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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

आठवाँ बयान


संध्या होने में कुछ ही देर बाकी है। अजायबघर के चारों तरफ वाला जंगल जिसमें यों भी बहुत मुसाफिरों की आवाजाही कभी नहीं रहती इस समय सन्नाटे के कारण भांय-भांय कर रहा है और थोड़ी-सी चिड़ियाएँ जो अपने घोंसलों की तरफ उड़ी जा रही हैं अथवा उनके पास मंडरा रही हैं जिस समय शान्त हो जाएँगी तो एकदम ही निस्तब्ध हो जायगा। पश्चिम की ओर से उठने वाले बादलों की मदद पाकर अंधियारी मामूली से कहीं ज्यादा तेजी के साथ झुकी आ रही है और रंग-ढंग बता रहे हैं कि दो ही चार घड़ी के बाद न–केवल पूरा अंधकार यहाँ छा जाएगा बल्कि पानी भी आ जाय तो ताज्जुब नहीं।

ऐसे समय में हम एक आदमी को अजायबघर के पूरब वाले दालान में धीरे-धीरे टहलते हुए देख रहे हैं। इस आदमी का समूचा बदन का कोई भी हिस्सा खाली नहीं है, यहाँ तक कि हाथ की उँगलियाँ और पैर के जूते तक भी पूरी तरह से दिखाई नहीं पड़ते और चेहरे पर भी एक काली नकाब पड़ी रहने के कारण इतना भी पता नहीं लगता कि यह आदमी मर्द है या औरत। इसके रंग-ढंग और आकृति से जो कुछ पता लग सकता है वह सिर्फ इतना ही कि यह किसी के इन्तजार में इस समय खड़ा है क्योंकि रह-रहकर निगाहें सामने के मैदान और जंगल की तरफ उठ रही हैं जिधर यह गौर से देखता पर किसी तरह की कोई आहट न पा फिर टहलने लग जाता है

धीरे-धीरे काफी समय बीत गया और अँधेरा पूरी तरह से छा गया। बादल भी जो अभी तक केवल पश्चिम की दिशा में छाए हुए थे अब पूरी तरह से समूचे आसमान को घेर कर फैल गए और पानी पड़ने का रंग नजर आने लगा। सुनसान जंगल इस अँधेरे में और भी डरावना मालूम होने लगा और उस दालान में भी अंधकार की काली चादर फैलने लगी। यह देख वह आदमी कुछ बेचैन हुआ और एक बार बहुत देर तक सामने की तरफ देखने बाद बोला, ‘‘बहुत देर हो गई, अब उसके आने की आशा व्यर्थ है।’’ कुछ देर तक वह चुपचाप सोचता रहा, इसके बाद हटा और बगल की कोठरी पार करता हुआ उस तरफ पहुँचा जो अयाजबघर का सदर हिस्सा था और जिधर सीढ़ियाँ पड़ती थीं। सीढ़ियों पर भी वह कुछ देर तक इस उम्मीद में खड़ा रहा कि शायद जिसकी राह देख रहा है वह अब भी नजर आ जाय पर कोई आता दिखाई न पड़ा अस्तु एक बार धीरे से—‘‘अब कोई उम्मीद नहीं’’ कहता हुआ वह सीढ़ियाँ उतरने लगा।

मगर अभी दो ही तीन सीढ़ियाँ उतरा होगा कि यकायक रुक गया। उसके कानों में किसी तरह की आहट पड़ी थी। वह गौर से सुनने लगा। मालूम हुआ कि कुछ आदमी तेजी के साथ आ रहे हैं जिनके पैरों के नीचे दबने वाले पत्तों की आवाज उठ रही थी। उसके मुँह से निकला, ‘‘आ गई, मगर जान पड़ता है कि साथ में और भी कोई है।’’ वह घूमा और पुनः कोठरी में से होता हुआ उसी दालान में जा पहुँचा जहाँ अब तक टहल रहा था। कुछ ही देर बीती होगी कि जंगल से निकल कर आते हुए तीन आदमियों पर निगाह पड़ी। अँधेरा इस समय तक इतना बढ़ गया था कि इतनी दूर से सिवाय इसके और कुछ भी पता नहीं लगता कि ये तीनों भी अपना बदन और चेहरा काली पोशाकों से ढाँके हुए हैं। बात-की-बात में ये आने वाले अजायबघर के पास पहुँच गए जहाँ पहुँच एक ने सीटी बजाई। इशारा सुनते ही इस आदमी ने जो इतनी देर से यहाँ जरूर इन्हीं लोगों के आने की राह देख रहा था जवाब में सीटी बजाई और तब स्वयं भी आगे बढ़कर उस बाहरी हिस्से में पहुँच गया जहाँ ये नये आए हुए तीनों आदमी पहुँच चुके थे। इस आदमी ने कहा, ‘‘तुमने आने में बहुत ज्यादा देर कर दी!’’ जवाब में एक ने कहा, ‘‘जी हाँ, कुछ ऐसे तरद्दुद में पड़ गई कि देर हो गई।’’ इसने कहा, ‘‘यह रुकना मुनासिब नहीं, चलो ठिकाने पर पहुँच कर पूछूँगा कि वह तरद्दुद क्या था।’’ आगे-आगे वह और पीछे-पीछे बाकी के तीनों आदमी अजायबघर की सीढ़ियाँ उतरे और पुनः घोर जंगल में घुसे पर इस बार उधर नहीं चले जिधर से ये तीनों आने वाले आए थे बल्कि उधर को रवाना हुए जिधर लोहगढ़ी की इमारत पड़ती थी।’’

पाठकों को मालूम है कि अजायबघर से लोहगढ़ी की इमारत बहुत दूर नहीं है अस्तु जल्दी ही ये लोग उस टीले के नीचे पहुँच गए जिस पर वह इमारत बनी हुई थी। यहाँ पहुँच कर भी वे लोग रुके नहीं बल्कि तेजी के साथ चलते हुए टीले के ऊपर पहुँच गए। मामूली ढंग से उसका सदर दरवाजा खोला गया और सब कोई इमारत के अन्दर हो गए। अभी तक ये लोग बराबर अन्धेरे में ही चल रहे थे पर अब उस आदमी ने सामान निकाल कर रोशनी की जिसकी मदद से बाकी रास्ता तय करके ये लोग, भीतर काले लोहे के बंगले में जा पहुँचे और उसके दालान में पहुँच कर ही इन लोगों ने दम लिया। लबादे और भारी पोशाकें उतार कर रख दी गईं और हल्के होकर ये लोग जमीन पर बैठ गए।

अब हमें मालूम हुआ कि जो आदमी पहिले से अजायबघर में मौजूद था उसके सिवाय बाकी नई आने वाली तीनों ही औरतें हैं। मगर इस जगह की हलकी रोशनी पाठकों को इनका रूप-रंग देखने और पहिचानने का मौका नहीं देगी अस्तु हम इनका परिचय दे देना मुनासिब समझते हैं क्योंकि ये तीनों ही हमारे पाठकों की जानी-पहिचानी और भूतनाथ की जीवनी के आखिर दिनों में उससे बहुत गहरी दिलचस्पी रखने वाली औरते हैं जिनके नाम न जानने से आगे की बातचीत का मजा न मिलेगा। वह देखिए जिनकी धानी रंग की महीन साड़ी में से उसके शरीर का गुलाबी रंग फूटा पड़ता है और मचलकर बातें कर रही है वह नन्हों है, उसके बगल में बैठी अपनी कटीली आँखों को तेजी के साथ चारों तरफ घुमा कर इस अंधेरे में भी कुछ देख निकालने की कोशिश करने वाली गौहर है, और इन दोनों के बीच में बैठी और कुछ सहमी-सी नजर आती हुई हेलासिंह की लड़की मुन्दर है। इनके सामने वाले मर्द को भी पाठक पीछे के किसी बयान में देख चुके हैं और यह वही है जिसे हम रामचन्द्र के नाम से पुकार आये हैं, पर पाठकों को यह भी याद होगा कि हमने उनके सुभीते के लिए इसका यह बनावटी नाम रख दिया था, असली नाम इसका क्या है यह अभी तक मालूम नहीं हुआ, सम्भव है कि इस समय की बातचीत से पता लग जाय। खैर आइये पहिले इनकी बातों को गौर से सुने क्योंकि वे हमारे लिए बहुत जरूरी हैं।

नन्हों : उम्मीद है कि मेरी इन दोनों साथिनों को आपने पहिचान लिया होगा?

