मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 6 भूतनाथ - खण्ड 6देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण
।। अठारहवाँ भाग ।।
पहिला बयान
लोहगढ़ी के उड़ जाने का समाचार बात-की-बात में दूर-दूर तक फैल गया। यद्यपि वह इमारत घनघोर जंगल के बीच में पड़ती थी पर ऊँचे टीले पर होने के कारण उसके उड़ जाने का दृश्य बहुत दूर तक दिखाई पड़ा था, फिर जमानिया शहर से भी उसका फासला कुछ इतना अधिक न था कि किसी का आना-जाना उधर से रात-बिरात भी होता न रहता हो, अस्तु आस-पास के गाँवों में रहने और आगे जाने वालों की जुबानी यह समाचार शीघ्र ही जमानिया तक पहुँच गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि सुबह सोकर उठने के साथ ही राजा गोपालसिंह को पहली खबर यही सुनने में आई।सुनते ही वे एकदम घबरा गए और उन्होंने उसी समय कई जासूसों को ठीक-ठीक हाल का पता लगाने के लिए उस तरफ रवाना किया ।उन लोगों ने लौटकर जो खबर दी उससे उन्हें विश्वास कर लेना पड़ा कि सचमुच ही उनके राज्य की बहुत ही सुन्दर इमारत सदा के लिए नष्ट हो गई, पर ऐसा क्यों हुआ या किसकी यह कार्रवाई थी इसका कुछ पता उनके जासूस लगा न सके। आखिर राजा साहब ने खुद वहाँ जाकर सब कुछ अपनी आँखों से देखने का निश्चय किया।
यद्यपि बहुत ही घने और डरावने जंगल में होने के कारण बहुत ही कम आदमियों को कभी उस इमारत को अच्छी तरह से देखने का मौका मिला था, फिर भी आज उसके इस तरह यकायक और आश्चर्यजनक रीति से उड़ जाने के समाचार सुन बहुतेरे आदमी, जिनका उस इमारत से कोई भी सम्बन्ध न था, एकदम ताज्जुब में पड़ गए और तुरंत उस तरफ को रवाना हो गए।नतीजा यह हुआ कि दोपहर होते-होते उस टीले के नीचे का स्थान सैकड़ों आदमियों से घिर गया। सभी ताज्जुब के साथ उस सुन्दर और मजबूत इमारत को जो इस समय भयानक खंडहर के रूप में बदल गई थी हैरानी के साथ देख और उसके सम्बन्ध में तरह-तरह की बातें कर रहे थे। इस समय यद्यपि वहाँ आग की लपटें अथवा बारूद फटने का समय नहीं था फिर भी जगह-जगह से धुआँ बहुतायत से निकल रहा था जिसके कारण लोग उसके पास जाते डरते और हिचकते थे। फिर भी कुछ हिम्मतवर आदमी इस विचार से ऊपर पहुँच ही गए कि शायद कुछ आदमी भी इसके साथ ही उड़ या दब गए हों और उनका कुछ पता लग सकता या बचाव किया जा सकता हो, पर ऐसी किसी दुर्घटना का कोई चिह्न कम-से-कम प्रकट रूप से वहाँ दिखाई नहीं पड़ रहा था।इन लोगों की देखा देखी, फिर तो सैकड़ों ही आदमी उस टीले के ऊपर पहुँच गए और चारों तरफ घूम-घूमकर सब हाल-चाल देखने लगे, मगर थोड़ी देर बाद जब राजा साहब के भेजे हुए बहुत से सिपाहियों ने वहाँ पहुँच कर वह जगह घेर ली तो सभों को लाचार वहाँ से हट जाना पड़ा, पर इससे लोगों का कौतूहल और भी बढ़ गया।
दोपहर होते-होते राजा साहब की सवारी भी वहाँ पहुँच गई उनके साथ उनके प्रेमी मित्र इन्द्रदेव तथा कुछ थोड़े से खास लोग थे जिन्हें लिए हुए वे सीधे टीले के ऊपर चढ़ गए और घूम-घूम कर देखने लगे। लोहगढ़ी की अद्भुत इमारत की जगह वहाँ एक त्रासदायक खण्डहर दिखाई पड़ रहा था जिसके चारों तरफ दूर-दूर तक पत्थर और चूने के ढोंके और लोहे के सामान छिटके हुए थे क्योंकि बारूद के फटने का जोर इतना भयानक था कि बिगहों तक उसके उड़े और टूटे हुए हिस्से बिखर गए थे।लोहगढ़ी की बीच वाली असली इमारत तो एकदम ही उड़ गई थी, बल्कि उसके सदमें से उसको घेर रखने वाली जो सादी बाहरी इमारत थी वह भी दहलकर बहुत जगह से गिर गई थी और उसका जो हिस्सा अभी तक नहीं गिरा था वह भी टेढ़ा-मेढ़ा और झुका हुआ ऐसी खतरनाक हालत में हो गया था कि दम-के-दम में गिर जाने का डर दिला रहा था, अस्तु सब बातों को देखकर इन्द्रदेव की सलाह से राजा साहब ने उस हिस्से को भी गिरा देने का हुक्म दिया, और साथ ही यह जाँचने को कहा कि कहीं कोई आदमी तो इसके नीचे नहीं दबा हुआ है। हुक्म के साथ ही ऐसा होने लगा और राजा साहब वहाँ से कुछ दूर हटकर अपने दोस्त इन्द्रदेव से बातें करने लगे। उनका इरादा समझ साथ के लोग दूर हट गए और दोनों में इस तरह बातचीत होने लगी :—
