज तक पहुँची ही थी कि इन दोनों शैतानों ने मुझे पकड़ लिया और यहाँ ले आए डर के मारे मैं बेसुध हो गई। होश में आई तो इस तरह अपने को बेकाबू पाया। सुनने में आया कि इसी मूरत पर बलि दे दी जाऊँगी और इसी की तैयारी हो रही थी कि बड़े धमाके के साथ वह दीवार गिर पड़ी और आप दिखाई पड़े, मगर अफसोस कि आप भी इन शैतानों के फेर में पड़ गए, अब देखिए क्या-क्या होता है!’’

प्रभाकर० : और यह तुम्हारे साथ वाली दूसरी औरत कौन है?

मालती : मैं नहीं जानती, मैं जब से होश में आई उसे इसी तरह देख रही हूँ, अभी तक कुछ बोली-चाली या हिली नहीं है, शायद गश में हो, मगर आप हम लोगों का ख्याल छोड़िए और अपने बचाव की फिक्र कीजिए, अगर कोई राह निकल सकती हो तो।

प्रभाकरसिंह ने यह सुन गौर के साथ अपने चारों तरफ देखा मगर उसी समय उसका ध्यान एक विचित्र आवाज की तरफ गया जो उसी मूरत के मुँह से निकलती जान पड़ती थी। उन्होंने उस तरफ देखा और इसी समय उस मूरत के मुँह से कड़ी आवाज में निकला, ‘‘ये लोग कौन हैं?’’ प्रभाकरसिंह को पकड़े हुए दोनों शैतानों में से एक ने कहा, ‘‘कृपानिधान, ये लोग तिलिस्म की दौलत लूटने के लिए अन्दर घुसे थे इसलिए गिरफ्तार किए गए हैं, नियामानुसार इनकी बलि होनी चाहिए।’’ उस मूरत ने कहा, ‘‘ठीक है, ठीक है, मैं इन बदमाशों को बखूबी पहिचान गया, अब देर करने की जरूरत नहीं है, तुम लोग अपना काम पूरा करो।’’

इतना सुनते ही वे शैतान अपनी-अपनी जगह से हटे और पारी-पारी से सभों ने बेहोश औरत मालती और प्रभाकरसिंह का सर जबर्दस्ती उस मूरत के पैर से लगाया। इसके बाद उस औरत को लिए हुए दो शैतान उस चबूतरे पर चढ़ गए जिस पर वह मूरत थी। एक शैतान ने उस बेचारी को जोर से उस मूरत पर ढकेल दिया, साथ ही खाँड़े वाला हाथ गिरा और उस औरत का सिर कट कर दूर जा पड़ा।

चबूतरे के ऊपर वाले दोनों शैतान अपना भयानक काम पूरा कर नीचे उतर आए और अब प्रभाकरसिंह को पकड़ रखने वाले दोनों शैतान उस चबूतरे पर चढ़े। यद्यपि प्रभाकरसिंह ने अपने को छुड़ाने के लिए बहुत कुछ कोशिश की और जोर लगाया पर सब व्यर्थ हुआ। उन तिलिस्मी शैतानों के हाथ में वे बिल्कुल बच्चे के समान थे जिन्होंने उन्हें मूर्ति के पैर पर ढकेल दिया और पीछे हट गए। साथ ही उनमें से एक शैतान आगे बढ़ा और चाहता ही था कि अपने खाँड़े से प्रभाकरसिंह की गर्दन उड़ा दे कि इतने ही में तड़प कर प्रभाकरसिंह दूर हट गए। जो एक सायत का अवसर उन्हें मिला जब कि दोनों शैतानों के हाथ उन पर से हट गए थे उसी में उन्होंने इतना काम बना लिया था।