रामचन्द्र : इन बीबी गौहर को भला मैं कैसे नहीं पहिचानूँगा पर इनके साथ वाली को मैं नहीं पहिचान सका। शायद कह सकता हूँ कि आज के पहिले कभी मुझको इनके देखने का मौका नहीं मिला।

नन्हों : ये हेलासिंह की लड़की मुन्दर हैं, हेलासिंह को तो आप जानते ही होंगे?

राम०: बहुत अच्छी तरह से! तब तो ये हमीं लोगों में से हैं, क्या ये ऐयारी भी जानती हैं?

नन्हों : नहीं, मगर इनकी अक्ल बड़े-बड़े ऐयारों के कान काटती है। इन्होंने बड़े मार्के का एक काम किया है और इसी से मेरी सखी गौहर ने इन्हें अपने साथ ही नहीं कर लिया है बल्कि मुझको भी इनकी मदद लेने पर मजबूर किया है। इनसे मुझे किसी तरह का कोई पर्दा नहीं है अस्तु आप बेखटके इनके सामने सब तरह की बातचीत कर सकते हैं। राम० : यह तो मैं तभी समझ गया जब इनको लेकर तुम यहाँ आईं। जरूर तुम्हारी तरह मैं भी इन पर विश्वास करूँगा मगर यह आशा रक्खूँगा कि ये हम लोगों का भेद धोखे में भी किसी पर जाहिर न करेंगी।

नन्हों : उस तरफ से आप बिल्कुल निश्चिन्त रहिये, इसके लिए मैं पहिले ही इनसे कसमें खिला चुकी हूँ और आपको इत्मीनान दिलाती हूँ कि इनकी जुबान से कभी कोई भी बात जाहिर न हो सकेगी।

राम० : खैर तो अब काम की बात होनी चाहिए, सबसे पहिले मैं तुमसे कुछ बातें पूछना चाहता हूँ।

नन्हों : बहुत अच्छा पूछिये, मुझे भी कई ऐसी बातें दरियाफ्त करनी हैं जिनका ठीक-ठीक पता आपसे ही लगेगा और जिन्हें मैं बाद में पूछूँगी।

राम० : ठीक है, तुम भी उन्हें पूछकर अपना खुटका मिटा लेना! अच्छा पहिली बात तो मैं जानना चाहता हूँ कि उन विचित्र चीजों के होने का पता तुम्हें क्योंकर लगा जिन्होंने भूतनाथ को उस दिन इतना परेशान कर दिया?

नन्हों : (गौहर और मुन्दर की तरफ बताकर) इन्हीं दोनों सखियों की बदौलत। कुछ उन चीजों को छोड़कर जिनका हाल आप ही ने कहा था बाकी की कुल चीजें महाराज शिवदत्त और जमानिया के सेठ चंचलदास के घर में मौजूद थीं पर उनके होने का मुझे गुमान तक न था।

राम० : (ताज्जुब से गौहर और मुन्दर की तरफ देखकर) मगर आप लोगों को इन चीजों का पता क्योंकर लगा? जहाँ तक मैं समझता हूँ आपमें से किसी को भूतनाथ के इस भेद से कोई सम्बन्ध नहीं है।

नन्हों : मैं जब पूरा हाल आपसे बयान करूँगी तब आपको सब कुछ मालूम हो जाएगा। (गौहर की तरफ देखकर) क्यों सखी, मैं सब हाल इनसे कह दूँ?

गौहर : जब आप अपनी बातों को बिना छिपाये हम लोगों के सामने कह रहे हैं तो फिर हमारी बातें जाहिर कर देने में क्या हर्ज है?

नन्हों : बस तो ठीक है, अच्छा सुनिये—यह तो आपको मालूम ही होगा कि (गौहर की तरफ बताकर) इनकी माँ गुजर गई हैं। माँ का गम इन्हें बहुत ज्यादे हुआ और ये उस सदमे से दीवानी-सी हो गईं।

इनकी यह हालत देख हकीमों की राय से इनके बाप ने इन्हें आजाद कर दिया तथा एक ऐयार और एक ऐयारा को इनके साथ करके जहाँ चाहे घूमने की इजाजत दे दी। इन्हें ऐयारी सीखने का शौक हुआ और इन्होंने अपने दोनों साथियों की मदद से उसे सीखा भी। उसी मौके पर एक दफे इन्हें भूतनाथ ने गिरफ्तार करके अपनी लामाघाटी में बन्द कर दिया जहाँ उसकी रखेल रामदेई से इनकी मुलाकात हुई। उससे बातें करने पर इन्हें एक विचित्र बात यह मालूम हुई कि रामदेई को भूतनाथ ने बहुत धोखे में डाल रक्खा है, अर्थात् अपना असल भेद उसे कुछ भी मालूम नहीं होने दिया यहाँ तक कि नाम भी उस पर प्रकट नहीं किया है। बात यह थी कि रामदेई पर सबसे पहिले जैपालसिंह की निगाह पड़ी थी जो उसे उसके घर से उड़ा लाया, मगर बीच ही में भूतनाथ ने उसी की सूरत बन उसे गायब कर दिया और तब से वह भूतनाथ के पास है। आप जानते ही होंगे कि जैपालसिंह का असली नाम रघुबरसिंह है। भूतनाथ ने अपने को रघुबरसिंह के ही नाम से रामदेई पर जाहिर किया और वह अब तक इसे गदाधरसिंह न जानकर रघुबरसिंह की समझती चली आई है।यह विचित्र बात जब इन्हें मालूम हुई तो ये बड़ी प्रसन्न हुईं क्योंकि इन्हें भूतनाथ का यह एक ऐसा भेद मालूम हो गया था कि जिससे बहुत-कुछ काम निकाला जा सकता था। इन्होंने अपनी चलती-फिरती बातों के जोर से रामदेई से दोस्ती कर ली और उसने इन्हें भूतनाथ की कैद से छुड़ा दिया। इनका कुछ सम्बन्ध महाराज शिवदत्त से भी था जो अपना कोई काम भूतनाथ के जरिये निकाला चाहता था लेकिन उस पर कोई वश न होने के कारण लाचार था।भूतनाथ के इस जोर पर इन्हें वह काम हो जाने की आशा बँधी, अस्तु ये तब शिवदत्त से मिलीं और उससे यह बात कही जिस पर उसने भुवनमोहिनी और अहिल्या तथा मालती की वह पुरानी कथा इनसे संक्षेप में बयान की और वे चीजें भी दिखाईं जो इस सिलसिले में उसके पास मौजूद थीं। भूतनाथ को दिखाई गई चीजों में से कई तो शिवदत्त के जरिये हम लोगों को मिलीं मगर खैर उसका हाल पीछे कहूँगी। शिवदत्त ने सब पिछला हाल इनसे कहकर अपना वह काम भूतनाथ के जरिये करा लेने का भार इनके ऊपर सौंपा। इन्होंने अभी मुझे बताया नहीं कि वह काम क्या था....

