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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


दिन लगभग तीन पहर से ऊपर ढल चुका है। जंगल, मैदान, पहाड़ और खेत धूप और धूल से झुलस रहे हैं और सड़कों पर संध्या के पहिले ही अपना सफर खतम करने की जरूरत रखनेवाले मुसाफिरों के सिवाय और कोई चलता-फिरता नजर नहीं आता। शहरों के लोग तरी और ठंडक की खोज में तंग गलियों में बने चबूतरों या ऊँचे और अँधेरे मकानों की निचली मंजिलों में पड़े हैं और देहात के लोग बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे खाट डाले लेटे हुए बिना सूर्यास्त का समय आए उठने की इच्छा नहीं कर रहे हैं जब तक कि उनकी जरूरत उन्हें ऐसा करने पर मजबूर न करे।

परन्तु अपने पाठकों को लेकर हम जिस स्थान पर चल रहे हैं वहाँ ऐसे समय में भी गर्मी और लू की तकलीफ बिल्कुल नहीं है और तपिश तो एकदम नहीं के बराबर है।

एक लम्बे-चौड़े बाग की हवा, जिसके ओर-छोर का कुछ ठिकाना नहीं लग रहा है, चारों तरफ बने और छूटते हुए सैकड़ों ही फौव्वारों की तरी की बदौलत इस गर्मी के वक्त भी काफी ठण्डी हो रही है और घने तथा गुँजान पेड़ों की बदौलत वहाँ धूप का भी जोर बिल्कुल नहीं होता है। इस बाग के बीचे-बीच में संगमर्मर की बारहदरी है जिसकी कुर्सी जमीन से एक पुरसा ऊँची है और इस समय उसके ऊपर पहुँचने वाली पतली सीढ़ियों पर से न-जाने कहाँ से आता हुआ बहुत-सा पानी बहकर नीचे पहुँच उस नाले में मिल रहा है जिसका पानी छोटी-बड़ी सैकड़ों नालियों में से होता हुआ उस समूचे बाग में फैला हुआ है और इस गर्मी के मौसम में भी बाग को एदकम हराभरा और तर बनाए हुए है। इस बारहदरी की छत पर भी चारों तरफ कई फव्वारे बने हुए हैं जिनकी चक्करदार टूटियों से निकला हुआ पानी चारों तरफ बहुत ही हलकी बूँदों में फैल कर नीचे को गिरता हुआ खासा बरसात का मजा दे रहा है और साथ ही उस बारहदरी को भी इतना ठण्डा बनाए हुए है कि घोर गर्मी का मौसिम और तीन पहर का समय होते हुए भी वहाँ एकदम तरी है। धूप की किरणें जब पानी से तर इस बारहदरी की चमकदार सुफेद दीवार, सीढ़ियों और खम्भों पर पड़ती हैं तो यह बारहदरी शीशे की तरह चमक उठती है और बड़ी ही सुन्दर मालूम होती है।

धूप, लू और गर्द का मारा एक नौजवान मुसाफिर जब इस बाग में पहुँचा तो यकायक चौंक कर ताज्जुब में पड़ गया कि वह कहीं स्वर्ग में तो नहीं आ पहुँचा है। बाग की चहारदीवारी डाँकते ही यह एक ऐसा सुहावना दृश्य और बदला हुआ मौसिम उसकी आँखों के सामने पड़ा कि वह अपनी सब थकावट और परेशानी भूल गया और एक गुँजान पेड़ के नीचे खड़ा हो एकटक उस बारहदरी की तरफ देखने लगा जो इस समय एक खिलौने की तरह उसके सामने नजर आ रही थी और जिस पर से गिरती हुई पानी की बौछारें और उनके ऊपर पड़ने वाली धूप की किरणें तरह-तरह के रंगों वाले पचासों इन्द्र-धनुष पैदा कर उसे देवताओं का आवास या परियों का क्रीड़ास्थल-सा बना रही थीं।

बारहदरी की शोभा देखता हुआ वह नौजवान यकायक चिहुँक पड़ा और तब बड़े गौर से कुछ देखने लगा। अब हमने भी देखा कि उसकी निगाह एक हसीन नाजनीन पर पड़ रही है जो उस बारहदरी के पीछे की तरफ से निकल कर इसी तरफ आ रही थी। इसी समय नौजवान के मुँह से निकला, ‘‘वही तो है।’’ तब उसने अपने को पेड़ों की झुरमुट के अन्दर और भी अच्छी तरह छिपा लिया पर अपनी निगाह उस पर कायम रक्खी।

उस औरत के पीछे-पीछे एक हिरन का बच्चा भी नजर आया जो उसके साथ बहुत हिला-मिला हुआ था। वह औरत एक गेंद के साथ खेलती हुई बारहदरी में इधर-उधर घूमने लगी और वह हिरन का बच्चा भी उसके पीछे-पीछे दौड़ने और किलोल करने लगा।

कभी गेंद को जमीन पर पटक कर उछालती कभी हवा में उछाल कर लोकती, कभी जमीन पर ढुलका उसके पीछे-पीछे हिरन के साथ-साथ दौड़ती, या कभी हिरन को उसके पीछे दौड़ाती हुई वह औरत इधर से उधर घूमने लगी। कभी-कभी वह कहीं रुक जाती, किसी फूल को तोड़ती, सूँघती या जूड़े अथवा बालों को खोंसती, कभी फुहारे की टूटी से निकल कर मेंह की तरह गिरने वाले पानी से खेलती, कभी मुलायम घास नोच कर अपने हिरन को खिलाती या कभी संगमर्मर के उन बहुत-से चबूतरों में से जो मुनासिब जगहों में बने हुए थे किसी एक पर बैठ उस हिरन से विनोद करती या उसका तकिया बना अधलेटी-सी हो किसी गौर में डूबती हुई वह औरत इस समय इस नौजवान की निगाहों में बिल्कुल एक परी-सी जान पड़ती थी। उसकी पतली साड़ी जिसको वह बड़ी लापरवाही के साथ अपने बदन पर डाले हुए थी कभी हवा के झोंकों से इधर-उधर उड़ जाया करती थी या कभी-कभी पानी से तर होकर उसके बदन के साथ इस तरह से चिमट जाया करती थी कि मन को बेतहाशा खींच लेने वाला बदन का गुलाबी रंग फट पड़ता और अंग-प्रत्यंग झलकने लग जाते थे। पेड़ों के अन्दर छिपे हुए इस नौजवान का मन क्षण-क्षण भर में हाथ से निकला जा रहा था और वह बड़ी मुश्किल से अपने को सम्भाल रहा था।