यह देख कि उनका शिकार उनके हाथों से निकल भागना चाहता है उन शैतानों के गले से एक डरावनी आवाज निकली और प्रभाकरसिंह को पकड़ने के लिए झपटे पर यह कतरा कर उनके सामने से निकल गए और उस मूरत के पीछे हो गए जिसके और उस कमरे की दीवार के बीच में एक आदमी के घुस जाने लायक रास्ता था। वे उस जगह पहुँचे ही थे कि यकायक उस मूरत की पीठ में उन्हें कोई चीज चमकती हुई नजर आई। गौर से देखा तो मालूम हुआ कि कुछ अक्षर हैं जो न-जाने किस तरह के मसाले से लिख गए हैं कि उस अन्धकार में जुगनू की तरह चमक रहे हैं। जरूर यह बात मतलब से खाली न होगी यह सोच प्रभाकरसिंह गौर-से देखने लगे। वे अक्षर ये थे :—

स    क   प   र    क

इ    न    त    ल    द

स    प    अ    स्म   ह

र    य    थ    ह    न

अ     छ     ठ    ग  अ

कुछ ही गौर ने प्रभाकरसिंह को इन हरूफों का मतलब बता दिया और तुरंत ही उन्होंने उसके मुताबिक कार्रवाई भी की। दोनों शैतान उनका पीछा करते हुए उनके दोनों तरफ आ गए थे और हाथ बढ़ा कर उन्हें पकड़ना ही चाहते थे कि उन्होंने अपना तिलिस्मी डण्डा सम्हाला और बगल से हाथ बढ़ा उसका सिरा उस मूरत के दाहिने पैर के अँगूठे से छुला दिया। डंडे का छूना था कि मूरत के गले से एक डरावनी आवाज आई और साथ ही उसके मुँह के अन्दर से आग का फौवारा-सा निकल पड़ा इस आग की एक चिनगारी सामने वाले शैतान के सिर पर गिरी जिसके साथ ही उसके सिर से भी वैसी ही लपट निकलने लगी। उसकी यह हालत देखते ही वहाँ मौजूद सभी शैतान चिल्लाते हुए दूर भागे पर बच न सके। चिनगारियाँ उनके बदन पर भी पड़ीं जिसके साथ ही वे सब-के-सब भी अनार या फुलझड़ी की तरह बलने लग गए।

उन शैतानों की यह हालत देख प्रभाकरसिंह खुशी-खुशी उस मूरत की पीछे से निकले और मालती के पास पहुँचे जो डरी और सकपकाई हुई उसी जगह खड़ी थी प्रभाकरसिंह ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘यहाँ इस तरफ निकल आओ, जहाँ तुम हो वहाँ तो चिनगारियों के मारे खड़ा होना मुश्किल है!’’ अभी ये दोनों मुश्किल से थोड़ी दूर हटे होंगे कि इन्होंने देखा कि चिनगारियाँ उस चबूतरे के ऊपर वाली मूरत के बदन से भी निकलने लगी हैं जो शैतानों को जला कर अब स्वयं भी जलने लग गई थी। पर इस मूरत के बदन में एक विशेषता थी जो उन शैतानों के साथ न थी अर्थात् इसके बदन से चिनगारियों के साथ-साथ बहुत-सा धूआँ भी निकल रहा था जिससे वह स्थान भरने लगा था। यह धूआँ बड़ा ही कड़ुआ और तबीयत को घबड़ा देने वाला था तथा शायद इसमें कुछ बेहोशी का भी असर था क्योंकि यद्यपि प्रभाकरसिंह और मालती उस स्थान से बहुत दूर हट कर खड़े हुए थे तो भी जो कुछ धूआँ उनकी आँख-नाक में तथा साँस की राह पेट के अन्दर गया उससे उनका सिर चक्कर खाने लगा और कुछ ही देर में वे बदहवास होकर जमीन पर बैठ गए।