गोपाल : क्यों भाई, तुमने कुछ समझा कि यह कार्रवाई किसकी हो सकती है! इसमें तो कोई शक नहीं कि बारूद या सुरंग के जोर से यह इमारत उड़ाई गई है।
इन्द्रदेव : मेरी कुछ अकल काम नहीं करती है कि यह क्या हुआ और कैसे हुआ? किसी का इसके उड़ाने में कोई स्वार्थ ही क्या हो सकता है जो ऐसी सुन्दर इमारत को नष्ट-भ्रष्ट कर डाले।
गोपाल : कहीं ऐसी बात तो नहीं है कि किसी ने इस जगह का तिलिस्म तोड़ डाला हो और उसी से ऐसा हुआ हो? तुमने एक दफे कहा था कि इस तिलिस्म की उम्र खत्म हो गई है और यह टूट जायगा।
इस बात ने इन्द्रदेव को कुछ गौर में डाल दिया। वे कुछ देर के लिए चुप हो गए और तब बोले, ‘‘मैं इस बारे में बिना जाँचे कुछ ठीक नहीं कह सकता, मगर आपका ख्याल सही भी हो सकता है।’’
गोपाल : क्या इस बात का पता नहीं लग सकता कि वास्तव में अन्दर का तिलिस्म टूटा है या नहीं?
इन्द्र० : क्यों नहीं, कोशिश करने से यह बात जरूर जानी जा सकती है।?
गोपाल : तो तुम इसको जानने की कोशिश करोगे?
इन्द्र० : मैं जरूर कोशिश करूँगा और बहुत शीघ्र आपको बताऊँगा।
गोपाल : तब इस समय यहाँ कुछ नहीं हो सकता, चलना चाहिए।
इन्द्र० : अपने आदमियों को हुक्म दे दीजिए कि मेहनत करके इस जगह का चूना-पत्थर सब अलग कर डालें।ऐसा होने से अगर कोई आदमी इसके नीचे दबा होगा तो उसका ठीक-ठीक पता लग जायगा, दूसरे अन्दर जाने का रास्ता भी खाली हो जायगा, क्योंकि मुझे विश्वास है कि यह सब नुकसान ऊपर ही के हिस्से को पहुँचा है जो यद्यपि एकदम ही नष्ट हो गया है मगर अन्दर के तिलिस्म को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँच सका होगा। इसके सिवाय अगर गुप्त रीति से कुछ आदमी यहाँ पहरा देकर इस बात की जाँच करें कि कोई रात-बिरात यहाँ पर आता-जाता है या नहीं तो भी शायद कुछ पता लग सकता है। अगर किसी बाहरी आदमी की यह कार्रवाई है और किसी ने अपने किसी मतलब से इस इमारत का सत्यानाश किया है तो वह जरूर फिर भी कभी-न-कभी यहाँ आता-जाता दिखाई पड़ेगा। उसे गिरफ्तार करने से बहुत कुछ पता लग सकता है
गोपाल : तुम बहुत ठीक कहते हो, मैं अभी ऐसा करने का हुक्म देता हूँ।
गोपालसिंह ने इन्द्रदेव की राय के मुताबिक हुक्म दे दिया और तब एक चक्कर उस टीले का लगाने के बाद उसके नीचे उतरे। सवारी तैयार थी जिस पर बैठ जमानिया की तरफ रवाना हो गए, पर इन्द्रदेव न-जाने क्या समझकर उनके साथ वापस न हुए, उन्होंने कुछ कह-सुनकर छुट्टी ले ली और जब राजा साहब के साथ आने वाली भीड़-भाड़ कम हो गई तो कुछ चक्कर काटते हुए अकेले ही अजायबघर की तरफ रवाना हुए।
इन्द्रदेव का ख्याल था कि लोहगढ़ी को देखने आई हुई भीड़ का कुछ हिस्सा अजायबघर भी पहुँचा होगा जिससे उन्हें अपना काम करने के लिए उस जगह शायद ही मौका मिले, और उनका यह खयाल सही भी निकला। लोहगढ़ी को देखने जो लोग वहाँ पहुँचे थे अब लौटती समय इस विचित्र इमारत को भी, जिसके बारे में समय-समय पर तरह-तरह की बातें फैला करती थीं—देखने आ रहे थे, पर इस इमारत के अन्दर जाने की इजाजत किसी को भी न थी। दारोगा साहब के दो सिपाही, जिनका पूरा कब्जा इस इमारत पर हो चुका था और अब प्रायः इसमें रहा भी करते थे, सीढ़ियों पर खड़े थे और किसी को भी ऊपर नहीं जाने देते थे, अस्तु लोग दूर ही से उसका रंग-ढंग देखकर बिदा हो जाते थे। इन्द्रदेव ने भी ऐसा ही किया और दूर ही से यह देख लेने के बाद कि यहाँ से उनका काम न निकल सकेगा वे वहाँ से हटे और पुनः घने जंगल के भीतर घुसे।