राम० : (मुस्कुरा कर) पर मैं बता सकता हूँ कि क्या काम था!

गौहर : (ताज्जुब से सिर हिलाकर) नहीं, नहीं आप क्योंकर बता सकते हैं, सिवाय महाराज शिवदत्त के और मेरे किसी तीसरे कान में आज तक वह बात गई ही नहीं!

राम० : (हँस कर) जब वह इतनी गुप्त बात है तो मैं सबके सामने न कह कर तुम्हारे कान में कहता हूँ, सुनकर तुम आप ही कह दोगी कि मैं ठीक कहता हूँ या गलत।

गौहर ने यह सुनकर कहा, ‘‘नहीं, आप किसी तरह भी उस बात को नहीं जान सकते!’’ मगर अपना कान रामचन्द्र की तरफ जरूर बढ़ा दिया जिसने उसकी तरफ झुक कर बहुत धीरे-से कहा, ‘‘शिवदत्त ने भूतनाथ के कब्जे से शिवगढ़ी की ताली लेने का काम तुम्हारे सुपुर्द किया था।’’

यह एक ऐसी बात थी कि सुनते ही गौहर की यह हालत हो गई कि काटो तो बदन से लहू न निकले। वास्तव में यही काम शिवदत्त ने उसके सुपुर्द किया था और इसी काम के लिए कितने ही महीने से वह भूतनाथ के पीछे पड़ी हुई थी। मगर इस भेद को उसने अपने दिल की इतनी गहरी तह के भीतर छिपाया हुआ था कि औरों को तो क्या अपनी सखी गिल्लन तक को उसने यह बात नहीं कही थी।उसका इरादा नन्हों, मुन्दर, दारोगा, जैपाल आदि सभों को बतोला देकर यह काम कर डालने का था क्योंकि वह जानती थी कि ये लोग भी उसी शिवगढ़ी की ताली के लिए ही भूतनाथ के पीछे पड़े हुए हैं और इसीलिए इन लोगों को धोखा दे खुद ताली उड़ा लेने का वह मनसूबा बाँधे हुए थी।वह इस बात को भी खूब समझती थी कि अगर इन लोगों को उसका यह गुप्त इरादा मालूम हो जाएगा तो फिर कभी ये उसे अपना साथी नहीं बनावेंगे और उसे दूध की मक्खी की तरह न-केवल निकाल ही बाहर करेंगे बल्कि और तरह से भी तकलीफ पहुँचावें तो ताज्जुब नहीं।अस्तु इस समय रामचन्द्र के मुँह से अपने दिल का वह गुप्त भेद सुन वह यहाँ तक घबड़ा गई कि उसके होश-हवास गायब हो गए। उस का चेहरा एकदम पीला हो गया और उसे विश्वास हो गया कि अब काम पूरा उतरना तो दूर रहा वह खुद भी इन लोगों के पंजे से छूट न सकेगी बल्कि ताज्जुब नहीं कि इसी समय गिरफ्तार कर कहीं कैद कर दी जाए और कौन ठिकाना कि इसी इरादे से उसे यहाँ लाया भी गया हो! यह विचार आते ही उसका दिल धड़कने लगा पर उसने बहुत ही कोशिश करके अपने को सम्हाला और चेहरे से अपने दिल का हाल जाहिर न होने देने की कोशिश करने लगी। आखिर धीरे-धीरे उसने अपने होश-हवास ठिकाने किए और बनावटी हँसी हँसकर कहा, ‘‘वाह-वाह, आप भी क्या बे-सिर-पैर की बात कह रहे हैं? भला यह भी कभी मुमकिन हो सकता है!’’

रामचन्द्र ने यह सुनकर हँस कर जवाब दिया, ‘‘इसका तो तुम्हारा चेहरा ही गवाही दे रहा है। पर तुम निश्चिन्त रहो, मेरी जुबान से न तो कोई तुम्हारा यह भेद जान सकेगा और न कभी कोई तकलीफ ही तुम्हें मेरी तरफ से पहुँचेगी। (नन्हों की तरफ घूमकर) हाँ तो तुम क्या कह रही थीं!’’

नन्हों इस समय बड़े गौर से गौहर की तरफ देख रही थी और उसे विश्वास हो गया कि रामचन्द्र ने कोई बहुत ही गुप्त भेद की बात उससे कही है मगर उसने यह भी सोच लिया कि इस समय उसके बारे में कुछ पूछने का मौका नहीं है। रामचन्द्र की बात सुन उसने एक भेद की निगाह उस पर डाली जिसके जवाब में उसने भी विचित्र मुद्रा से कुछ इशारा किया जिसे समझ वह बोली, ‘‘हाँ मैं यह कह रही थी कि ये महाराज शिवदत्त के किसी काम को पूरा करने के लिए भूतनाथ पर अपना प्रभाव डालना चाहती थीं और उसके लिए इन्हें यही मुनासिब जंचा कि हम लोगों से दोस्ती करें। इस काम में इन्होंने रामदेई की मदद ली और उसके हाथ की सिफारिशी चीठी लेकर मुझसे मिलीं। साथ ही साथ मेरा भी एक इतना बड़ा काम इन्होंने कर दिया कि जिसके सबब से झख मार कर मुझे इनसे दोस्ती का बर्ताव करना पड़ा, पर क्या किया जाए, मेरी किस्मत फूट चुकी थी और इनकी मेहनत का कोई फल न निकला।’’

रामचन्द्र : तुम्हारा मतलब शायद उसी कैदी से है?

नन्हों : जी हाँ, वह इतने दिनों से बराबर महाराज शिवदत्त की कैद में ही था जो न-जाने किस विचार से उसे अपने यहाँ बन्द किए हुए थे। पर गौहर की सिफारिश से उसे मेरे लिए छोड़ देना उन्होंने मंजूर कर लिया बल्कि छोड़ कर बेगम के घर पहुँचवा भी दिया, पर अफसोस कम्बख्त भूतनाथ के आदमी उसी दिन चोरी से बेगम के घर में घुस, उसे निकाल ले गए और अन्त में उन्होंने उसकी जान ही लेकर छोड़ी।

इतना कहते-कहते नन्हों की आँखें डबडबा आईं और गला बन्द हो गया। कुछ देर तक वह चुप रही, इसके बाद बहुत कोशिश से अपने को सम्हाल फिर कहने लगी—

नन्हों : अपने काम के लिए तब ये मुन्दर से मिलीं। मुन्दर के पिता हेलासिंह का उस गुप्त कमेटी से जो सम्बन्ध था वह पूरा हाल तथा एक कोई उससे भी गुप्त भेद, भूतनाथ को मालूम हो गया था और वह उनको तरह-तरह की धमकी देकर अपने चुप रहने की कीमत के तौर पर पचास हजार रुपया और लोहगढ़ी की ताली उनसे माँग रहा था जिसके न पाने पर वह सब हाल गोपालसिंह से कह देगा यह धमकी भी साथ में थी अस्तु इन मुन्दर को भी भूतनाथ से बदला लेना था।