यकायक कुछ देख वह हिरन का बच्चा चौंका और दौड़ कर उस औरत की गोद में आकर छिप गया जिसने उसे उठा कर अपनी छाती से भरजोर दबा लिया और तब ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखते हुए यह जानने की कोशिश करने लगी कि किस चीज को देखकर वह डरा है।

मालूम होता है कि अपने मन की बेबसी के कारण वह नौजवान अपने छिपने की जगह से कुछ बाहर निकल पड़ा था क्योंकि सब तरफ से घूमती-फिरती आकर उस औरत की निगाह उसी ओर को रुकी जिधर वह था और वहाँ एक आदमी को छिपा देख उसके मुँह से ताज्जुब और डर की एक आवाज निकल पड़ी। जिस संगमर्मर के चबूतरे के सहारे उठंगी हुई वह पड़ी थी उसका सहारा उसने छोड़ दिया और उठ खड़ी हुई, तब एक निगाह दुबारा उस तरफ डाल कर फुर्ती से चलती हुई उस बारहदरी की तरफ बढ़ी।

नौजवान अपनी गलती समझ गया। अब छिपना फिजूल था। वह पेड़ों की आड़ से बाहर निकल आया और खुद धीरे-धीरे उसी बारहदरी की तरफ बढ़ा। उस औरत ने जो घूम-घूमकर अपने पीछे देखती भी जाती थी उसको पीछा करता पा अपनी चाल तेज कर दी और दौड़ती हुई बारहदरी की सीढ़ियाँ चढ़ उसके ऊपर पहुँच गई जहाँ से वह डर और घबराहट मिली निगाहों से उस नौजवान को देखने लगी जो उसी तरफ को आ रहा था, जब वह पास आने पर भी रुका नहीं बल्कि उसका इरादा सीढ़ियाँ तय कर बारहदरी के ऊपर किसी तरह की तकलीफ पहुँचावे उस औरत के मुँह से डर की चीख निकल गई मगर उसी समय उस नौजवान ने कहा, ‘‘डरो मत मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ बल्कि तुम्हारी मदद करने के लिए यहाँ आया हूँ।’’

इतना सुनते ही वह औरत रुक गई और गौर से नौजवान की सूरत देखने लगी मगर मुँह से कुछ न बोली। कुछ ठहरकर नौजवानों ने फिर कहा, ‘‘तुम्हारे ही लिए बहुत दूर से इस धूप, लू गर्मी में सफर करता हुआ मैं आ रहा हूँ। तुम डरो नहीं बल्कि अपना हाल मुझसे कहो, ‘‘मैं सब तरह से तुम्हारी मदद करूँगा।’’

कुछ डरते-डरते औरत ने कहा, ‘‘मैं कैसे समझूँ कि जो कुछ आप कह रहे हैं वह सही है आपके हाथों से मुझे तकलीफ नहीं मिलेगी? आप कौन हैं, आपका नाम क्या है, आप कहाँ से आ रहे हैं तथा इस तिलिस्म के अन्दर आप क्योंकर आ पहुँचे?’’

नौजवान ने जवाब दिया, ‘‘वह सबकुछ मैं बताऊँगा पर पहिले मैं तुम्हारा हाल सुन लेना चाहता हूँ।’’

एक लम्बी साँस लेकर उस औरत ने कहा, ‘‘मुझ बेबस दुखिया का हाल ही क्या सिवाय इसके कि मुद्दत से इस जगह बन्द हूँ और तकलीफें उठा रही हूँ।’’

नौज० : फिर भी अपना और अपने माता-पिता का नाम, रहने का पता ठिकाना, और किस तरह इस जगह आ फँसी यह सब तो बता ही सकती हो।

औरत : जरूर, मगर इसको बताने से भी फायदा क्या होगा?

नौज० : मैं कह तो चुका कि तुम्हारी मदद करूँगा और तुम्हें इस जगह से छुड़ाऊँगा।

औरत : अगर वास्तव में इच्छा है तो मेरा नाम-पता-परिचय जानने की जरूरत? मैं चाहे कोई भी होऊँ या किसी की भी लड़की होऊँ!

नौज० : बता देने से क्या कोई हर्ज होगा?

औरत : जब आप मेरी मदद करना ही चाहते हैं तो सिर्फ एक बेकस, गरीब दुखिया समझ कर कीजिए।

नौज० : खैर अगर तुम नहीं ही बताना चाहती हो तो मैं उसके लिए जिद्द भी नहीं करूँगा। मैं तुम्हें छुड़ाकर जहाँ तुम कहोगी पहुँचा दूँगा और तुमसे इस संबंध में कुछ भी न पूछूँगा, मगर मेरी मदद के लिए इतना तो तुमको बताना होगा कि तुम इस तिलिस्म में जहाँ अनजान का पहुँचना बड़ा ही कठिन है कैसे गिरफ्तार हो गईं या किस राह से यहाँ पहुँची? यह जान लेने से मुझे तुम्हारे छुड़ाने में विशेष कष्ट नहीं करना पड़ेगा।