लगभग आधे घंटे तक तेजी से जाने के बाद इन्द्रदेव ने अपने को ऐसी जगह पाया जहाँ जंगल के बीचोबीच में से एक नाला तेजी के साथ बह रहा था। हमारे पाठकों ने आशा है देखते ही इस स्थान को पहिचान लिया होगा क्योंकि यह तिलिस्म के अन्दर जाने वाले रास्ते में से एक है और वे हमारे साथ कई दफे यहाँ आ भी चुके हैं १ अस्तु हम यहाँ के रास्ते का हाल विस्तार के साथ न लिखकर केवल इतना ही लिखते हैं कि इन्द्रदेव इस नाले में उतर गए और गोता मारकर उन्होंने तह की वह कड़ी खींची जिससे वहाँ का रास्ता खुलता था। रास्ता खुलते ही पानी तेजी के साथ बहना शुरू हुआ जिसके बहाव में इन्द्रदेव ने अपने को डाल दिया और कुछ ही सायत बाद उस कोठरी में जाकर निकले जिसके बीचोबीच की बनी नाली की राह पानी बहकर निकल जाता था।कुछ देर तक सुस्ताने के बाद इन्द्रदेव ने पुनः अपने को इसी में डाला और बहते हुए उस कोठरी को पार कर किसी अंधेरी मगर खुलासी जगह में से होकर जाने लगे जिसमें से पानी की तेजी उन्हें बहाए लिए जा रही थी। यद्यपि इस जगह इतना घना अन्धकार था कि हाथ को हाथ दिखाई नहीं पड़ता था और अन्जान आदमी को इस जगह बेशक बहुत डर मालूम हो सकता था पर यहाँ की हवा एकदम साफ थी और साँस लेने में किसी तरह की तकलीफ नहीं हो रही थी। इन्द्रदेव ने अपने शरीर को पानी पर ढीला छोड़ा हुआ था और बेखौफ बहते जा रहे थे। (१.देखिए भूतनाथ आठवाँ भाग, दूसरा और चौथा बयान।)
आखिर कुछ देर बाद यह रास्ता भी खत्म हुआ और इन्द्रदेव एक ऐसी कोठरी में पहुँचे जिसके ऊपरी हिस्से में कई रोशनदान बने होने के कारण वहाँ बखूबी चाँदना था। उनके इस जगह पहुँचते ही पानी का आना रुक गया तथा वह रास्ता भी बन्द हो गया जिसकी राह वे यहाँ तक पहुँचे थे।
इन्द्रदेव पानी के बाहर निकले कोठरी की एक तरफ की दीवार में एक दरवाजे का निशान दिखाई पड़ रहा था जिसे किसी तरकीब से उन्होंने खोला और तब अपने सामने एक छोटा-सा बाग देखा। इन्द्रदेव बाहर निकले पर उसी समय उनका ध्यान अपने कपड़ों की तरफ गया जो एकदम गीले हो रहे थे, अस्तु वे पुनः कोठरी के अन्दर चले गए और एक छोटी आलमारी के पास पहुँचे जो एक तरफ की दीवार में बनी हुई थी। इसका पल्ला उन्होंने किसी तरकीब से खोला। अन्दर कई जोड़े सूखे रोगनी कपड़ों के रक्खे हुए थे जिनमें से एक उन्होंने पहिन लिया और गीले कपड़ों को अपने हाथ में लिए फिर कोठरी के बाहर आए। कपड़े इधर-उधर पेड़ों की डालों पर सूखने को डाल दिए और बाग के अन्दर घुसे।
यह छोटा-सा बाग चारों तरफ से ऊँची-ऊँची चारदीवारी से घिरा हुआ था और इमारत के किस्म से इसके बीचोबीच में सिर्फ एक छोटी-सी संगमर्मर की बारहदरी नजर आ रही थी। इन्द्रदेव बारहदरी में पहुँचे जिसका फर्श सुफेद-काले पत्थर के चौखूटे टुकड़ों का बना हुआ था, और कोने के एक पत्थर के पास जाकर उसे पैर से ठोकर देने लगे। तीन ही चार ठोकरों के बाद उस जगह के फर्श का एक भाग नीचे को झुक गया और उस जगह पतली-पतली कई डंडा सीढ़ियाँ दिखाई देने लगीं जिन पर इन्द्रदेव ने कदम रक्खा और नीचे उतरने लगे। बारह डंडा सीढ़ियाँ इन्हें उतरनी पड़ीं और आखिरी सीढ़ी पर उतरते ही ऊपर वाला पत्थर पुनः अपने ठिकाने पर बैठ गया जिससे वहाँ पर घोर अन्धकार हो गया मगर इन्द्रदेव ने इसकी कोई परवाह न की और कमर से तिलिस्मी खंजर निकाल जिसे वे अपने कपड़ों के अन्दर छिपाए हुए थे, उसकी मदद से रोशनी करते हुए जाने लगे।
