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भूतनाथ - खण्ड 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8365
आईएसबीएन :978-1-61301-023-5

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भूतनाथ - खण्ड 6 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान


रात आधी से कुछ ऊपर जा चुकी है और भयानक जंगल सांय-सांय कर रहा है। रह-रह कर दरिन्दे जानवरों के बोलने की आवाज आती है जो कमजोर कलेजों को दहला सकती है पर उन दो बहादुरों पर इसका कोई असर नहीं है जो एक छोटे मन्दिर के बाहरी चबूतरे पर बेफिक्र पड़े सो रहे हैं।

पर नहीं, हमारा खयाल गलत है। ये दोनों नींद में गाफिल नहीं हैं बल्कि होशियार और चौकन्ने होते हुए भी शायद किसी कारणवश इस तरह पड़े हुए हैं क्योंकि यकायक किसी तरह की आहट पाते ही उनमें से एक ने करवट बदली और कुछ देर तक आवाज पर गौर करने बाद दूसरे को जगाने का इरादा करके घूमा परन्तु उसे भी अपनी ही तरह जागा और उस आहट पर गौर करता हुआ पाया। आवाज तेज होने लगी और थोड़ी ही देर में साफ मालूम हो गया कि कोई हल्की डोंगी तेजी के साथ उस तरफ आ रही है, अब एक ने दूसरे से कहा, ‘‘कोई आ रहा है।’’ दूसरे ने कहा, ‘‘जरूर, और सम्भव है ये लोग वे ही हों जिनकी हम राह देख रहे हैं।’’ पहिला बोला, ‘‘यहाँ से हट जाना बेहतर होगा!’’ दूसरे ने जवाब दिया, ‘‘बेशक मगर यहाँ से दूर भी न जाना चाहिए।’’

दोनों ने जल्दी-जल्दी कुछ और सलाह की और तब वहाँ से हटकर उस बड़े बरगद के पेड़ के ऊपर जा चढ़े जो मन्दिर के सामने और नदी से कुछ ही हट कर था। अभी मुश्किल से कुछ ऊँचाई पर पहुँचकर उन्होंने अपने को पत्तियों की आड़ किया होगा कि वह आने वाली डोंगी उसी मन्दिर के नीचे पहुँचकर रुक गई और उस पर से कई आदमी उतरकर उधर ही को बढ़ते हुए दिखाई पड़े।

ये आने वाली गिनती में पाँच या छः थे पर इनकी शक्ल-सूरत या पोशाक के बारे में कुछ भी जानने की इजाजत वहाँ का घना अंधकार हमें नहीं देता। कुछ देर तक तो ये लोग उस मन्दिर के पास खड़े आपुस में बातें करते रहे और तब वहाँ से हटकर एक तरफ को रवाना हुए। उनके जाने के कुछ ही देर बाद पेड़ पर चढ़े वे दोनों आदमी भी उतरे और दबे पाँव उनके पीछे-पीछे जाने लगे। थोड़ी दूर गए होंगे कि एक ने दूसरे से धीरे से कहा, ‘‘गोबिन्द, ये सब तो उधर ही को जा रहे हैं।’’ दूसरे न जवाब दिया, ‘‘हाँ भैया, और जरूर इनको उस मामले से कुछ सरोकार है।’’ पहिले ने कहा, ‘‘ऐसा ही मेरा भी दिल कहता है।’’

पाठकों की जानकारी के लिए हम बता देना चाहते हैं कि ये दोनों भूतनाथ के शागिर्द वे ही बलदेव और रामगोविन्द हैं जिन्हें वह उस स्थान का भेद लेने के लिए छोड़ गया है और जिनका हाल हम सोलहवें भाग के अन्तिम बयान में लिख आए हैं।

नाव पर से आने वाले वे आदमी सीधे उस चहारदीवारी के पास पहुँचे और पारी-पारी से एक-एक करके उसके अन्दर टप गए। हम अब थोड़ी देर के लिए भूतनाथ के शागिर्दों का साथ छोड़ देते हैं और इन लोगों के साथ चलकर देखते हैं कि ये किस नीयत से यहाँ आए और अब क्या किया चाहते हैं।