औरत : अगर मुझे यह विश्वास हो जाय कि आप मुझे यहाँ से छुड़ा लेने की सामर्थ्य रखते हैं तो जरूर यह सब हाल आपको बताऊँगी, मगर यह उतना सहज काम नहीं है जितना शायद आप समझे हुए हैं क्योंकि अगर ऐसा होता तो आज के कहीं पहिले मैं इस कैदखाने से निकल गई होती।

नौज० : अगर तुम्हारी खुद इस जगह रहने की इच्छा न हो जिसे तुम कैदखाना कहती हो पर मुझे स्वर्ग का टुकड़ा नजर आ रही है, तो कम-से-कम मुझे इसमें कोई तरद्दुद दिखाई नहीं पड़ता। जिस राह से मैं आया हूँ वह अभी तक खुली है और मेरे साथ-साथ तुम भी बखूबी उसी तरफ निकल जा सकती हो।

औरत : (लाचारी की मुद्रा से सिर हिलाकर) नहीं, सो नहीं हो सकता। न तो मैं उस राह से बाहर जा सकती हूँ और न अब आपको ही वह राह खुली हुई मिलेगी।

नौज० : (आश्चर्य से) सो क्यों?

औरत : सो मैं अच्छी तरह जानती हूँ। आज के पहिले भी कई दफे कई नौजवान यहाँ तक पहुँचे और उन्होंने मुझे यहाँ से निकाल ले जाने का दावा किया पर सभी नाकामयाब हुए। हर मर्तबे वह राह जिससे वे यहाँ आएँ थे उन्हें बन्द मिली जिससे मैं तो क्या वे खुद भी बाहर निकल न सके और आज तक इसी जगह कहीं बन्द अपनी किस्मत को झँख रहे होंगे, वही हालत आपकी भी होगी और यही जान कर मैं कहती हूँ कि अब न तो आप मुझे छुड़ा सकते हैं और न खुद ही इस जगह के बाहर जा सकते हैं।

नौज० : (ताज्जुब से) क्या आज के पहिले भी कई आदमी इस जगह आ चुके हैं?

औरत० : जी हाँ।

नौज० : (सिर हिला कर) नहीं, सो कभी नहीं हो सकता, यह तिलिस्म है और इसके अन्दर किसी का आना बहुत ही कठिन है।

औरत : आपका कहना ठीक हो सकता है मगर मैं भी जो कह रही हूँ वह गलत नहीं है।

नौज० : लेकिन मुझे विश्वास नहीं होता।

औरत : तब लाचारी है, मैं अपनी बात के सबूत में सिवाय इसके और क्या कह सकती हूँ कि आप अगर चाहें तो इस बात की जाँच कर लीजिए कि जिस राह से आप यहाँ आए वह अभी तक खुली है या बन्द हो गई। आप खुद ही जान जाएँगे कि मेरा कहना कहाँ तक सही है।

नौज० : खैर अगर वह राह बन्द भी हो गई होगी तो मैं विश्वास दिलाता हूँ कि उसे फिर खोल लूँगा और अगर किसी कारण से वह नहीं ही खुले तो मुझे और भी कितने ही रास्तों का हाल मालूम हो जिनमें से किसी को भी खोल कर मैं तुम्हें इस जगह से बाहर ले जा सकता हूँ

औरत : आपकी बात सुनकर मुझे ताज्जुब होता है। इस तिलिस्म के रास्तों के बारे में इतनी जानकारी रखने वाला अगर कोई हो सकता है तो सिर्फ एक आदमी और केवल वही मुझे यहाँ से छुड़ा भी सकता है। अगर आप ही वह आदमी हैं तब तो आपका कहना सही है नहीं तो मैं यही कहूँगी कि आप या तो गलत कह रहे हैं और या मुझे धोखा देना चाहते हैं।

नौज० : वह कौन आदमी है?

औरत : जमानिया के कुंअर गोपालसिंह!

नौज० : (ताज्जुब करता हुआ) तुम क्योंकर जानती हो कि वह तुम्हें यहाँ से छुड़ा सकते हैं?

औरत : यह मैं बहुत अच्छी तरह जानती हूँ और इसी से पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ कि अगर आप कुंअर गोपालसिंह नहीं हैं तो फिर अपने को भी आज से मेरी ही तरह इस तिलिस्म का कैदी समझिए और फिर बाहर की दुनिया पुनः देखने की आशा को हमेशा के लिए तिलांजुली दे दीजिए।

नौज० : (कुछ देर तक चुपचाप कुछ सोचने के बाद) मैं गोपालसिंह ही हूँ।

औरत : (सिर हालाकर) मगर मुझे विश्वास नहीं होता।

नौज० : तब तो तुम्हारी तरह मैं भी कहूँगा कि लाचारी है।

औरत : खैर अगर आप सचमुच कुंअर गोपालसिंह हैं तो इसका सबूत तो बहुत जल्द मिल सकता है, सिवाय उनके और कोई इस बारहदरी के ऊपर नहीं आ सकेगा, अगर आप वे ही हैं तो सीढ़ियाँ चढ़कर मेरे पास आइए।

नौज० : यह क्या मुश्किल है, मैं तो यह करने वाला ही था पर तुम्हारी बातों ने रोक लिया था, मैं अभी आया।