यह एक बहुत ही लम्बी सुरंग थी जिसके अन्दर एक घड़ी से ऊपर समय तक इन्द्रदेव को चलना पड़ा और जब वह समाप्त हुई तो पुनः बारह डंडा सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ीं। किसी तरकीब से रास्ता खोल इन्द्रदेव जब बाहर हुए तो उन्होंने अपने को पुनः ठीक उसी तरह की एक बारहदरी में पाया जैसी कि यहाँ आती समय उन्हें मिली थी, फर्क अगर कुछ था तो यही कि बारहदरी एक बहुत बड़े बगीचे के अन्दर थी जिसके चारों तरफ तरह-तरह की छोटी-बड़ी इमारतें दिखाई पड़ रही थीं।
हमारे पाठक इस जगह को भी पहिचान गए होंगे क्योंकि यहाँ भी वे एक दफे भूतनाथ के साथ उस समय आ चुके हैं जबकि उसने एक बारहदरी की कड़ियों के साथ लटकती हुई प्रभाकरसिंह, गुलाबसिंह, जमना, सरस्वती आदि की लाशें देखी थीं। इस समय भी वह ऊँची बारहदरी और उसके साथ लटकती हुई लाशें यहाँ से दिखाई पड़ रही थीं पर इन्द्रदेव का ध्यान उधर न था। वे सिर्फ एक सायत के लिए वहाँ रुककर कुछ सोचते रहे और तब बाईं तरफ को चल पड़े जहाँ एक ऊँची दीवार और उसके ऊपरी हिस्से में बनी कुछ इमारत दूर से दिखाई पड़ रही थी।
तेजी से चलते हुए इन्द्रदेव इस दीवार की जड़ के पास पहुँचे और किसी तरकीब से उस जगह एक दरवाजा पैदा कर उसके अन्दर घुसे। एक छोटी कोठरी दिखाई पड़ी जिसमें एक तरफ तो ऊपर चढ़ जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और दूसरी तरफ एक खुला हुआ दरवाजा था जिसके अन्दर अँधेरा था। इन्द्रदेव इसी दरवाजे के अन्दर घुसे। इनके अन्दर घुसते ही वह दरवाजा बन्द हो गया पर इन्द्रदेव ने इसकी कोई फिक्र न की और तिलिस्मी खंजर की रोशनी के सहारे बेधड़क जाने लगे।
इन्द्रदेव को इस सुरंग के अन्दर बहुत दूर तक जाना पड़ा और जब एक जगह जाकर वह खत्म हुई तो उन्होंने अपने को एक छोटी कोठरी में पाया जिसके सामने की दीवार में एक बन्द दरवाजा दिखाई पड़ रहा था। इन्द्रदेव इस दरवाजे की तरफ बढ़े और इसे खोलने की चेष्टा करने लगे पर इस जगह पहुँचते ही उनकी नाक में बारूद की गंध पड़ी जिससे वे समझ गए कि अब वे लोहगढ़ी के निचले हिस्से में पहुँच गए हैं। दरवाजा खुला और साथ ही अपने सामने कुछ देख इन्द्रदेव चौंक पड़े।
एक आदमी इस दरवाजे के सामने ही जमीन पर पड़ा हुआ था जिसका बदन और कपड़ा जगह-जगह से झुलस गया था और चेहरा इस तरह कट-कुट गया था कि शक्ल पहिचानना मुश्किल हो रहा था। पहिली बार में तो इन्द्रदेव ने यही समझा कि वह मुर्दा है पर नहीं, गौर से जाँच करने पर यह बात गलत साबित हुई। वह मरा न था पर बहुत ही सख्त जख्मी और बहुत जल गया था। इन्द्रदेव ने गौर से देर तक उसकी नब्ज देखी और तब अपना बटुआ खोल उसमें से एक शीशी निकाली जिसमें किसी तरह का अर्क था। इस अर्क की कुछ बूँद उन्होंने जख्मी की जुबान पर टपका दी और तब फिर नब्ज देखी। नब्ज में कुछ तेजी जान पड़ी और कुछ ही देर बाद उस आदमी के धीरे-धीरे साँस लेने की आहट आने लगी। कुछ देर बाद इन्द्रदेव ने फिर कुछ अर्क उसकी जुबान पर टपकाया। इस बार अर्क गले से नीचे उतरते ही वह सगबगाया और उसके गले से कुछ अस्पष्ट आवाज भी निकली जो समझ में नहीं आई। हालत देख इन्द्रदेव ने बटुए में से पानी की बोतल निकाली जिसमें से कुछ उसको पिलाने और कुछ चेहरे पर छिड़क दुपट्टे से हवा करने से कुछ ही देर में उस जख्मी को होश आ गया। उसने आँखें खोल दीं और कमजोर आवाज में कहा, ‘‘पानी!’’ इन्द्रदेव ने पुनः उसे पानी पिलाया जिससे उसके होश कुछ ठिकाने आये और उसने बड़े गौर से इन्द्रदेव की तरफ देखकर पूछा, ‘‘आप कौन हैं?’’
इन्द्रदेव ने जवाब दिया, ‘‘मैं चाहे कोई भी होऊँ, तुम अपना हाल बताओ कि कौन हो और यह तुम्हारी यह हालत किस कारण हुई है?’’