इन्होंने जब भुवनमोहिनी वाला कुछ हाल गौहर से सुना तो बाकी हाल अपने पिता से जान कर सब मामला अच्छी तरह समझ लिया और तब अपनी कारीगरी शुरु की। चंचलदास के भतीजे श्रीविलास पर इन्होंने हाथ फेरा और उससे भुवनमोहिनी का बहुत-सा हाल सिर्फ नहीं जान लिया बल्कि उसके पास उस सम्बन्ध में जो कुछ कागज-पत्र और सामान थे उन्हें भी हथिया लिया। जो कुछ सामान हम लोगों को मिला उसका एक खासा हिस्सा इन्हीं की कारीगरी का नमूना है। इस प्रकार हम तीनों आदमियों ने वह सब सामान जुटा लिया जो भूतनाथ को दिखाया गया था, और अब उसको डरा-धमका कर अपना काम सिद्ध करने की बात सोची जाने लगी। इसी बीच महाराज के भेजे हुए दो ऐयार गोपाल और श्यामसुन्दर आ पहुँचे और उनसे मालूम हुआ कि आप भी यहीं विराज रहे हैं। उस समय से आगे की सब कार्रवाई आपकी मदद और राय से ही की जा रही है और इसके बाद जो कुछ हुआ आपको मालूम ही है। किस तरह वह सब नाटक किया गया और उन सामानों को देख कर भूतनाथ कैसा घबराया यह आपके शागिर्दों ने आप से कहा ही होगा!

राम० : ठीक है, तो कहना चाहिए कि तुम्हारी इन दोनों साथिनों का बहुत बड़ा अहसान हम पर और हमारे महाराज पर है। (गौहर और मुन्दर की तरफ देख कर) हमारे महाराज को जब ये बातें मालूम होंगी तो वे बहुत ही खुश होंगे!

गौहर और मुन्दर ने यह सुन कर आपुस में एक-दूसरे की तरफ देख मुस्कुरा दिया और रामचन्द्र पुनः नन्हों से बोला, ‘‘अब मैं कुछ बातें उन चीजों के बारे में जानना चाहता हूँ जो उस दिन भूतनाथ को दिखाई गई थीं और इसके लिए बेहतर यही होगा कि हम लोग वहीं चलें जहाँ वह सब सामान रक्खा हुआ है। वहाँ उन चीजों के सामने ही वे बातें समझने में आसानी होगी।’’

नन्हों : अच्छी बात है, तब शायद वह सामान यहां ही कहीं रक्खा गया है?

राम० : हाँ, यहाँ पास ही में मगर इस इमारत के निचले हिस्से में है और हमें वहीं चलना पड़ेगा।

नन्हों : अच्छी बात है तो वहीं चलिए, मगर क्या कोई तेज रोशनी का इन्तजाम नहीं हो सकता? यह लालटेन इतनी कम रोशनी देती है कि इससे साफ कुछ नहीं दिखाई पड़ता।

‘‘सो भी हो जायगा’’ कहता हुआ रामचन्द्र उठ खड़ा हुआ और तीनों औरतें भी खड़ी हो गईं। किसी जगह से खोज कर रामचन्द्र ने एक दूसरी लालटेन भी निकाल कर बाली जिसकी दूर तक फैलने वाली तेज रोशनी ने वहाँ के अन्धकार को एकदम दूर कर दिया और अब वहाँ की हर एक चीज साफ-साफ नजर आने लगी। नन्हों को इस स्थान तथा अन्दर के तिलिस्म का भी कुछ हाल मालूम था और वह यहाँ कई दफे आ-जा चुकी थी और मुन्दर तथा गौहर भी इस लोहगढ़ी के बारे में कुछ जानकारी रखती थीं तथा पहले भी यहां आ-जा चुकी थीं अस्तु उनको भी यहाँ का सामान कुछ आश्चर्य में नहीं डाल सकता था, अतएव ये तीनों ही चुपचाप रामचन्द्र के पीछे-पीछे रवाना हो गईं जो लालटेन बालने के बाद एक क्षण भी न रुका और उस दालान के बगल से होता हुआ एक कोठरी में घुसा। (१. देखिए भूतनाथ पन्द्रवाँ भाग, नौवा बयान,)

हमारे पाठक प्रभाकरसिंह के साथ इस इमारत में कुछ समय तक रह चुके हैं और इसलिए सम्भवतः उन्हें याद होगा कि इसके बाहरी हिस्से में चारों तरफ चार दालान तथा उनके कोनों में चार कोठरियाँ थीं और बीच में एक बड़ा कमरा था। उन कोठरियों में क्या-क्या चीजें थीं और बीच में एक बड़ा कमरा था। उन कोठरियों में क्या-क्या चीजें थीं यह उन्हें याद होगा अस्तु उसके फिर से यहाँ बयान करने की जरूरत नहीं है।तीनों औरतों को साथ लिए रामचन्द्र सीधे उस कोठरी में पहुँचा जिसके अन्दर तोप, बारूद, गोले तथा इस प्रकार की अन्य चीजें भरी हुई थीं। इस कोठरी के बीचोबीच में एक और तहखाना होने का हाल हम लिख आए हैं। इस समय रामचन्द्र सभों को लिए हुए उसी तहखाने में उतर गया। पतली-पतली दस-बारह सीढ़ियाँ उतर जाने के बाद फिर एक कोठरी मिली जो पहली कोठरी से नाम में शायद कुछ छोटी ही होगी। इसी कोठरी में इस समय वह सब सामान पड़ा हुआ था जिसने भूतनाथ को बेचैन कर दिया था और जिसका हाल ऊपर लिखा जा चुका है। वह भयंकर लाल मूरत, उस औरत की सिर कटी लाश, काले कपड़ों से अपने को ढंके हुआ आदमी, इत्यादि चीजें तो थीं ही जिनका जिक्र हम सोलहवें भाग के अन्त में कर आए हैं पर इनके अलावे वह सब बाकी का सामान भी यहाँ मौजूद था जिन्हें हमारे पाठक सोलहवें भाग के छठे बयान में नाव पर देख चुके हैं। बोतल के अन्दर रखा हुआ सिर, जंग लगी तलवार, सन्दूक आदि सभी कुछ यहाँ था, केवल वे दोनों चीते के बच्चे तथा वह लाश यहाँ न थी जिसका जिक्र उस जगह आ चुका है यह सब सामान वहाँ कायदे के साथ चारों तरफ सजा कर रक्खा हुआ था और बीच में कुछ जगह छूटी हुई थी जहाँ रामचन्द्र और तीनों औरतें जाकर बैठे। इन लोगों के सामने की तरफ एक और दरवाजा पड़ता था जो इस समय बन्द था और रंग-ढंग से मालूम पड़ता था किसी सुरंग का मुहाना है।

नन्हों : मैं देखती हूँ कि सभी चीजें यहाँ आ गई हैं। आपके शागिर्द गोपाल और श्यामसुन्दर का यह काम मालूम होता है।

राम० : हाँ, उन्हीं दोनों ने कुछ आदमियों की मदद से यह सामान यहाँ पहुँचाया है। (सुरंग की तरफ बता कर) इसी सुरंग की राह से ये चीजें यहाँ लाई गई हैं।

नन्हों : क्या यह सुरंग उसी जगह जाकर निकलती है जहाँ भूतनाथ को ये चीजें दिखाई गई थीं।

राम० : हाँ, मगर कुछ चक्कर खाती हुई। यह तिलिस्म के अन्दर गई हैं और वहाँ से एक दूसरी राह बाहर उस जगह निकली है।

नन्हों : (गौहर की निगाह चारों तरफ डाल कर) क्या मैं भूलती हूँ या यह वही कोठरी है जिसके अन्दर अहिल्या की लाश उस समय लाकर रक्खी गई थी जब हेलासिंह और जैपाल ने उसका खातमा किया था?