वे सब के सब उस बीच वाली मूरत के पास जाकर खड़े हो गए और कुछ देर तक चारों तरफ की आहट लेते रहे। जब अच्छी तरह विश्वास हो गया कि वहाँ एकदम सन्नाटा है और कोई गैर आदमी कार्रवाई देखने वाला वहाँ पर नहीं है तो एक आदमी ने अपने कपड़े के अन्दर से चोर लालटेन निकालकर बाली, उसकी हलकी रोशनी में मालूम पड़ा कि वे लोग गिनती में पाँच हैं और सब के सब काली पौशाक और नकाब से अपने बदन और सूरतें छिपाए हुए हैं।

इन पाँचों में से एक आदमी, जो सभों का सरदार मालूम होता था, आगे बढ़ा और लालटेन उठाकर उसकी रोशनी में उसने वहाँ की चीजों को खूब गौर से देखा तब अपने साथियों से कहा, ‘‘सब कुछ ठीक है, तुम लोग अपने हाथ का सामान रख दो और सब कोई मिलकर इस मूर्ति को हटाकर इसके नीचे वाला रास्ता खोल डालो।’’

लालटेन की रोशनी में दिखाई दिया कि वे सभी आदमी तरह-तरह के सामान हाथ में उठाए हुए थे जो उन्होंने वहीं जमीन पर रख दिए और तब सरदार के हुक्म के मुताबिक उस मूर्ति को जमीन से उठाने लगे।अब मालूम हुआ कि वह मूरत जमीन में गड़ी हुई न थी और साथ ही भीतर से पोली भी थी क्योंकि मूर्ति के हटते ही उसके नीचे से एक छोटी-सी लाल रंग कि पिण्डिका निकल पड़ी जो लम्बाई-चौड़ाई में बालिश्त या डेढ़ बालिश्त से अधिक न होगी। यह पिण्डिका एक छोटे-से संगीन चबूतरे पर बनी हुई थी जो किसी वक्त जरूर जमीन की सतह से ऊँचा रहा होगा पर इस समय तो आस-पास की जमीन के मुकाबले में दबा हुआ था या दबा दिया गया था। उस सरदार ने अपने आदमियों से कहा, ‘‘मूरत अलग रख दो और पिण्डिका के नीचे चबूतरा खाली करो।’’

जमीन खोदने का सामान उनके साथ मौजूद था जिसकी मदद से बात की बात में उस पिण्डिका के चारों तरफ की हाथ-हाथ भर जमीन खोद डाली गई और जब काले पत्थर का बना हुआ वह चबूतरा साफ दिखाई पड़ने लगा। खोदी हुई मिट्टी हटाकर दूर कर दी गई और तब वह सरदार आगे बढ़कर उस चबूतरे के पास पहुँचा। पिण्डिका पर हाथ रखकर उसने कोई खास तरकीब की जिसके साथ ही चबूतरे का पश्चिम तरफ वाला पत्थर खुलकर किवाड़ के पल्ले की तरह भीतर घूम गया और एक छोटा रास्ता जिसके अन्दर आदमी मुश्किल से जा सकता था दिखाई देने लगा। वह आदमी अब पीछे हट आया और बाकी लोगों से बोला, ‘‘लो रास्ता खुल गया अब नाव से लाया हुआ सामान तथा यहाँ की सभी ये चीजें अन्दर ले चलो।’’

उनमें से एक आदमी ने उस रास्ते के पास जाकर कहा, ‘‘और सब चीजें तो चली जाएँगी पर इस मूरत का इस छोटे रास्ते से जाना कठिन होगा।’’ सरदार ने कहा, ‘‘वही तो मैं सोच रहा हूँ। अच्छा गोपाल, तुम भीतर जाकर देखो तो सही शायद वहाँ देखा-भाली करने से इस मूरत को भी अन्दर करने की कोई तरकीब निकल आवे।’’