इनकी बात सुनते ही उसने कहा, ‘‘ठीक है, मैं आपकी आवाज ही से पहिचान गया कि आप कौन हैं। आपके सिवा और कोई इस हालत में यहाँ तक पहुँच भी नहीं सकता था। मैं गिरिजाकुमार हूँ। भूतनाथ ने बम फेंककर लोहगढ़ी को उड़ा दिया जिससे मेरी यह हालत हुई, मगर आप मेरी फिक्र छोड़िये और इसके आगे वाली कोठरी में जाइए जहाँ गुरुजी और अर्जुनसिंह जी भी शायद मुझसे भी बदतर हालत में आपको मिलेंगे, उनकी फिक्र करिये।’’
गिरिजाकुमार ने ये बातें बहुत ही रुक-रुककर और धीमे-धीमे कहीं और कहते ही फिर बेहोश हो गया। इन्द्रदेव ने ताज्जुब से पूछा, ‘‘तुम लोग यहाँ कैसे आ पहुँचे?’’ पर उसने कोई जवाब न दिया। समझ गए कि इसे फिर गश आ गया है। अस्तु उसकी जुबान पर पुनः अपने अर्क की कुछ बूँदे उन्होंने टपकाईं और तब दवा को अपना असर करने के लिए छोड़ कर उठ खड़े हुए। गिरिजाकुमार के मुँह से दलीपशाह और अर्जुनसिंह के भी वहीं होने बल्कि उससे भी बदतर हालत में होने का समाचार सुन वे बेचैन हो गए थे और उनकी मदद करना जरूरी समझ रहे थे।
जिस कोठरी में वे थे उसके एक तरफ दूसरी कोठरी बनी हुई थी जिसका दरवाजा इस समय खुला हुआ था। इन्द्रदेव इस कोठरी में पहुँचे। यह किसी तरह के धुएँ से भरी हुई थी जिसकी तीक्ष्ण गन्ध कई घण्टों के बाद भी अपना कारी असर दिखला रही थी अर्थात् उसको सूँघते ही इन्द्रदेव के सर में चक्कर आ गया वे पीछे हट आए और तब बटुए में से कोई चीज निकाल उसे नाक के आगे रक्खे हुए पुनः कोठरी के अन्दर घुसे। इस कोठरी में गहरा अन्धकार छाया हुआ था जिसे उन्होंने अपने तिलिस्मी खंजर से दूर किया और तब उसकी चमक में सामने ही जमीन पर दो आदमियों को बेहोश पड़े पाया। देखते ही वे चौंक गए क्योंकि गिरिजाकुमार की तरह वे दोनों आदमी भी बेतरह जले-भुने जख्मी हो रहे थे।
यह सोचकर कि इस जगह की जहरीली हवा उनके इलाज को सफल न होने देगी, इन्द्रदेव इन दोनों आदमियों को बारी-बारी से बाहर वाली कोठरी में उठा लाए और वहाँ उन्हें जमीन पर रख तब उन्होंने अपना उद्योग शुरू किया। बार-बार दवा पिलाने, लखलखा सुँघाने, और मुँह पर पानी छिड़कने से इन लोगों की तबीयत कुछ सुधरने लगी और अन्त में लगभग आधे घण्टे की मेहनत के बाद उन दोनों को कुछ होश आई। पहिले एक आदमी और फिर दूसरे ने आँखें खोल कर अपने चारों तरफ देखा और तब इन्द्रदेव पर निगाह डाली जो उन पर झुके हुए थे। उन्हें देखते और पहिचानते ही उनमें से एक बोल उठा। ‘राजराजेन्द्र’ जिसके जवाब में इन्द्रदेव ने कहा ‘गणपति’, और तब एक ने दूसरे का हाथ प्रेम से दबाया। इन्द्रदेव ने पूछा, ‘दलीपशाह, यह तुम्हारी क्या हालत है!!’’
दलीपशाह ने कहा, ‘‘यह सब भूतनाथ की करतूत है, मगर आप अगर यहाँ तक आ ही गए हैं तो अब हम लोगों की फिक्र छोड़ दीजिए, हम लोग अब दुरुस्त हो जाएँगे। आप जरा गिरिजाकुमार की खबर लीजिए, वह बेचारा मुझे बचाने की फिक्र करता हुआ बुरी तरह जल गया है और शायद यहीं कहीं होगा। सम्भव है उसके शरीर में प्राण मौजूद हों और इलाज कुछ असर दिखा सके।’’
एक तरफ से पतली आवाज आई, ‘‘मैं बहुत राजी-खुशी हूँ गुरुजी, अर्जुन सिंहजी कैसे हैं?’’ अर्जुनसिंहजी बोल उठे, ‘‘मैं एकदम ठीक हो गया हूँ।’’ इनकी बातें सुनकर इन्द्रदेव हँस पड़े और कहने लगे। ‘‘बेशक आप लोग ठीक तो हुए हैं पर अभी हिलने-डुलने की कोशिश न करें। विशेष बातें करना भी मुनासिब नहीं है। आप लोग चुपचाप पड़े रहें और मुझे सिर्फ इतना बता दें कि कोई और आदमी तो यहाँ पर नहीं है जिसे मेरी मदद कुछ फायदा पहुँचा सके? आप लोगों का हाल-चाल और कैसे आप यहाँ पहुँचे तथा लोहगढ़ी की यह हालत कैसे हो गई जो मैं देखता आ रहा हूँ, यह सब मैं पीछे खुलासा दरियाफ्त कर लूंगा। इस समय अगर और कोई जख्मी या बेहोश यहाँ पर हो तो उसकी खोज-खबर लेना जरूरी है।’’