जब इन दोनों के होश-हवाश ठिकाने हुए और इन्होंने आँखें खोलीं तो देखा कि दिन प्रायः अस्त हो चुका है और इस जगह का अंधेरा और भी घना हो गया है। चबूतरा जहाँ पर वह मूरत बैठाई हुई थी इस समय एक-दम खाली था मगर उस पर तथा उसके नीचे भी बहुत-सी लाल रंग की राख गिरी हुई बता रही थी कि वह मूरत जल कर एकदम राख हो गई है। प्रभाकरसिंह के साथ-साथ मालती भी अब होश में आ गई थी और आश्चर्य के साथ चारों तरफ देख रही थी। आखिर उसने कहा, ‘‘मालूम होता है कि चबूतरे वाली मूरत जल कर भस्म हो गई पर आश्चर्य की बात है कि मैं उस औरत की लाश कहीं नहीं देख रही हूँ जो हमारे सामने ही बलि दे दी गई थी। क्या उसे कोई उठा ले गया?’’ प्रभाकरसिंह ने यह देख कर कहा, ‘‘नहीं, उठा कौन ले जायगा, मगर आखिर वह लाश गई कहाँ? वह चबूतरे से गिर कर नीचे जमीन पर आ गई थी, शायद उस दूसरी तरफ तो नहीं है, देखना चाहिए!’’ कह कर वे उठ खड़े हुए और मालती भी उठी। दोनों उस चबूतरे के पास आए और चारों तरफ तलाश करने लगे मगर कहीं वह लाश दिखाई न पड़ी, हाँ जहाँ वह गिरी थी उस जगह भी बहुत-सी सुफेद रंग की राख पड़ी हुई नजर आई जिसे देख प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘मालूम होता है कि वह औरत भी कोई तिलिस्मी कारीगरी थी और उन शैतानों के साथ ही जल गई क्योंकि यहाँ तो सिवाय इस सुफेद राख के और कुछ नजर नहीं आ रहा है।’’ मालती ने यह सुन कहा, ‘‘शायद ऐसा ही हो’’ और तब उस चबूतरे का सहारा लेकर खड़ी हो गई क्योंकि उसके सिर में अभी तक चक्कर आ रहे थे और बेतहाशा दर्द हो रहा था जो शायद उसी धूएँ का असर था। प्रभाकरसिंह ने यह देख और उसकी हालत समझ कर कहा, ‘‘बेहतर हो कि तुम इस जगह आ कर बैठो और अपना हाल मुझसे कह जाओ। मेरा भी सर दर्द कर रहा है, तबीयत ठीक होने पर आगे की कार्रवाई शुरू की जायगी।’’ मालती ने यह सुन ‘‘बहुत खूब’’ कहा और तब प्रभाकरसिंह उसे लिए हुए उसी टूटी दीवार के पास जा बैठे जहाँ से वे इस स्थान में पहुँचे थे और जहाँ से इस समय दिमाग को ताजगी देने वाली हवा के ठण्डे-ठण्डे झोंके आ रहे थे। यहाँ आकर मालती की तबीयत कुछ ठीक हुई और उसने प्रभाकरसिंह को उनकी गैरहाजिरी में हुआ भया सब हाल सुनाना शुरू किया जो कि पाठक ऊपर पढ़ ही चुके हैं।अपनी और मालती की तस्वीरें, तिलिस्मी भुजाली का पाना इत्यादि हाल सुन प्रभाकरसिंह को बहुत ही आश्चर्य और प्रसन्नता हुई मगर जब मालती ने कहा कि ‘बुर्ज पर से नीचे के बाद में उसने एक मर्द और दो औरतों को देखा था’ तो ताज्जुब के साथ ख्याल दौड़ाने लगे कि वे कौन हो सकते हैं पर कुछ निश्चय नहीं कर सके। मालती से लेकर उन्होंने भुजाली और उसके जोड़ की अंगूठी देखी और उसकी विचित्र बनावट, अद्भुत सुनहला रंग और उसमें से निकलने वाली चमक को देख कर बहुत ही प्रसन्न हुए। मालती ने यह देख कर कहा, ‘‘यह आपके लायक चीज है, आप ही इसे रखिए।’’ पर उन्होंने सिर हिला कर जवाब दिया, ‘‘नहीं, यह जब तुम्हें मिली है तो तुम्हें ही रखना वाजिब है, मेरे लिए मेरा डण्डा बहुत काफी है।’’ यह सुन मालती ने इस विषय में कुछ न कहा और बोली, ‘‘मैंने अपना हाल कह सुनाया, अब आप अपना किस्सा बयान कीजिए।’’