उनमें से एक आदमी जो सब से फुर्तीला और चालाक मालूम होता था यह सुनते ही आगे बढ़ा और उस छेद के अन्दर सिर डालकर कुछ देर तक देखने के बाद भीतर चला गया। पर अन्दर जाते ही उसने फिर सिर बाहर निकाला और कहा, ‘‘भीतर एक लम्बी-चौड़ी और काफी कुशादा सुरंग है जिसमें दो आदमी साथ-साथ बखूबी चल सकते हैं, पर इस सुरंग के अन्दर कुछ दूर पर एक रोशनी दिखाई पड़ रही है जो पल-पल में तेज होती जा रही है।जान पड़ता है कि कोई आदमी रोशनी लिए इसी तरफ को चला आ रहा है।’’ यह बात सुन सरदार ने कहा, ‘‘अच्छा तुम बाहर निकल आओ, मैं अन्दर जाकर देखता हूँ कि क्या मामला है।’’

उस आदमी के बाहर आते ही वह सरदार सुरंग के अन्दर घुसा और तब उसकी भी निगाह उस रोशनी पर पड़ी जिसके बारे में पहले आदमी ने कहा था। वह रोशनी कुछ-कुछ हरापन लिए हुए एक विचित्र ढंग की थी जिसको देखते ही इस आदमी ने पहिचान लिया और कहा, ‘‘गुरुजी आ रहे हैं, मगर ताज्जुब की बात कि इन्हें हम लोगों के आने की खबर क्योंकर लगी है!’’

यह आदमी उस तरफ बढ़ा और शीघ्र ही उस आने वाली रोशनी के पास पहुँच गया। उसने देखा कि रोशनी पीतल की एक जालीदार लालटेन की है जिसे हाथ में लिए कोई आदमी, जिसकी सूरत अँधेरे के कारण साफ दिखाई नहीं पड़ रही है, तेजी के साथ उसी तरफ को आ रहा है।पास पहुँचते ही उस आगन्तुक ने लालटेन वाला हाथ ऊँचा किया और इस सरदार की तरफ देख जिसने उसके सामने होते अपनी नकाब उलट दी थी कहा, ‘‘कौन, श्यामसुन्दर!’’ सरदार ने कहा, ‘‘हाँ गुरुजी, मैं ही हूँ’’ और तब उसके पैरों पर गिर पड़ा। उस आदमी ने प्रसन्नता के साथ इसे उठाया और गले से लगाते हुए कहा, ‘‘मालूम होता है सब काम पूरा उतरा है क्योंकि तुम्हारे चेहरे से प्रसन्नता प्रकट हो रही है।’’

श्यामसुन्दर ने कहा, ‘‘जी हाँ गुरुजी, आपकी कृपा से हम लोग अपने काम में पूरी तरह सफल हुए और वह सभी सामान जिसके बारे में आपने कहा था यहाँ पर मौजूद है। हमलोग इसे इस सुरंग के अन्दर लाने की ही कोशिश कर रहे थे कि आपके हाथ की रोशनी दिखाई पड़ी जिससे रुक गए।’’ ‘‘वाह, शाबाश!’’ कह कर उस आदमी ने श्यामसुन्दर की पीठ पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘अच्छा चलो पहिले सब सामान अन्दर कर लें तब बताओ कि कैसे क्या हुआ।’’