दलीपशाह ने कहा, ‘‘यहाँ पर अभी कम-से-कम चार आदमी और हैं, पर वे लोग उस ऊपर वाली कोठरी में होंगे जहाँ से भागकर मैं यहाँ तक पहुँच पाया था कि बेहोश हो गया। वे चारों नन्हों, गौहर, मुन्दर और भूतनाथ हैं। आप आगे जाइए और देखिये कि इनमें से कोई बचा या सब मर गए। दुर्घटना जितनी अचानक में हुई उसे देखते हुए मैं सोचता हूँ कि हम लोगों को यहाँ फँसा कर भूतनाथ भी बहुत दूर न जा सका होगा।’’
इन्द्रदेव ने ताज्जुब से पूछा, ‘‘नन्हों, मुन्दर और गौहर!’’ और दलीपशाह ने कहा, ‘‘हाँ,’’ जिसे सुन वे फिर और न ठहरे और उठ खड़े हुए। अपनी नाक पर उन्होंने किसी तरह की दवा से तर कर एक पट्टी बाँधी और हाथ में तिलिस्मी खंजर लिए हुए फिर उसी कोठरी में पहुँचे जहाँ दलीपशाह और अर्जुनसिंह को पाया था। इस कोठरी से भी और आगे जाने का एक रास्ता दीवार में दिखाई पड़ रहा था जिसके अन्दर इन्द्रदेव घुसे। पांच-छः डंडा पतली-पतली सीढ़ियाँ मिलीं जिन पर चढ़ने के बाद वे दरवाजे पर पहुँचे। दरवाजा बन्द था जिसे इन्होंने खोला और तिलिस्मी खंजर वाला हाथ आगे करने पर देखा कि यह कोठरी जहरीले काले धूएँ से एकदम भरी हुई है।
आह यह क्या है! यहाँ जमीन पर सामने ही चार लाशें पड़ी हुई थीं जो इस कदर जल-भुन गई थीं कि जान बाकी रहने का तो सवाल ही क्या, यह भी पता लगाना असम्भव था कि ये मर्दों की लाशें हैं या औरतों की। कपड़ों के अलावे जिस्म का सारा चमड़ा जल गया था और चेहरा तो चारों का ही एकदम जलकर बेपहिचान हो गया था। इन्द्रदेव ने अफसोस की निगाह से इन चारों लाशों को देखा और तब रंज भरे हुए लहजे में कहा, ‘‘अफसोस भूतनाथ, आखिर तेरा क्या यही नतीजा होने को था!’’
कुछ देर तक वे उसी जगह खड़े इन चारों लाशों को देखते रहे जो अब उनकी मदद या कारीगरी की पहुँच के बाहर हो गई थीं, इसके बाद उन्होंने उधर से आँखें हटा लीं और उस कोठरी के चारों तरफ देखा। भूतनाथ की जीवनी के संबंध में जो-जो चीजें इस समय यहाँ पर मौजूद थीं उनका जिक्र तो हम ऊपर कर ही आए हैं, उसमें से बहुत कुछ सामान बारूद और बम की बदौलत नष्ट हो गया था पर जो कुछ बच गया था उसे उन्होंने ताज्जुब, गौर और अफसोस की निगाह से देखा और तब कहा, ‘‘ये सब चीजें यहां! तब जरूर इन्हीं सब सामानों को नष्ट करने और दुश्मनों से बदला लेने भूतनाथ यहाँ पर आया होगा, पर अपने जाल में आप ही फँस गया और कम्बख्त नन्हों, मुन्दर और गौहर के साथ-साथ खुद भी मारा गया! आखिर जो यह कहा जाता है कि बुरे काम का बुरा नतीजा होता है सो बिल्कुल ठीक है। फिर भी यद्यपि इसमें कोई शक नहीं कि भूतनाथ पाप में गर्दन तक डूबा हुआ था पर बहादुरी और हिम्मत में उसका मुकाबला करने वाला ऐयार आज तक न तो कोई हुआ है और न होगा। उसकी यह गति उसके पापों के फल के सिवाय और क्या कही जा सकती है। मगर अफसोस, आज मेरा एक बड़ा ही प्यारा दोस्त चला गया।’’
इसी तरह की बातें देर तक इन्द्रदेव कहते और सोचते रहे मगर अब अफसोस और रंज का नतीजा ही क्या था? उन्होंने अपने को सम्हाला और इस तरफ से ध्यान हटाकर इस बात को जाँचने लगे कि इन चारों के अलावे और भी कोई तो वहाँ पर या पास में कहीं नहीं है।