इसके जवाब में प्रभाकरसिंह ने अपना भी कुल वह हाल जो हम ऊपर लिख आए हैं मालती से कह सुनाया जिसे वह बड़े गौर और ताज्जुब के साथ सुनने लगी। मगर वे पूरा हाल कह भी न पाए थे कि उनका ध्यान किसी तरह की आवाज ने अपनी तरफ खींचा जो कुछ देर से वहाँ पर पैदा हो रही थी। वह किसी तरह के कल-पुरजों के घूमने की-सी आवाज थी और कहीं दूर से आती हुई जान पड़ती थी जिसने आखिर मालती का ध्यान भी आकर्षित कर लिया और वह चारों तरफ देख कर बोली, ‘‘यह आवाज कैसी हो रही है?’’ दोनों देर तक गौर करते रहे पर कुछ निश्चय न कर सके। इसी समय जब एक खटके की आवाज हुई और छत पर लगे हुए कई गोले चमकने लग गए जिससे वह स्थान रोशनी से भर गया तो प्रभाकरसिंह ने अपना हाल कहना बन्द कर दिया और उठ खड़े हुए। उनकी देखा-देखी मालती भी उठ खड़ी हुई और जब ये लोग उस चबूतरे के पास पहुँचे तो मालूम हुआ कि वह आवाज उसी के अन्दर से आ रही है। प्रभाकरसिंह उचक कर चबूतरे के ऊपर चढ़ गए और देखा कि उस जगह जहाँ वह मूरत बैठाई हुई थी एक गहरा गड्हा दिखाई पड़ रहा है और उसी के अन्दर से वह विचित्र आवाज आ रही है। उन्होंने मालती से यह बात कही और उसके आग्रह पर उसको भी चबूतरे के ऊपर चढ़ा लिया। मालती कुछ देर तक उस आवाज पर गौर करती रही और तब बोली, ‘‘हम लोगों को अब क्या काम करना है?’’ प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘तिलिस्मी किताब के कथनानुसार इस गड्हे के अन्दर उतरना चाहिए।’’ मालती बोली, ‘‘तब अपना काम शुरू करिए, शायद हमारे देर करने का कोई उलटा असर हो।’’ प्रभाकरसिंह ने यह सुन कहा, ‘‘अच्छी बात है तब फिर आओ’’ और उस गड्हे के अन्दर पैर रक्खा। पतली-पतली सीढ़ियाँ दिखाई पड़ीं जिन पर आगे-आगे प्रभाकरसिंह और पीछे-पीछे मालती उतरने लगी। करीब-करबी बीस सीढ़ियाँ उन्हें उतरनी पड़ीं और तब इन लोगों ने अपने को एक विचित्र जगह में पाया।