राम० : बेशक यह वही कोठरी है, पर मुझे तुम्हारी याददाश्त पर ताज्जुब होता है।

नन्हों : (एक तरफ की दीवार में ऊपर की तरफ बने हुए रोशनदान की तरफ बताकर) इसको देख कर मुझे यह जगह ख्याल आ गई। यह वही रोशनदान है जिसकी राह मालती ने झाँक कर देखा था और उस समय मैं....

राम० : (आँख के इशारे से उसे रोककर) ठीक है और इसीलिए मैंने इन सब सामानों को इसी जगह लाकर रखना मुनासिब समझा। इसे भूतनाथ के जीवनचरित्र की कोठरी कहना मुनासिब है। अच्छा अब इन बातों को जाने दो, दो-चार बातें जो इन विचित्र चीजों के सम्बन्ध में पूछता हूँ बताओ और अब आगे की कार्रवाई सोचो कि क्या करना चाहिए और भूतनाथ के कब्जे से शिवगढ़ी की ताली क्योंकर प्राप्त करनी चाहिए!

नन्हों : बहुत अच्छा, आपको जो कुछ पूछना है पूछ लीजिए इसके बाद मुझे जो बातें दरियाफ्त करनी हैं उन्हें मैं पूछूँगी।

रामचन्द्र ने उस कटे हुए सिर की तरफ देख कर पूछना चाहा मगर यकायक उसकी निगाह मुन्दर और गौहर की तरफ जा पड़ी जिससे न-जाने कौन-सा खयाल उसके मन में पैदा हुआ कि वह रुक गया और अपनी बात बदल कर बोला, ‘‘हाँ, ‘‘एक बहुत जरूरी बात दरियाफ्त करना तो मैं भूल ही गया था!’’

नन्हों ने ताज्जुब से पूछा, ‘‘वह क्या?’’

रामचन्द्र ने कहा, ‘‘गोपालसिंह के कब्जे से उनकी तिलिस्मी किताब निकाल लेने का तुमने महाराज के सामने बीड़ा उठाया था, उसका क्या हुआ?’’

नन्हों के चेहरे पर यह सुनकर विचित्र तरह की मुस्कुराहट खेलने लगी जिसे देख रामचन्द्र ने कहा, ‘‘तुम्हारी प्रसन्नता कह रही है कि तुम्हें इस मामले में सफलता मिली है! जल्दी बताओ कि क्या मेरा खयाल ठीक है? क्या वह काम हो गया?’’

नन्हों : जी हाँ।

राम० : (खुश होकर) वाह-वाह, यह तो तुमने बहुत बड़ी खुशखबरी सुनाई! क्या वह ताली मिल गई!

नन्हों : (हँसती हुई) जी हाँ।

राम० : (ताज्जुब और आग्रह से नन्हों का हाथ पकड़ कर) सो कैसे, सो कैसे, मुझे पूरा हाल सुनाओ।

नन्हों : अच्छा-अच्छा मैं, सुनाए देती हूँ। मेरा हाथ मत तोड़िए। (जरा रुक कर) आपको इस सम्बन्ध में शुरु का किस्सा तो मालूम ही होगा।

राम० : केवल इतना ही कि तुम महल के अन्दर पहुँच गई हो और गोपालसिंह वह किताब कहाँ रखता है यह जानने की कोशिश कर रही हो।

नन्हों : क्या उसके बाद का कोई हाल आपको मालूम नहीं हुआ? यह तो बहुत दिन की बात है।

राम० : नहीं, इसके बाद का कुछ भी हाल मैं नहीं जानता। तुम्हें शायद मालूम नहीं है कि इधर कई दिनों से मैं एक दूसरे ही फेर में पड़ा हुआ था।

नन्हों : बीच-बीच में अपने आदमी से सब हाल-चाल की खबर तो मैं बराबर भेजती ही रहती थी।

राम० : वह सब हाल मुझ तक पहुँचता तो था पर बहुत देरी से और बेसिलसिले मिलता था, मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी जुबानी सब हाल पूरा-पूरा सुनूँ।

नन्हों : बहुत अच्छा तो मैं खुलासा ही कहती हूँ। महल के अन्दर घुस जाने में मुझे कुछ भी तरद्दुद न हुआ क्योंकि वहाँ की पचीसों लौंडियों में मेरी जान पहिचान थी जिनमें से पाँच-छः तो मुझे जान से बढ़कर मानती थीं। मैं जानकी नाम की एक लौंडी की बहिन के नाम से अपना परिचय देकर उन सभों में अच्छी तरह घुल-मिल गई और महल के अन्दर सब जगह मेरा जाना-आना होने लगा। यद्यपि तरह-तरह के बहानों से मैं गोपालसिंह के कमरे में भी कई दफे गई पर इस बात का पता कुछ भी न लगा सकी कि वह तिलिस्मी किताब कहाँ रक्खी जाती है।

आखिर मैंने एक दूसरी तर्कीब की, मैंने सोचा कि गोपालसिंह को किसी तरह का धोखा दिए बिना काम सिद्ध न होगा। वह धोखा क्या होगा यह भी मैंने सोच लिया और इस काम के लिए दारोगा साहब से मदद ली। आप तो जानते हैं कि दारोगा साहब से मेरी गहरी जान-पहचान है।

राम० : बहुत अच्छी तरह जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि यह बात आज से नहीं बल्कि उस वक्त से है जबकि तुम बड़ी महारानी की सहेलियों में से थीं और दारोगा साहब तुम्हारे....

नन्हों : (मुस्कुराकर) ठीक है अस्तु मैंने उसी पुरानी दोस्ती का लाभ उठाना चाहा और दारोगा साहब से मिली।

राम० :मगर यह तो तुमने गलती की, वह तो....

नन्हों : आप सुनिए तो! उधर कुछ और ही गुल खिला हुआ मुझे दिखा अर्थात् वे खुद गोपालसिंह के कब्जे से वह किताब निकाल कर अपने हाथ में करना चाहते थे।

राम० : हाँ, यही बात मैं कहना चाहता था।

नन्हों : मुझे जब यह मालूम हुआ तो मैं इस काम में उनकी मदद करने को तैयार हो गई, आखिर अपना मतलब तो निकालना ही था।

राम० : ठीक है, तुम्हारे चांगलेपन को मैं अच्छी तरह समझता हूँ, अच्छा तब क्या हुआ? दारोगा साहब ने क्या किया?

नन्हों : मुझे और मेरे एक साथी को अन्दर पहुँचाया और आने-जाने का रास्ता बताकर और बातों का भी प्रबन्ध कर दिया।

राम० : वह कौन-सी जगह थी जहाँ उन्होंने तुमको पहुँचाया?

नन्हों : तिलिस्म का ही कोई हिस्सा जिसको शायद चक्रव्यूह कहते हैं! वहाँ से खास बाग में जाने का एक गुप्त रास्ता था।

राम० : (चौंककर) चक्रव्यूह!

नन्हों : जी हाँ, चक्रव्यूह, मगर यह नाम सुनकर आप चौंके क्यों?

राम० : इसलिए कि मैं जानता हूँ कि वह बड़ी भयानक जगह है और वहाँ सहज में लोगों का आना-जाना नहीं हो सकता। दारोगा साहब ने तुम्हें वहाँ कैसे पहुँचा दिया इसी का ताज्जुब है।

नन्हों : आप ठीक कहते हैं। दारोगा साहब ने मुझसे उस जगह के बारे में यही कहा था कि वह बड़ा भयानक स्थान है और इस बात की सख्त ताकीद भी कर दी थी कि जो स्थान उन्होंने बता दिया है उसके आगे या किसी दूसरी जगह जाने का उद्योग मैं कदापि न करूँ नहीं तो तिलिस्म में फँस जाऊँगी। मगर उनकी बातचीत से मुझे यह भी गुमान हुआ कि इस जगह का भेद उन्होंने अभी हाल में ही जाना है, पहिले वे इस बारे में कुछ भी नहीं जानते थे।

राम० : यह कुछ प्रकट नहीं हुआ, कि उस स्थान का पता लगा उन्हें क्योंकर?