उस कोठरी में से ऊपर जाने वाली सीढ़ियाँ सामने ही नजर आ रही थीं जिन पर इन्द्रदेव चढ़ गए पर ऊपर न जा सके। तहखाने के मुँह पर जो ढकना पड़ा हुआ था उस पर ऊपर की इमारत का मलबा और ईंट-पत्थर वगैहर इस कदर आकर जमा हो गया था कि लाख जोर लगाने पर भी वह पल्ला टस-से-मस न हुआ।यही क्यों, बारूद के धमाके से इस निचली कोठरी का भी एक कोना फट गया था और उसकी छत में एक बहुत बड़ा छेद हो गया था जिसकी राह ऊपर का मलबा बहुत कुछ गिरकर एक कोने में जमा हो गया था। इन्द्रदेव को खयाल हुआ कि शायद इस कतवार के नीचे और कोई भी पड़ा हुआ न हो और वे इस बातकी जाँच करना चाहते थे कि अपने पीछे किसी तरह की आहट सुन रुक गए। घूमकर देखा तो दलीपशाह को खड़ा पाया जिन्हें देखते ही वे बोले, ‘‘आप बहुत कमजोर हो रहे हैं, ऐसी हालत में यहाँ आकर आपने अच्छा नहीं किया! देखिए इतनी देर बाद भी यह कोठरी जहरीले धूएँ से किस कदर भरी हुई है।’’ दलीपशाह ने कहा, ‘‘मैंने दवा खाकर इसकी फिक्र कर ली फिर भी मैं यहाँ न आता अगर मुझे यह फिक्र न लगी होती कि भूतनाथ कि क्या हालत हुई। मगर यहाँ जो कुछ मैं देखता हूँ उससे तो यही जान पड़ता है कि हम लोगों को मारने आकर खुद उसने ही अपनी जान से हाथ धोया।’’
इन्द्रदेव ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, ‘‘हाँ, यह देखिए तीन लाशें तो यहाँ पड़ी हुई हैं और यह चौथी उधर पड़ी है। अगर यहाँ पर नन्हों, गौहर, मुन्दर और भूतनाथ के इलावे कोई और आदमी न था तो मानना पड़ेगा कि ये लाशें उन्हीं चारों की हैं।’’
दलीप० : उन चारों और मुझ पाँचवें के इलावे और कोई छठा आदमी यहाँ पर न था।हुआ यह कि हम लोग—नन्हों आदि तथा मैं, इस जगह बैठ कर बातें कर रहे थे कि यकायक भूतनाथ (हाथ से बताकर) उन सीढ़ियों के पास नजर आया जिसने हम लोगों को कुछ सख्त-सुस्त कह कर अपने हाथ का एक गोला इस कोठरी में फेंका और तब खुद ऊपर चढ़ने लगा।मैं कुछ देख न पाया कि इसके बाद वह ऊपर निकल गया या नहीं क्योंकि बम का गोला देखते ही मुझे अपनी जान बचाने की फिक्र हुई। इतना तो मैं समझ ही गया था कि इसके धूएँ में बेहोशी का असर है जो थोड़े ही पलों में हम लोगों को कुछ भी करने लायक न छोड़ेगा, इसलिए मैं इस दरवाजे की तरफ दौड़ा जिसके दूसरी तरफ गिरजाकुमार और अर्जुनसिंह थे पर यह गुमान मुझे न था कि बम का धूआँ इस कदर कारी निकलेगा कि मैं दरवाजे तक भी पहुँच न पाऊँगा लेकिन हुआ यही और मैं इसी जगह बेहोश हो कर गिर गया। मैं समझता हूँ कि नन्हों वगैहर भी अपनी–अपनी जगह पर ही बेहोश हो गई होंगी। खैर उस समय अर्जुनसिंह और गिरिजाकुमार मेरी मदद को दौड़े, अर्जुनसिंह ने मुझे उठा लिया और गिरिजाकुमार ने वह गोला पैर से ठोकर मार कर दूर फेंक दिया, पर ये दोनों भी उस धूएँ के कारी असर से बच न सके। अर्जुनसिंह तो उस बाद वाली कोठरी में जाते-जाते बेहोश हो गए और गिरिजाकुमार के छूते ही वह बम फटा जिससे वह इस कदर जख्मी हो गया जैसा कि आपने देखा ही है। बेहोश होते हुए अर्जुनसिंह के कानों में एक भयानक आवाज पड़ी जो बेशक ऊपर वाली कोठरी में रक्खी बारूद के फटने की होगी। (उस कोने की तरफ जाकर जहाँ छत टूटी थी) मैं समझता हूँ कि ऊपर की इमारत को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचा होगा, मगर—अरे यह क्या, यहाँ तो आसमान नजर आ रहा है! तो क्या ऊपर की पूरी इमारत उड़ गई!’’
इन्द्रदेव : मुझे बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि समूची लोहगढ़ी की इमारत उड़ गई है। ऊपर की तरफ इस समय एक भयानक खंडहर मात्र रह गया है जिसमें राजा साहब के आदमी खोद-खाद कर रहे हैं और उस सुन्दर इमारत का कहीं नाम-निशान भी नहीं है जो कल तक यहाँ मौजूद थी।
दलीप : अफसोस भूतनाथ, यह तैंने क्या किया!