इतना कह उस नौजवान ने बारहदरी की सीढ़ियों पर पर पैर रक्खा और ऊपर चढ़ने लगा, पर इस काम को जितना सहज उसने समझा हुआ था वैसा न पाया। हम ऊपर लिख आए हैं कि इस बारहदरी की सीढ़ियों पर से भी ऊपर कहीं से बहता हुआ पानी आ रहा था जो नीचे के नाले में मिल जाता था।जैसे ही नौजवान ने पहिली सीढ़ी पर पैर रक्खा वैसे ही उस पानी का जोर बढ़ गया, दूसरी सीढ़ी पर पैर रखते ही जोर और बढ़ा। तीसरी पर जाने से और भी तेजी आई, मगर उस नौजवान ने इसका कुछ खयाल न किया और बराबर ऊपर चढ़ता ही गया। परन्तु ज्यों-ज्यों वह ऊपर उठता जाता था त्यों-त्यों पानी का वेग बढ़ता जाता था यहाँ तक कि ऊपर से तीन-चार सीढ़ियाँ जब रह गईं तो पानी इतनी जोर से आने लगा कि मालूम होता था मानों एक नदी बहती हुई चली आ रही है जिसके जोर के सामने पैर टिकाना कठिन था। उस नौजवान को यह देख ताज्जुब हुआ और कुछ अन्देशा भी मालूम हुआ और वह रुक गया। ऊपर की तरफ वह औरत खड़ी गौर, आशंका, आशा और कौतूहल मिले भाव से देख रही थी कि अब क्या होता है। नौजवान को रुकता पा उसके चेहरे से निराशा की एक झलक निकल पड़ी जिसे नौजवान ने लक्ष्य किया और तब हिम्मत कर उसने पुनः एक सीढ़ी पर पैर रक्खा पर वह पैर रखना गजब हो गया। बड़े ही जोर से पानी का एक झोंका नौजवान की तरफ आया और अगर वह तेजी से साथ दो-तीन सीढ़ियाँ नीचे न उतर गया होता तो इसमें शक नहीं कि वह पानी के बहाव के साथ-साथ लुढ़कता-लुढ़कता नीचे आ गिरता और अपने हाथ पाँव तुड़वा डालता, मगर उसके नीचे आने के साथ ही पानी की तेजी भी कम पड़ गई और नौजवान कुछ सोचता हुआ और भी नीचे उतर गया तो और भी कम होकर करीब-करीब वैसी ही हो गई जैसी की शुरू में थी। वह सीढ़ियों से हटकर खड़ा हो गया और ताज्जुब के साथ ऊपर की तरफ देखने लगा।

औरत : कहिए अब आपको विश्वास हुआ कि जो कुछ मैं कहती थी वह सही था?

नौज० : क्या जब कोई ऊपर आना चाहता है तब-तब ऐसा ही होता है?

औरत : मेरे सिवा जब-जब कोई दूसरा आना चाहता है तब ऐसा ही होता है।

नौज० : मगर तुम बेखटके जब चाहे आ-जा सकती हो?

औरत : हाँ।

नौज० : अच्छा तो तुम ही नीचे आओ।

औरत० : इसके लिए क्षमा करें, जब तक मैं आपका ठीक-ठीक परिचय न पा जाऊँ ऐसा नहीं कर सकती, न-जाने आप कौन हैं और मेरे साथ किस तरह का बर्ताव करें।

नौज० : मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ किसी तरह की चालबाजी तुम्हारे साथ न करूँगा और तुम्हें यहाँ से निकाल कर जहाँ कहोगी पहुँचा दूँगा।

औरत : पहिले जब आपने यही बात कही थी तो मुझे कुछ थोड़ा-बहुत विश्वास हो भी सकता था कि आप सही कहते होंगे पर अब आपकी आँखों से आपकी अभी वाली हालत देखकर मैं भला क्योंकर मान सकती हूँ कि आप मुझे इस तिलिस्म से छुड़ा ले जाने की सामर्थ्य रखते होंगे।

जब आप एक मामूली-सी तिलिस्मी कार्रवाई से घबरा कर लौट गए तो यह किस बूते पर कहते हैं कि मुझे छुड़ा लेंगे? मैंने आपसे कहा न कि सिवाय कुँवर गोपालसिंह के और कोई भी मुझे इस जगह के बाहर निकाल नहीं सकता।

नौज० : मगर मैंने भी तो कहा न कि मैं ही गोपालसिंह हूँ।

औरत : (सिर हिलाकर) कदापि नहीं, अगर आप कुँवर साहब होते तो इस तरह सीढ़ियों पर से ही वापस न लौट जाते बल्कि मुझे साथ लेकर नीचे उतरते।

नौज० : क्या तुम उन्हें पहिचानती हो?

औरत : नहीं।

नौज० : तब उन्हें जान किस तरह सकोगी?

औरत : उनके करतब से! अगर आप कहते हैं कि आप वे ही हैं तो इसका सबूत मुझे दीजिए और यहाँ ऊपर तक आकर दिखाइए कि आप कुछ कुदरत रखते हैं तथा वास्तव में कुँअर साहब ही हैं, नहीं तो मैं यही समझूँगी कि आप कोई धूर्त ऐयार हैं और मुझे धोखे में डालकर अपना कोई मतलब सिद्ध करना चाहते हैं।

नौज० : (तैश में आकर) अच्छी बात है, तो ऐसी हालत में जरूरी हो गया कि मैं ऊपर आकर ही तुम्हें बताऊँ कि मैं कौन हूँ!

इतना कह नौजवान कुछ और भी हट गया और कुछ दूरी पर बने हुए संगमर्मर के एक चबूतरे पर जा बैठा। एक छोटी किताब उसके जेब में थी जिसे उसने निकाला और कुछ पन्ने उलट-पलट करने बाद एक जगह बड़े गौर से पढ़ने लगा। उधर वह औरत भी उसी जगह पहिली सीढ़ी के पास बनी एक छोटी चौकी पर बैठ गई और ठुड्डी हथेली पर रख स्थिर दृष्टि से उसकी तरफ देखने लगी। बारहदरी की छत से गिरने वाले फौव्वारों की नन्हीं बूँदें उसके बदन से चिपकी जा रही थीं पर उसे इस बात का खयाल न था और वह एकदम स्थिर होकर बैठी विचित्र निगाहों से उस नौजवानों की तरफ देख रही थी जो बिना इसकी तरफ एक दफे भी नजर उठाये एकदम उस किताब में डूबा हुआ था।

लगभग घड़ी-भर के वह नौजवान किताब पढ़ने में लगा रहा और इस बीच में उसने एक दफे भी उस औरत की तरफ निगाह न उठाई मगर अब यकायक उसने किताब बन्द कर दी और उसे जेब के हवाले करते हुए सिर उठाकर उस औरत की तरफ देखा जिसकी निगाह एकदम बराबर उसी के ऊपर गिर रही थी। चबूतरे से उठकर वह नौजवान फिर उन्हीं सीढ़ियों के पास पहुँचा और बोला, ‘‘मुझे तुम्हारे पास तक पहुँचने की तरकीब मालूम हो गई!’’