नन्हों : नहीं यह तो कुछ मालूम नहीं हुआ, मगर क्या यह कोई भेद की बात है?

राम० : क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हमारे महाराज उस स्थान का हाल जानने के लिए बहुत दिनों से व्याकुल हैं!

नन्हों : हाँ, यह बात तो मैं उन्हीं की जुबानी सुन चुकी हूँ।

राम० : मगर वे इस चक्रव्यूह के बारे में सिर्फ इतना ही जानते हैं कि वह जितनी ही भयानक जगह है उतनी ही सुन्दर, सैर-सपाटे लायक और दौलत से भरपूर भी है। मुझसे कई दफे उन्होंने यह बात कही कि अगर किसी तरह उस जगह का भेद मालूम होता तो बड़ा अच्छा होता। मगर अब जब दारोगा साहब उस जगह का हाल जान गए तो शायद महाराज साहब को कुछ बता सकें?

नन्हों : शायद ही कुछ, क्योंकि इतना मैं समझ गई कि यद्यपि मुझे उन्होंने उस स्थान तक पहुँचा दिया था पर फिर भी वे वहाँ आने-जाने से बहुत डरते थे और उसके बारे में विशेष कुछ जानते भी न थे। हमारे महाराज को अगर उस स्थान के बारे में कुछ पता लग सकेगा तो उसी किताब से लग सकेगा जिसको मैं गोपालसिंह के कब्जे से लेना चाहती थी क्योंकि उसी की मदद से दारोगा साहब भी वहाँ तक पहुँचे थे।

राम० : सो तो हई है और इसीलिए वह किताब लेने का महाराज का इतना आग्रह था, खैर तुम आगे का हाल कहो और उस जगह का कुछ हाल सुनाओ जहाँ दारोगा साहब ने तुम्हें पहुँचाया।

नन्हों : उस स्थान में जाने का रास्ता तो अजायबघर में से था, पर खुद वह जगह थी कहीं खास बाग के आस-पास में ही, जहाँ जाने का जैसा कि मैंने कहा, एक रास्ता भी वहाँ से था। अजायबघर की ड्योढ़ी से आगे एक महराबदार बड़े फाटक में से होकर, जिसके सामने एक पुतली लटकती है, वहाँ जाना होता है। वह एक बड़ा ही रमणीक बाग है जिसके बीचोबीच में एक बारहदरी है। वहाँ सैंकड़ों फौव्वारे लगे हुए हैं इनको जब चाहे इच्छानुसार चलाया जा सकता है और जिनकी बदौलत वह स्थान खासकर आज-कल गर्मी के मौसिम में तो बिल्कुल स्वर्ग ही जान पड़ता है।

उस स्थान तक मुझे पहुँचा और वहाँ से तिलिस्मी बाग के आने-जाने का रास्ता बतला दारोगा साहब तो चले गए और अब मैं अपनी फिक्र में पड़ी। एक रोज सुबह मैं गोपालसिंह के सोने वाले कमरे के सामने इस तरह पर घूमने लगी कि उनका ध्यान मेरी तरफ आकर्षित हुआ और वे मेरा पता लगाने मेरी तरफ आए मगर तब मैं गायब हो गई और उस जगह एक पुर्जा छोड़ गई जिसमें लिखा था कि—‘मैं चक्रव्यूह में कैद हूँ’!

उस दफे तो कुछ न हुआ पर कुछ समय के बाद जब मैंने फिर ऐसा ही क्या तो गोपालसिंह बड़े ताज्जुब में पड़ गए। इस दफे मैं एक खाली लम्बी-चौड़ी चीठी लिखकर ले गई थी और मेरा विचार था कि अबकी उन्हें अच्छी तरह रंग पर लाऊँगी। यद्यपि वह विचार पूरा न उतर पाया फिर भी थोड़ा बहुत काम तो बन ही गया।

राम० : इसका क्या मतलब? तुम्हारा क्या विचार था और वह क्योंकर नहीं पूरा उतरा।

नन्हों : मेरा विचार इस बार उनसे हूबहू दो-चार बातें करने का था पर जिस समय मैं वहाँ पहुँची उसी समय न-जाने किस काम से इन्द्रदेव भी वहाँ पहुँच गए जिससे मुझे अपना विचार छोड़ वहाँ से भाग जाना पड़ा, क्योंकि यद्यपि गोपालसिंह तो मुझे नहीं पहिचान सकते थे पर इन्द्रदेव मुझे देखते ही फौरन पहिचान लेते तब सारा भण्डा फूट जाता, अस्तु उन्हें वहाँ देख मैंने अपना इरादा बदल दिया और केवल वह चीठी छोड़ कर चली गई। पर उतने से भी काम बखूबी हो गया यानी वह किताब मेरे हाथ में आ गई, मुझे देख और मेरी चीठियाँ पा गोपालसिंह अपने को रोक न सके और मेरा पता लगाने के लिए तिलिस्म के अन्दर घुसे जहाँ से उन्हें धोखा दे वह किताब कब्जे में कर लेना कोई मुश्किल न था।

इतना कह नन्हों ने वह सब पूरा हाल कह सुनाया जिस तरह कि वह किताब उसके हाथ लगी थी और जो हम ऊपर के बयानों में कह आए हैं। अब हमारे पाठक भी समझ गए होंगे कि दो दफे तिलिस्मी बाग में जिस औरत को गोपालसिंह ने देखा था वह यही नन्हों थी और उस बारहदरी में भी गोपालसिंह को धोखा देने वाली यही कम्बख्त थी।

अपना हाल सुनाकर अन्त में नन्हों ने कहा, ‘‘मैंने गोपालसिंह को कुण्ड में गोते खाते छोड़ दिया और यह किताब ले तिलिस्म के बाहर निकल आई। मालूम नहीं कि फिर उनका क्या हुआ। इधर लौटी और काशी जाकर आपसे मिलने का विचार किया तो मालूम हुआ कि आप तिलिस्म के अन्दर विराज रहे हैं। गोपाल और बाकी के साथियों से मिली तो वह दुःखद समाचार सुना जिसने मेरा दिल ही तोड़ दिया, पर क्या करती लाचारी थी। ईश्वर को यही मंजूर था कि मेरा दोस्त मुझे मिलकर भी बिछुड़ जाता और मेरी सखी गौहर की मेहनत वृथा जाती। लाचार दिल मसोस कर रह गई पर कम्बख्त भूतनाथ से बदला लेने की कसम खा कर उसे बर्बाद कर देने का पूरा इरादा कर लिया। इसके बाद क्या हुआ और किस तरह भूतनाथ को कैसा-कैसा नाटक दिखाया गया यह सब हाल तो आपके शागिर्द गोपाल ने आपसे कहा ही होगा?’’

राम० : हाँ कहा था, अच्छा तो वह किताब कहाँ है!

टेढ़ी निगाहों से नन्हों ने एक दफे रामचन्द्र की तरफ देखा और तब अपनी अंगिया के भीतर से एक छोटी किताब निकालकर उसकी तरफ बढ़ाई। उसने देखते ही खुशी-खुशी हाथ बढ़ा कर वह किताब ले ली और तब एक नजर देख तथा दबी हुई जुबान से यह कहकर कि ‘जरूर वही है’ उसे चूम कर माथे से लगा लिया।

नन्हों : क्यों साहब, मैंने जिस बात का बीड़ा उठाया था उसे पूरा किया न!