जब तक कि उसका नाम या असल परिचय न मालूम हो तब तक के लिए हम इस नए आदमी का नाम रामचन्द्र रख देते हैं। श्यामसुन्दर और रामचन्द्र उस सुरंग के मुहाने पर पहुँचे जहाँ से आवाज देकर श्यामसुन्दर ने अपने बाकी साथियों को भी सुरंग के भीतर बुला लिया। रामचन्द्र ने अपने हाथ की लालटेन ऊँची कर कोई खटका ऐसा दबाया कि उनमें से निकलने वाली रोशनी इतनी तेज हो गई कि अब उन बाकी सभी आदमियों की भी शक्ल अच्छी तरह देखी और पहिचानी जा सकती थी।श्यामसुन्दर के इशारे पर उन लोगों ने भी रामचन्द्र के पैरों पर सिर रक्खा जिसने उनको प्यार के साथ गले लगाया और कहा, ‘‘श्यामसुन्दर से यह सुन मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि तुम लोगों को जिस नाजुक काम पर मैंने भेजा था उसमें तुम लोग अच्छी तरह सफल हुए। मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ जिसने ऐसे होशियार और बुद्धिमान शागिर्द दिए। अच्छा अब फुर्ती करो और जो कुछ सामान तुम्हें मिला है उसे भीतर करके सुरंग का रास्ता बन्द कर दो क्योंकि हमलोगों को बहुत दूर जाना और बहुत कुछ करना है।’’ श्यामसुन्दर ने कहा, ‘‘और सब सामान तो आ जायगा पर वह मूरत बहुत बड़ी है और इस तंग रास्ते से अन्दर न आ सकेगी।’’ रामचन्द्र ने यह सुनकर कहा, ‘‘यह तरद्दुद तो बहुत सहज में दूर किया जा सकता है’’ और तब सुरंग की दीवार में बने एक आले में हाथ डालकर कोई तरकीब ऐसी की कि उस मुहाने के बगल की एक सिल्ली और भी हटकर घूम गई और अब वहाँ पर काफी रास्ता दिखाई पड़ने लगा। श्यामसुन्दर ने यह देख अपने आदमियों से कहा, ‘‘लो अब तुम लोग फुर्ती करो।’’ जिसके सुनते ही वे लोग बाहर चले गए और वहाँ का सब सामान उठाकर सुरंग के अन्दर बढ़ चले।

बाहर के मैदान में क्या-क्या चीजें थीं यह हमारे पाठक बखूबी जानते हैं क्योंकि वे इस सामान को उस समय देख चुके हैं जब भूतनाथ के साथ इस जगह आए थे, और बाकी का जो कुछ सामान नाव के जरिए वे लोग लाए थे वह भी वही है जिसे वे सोलहवें भाग के छठे बयान में देख चुके हैं, अस्तु उन सभी का यहाँ पर जिक्र करने और उनका बयान इस जगह दोहरा कर करने की कोई जरूरत नहीं। मुख्तसर यह कि बात की बात में वह सब सामान सुरंग के अन्दर आ गया और बाहर का मैदान एकदम साफ हो गया। अब उस सुरंग का दरवाजा बन्द कर दिया गया, रामचन्द्र के हुक्म से वह सब सामान उठा लिया गया, आगे-आगे रामचन्द्र हुआ और उसके पीछे से सब आदमी जाने लगे।

यह सुरंग बहुत ही लम्बी, पेचीली और घुमावदार थी जिसमें जगह-जगह पर दरवाजे भी बने हुए थे जिन्हें रामचन्द्र बराबर खोलता और बन्द करता हुआ चला जा रहा था। दो घण्टे से ऊपर समय तक ये लोग बराबर चले गए और इस बीच में गर्मी, थकावट और बन्द हवा में चलने की परेशानी से सभी लोग पसीने-पसीने हो गए। आखिर किसी तरह सुरंग खत्म हुई और उन लोगों ने अपने को एक ऐसी कोठरी में पाया जो आठपहली बनी हुई थी और जिसके बीचोबीच में मोटे खम्भे के ऊपर एक शेर की मूरत बैठी हुई थी। रामचन्द्र ने इस शेर की बाईं आँख में अपनी उँगली डाली और जोर से दबाया, इसके साथ ही सामने की दीवार की एक सिल्ली चूहेदानी के पल्ले की तरह ऊपर को उठ गई और वहाँ एक रास्ता दिखाई पड़ने लगा। एक दूसरी सुरंग दिखाई पड़ी जो पहली सुरंग की बनिस्बत कुछ पतली थी पर इसकी लम्बाई ज्यादा न थी जिस कारण इसे इन सभों ने शीघ्र ही पार कर लिया और तब सब लोग एक दरवाजे के पास पहुँचे जो बन्द था। एक खटका दबा कर यह दरवाजा भी खोला गया और सामने की कुछ सीढ़ियाँ चढ़ ये लोग एक छोटे-से बाग में पहुँचे।