एक अद्भुत और खुशनुमा बनावटी बाग था जिसके बीचोबीच में एक छोटी बावली बनी हुई थी। छोटे-छोटे बनावटी पेड़ जो शायद किसी मसाले के बने थे, बनावटी ही फूलों से लदे हुए अपनी विचित्र शोभा दिखला रहे थे और एक तरफ बने बनावटी पहाड़ की छोटी-छोटी खोहों और कन्दराओं में खड़े और बैठे तथा उस बाग की रविशों पर भी जगह-ब-जगह घूमते-फिरते हुए तरह-तरह के जानवर भी दिखलाई पड़ रहे थे जो सब-के-सब बनावटी होते हुए भी इस कारीगरी के साथ बने थे कि देखकर तबीयत फड़क उठती थी और अगर असली कद से छोटे-छोटे न होते तो जल्दी इसकी पहिचान करना भी मुश्किल होता कि ये सब जानवर असली नहीं हैं बल्कि बनावटी और किसी धातु के बने हुए हैं। एक और विचित्रता जो सबसे बड़ी थी वह यह थी कि ये सभी चीजें न-जाने किस शक्ति की बदौलत हरकत कर रही थीं। पेड़ों के फल-पत्ते और डालियाँ इस तरह झूम रहे थे मानों मन्द-मन्द हवा उनमें बह रही हो, जानवर इस तरह घूम फिर रहे थे मानों अपने भोजन या आराम की तलाश में हों, नाजुक खूबसूरत चिढ़ियाँ इधर से उधर फुदकती हुई कभी इस डाली पर, कभी उस डाली पर जा बैठती थीं और कभी-कभी मस्ताने स्वर में मनोहर गीत भी ऐसी सफाई से उनके कंठ से निकल पड़ता था कि सुनने वाले का मन मुग्ध हो जाता था।

चारों तरफ दीवारों के साथ लगे और बड़ी तेजी से चमकते हुए कई गोलों की रोशनी से वह बड़ा कमरा जगमग कर रहा था जिसमें यह सब सामान प्रभाकरसिंह देख रहे थे।यहाँ की विचित्रता के देखने में वे ऐसा मग्न हुए कि कुछ देर तक अपने तनोबदन की सुध भूल गए पर जब उन्हें होश हुआ तो वे मालती की तलाश में घूमे, देखा तो वह भी उनके बगल ही में खड़ी मुग्ध दृष्टि से वहाँ का दृश्य देख रही है। वे उससे बोले—

प्रभा० : तिलिस्मी कारिगरी की भी हद हो गई है, भला इसको देखकर भी कोई कह सकता है कि मनुष्य के लिए कोई काम असम्भव है!

मालती : मैं तो समझती हूँ कि तिलिस्म के बनाने वाले मनुष्य नहीं देवता थे। ऐसी कारीगरी मनुष्यों से बन नहीं सकती। मगर मुझे खयाल पड़ता है कि इस बाग को मैंने कहीं देखा है।

प्रभा० : यह वही बाग है जिसको तिलिस्मी किताब में ‘‘आनन्द-वन’ कह कर लिखा गया है। यहीं पर हमें कुछ पुतलियों के हाथ से तीर-कमान लेकर एक शेर की आँखों में तीर मारना होगा जिसके बाद बावली के अन्दर से तिलिस्म के तीसरे दर्जे में जाने का रास्ता निकलेगा।

मालती : हाँ ठीक है, मुझे याद आ गया, मगर मैंने इसे देखा भी है। आपको याद होगा कि मैंने कहा था कि जब आप गायब हो गए तो मैंने एक छेद की राह एक बाग में ऐसा भयानक दृश्य देखा कि जिससे मेरी तबीयत घबरा उठी।

प्रभा० : हाँ, तुमने कहा था कि दो शैतान एक लाश उठा कर लाए और उसे काट कर घड़ियालों को खिलाने लगे।

मालती : जी हाँ, उस समय मैंने इसी बाग को देखा था। खैर अब आगे का काम शुरू करना चाहिए। बातचीत में समय बिताना व्यर्थ है।

प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘ठीक है’’ और तब आगे बढ़े। हम ऊपर लिख आए हैं कि इस बनावटी बाग में तरह-तरह के बनावटी जानवर मौके-मौके पर दिखाए गए थे। इन्हीं के बीच में उस बावली के पास खड़ी दो औरतें भी थीं जो हाथ में तीर-कमान लिए बड़े गौर से जल के भीतर की किसी चीज को इस प्रकार देख रही थीं मानों उस पर निशाना लगाना चाहती हों। इन दोनों ही औरतों की पीठ पर तरकस थे जिसमें तीर भरे हुए थे।‘‘ठीक है’’ कहकर प्रभाकरसिंह अपनी जगह से दो-चार कदम ही आगे बढ़े थे कि इनमें से एक औरत यकायक घूमी और उनकी तरफ लक्ष्य करके इस फुर्ती और तेजी से उसने अपनी कमान का तीर छोड़ दिया कि अगर प्रभाकरसिंह की निगाह भी उस समय उन्हीं पर न होती और वे तुरन्त बैठ न गए होते तो तीर जरूर घायल करता पर उनकी फुर्ती के कारण ऐसा न हुआ और वह सनसनाता हुआ उनके पीछे की दीवार से टकराकर गिर पड़ा। प्रभाकरसिंह यह देख उठे और तुरत कई कदम हट गए और उधर उस औरत ने एक दूसरा तीर अपने तरकस से निकाला और कमान पर चढ़ा फिर घूमकर पहिले की तरह खड़ी हो गई।