रामचन्द्र ने प्रसन्नता की निगाह से उसे देखते हुए कहा, ‘‘क्या अब भी इसमें कोई शक है! तुमने तो वह काम किया कि हम सभी को मात कर दिया। महाराज के हाथ में जब यह किताब पड़ेगी उनकी खुशी की हद न रहेगी, तुमको....’’ यकायक जोर की आवाज कहीं से आई—‘‘बेवकूफ!’’ जिसने सभों को चौंका दिया और सभी ताज्जुब से इधर-उधर देखने लगे। उन सीढ़ियों पर जिनकी राह उतरकर अभी-अभी ये लोग यहाँ पहुँचे थे खड़े हुए एक नकाबपोश पर सभों की निगाह पड़ी जिसका तमाम बदन काले कपड़ों से ढका हुआ था और जिसके बाएँ हाथ में एक मशाल और दाहिने में कोई गोल चीज थी जो साफ-साफ नजर नहीं आ रही थी।

यकायक इस नकाबपोश को वहाँ देख इन लोगों को इतना ताज्जुब हुआ कि कुछ देर तक किसी के मुँह से कोई आवाज न निकली, इसके बाद रामचन्द्र ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो और किसलिए यहाँ आए हो!’’ नकाबपोश जोर से हँस कर कहा, ‘‘तुम्हें इस बात का जवाब देने के पहिले मैं तुम्हारी इस नन्हों से कुछ बातें करना चाहता हूँ।’’

इतना कहता हुआ नकाबपोश तीन-चार डण्डा सीढ़ियाँ उतर आया और अब उसका पूरा लम्बा कद इन लोगों को दिखाई देने लगा। उसके काले परदे के अन्दर छिपा हुआ अपना सिर नन्हों की तरफ घुमाया और एक ऐसी आवाज में जिसमें क्रोध और व्यंग दोनों मिला था उससे कहा, ‘‘क्यों रे बेवकूफ, क्या तू समझती है कि तूने राजा गोपालसिंह के कब्जे से असली तिलिस्मी किताब निकाल ली? क्या वह नायाब चीज तुझ जैसी हरामजादियों के पास रहने लायक है? जरा उस किताब को खोल और अच्छी तरह देख तो सही!!’’

इतना कह वह नकाबपोश चुप हो गया मगर सब कोई सकते की सी हालत में उसकी तरफ देखते रह गए। किसी के मुँह से कोई आवाज न निकली। कुछ सायत तक चुप रहने के बाद वह घूमा और रामचन्द्र से बोला, ‘‘हाँ पूछो अब तुम क्या पूछना चाहते हो?’’

रामचन्द्र ने तुरन्त उससे कहा, ‘‘सबसे पहिले मैं यह जानना चाहता हूँ कि तुम कौन हो और किस नीयत से तथा किस तरह यहाँ पहुँचे?’’

उस नकाबपोश ने हंसकर जवाब दिया, ‘‘क्या यह बेहतर नहीं होगा कि मैं यही सवाल तुमसे करूँ और तुमसे पूछूँ कि तुम कौन हो और किस नीयत से यहाँ आये हो?’’

रामचन्द्र ने यह सुनते ही डपट कर कहा, ‘‘बस बस, फजूल की बातें मत करो, यह मेरे हाथ की चीज देखो और तुरत जवाब दो कि तुम कौन हो?’’

रामचन्द्र के हाथ में एक भरा हुआ दोनाली तमंचा दिखाई देने लगा जिसकी नली उस नकाबपोश की छाती की तरफ थी, पर उस नकाबपोश पर इसका जरा भी असर न हुआ बल्कि वह जोर से हँसकर बोला, ‘‘क्या तुम मुझे डराने की कोशिश कर रहे हो? पहिले अपनी फिक्र तो कर लो! मैं दोबारा पूछता हूँ कि तुम लोग कौन हो और किस नीयत से यहाँ आये?’’

राम० : हम लोग अपना परिचय किसी तरह नहीं दे सकते और तुम अगर तुरत अपना नाम नहीं बताओगे तो अपने को मौत के मुँह में पाओगे।

नकाब० : ओह, क्या तुम यह समझ सकते हो कि मैं तुम लोगों को वास्तव में नहीं जानता! गौहर और मुन्दर को भला कौन न पहिचानेगा और उस नन्हों को भी कौन न जानेगा जो अपने को होशियारों और चालाकों का सिरताज समझती है पर वास्तव में इतनी भी अक्ल नहीं रखती कि अपने दोस्त और दुश्मन की पहिचान कर सके। ऐ नन्हों, सुन और समझ, जो आदमी तिलिस्मी बाग में तुझसे मिला था वह तेरा ऐयार नहीं था बल्कि भूतनाथ का एक शागिर्द था जिसने तुझे उल्लू बनाकर असली किताब गायब कर ली और एक नकली किताब तेरे हवाले कर दी जिसको लिए हुए तू व्यर्थ की खुशी से फूली बैठी है।और भी सुन, यह आदमी जो तेरे सामने बैठा हुआ है और जिसे तू महाराज दिग्विजयसिंह का ऐयार शेरसिंह समझ रही है, शेरसिंह नहीं बल्कि दलीपशाह या उसका कोई शागिर्द है जिसने तुझे उल्लू बनाया है और तेरे पेट से सब भेद निकाल लिया है! क्या इसी अक्ल को लेकर तू भूतनाथ का सामना करना चाहती है!!

नकाबपोश की भारी आवाज उस कोठरी में गूँज गई और वहाँ बैठे सब लोग उसे सुनकर घबड़ा गए। खास कर नन्हों तो बड़े ही डर और चिन्ता के साथ कभी रामचन्द्र का मुँह और कभी उस किताब की तरफ देखने लगी जो इसके हाथ में थी। गौहर और मुन्दर डर गई थीं और रामचन्द्र किसी फिक्र में पड़ गया-सा जान पड़ता था।उन लोगों की यह हालत देख नकाबपोश ने फिर कहा, ‘‘ऐ नन्हों, अगर तेरे मन में अब भी यह शक बाकी है कि तेरे सामने का ऐयार शेरसिंह है अथवा नहीं तो इस बात को जरा सोच कि असली शेरसिंह उस नकली किताब को तुरन्त पहिचाना जाता जो तूने इस बनावटी ऐयार के हाथ में दे रक्खी है। देख, असली किताब यह है!’’

कहते हुए उस नकाबपोश ने अपने दाहिने हाथ की चीज जो एक गेंद की तरह मालूम होती थी सीढ़ी पर रख दी और कपड़ों के अन्दर से कुछ निकालकर उन लोगों को दिखाया जिस पर एक निगाह पड़ते ही नन्हों ने पहिचान लिया कि यह वही तिलिस्मी किताब है जो उसने राजा गोपालसिंह से ले ली थी। अब नन्हों की घबड़ाहट और बढ़ गई और वह बड़े शक की निगाह से रामचन्द्र की तरफ देखने लगी, मगर इसी समय रामचन्द्र जोर से बोल उठा, ‘‘भला तुम भी कैसी बात कर रहे हो जिस पर एक लौंडे को भी विश्वास नहीं हो सकता! पहिले तुम अपनी सूरत तो दिखाओ पीछे हम लोगों को धोखा देने की कोशिश करना!’’