उस औरत ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘मैं यह देखने के लिए उत्सुक हूँ कि आप का कहना कहाँ तक सही है!’’ इतना कह उसने लापरवाही के साथ एक अंगड़ाई ली और तब अपनी जगह से उठ खड़ी हुई। नौजवान उस जगह से हटकर बारहदरी के पीछे की तरफ चला और वह औरत भी ऊपर घूमती हुई उसे अपनी निगाहों में रक्खे रही।

हम ऊपर कह आए हैं कि इस बारहदरी की कुर्सी जमीन से करीब पुर्सा–भर ऊँची थी और उस पर जाने के लिए एक तरफ सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। जब नौजवान उस बारहदरी के ठीक पीछे अर्थात् सीढ़ियों की दूसरी तरफ वाले हिस्से में पहुँचा तो रुक गया और गौर से उस बारहदरी के तरफ देखने लगा। एक पुर्से की ऊँचाई पर जाकर एक छजली उस बारहदरी के खम्भों की जड़ से लगभग एक बालिश्त नीचे-नीचे चारों तरफ घूम गई थी और इस समय उसी की तरफ उठी हुई नौजवान की आँखें कुछ ढूँढ़ रही थीं तथा आखिर उन्होंने उस चीज को खोज ही निकाला जिसकी तलाश में थीं। वह एक आले का निशान था जो संगमर्मर की सुफेद दीवार में बहुत ही हल्का दिखाई पड़ रहा था। नौजवान उसे देखते ही उसके पास चला गया और उसके नीचे पहुँच दीवार के ऊपर अपना हाथ फेरने लगा। संगमर्मर की दीवार साफ चिकनी सतह पर एक जगह से कुछ उभरी हुई थी जो केवल आँख से देखने से जान न पड़ती थी पर हाथ से टटोलने से उसका पता लगता था। नौजवान ने गौर करके मालूम किया कि एक पत्थर का छोटा तिकोना टुकड़ा कुछ उभरा हुआ है। उसने उसको जोर से दबा दिया और वह करीब दो अंगुल के भीतर धँस गया, इसके साथ ही उस जगह के ऊपर बना हुआ जो आले का निशान था उसका भीतरी हिस्सा आगे की तरफ झूल गया और वहाँ पर डेढ़ हाथ ऊँची और करीब दो हाथ चौड़ी एक सुरंग भी दिखाई पड़ने लगी। इतना कर वह नौजवान उस तरफ से हटा और पुनः बारहदरी के सामने उसकी सीढ़ियों के पास जा पहुँचा।वह औरत भी जो यह देखने के लिए कि यह किधर जाता या क्या करता है उसके साथ-साथ ऊपर ही ऊपर घूम रही थी सीढ़ी के पास पहुँची और उसको वहाँ रुक कर ऊपर की तरफ देखते पा बोली, ‘‘यह आपने क्या किया और इसका नतीजा क्या निकलेगा? नौजवान ने जवाब दिया, ‘‘इसका फल यह होगा कि जो पानी पहिले सीढ़ी की राह गिरकर मुझे ऊपर पहुँचने में रुकावट डालता था वह अब नाली की राह से अलग बाहर जा गिरेगा। मैं अगर चाहूँ तो पानी के इस बहाव को एकदम से रोक भी सकता हूँ पर उसमें कुछ देर लगेगी।’’

इतना कह उस नौजवान ने सीढ़ी पर पैर रक्खा और ऊपर चढ़ने लगा। उस औरत ने आश्चर्य के साथ देखा कि अब सीढ़ी से गिरने वाले पानी की तेजी बढ़ नहीं रही है बल्कि पहले से भी कम हो गई है, साथ ही बारहदरी के पीछे की तरफ से पानी के गिरने की आवाज आने लगी है। यह देख वह पीछे की तरफ घूमी और वहाँ जाकर देखते ही उसे मालूम हो गया कि जो नाली नौजवान ने खोली थी उसकी राह बड़े जोर से पानी गिर रहा है। कुछ सायत तक वह इस विचित्र बात को देखती रही और तब सीढ़ी की तरफ लौटने के लिए घूमी पर उस नौजवान को अपने पीछे ही खड़ा पाया। वह उसे देखते ही यह कहती हुई उसके पैरों पर गिर पड़ी, ‘‘बेशक आप कुँअर साहब के सिवाय और कोई नहीं है!’’ और उसकी आँखों से बेहिसाहब आँसू गिरकर उस नौजवान के पैर भिगोने लगे।

राजा गोपालसिंह ने, क्योंकि यह नौजवान वास्तव में वे ही थे, उस औरत को उठाया और दम-दिलासा देकर शान्त किया, तब इसके बाद बोले, ‘‘अब तो तुम्हें यह भी विश्वास हो गया होगा कि मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ और साथ ही तुम्हें यहाँ से छुड़ा ले जाने की सामर्थ्य भी रखता हूँ, अस्तु अब तुम बेखटके अपना हाल मुझे सुना सकती हो।’’ उसने जवाब दिया, ‘‘बेशक मैं अब सब हाल बेखटके आपको सुना सकती हूँ। मगर वह बहुत लम्बा–चौड़ा किस्सा है और साथ ही कोई सुखद कहानी भी नहीं है। इसलिए अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं इस समय बहुत थोड़े में अपनी कथा सुना दूँ, फिर कभी मौका होने पर खुलासा सुना दूँगी। दूसरे इस बारहदरी के फव्वारों के कारण आपका बदन और कपड़े भी गीले हो रहे हैं, ज्यादा देर तक यहाँ रहने से शायद आपके दुश्मनों की तबीयत....’’