प्रभाकरसिंह ने मालती को बताकर कहा, ‘‘हमें उस औरत के हाथ से तीर-कमान लेकर उस शेर की आँख पर निशाना लगाना पड़ेगा, पर यह काम सहज नहीं जान पड़ता।’’ मालती बोली, ‘‘सहज भला काहे को होगा, मगर एक बार मुझे कोशिश करने दीजिए।’’ प्रभाकरसिंह ने यह बात न मानी और कहा, ‘‘नहीं पहिले मैं देख लूँ, जब न कर पाऊँगा तो तुम खतरे में जाना।’’ मालती यह सुन चुप हो रही और प्रभाकरसिंह फिर आगे बढ़े मगर इस बार पहिले की तरह वे सीधे उन औरतों की तरफ नहीं गए बल्कि चक्कर काटते हुए उनकी पीठ की तरफ बढ़े। मगर इसका भी कोई नतीजा न हुआ, ठीक पीठ की तरफ होकर भी जैसे ही वे उस औरत के नजदीक बढ़े वैसी ही वह फिर पहिले की तरह घूमी और पुनः उन पर अपना तीर चलाया। अपनी तेजी और फुर्ती की बदौलत इस बार भी प्रभाकरसिंह ने अपने को बचा लिया मगर इतना वे जान गए कि जो तर्कीब उन्होंने सोची थी वह काम न देगी। वे कुछ पीछे हटकर खड़े हो गए और सोचने लगे कि क्या करना चाहिए।

यकायक उन्हें कोई बात सूझ गई। उनके ख्याल में आया कि उन औरतों के चारों तरफ घास का एक जो रमना बना हुआ दिखाया गया है, दोनों दफे उस रमने पर पैर रखते ही उस औरत ने तीर छोड़ा था। यह ख्याल आते ही उन्होंने पास ही में बने बनावटी पहाड़ में से एक बड़ा-सा ढोंका उठा लिया और आजमायश की तौर पर उस सब्जी पर फेंका। पत्थर के ढोंके का गिरना था कि वह औरत घूमी और उसने उस ढोंके को अपने तीर का निशाना बनाया।अब वे सब कारीगरी समझ गए। केवल यदि उस सब्जी पर पैर न पड़े तो उन तीरों से किसी तरह का खतरा नहीं है यह जानते ही वे उस बनावटी पहाड़ पर चढ़ गए और पार कर उसकी तलहटी में बनी हुई बावली की सीढ़ियों पर जा उतरे।

पुतलियों ने जुम्बिश न खाई। जल के अन्दर ही अन्दर पैर रखते हुए प्रभाकरसिंह ने पुतली के पास जा उसके हाथ से तीर-कमान ले लिए और तब उसी तरह फिर अपनी जगह आ गए। मालती बोली, ‘‘ आपकी सूझ तो खूब काम कर गई! अब उस शेर पर निशाना लगाना चाहिए जो वहाँ उस झाड़ी के अन्दर दिखाई दे रहा है। शेर की बाईं आँख में तीर लगना चाहिए और एक ही तीर से यह काम होना भी चाहिए अस्तु निशाना चूके नहीं।’’