यह सुनते ही वह नकाबपोश जोर से खिलखिलाकर हँसा। उसने वह किताब जो नन्हों को दिखाई थी पुनः अपने कपड़ों में छिपा ली और तब वह गेंद जो सीढ़ी पर रख दिया था उठा लिया, इसके बाद वह बोला, ‘‘तुम्हारी बात सुन मुझे हँसी आती है! क्या कोई अपने को भूतनाथ की निगाहों से छिपा सकता है? लो देखो मैं कौन हूँ!’

इतना कह उसने अपने चेहरे पर की नकाब उलट दी और हाथ की मशाल को नीचा किया जिसकी रोशनी में उन लोगों ने देखा कि सचमुच भूतनाथ उनके सामने खड़ा है।

भूतनाथ को देख उन लोगों का डर के मारे बुरा हाल हो गया। नन्हों तो यहाँ तक डरी और घबराई कि एकदम चीख उठी और बेतहाशा उस सुरंग के मुहाने की तरफ भागी जो वहाँ से दिखाई पड़ रहा था पर वह ऐसा भी न कर सकी। सुरंग से कुछ ही दूर ही थी कि उसका दरवाजा खुल गया और दो आदमी नंगी तलवारें हाथ में लिए वहाँ खड़े दिखाई पड़े जिनकी भयानक सूरत देखते ही वह काँप कर रुक गई, दरवाजा फिर बन्द हो गया।

भूतनाथ ने पुनः भयंकर हँसी हँस कर कहा, ‘‘तुम्हीं कम्बख्तों के मारे मेरी जिन्दगी बर्बाद हो चली थी। आज भले मौके पर एक साथ मैंने तुम सभों को पकड़ा है और तुम्हारे काले दिलों का सबूत यह सब सामान भी इसी जगह देख रहा हूँ। बस आज एक साथ ही सभों का खातमा करके निश्चिन्त हो जाऊँगा!’’

इतना कह उसने गेंद को ऊँचा किया जिसके साथ एक छोटी-सी रस्सी लगी हुई थी। इस रस्सी को उसने अपने हाथ की मसाल के साथ छुला दिया और तुरत ही वह बारुद की तरह जल उठी। भूतनाथ ने वह हाथ जिसमें गेंद था ऊँचा किया और डरावनी आवाज में बोला, ‘‘एक मिनट का समय मैं तुम लोगों को देता हूँ जिसमें भगवान को याद कर लो। इसके बाद यह गेंद फटेगा और तुम सभों को मय इन सामानो के जो यहाँ दिख रहा है जहन्नुम की तरफ रवाना कर देगा।’’

इतना कह भूतनाथ ने अपना हाथ पीछे किया और उस गेंद को कोठरी के अन्दर फेंक देना चाहा। उसी समय किसी की ‘‘हैं हैं, खबरदार ऐसा न करना!’’ की आवाज उसके कानों में पड़ी पर उसने कुछ खयाल न किया बल्कि यह सोच कर कि शायद कोई वहाँ पहुँच कर उसके काम में बाधा देना चाहता है अपने काम में फुर्ती की और जोर से वह गेंद नीचे तहखाने में फेंक दिया। उस गेंद की रस्सी सुरसुराती हुई तेजी के साथ कम होती जा रही थी और उसमें से निकलने वाले धूएँ से वह तहखाना भरने लगा था। इतना काम कर भूतनाथ घूमा और सीढ़ियाँ चढ़ बाहर निकल गया। बाहर होकर इसने जोर से उस तहखाने का पल्ला बन्द कर दिया और एक सिटकिनी जो इसी काम के लिए लगी हुई थी चढ़ा कर उसे खुलने लायक न छोड़ा। इसके बाद वह घूमा और बाहर की तरफ चला।

मगर क्या यह सही है या उसकी आँखें उसे धोखा दे रही हैं! उसके सामने यह कौन खड़ा है! यह तो वही शैतान मालूम होता है जिसने एक बार पहिले भी उसके सामने प्रकट होकर ‘रोहतासमठ के पुजारी’ के नाम से अपना परिचय दिया था। यह यहाँ कैसे आ पहुँचा!!

लेकिन नहीं, भूतनाथ की आँखों ने उसके साथ दगा नहीं की थी। वास्तव में उसके सामने इस समय तिलिस्मी शैतान ही खड़ा था जिसकी आँखों के गड्हे में से डरावनी चमक निकल रही थी और हाथ की मूठ से चिनगारियों की बेतरह फुलझड़ी-सी छूट रही थी। भूतनाथ उस आसेब को पुनः अपने सामने पा यहाँ तक डरा और घबराया कि एकदम सकते की-सी हालत में होकर चुपचाप खड़ा रह गया।

तिलिस्मी शैतान ने गुस्से-भरी काँपती हुई आवाज में कहा, ‘‘शैतान के बच्चे! कम्बख्त!! तूने यह क्या किया? क्या तू अपने चारों तरफ नहीं देखता कि यह सब क्या पड़ा हुआ है! क्या जब तेरे बम के गोले की आग इन बारूद के थैलों और गोलों पर पड़ेगी तो इस सुन्दर इमारत का एक जर्रा भी साबुत रहने पावेगा!! कम्बख्त, तू खुद भी जायेगा और अपने साथ-साथ इस कीमती इमारत को भी जो दुनिया में अपना आप सानी थी चौपट करता जायगा! यही नहीं, कितनी ही जानों को होम करेगा!’’

भूतनाथ यह सुनते ही यकायक चौंक पड़ा और जैसे ही उसकी निगाह उन तोपों, गोलों और बारूद के थैलों पर पड़ी जो उसके चारों तरफ पड़े हुए थे तो उसके मुँह से एक चीख निकल पड़ी। वह इतना डरा और घबराया कि एकदम बदहवास हो गया। अपने हाथ की मशाल उसने जोर से एक तरफ फेंकी और तब बेतहासा वहाँ से भागा।

मगर भाग कर भी कहाँ जा सकता था? अभी कोठरी और दालान पार कर सामने पड़ने वाली सीढ़ियाँ ही उतर रहा था कि इमारत के भीतर से भयानक गड़गड़ाहट की आवाज उसके कानों में आई। लपक कर आगे बढ़ा और सामने का मैदान पार करना चाहा, पर न हो सका, कानों के परदे फाड़ डालनेवाली एक आवाज इमारत के अन्दर से आई।

सामने ही पानी का एक कुण्ड था, लपककर भूतनाथ उसके पास पहुँचा और उसके अन्दर कूद पड़ा, इसके साथ ही उसको तनोबदन की सुध न रह गई।

यकायक इमारत के अन्दर से गोलों के फटने और बारूद के उड़ने की भयानक आवाजें आने लगीं। दम भर बाद ही पुनः बड़े जोर की एक आवाज हुई। उस जगह की समूची छत बड़े भयानक शब्द के साथ फट गई। आग का एक बड़ा ही ऊँचा डरावना फौव्वारा आसमान की तरफ उठा। समूची इमारत बड़े जोर से काँपी और उड़ गई।

सुन्दर लोहगढ़ी जो कुछ ही सायत पहिले अपनी मजबूती और सुन्दरता के लिए सानी नहीं रखती थी एकदम चौपट हो गई। उसका एक-एक खम्भा, एक-एक ईंट, एक-एक कोना उड़ गया। कुछ ही शायत पहिले जो एक खिलौने की तरह सुन्दर मालूम हो रही थी अब एक खण्डहर हो गई जिसके बीच से आग की लपटें उठ रही थीं।

हाय भूतनाथ, यह तैंने क्या किया!!

।। सत्रहवाँ भाग समाप्त ।।


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