गोपालसिंह ने हँसकर कहा, ‘‘नहीं, इस बात का कोई अन्देशा तुम न करो, इस गर्मी, धूप और लू में यह बारहदरी और यहाँ के फव्वारे स्वर्ग-तुल्य मालूम हो रहे हैं, फिर भी मैं देर तक यहाँ रहना पसन्द नहीं करता क्योंकि यह आखिर तिलिस्म है जहाँ कदम-कदम पर खतरा है। तुम अपना नाम बताओ और यह भी कहो कि किस सबब से यहाँ आईं, बाकी हाल मैं किसी निश्चिन्ती के मौके पर सुनूँगा।’’

औरत पीछे रक्खी हुई चौकी की तरफ बढ़कर बोली, ‘‘तो आप इस चौकी पर आकर बैठ जाएँ, यहाँ पानी नहीं पड़ता है, और मैं संक्षेप में अपना हाल कह सुनाती हूँ।’’

बारहदरी की सतह के बीचोंबीच में तीन-चार हाथ का एक बहुत ही खूबसूरत कुंड बना हुआ था जो बहुत गहरा नहीं जान पड़ता था और जिसके चारों कोनों पर चार छोटी-छोटी संगमर्मर की चौकियाँ बनी हुई थीं।

इन्हीं में से एक की तरफ उस औरत ने इशारा किया था। गोपालसिंह उसके कहे मुताबिक उस चौकी पर जाकर बैठ गए और वह औरत हाथ जोड़ सामने खड़ी हो गई। गोपालसिंह ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो और किसकी लड़की हो?’’

औरत : मैं रोहतासगढ़ की रहने वाली और वहाँ के नामी महाजन गोविन्ददास की लड़की हूँ।

गोपाल : रोहतासगढ़ की रहने वाली! तब यहाँ कैसे आ पहुँची?

औरत : वहाँ के कुमार दिग्विजयसिंह की बुरी नजर की बदौलत! उन्होंने न-जाने मेरी फूटी शक्ल में क्या देखा कि मुझ पर आशिक हो गए और मुझे अपने महल में डालना चाहा। मेरी जात दूसरी थी इससे खुले आम न तो वे इस काम को कर ही सकते थे और न मेरे माँ-बाप ही इस बात को मंजूर कर सकते थे, अस्तु उन्होंने अपने बदमाशों द्वारा मुझे मेरे घर से चुरा मँगवाया और अपने एक बाग में रखवा दिया। जब मैंने उनका बुरा प्रस्ताव स्वीकार न किया तो पहिले तो खफा होकर जान से मार डालने की धमकी दी और तब मैं न मानी तो तिलिस्म में बन्द कर दिया। एक मुद्दत से मैं इसी कैद में पड़ी हूँ और ईश्वर से मनाया करती हूँ कि या तो मुझे मौत दे दे और या किसी दयालु को भेजे जो मुझे इस कैद से छुड़ावे।

इतना कहकर वह रोने लग गई। गोपालसिंह ने दम-दिलासा देकर उसे शान्त किया और तब पूछा, ‘‘क्या दो दफे तिलिस्मी बाग में तुम्हीं ने आकर अपने चक्रव्यूह में कैद होने का हाल चीठी द्वारा बताया था?’’

बड़ी मुश्किल से उस औरत ने अपने को सम्हाला तब कहा, ‘‘जी हाँ, मुझे खोजता हुआ मेरा भाई-न-जाने किस तरह यहाँ तक आ पहुँचा और उसकी जुबानी मुझे मालूम हुआ कि यह जमानिया के तिलिस्म का चक्रव्यूह नामक स्थान है जहाँ मैं कैद की गई हूँ। उसको किसी तरह यहाँ का कुछ हाल मालूम हो गया था और उसका विश्वास था कि मुझे लेकर यहाँ से बाहर हो जायगा पर ऐसा न हो सका, उसी की बताई राह से दो बार हम लोग यहाँ से निकल के एक बाग में पहुँचे जो मालूम होता है कि वही है जिसे आप अपना तिलिस्मी बाग कहते हैं पर हर बार गिरफ्तार हो गए और फिर यहीं पहुँचा दिए गए।

गोपाल : गिरफ्तार करके फिर यहाँ पहुँचा दिए गए! सो कैसे और किसके द्वारा?

औरत : दिग्विजयसिंह के कुछ मददगार आपकी रियासत बल्कि आपके महल में मौजूद हैं, मैं समझती हूँ उन्हीं का यह काम होगा।

गोपाल : (और भी ताज्जुब से) क्या तुम उन्हें जानती हो?

औरत : मैं तो उनका नाम नहीं जानती पर मेरा भाई अवश्य उन्हें पहिचानता था, अफसोस कि इस बार बेचारा किसी दूसरी जगह कैद कर दिया गया नहीं तो....

इतना कहते-कहते उस औरत की आँखें पुनः डबडबा आईं पर कोशिश करके उसने अपने को सम्हाला और कहने लगी—

औरत : अपने भाई के साथ आते-जाते मैंने इतना समझ लिया था कि यह बाग उस जगह से ज्यादा दूर नहीं है।अस्तु पहिली बार मैंने एक पत्र में यह लिख कर कि ‘मैं चक्रव्यूह में कैद हूँ’ पानी में बहा दिया था कि शायद किसी के हाथ लग जाय, अब मालूम नहीं कि वह चीठी किसी को मिली या नहीं।