‘‘ईश्वर चाहेगा तो निशाना न चूकेगा।’’ कहकर प्रभाकरसिंह आगे बढ़े और एक मुनासिब जगह पर खड़े हो उस की आँख का निशाना लगाने लगे। बहुत अच्छी तरह निशाना साध वे तीर छोड़ना ही चाहते थे कि यकायक चौंक गए। कोई चीज सनसनाती हुई उनके पीछे से आई और कान के पास से निकल गई, साथ ही मालती की आवाज आई, ‘‘ठहरिए-ठहरिए, वह दूसरी पुतली दगा कर रही है!’’ प्रभाकरसिंह ने ताज्जुब के साथ घूमकर देखा। पहिली पुतली की साथिन वह दूसरी पुतली उनकी तरफ घूमी हुई थी और उन्हें लक्ष्य कर एक दूसरा तीर छोड़ना ही चाहती थी। वे पीछे हट गए जिससे उस पुतली का हाथ रुक गया और उसी समय मालती ने कहा, ‘‘मैं इस झगड़े को साफ किए देती हूँ।’’ जिस तरह जाकर प्रभाकरसिंह तीर-कमान लाये थे उसी तरह से जाकर मालती ने इस दूसरी पुतली के हाथ से तीर-कमान ले लिया और तब प्रभाकरसिंह के पास वापस आकर बोली, ‘‘आप बेधड़क काम कीजिए।’’

प्रभाकरसिंह फिर आगे बढ़े और उस शेर की आँख पर निशाना लगा उन्होंने तीर छोड़ दिया, साथ ही मालती के मुँह से निकला, ‘‘वाह!’’ तीर सनसनाता हुआ जाकर ठीक शेर की बाईं आँख में लगा था। तीर का लगना था कि वह शेर गरजा और सामने की तरफ झपटा। बावली के पानी में झुका हुआ एक बारहसिंघा पानी पीता हुआ बनाया गया था जिसको उस शेर ने जाकर दबोच लिया और तब उसकी गर्दन पकड़ घसीटता हुआ फिर अपनी झाड़ी के अन्दर चला गया।

बाहरसिंघे का हटना था कि एक तरह की आवाज आई और पानी में जोर-जोर की लहरें पैदा होने लगीं। थोड़ी देर बाद ऐसा मालूम होने लगा कि बावली का पानी किसी छेद की राह भीतर समाने लग गया है क्योंकि पानी की सतह नीची होने लगी और सीढ़ियाँ भी तेजी से खाली होने लगीं। पानी इस जोर से घट रहा था कि घड़ी-भर के अन्दर ही वह बावली करीब-करीब खाली हो गई। सिर्फ नीचे की तरफ थोड़ा-सा कीचड़-मिला पानी बच गया था जिसके अन्दर दो घड़ियाल शायद मरे पड़े नजर आ रहे थे।

बावली अन्दाज से बहुत ज्यादा गहरी थी और उसकी सीढ़ियों से करीब दस-बारह डंडा नीचे उतर कर एक रास्ता दिखाई पड़ रहा था जिसके अंदर आदमी बखूबी जा सकता था। प्रभाकरसिंह उसी छेद की तरफ बढ़े और उनके पीछे-पीछे मालती भी बावली की सीढ़ियाँ उतरने लगी। प्रभाकरसिंह उस छेद के पास पहुँचे और उसके अन्दर जाना ही चाहते थे कि यकायक न-जाने क्या देख कर चिहुँके और रुक गए। उनके मुँह से आश्चर्य की एक चीख निकल गई जिसने मालती को भी चौंका दिया। वह भी आगे बढ़ी और उनके बगल में पहुँच उसने भी छेद के अन्दर झाँका।इसके साथ ही उसके मुँह से भी आश्चर्य की आवाज निकल पड़ी और तब एक चीख मार कर वह उसी छेद के अन्दर घुस गई। साथ ही एक खटके की आवाज हुई और वह रास्ता बन्द हो गया, प्रभाकरसिंह खड़े आश्चर्य के साथ देखते ही रह गए।

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