इन्द्र० : अपनी जान भी दी और ऐसी अनमोल इमारत को जो दुनिया में अपना सानी नहीं रखती थी जड़-मूल से नष्ट भी कर दिया। पर मुझे अब यह कहना है कि यहाँ खड़े समय बिताना मुनासिब नहीं है। ऊपर बहुत से आदमी लगे हुए हैं, क्या जाने कौन ढूँढ़ता-ढाँढ़ता यहाँ तक आ पहुँचे। यह तिलिस्म का एक हिस्सा है और यह रास्ता जिससे मैं आया हूँ तिलिस्म में जाने का है। इसे खुला छोड़ना उचित नहीं, इसे पक्की तरह बन्द कर देना ही मुनासिब है। अगर आप कुछ भी चलने-फिरने लायक हो गए हों तो मैं पसन्द करूँगा कि हम लोग इस जगह से निकल ही चलें।
दलीप : मैं तो बखूबी चलने-फिरने लायक हूँ पर गिरिजाकुमार बहुत चोट खाया हुआ है, शायद उसे उठाकर ले चलना पड़ेगा।
इतने ही में पीछे से आवाज आई, ‘‘वाह, मैं तो आपको उठा के ले चल सकता हूँ, आपने क्या मुझे मुर्दा समझ रक्खा है!’’ और जब इन दोनों ने घूम कर देखा तो गिरिजाकुमार और अर्जुनसिंह पर नजर पड़ी। इन्द्रदेव ने ताज्जुब के साथ गिरिजाकुमार से पूछा, ‘‘क्या तुम कुछ दूर चलने लायक हो?’’ जिसके जवाब में उसने कहा, ‘‘बखूबी।’’ और तब उस छोटी कोठरी में दो-चार दौड़ इधर से उधर लगा गया। इन्द्रदेव यह देख हँस पड़े और बोले, ‘‘खैर इम्तिहान देने की जरूरत नहीं, मेरा कहना यह था कि ऊपर का खण्डहर साफ करने के काम में बहुत-से आदमी राजा साहब के लगे हुए हैं और कोई ताज्जुब नहीं कि वे सब खोद-खाद मचाते यहाँ तक आ पहुँचे, इसलिए इस गुप्त राह जो आप लोगों ने खोली या जिसकी राह मैं आया इस तरह मजबूती से बन्द कर देना चाहिए कि जिसमें कोई इसे खोल न सके नहीं तो ऐरे-गैरे सभी आदमी इसके अन्दर घुसेंगे और तिलिस्म की मुसीबत में पड़ जाएँगे।’’
गिरिजा ० : जरूर ऐसा कर देना मुनासिब है, मगर क्या इस राह के इलावे और भी कोई राह यहाँ से बाहर निकल जाने की है या हम लोगों को उस छेद की राह बाहर होना पड़ेगा जो इस कोठरी की छत में दिखाई पड़ रहा है?
इन्द्र० : नहीं नहीं, और राह भी है, अच्छा आप लोग इसी जगह जरा ठहरिए।
इतना कह इन्द्रदेव उस कोठरी में चले गए जिसके अन्दर से गिरिजाकुमार वगैरह अभी-अभी यहाँ पहुँचे थे और करीब आधी घड़ी तक भीतर जाने क्या करते रहे। ये लोग उनके आने की राह देख ही रहे थे कि यकायक एक खटके की आवाज आई और इन्होंने देखा कि उस कोठरी का दरवाजा जो खुला हुआ था बन्द हो गया। केवल यही नहीं नीचे की तरफ से एक पत्थर की सिल्ली खिसकती हुई ऊपर आ गई जिसने इस तरह इस जगह को ढँक लिया कि अब वहां केवल साफ संगीन दीवार दिखाई पड़ने लगी, जिसको देखकर इस बात का गुमान भी नहीं हो सकता था कि इसके पीछे कोई दरवाजा है। गिरिजाकुमार ताज्जुब करता हुआ उसके पास गया और पत्थर की संधि पर उंगली फेरता हुआ बोला, ‘‘वाह रे कारीगरी, देखिए जरा भी दरार नहीं मालूम होती! अब क्या कोई कह सकता है कि इस जगह कभी कोई दरवाजा था?’’ दलीपशाह ने कहा, ‘‘तिलिस्म बनाने वालों की कारीगरी का कुछ कहना है!’’
इसी समय यकायक पुनः एक खटके की आवाज आई और इन लोगों ने देखा कि उस पत्थर के शेर की मूरत के नीचे जो उस कोठरी में बनी हुई थी एक रास्ता निकल आया है जिसके अन्दर इन्द्रदेव खड़े हैं। १ इन्द्रदेव ने इन लोगों को अपनी तरफ बुलाया और जब ये तीनों उसके अन्दर चले गए तो रास्ता फिर बन्द कर लिया। (१.यहीं वह रास्ता था जिसकी राह कमलिनी दोनों कुमारों को तिलिस्म में ले गई थी। देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, आठवाँ भाग।)
गिरिजाकुमार ने अपने को एक पतली और बहुत ही लम्बी सुरंग में पाया जो सीधी सामने की तरफ चली गई थी। उसने यह देख कहा, ‘‘तो क्या उन लाशों को उसी जगह छोड़ दिया जायगा?’’ जिसके जवाब में इन्द्रदेव ने कहा, ‘‘हाँ, इसके सिवाय और किया ही क्या जा सकता है? मगर राजा साहब के आदमी खोज करते हुए जरूर वहाँ तक पहुँचेंगे और उनको उठा ले जाएँगे।’’
इन्द्रदेव ने आगे कदम बढ़ाया और उनके पीछे-पीछे ये तीनों आदमी रवाना हुए।
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