गोपाल : हाँ, मुझे वह पुर्जा मिला था, मगर कोई निश्चय न होने के कारण मंह कुछ कर न सका लेकिन कुछ दिन बाद तुम पुनः दिखाई पड़ीं और एक दूसरी चीठी छोड़ गईं। औरत : जी हाँ, यह ठीक है, मेरे साथ मेरा भाई भी गिरफ्तार कर लिया गया पर न-जाने क्यों कुछ दिन के वास्ते वह पुनः यहाँ पहुँचा दिया गया और उस समय उसने फिर एक उद्योग यहाँ से निकलने का किया। इस बार भी पुनः उसी बाग तक पहुँच हम लोग फिर पकड़ लिए गए पर इस दफे इतना मौका मिल गया कि वह चीठी लिखकर छोड़ती आ सकूँ। मगर इस दफे मेरा भाई किसी दूसरी जगह भेज दिया गया है और तब से मैं अकेली ही यहाँ पड़ी मुसीबत की घड़िया काट रही हूँ। अब तक मैं समझ रही थी कि मेरा कोई भी सन्देश ठिकाने नहीं पहुँचा पर आज आपके आने से जान पड़ा कि ईश्वर को मेरी हालत पर दया आई और आपको मेरा पता लग गया।

गोपाल : हाँ मुझे दोनों ही चिठियाँ मिली थीं पहिली चीठी पर तो मुझे पूरा विश्वास न हुआ पर दूसरी जब पाई तब शक हुआ और आखिर तुम्हें खोजने निकला। पर एक बात का सन्देह मुझे रह जाता है, तुमने कहा कि दूसरी बार जब तुम अपने भाई के साथ यहाँ से निकलीं तो तिलिस्मी बाग में फिर गिरफ्तार कर ली गईं, पर मुझे तो यह मालूम हुआ कि तुम आप ही आप वहाँ से भाग गईं और फिर नजर न आईं।

औरत : यह आपको किसने कहा? उस समय क्या आपने किसी को मेरा पता लगाने भेजा था?

गोपाल : हाँ, तुम्हें दुबारा देखते ही मैंने पहिचान लिया और अपने एक दोस्त को पता लगाने के लिए भेजा पर उसकी जुबानी सुना गया कि तुम तिलिस्म के अन्दर गायब हो गईं।

औरत : (अफसोस के साथ) ओह तब तो मुझे बहुत बुरा धोखा हुआ। किसी को अपना पीछा करते देख मैं समझी कि मेरे दुश्मनों ने ही फिर मुझे देख लिया और इसीलिए और भागी मगर कुछ ही दूर जाते-जाते पकड़ ली गई। अगर मुझे मालूम होता कि वह आप ही का बाग था जहाँ पर मैं पहुँच गई थी अथवा यही जान जाती कि आपने ही किसी को मेरी खबर लेने भेजा है तो काहे को भागती या क्यों फिर इस कैद में ही पड़ती।

गोपाल : तुम जब वहाँ से भागीं तो फिर क्या हुआ?

औरत : थोड़ी दूर जाने के बाद ही पुनः दुश्मन के हाथ पड़ गई और फिर यहाँ पहुँचा दी गई जैसा कि मैंने आपसे कहा। मेरा भाई भी पकड़ा जाकर किसी दूसरी जगह बन्द कर दिया गया क्योंकि उस दिन के बाद से फिर मैंने उसकी शक्ल नहीं देखी।

गोपाल : तुम उन लोगों को पहिचान सकती हो जिन्होंने मेरे बाग से भागती समय तुम्हें पकड़ा था।

औरत : जी हाँ, नाम यद्यपि नहीं जानती पर सूरत देखकर जरूर पहिचान लूँगी।

गोपाल : अच्छी बात है, उसका बन्दोबस्त किया जायगा। मगर अब चलना चाहिए, ज्यादा देर करना मुनासिब नहीं। तुम्हें मेरे साथ चलने में अब तो कोई आपत्ति नहीं है?

औरत : (हाथ जोड़कर) जी कोई भी नहीं, जहाँ आपकी आज्ञा हो मैं बेधड़क चलने को तैयार हूँ पर एक प्रार्थना मेरी जरूर थी।

गोपाल : सो क्या?

औरत : आपने जब यहाँ तक आने का कष्ट उठाया है तो एक बार मेरे भाई का भी कुछ पता लगाने की चेष्टा करें। न-जाने दुबारा कब आपका आना इधर हो, या नहीं भी हो। उस अवस्था में वह बेचारा यहाँ ही पड़ा-पड़ा जिन्दगी की घड़ियाँ गिना करेगा।

गोपाल : तुम इस तरफ से निश्चिन्त रहो, मैं वादा करता हूँ कि तुम्हारी तरह तुम्हारे भाई को भी यहाँ से छुड़ाऊँगा, अगर वह इस तिलिस्म में होगा, लेकिन आज वह काम नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ से लौटने का रास्ता बहुत ही बीहड़ और खतरनाक है और कम-से-कम तीन घण्टे इस जगह से बाहर जाने में लगेंगे, तथा इस वक्त संध्या होने में भी ज्यादा विलम्ब नहीं है।

औरत : जैसी आपकी आज्ञा हो मैं करने को तैयार हूँ, पर यह सुन मुझे ताज्जुब हुआ कि यहाँ से जाने का रास्ता तीन घण्टे का समय लेगा। मुझे जब मेरा भाई छुड़ा कर ले गया था तो मुश्किल से आध घण्टे में हम लोग आपके तिलिस्मी बाग में पहुँच गए थे। अगर आप वहाँ ही जाना चाहते हैं और किसी दूसरी जगह नहीं तो वह स्थान यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है।

गोपाल : आधे घण्टे में मेरे तिलिस्मी बाग में पहुँच गई थी! नहीं ऐसा नहीं हो सकता, मुझे वहाँ से यहाँ आने में कई घण्टे लग गए और मैं सुबह का चला होने पर भी धूप और गर्मी से परेशान इस वक्त यहाँ पहुँचा था। अवश्य ही पहिले-पहल आने के कारण ऐसा हुआ और अब कुछ जल्दी आ-जा सकूँगा पर तब भी किसी हालत में दो-ढाई घण्टे से कम का रास्ता तो नहीं ही होगा।

औरत : जो आप कहते हैं ठीक ही होगा पर मुझे ताज्जुब जरूर है, क्या बताऊँ मेरा भाई यहाँ नहीं है नहीं तो वह हम लोगों को जल्दी पहुँचा दे सकता था।

गोपाल : (आश्चर्य करते हुए) तुम कुछ बता सकती हो कि किस रास्ते से तुम्हें तुम्हारा भाई ले गया था?

औरत : हाँ-हाँ, क्योंकि वह रास्ता मुझे बखूबी याद है। इस बाग के दक्खिन के कोने में एक बहुत बड़ा हाथी सुफेद पत्थर का बना हुआ है जिसके पेट से हम लोगों ने रास्ता निकाला था। आगे जाने पर एक सुरंग मिली थी जिसकी राह एक बावली से होते हुए एक नहर में निकले थे और वहाँ से उस बाग में पहुँचे थे जिसे आप तिलिस्मी बाग कहते हैं। रास्ते में आधा घण्टा भी नहीं लगा होगा।

गोपाल : जान पड़ता है वह कोई दूसरा और सहज रास्ता है, अच्छा ठहरो मैं देखता हूँ।

इतना कह गोपालसिंह ने पुनः अपनी जेब से वह तिलिस्मी किताब निकाली जिसे वे अब से पहिले भी पढ़ चुके थे और जो वास्तव में वही थी जो भैयाराजा से उन्हें मिली थी और जिसमें अजायबघर का भेद लिखा था। इसी किताब की मदद से अजायबघर से होते हुए आज वे यहाँ तक आए थे मगर यह हम नहीं कह सकते कि उनके यकायक इस विचित्र औरत की खोज में इस तरह चल पड़ने का क्या कारण था। सम्भव है कि इसमें भी कोई रहस्य हो, खैर जो कुछ होगा समय पर मालूम हो ही जायगा।

गोपालसिंह ने वह तिलिस्मी किताब खोली और उलट-पुलट कर देखने लगे, इधर वह औरत चुपचाप उनके सामने खड़ी वचित्र निगाहों से उनकी तरफ देखती रही।

बहुत देर तक उस किताब को देखने बाद गोपालसिंह ने कहा, ‘‘हाँ, यहाँ से जाने की एक दूसरी राह भी है जो जल्दी और कम फेर से हमें पहुँचावेगी पर अफसोस कि इस किताब में उसका पूरा हाल लिखा हुआ नहीं है। मगर ताज्जुब की बात है, तिलिस्मी मामलों में बिना पूरी जानकारी रक्खे कोई उस राह से आ-जा नहीं सकता और तुम कहती हो कि तुम्हारा भाई तुम्हें लेकर उसी राह से गया था!’’

औरत : जी हाँ, मैं बिल्कुल सही कहती हूँ, यह क्या कोई तिलिस्मी किताब है? गोपाल : हाँ, इस किताब में तिलिस्म में आने-जाने के रास्तों का हाल लिखा हुआ है और मैं इसी की मदद से यहाँ आया हूँ।उस औरत ने मन में कहा, ‘‘तब इसी किताब की मुझे जरूरत है’’ और तब जहाँ वह खड़ी थी वहाँ से धीरे-धीरे बेमालूम तरीके से धसकती हुई वह कुछ बाईं तरफ को हटने लगी। गोपालसिंह पुनः कुछ देर तक उलट-पलट कर किताब को देखते रहे।इसके बाद यह किताब बन्द की और उस चौकी पर से उठने का इरादा किया जिस पर कि वे बैठे हुए थे मगर उस समय तक वह औरत धसकती हुई एक ऐसी जगह पहुँच गई जहाँ जमीन में कमल का एक फूल पच्चीकारी के काम का बना हुआ था। अभी गोपालसिंह उस चौकी पर से उठ ही रहे थे कि इस औरत ने अपना पैर बढ़ा कर उस कमल के फूल को जोर से दबा दिया और साथ ही फुर्ती से हाथ बढ़ा कर गोपालसिंह के हाथ से वह किताब भी ले ली।वे ताज्जुब के साथ कुछ पूछने के लिए अपना मुँह खोल ही रहे थे कि यकायक वह चौकी जिस पर वे बैठे हुए थे अपनी जगह से उठी और एक तरफ को इस तरह टेढ़ी हो गई कि वे किसी तरह सम्हल न सके और धड़ाम से उसी कुण्ड में जा पड़े जो उनके पीछे बना हुआ था उनके मुँह से ताज्जुब और घबराहट की एक आवाज निकली और वे अपने को बचाने के लिए हाथ-पाँव मारने लगे।पर उस औरत ने इस तरफ कुछ खयाल न किया और खुशी-भरी निगाहों से उस किताब को देखती हुई तेजी के साथ सीढ़ियाँ पार कर उस बारहदरी के नीचे उतर आई यहाँ भी वह न रुकी बल्कि दौड़ती हुई बाग के दक्खिन वाले कोने की तरफ बढ़ी।

पचास कदम से ज्यादा न गई होगी कि पेड़ों की झुरमुट से निकल कर एक आदमी जिसका चेहरा नकाब से ढका हुआ था उसके सामने और खड़ा हुआ और बोला, ‘‘टेम गिन चाप’’. औरत ने जवाब दिया, ‘‘चेह’’जिसे सुनते ही प्रसन्न होकर उस आदमी ने हाथ बढ़ाया और औरत ने वह किताब उसके हाथ पर रख दी, उसने उलट-पुलट कर दो-तीन बार देखा और तब कहा, ‘इशा’ इसके बाद उसने उस औरत का हाथ थाम लिया और दोनों फिर उस झाड़ी में घुस गए। (१. टेम गिन चाप— मिली वह ताली? २. चेह - हाँ। ३. इशा— वही तो है।)

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