हमारे पाठक इस बाग को देखते ही पहिचान लेंगे क्योंकि यह वही है जिसमें सरस्वती उस समय आई थी जब तिलिस्मी घाटी में घुस कर दारोगा और जैपाल जमना और दयाराम को पकड़ ले गए थे और वह उनका पीछा करती हुई एक चबूतरे पर चढ़ कर शेरों वाले कमरे में पहुँची थी, और यह छोटी सुरंग भी वही है जिसकी राह जमना, सरस्वती और दयाराम को तिलिस्म में कैद कर दारोगा और जैपाल पुनः इस बाग में वापस लौटे थे।(१. देखिए भूतनाथ दसवाँ भाग, सातवाँ बयान।)

सब आदमियों ने अपने-अपने बोझ जमीन पर रख दिये और जमीन पर बैठ सुस्ताने लगे, पर रामचन्द्र श्यामसुन्दर को लिए हुए कुछ दूर हट गया और एक चबूतरे पर बैठ कर बातें करने लगा।

रामचन्द्र० : अच्छा अब कह जाओ कि क्या-क्या हुआ और तुम लोगों ने क्या-क्या काम किया?

श्याम० : बहुत अच्छा, मैं सब हाल शुरू से कहता हूँ। आपका पत्र लेकर मैं सीधा दारोगा साहब के पास चला गया, वे कुछ बीमार थे पर यह सुन कर कि मैं रोहतासगढ़ से आ रहा हूँ उन्होंने तुरन्त मुझे अपने पास बुलवा लिया, मैंने पत्र उनके हाथ में दे दिया।

रामचन्द्र० : पढ़ कर तो वे बड़ा चकराए होंगे!

श्याम० : बेतरह, देर तक ताज्जुब के साथ मेरा मुँह देखते रहे, अन्त में बोले, इन बातों का पता उन्हें क्योंकर लगा? मैंने जवाब दिया कि ‘इस बारे में मैं तो कुछ नहीं कह सकता’—जिस पर वे बहुत झुंझला कर कहने लगे, ‘‘अगर मुझसे साफ-साफ सब बातें नहीं कहनी हैं तो सीधे बैरंग वापस जाओ और अपने गुरुजी से कह दो कि मैं इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कर सकता।’’

रामचन्द्र : (हँस कर) तब तुमने क्या जवाब दिया?

श्याम० : मैंने कहा कि ‘बहुत अच्छा, जो कुछ आपका जवाब हो उसे इसी चीठी की पीठ पर लिख दीजिए, मैं जाकर दे दूँगा’। इस पर बोले कि ‘अच्छा कल आना मैं सोच कर जवाब लिख रक्खूँगा, लेते जाना’। मैंने कहा, ‘‘कोई हर्ज नहीं मैं कल ही आऊँगा क्योंकि आपका जवाब सुन कर अब मुझे गदाधरसिंह से मिलना जरूरी हो गया।’’ इस पर वे घबराये और बोले कि ‘गदाधरसिंह से तुम्हें क्या काम’? मैंने जवाब दिया कि ‘गुरुजी ने कहा है कि अगर दारोगा साहब इस बारे में कुछ न करें तो भूतनाथ के पास जाना और उससे सब हाल कहना, आशा है कि वह सब-कुछ सही बता देगा। उसके नाम की भी एक चीठी मुझे दी है। वह उसे दूँगा और जवाब लूँगा, इसमें आज का दिन समाप्त हो जाएगा क्योंकि वह न-जाने कहाँ मिले। आप जवाब तैयार रखिए मैं कल आकर ले जाऊँगा’। यह सुनते ही वे तो ठण्डे पड़ गए और कहने लगे कि भूतनाथ वाली चीठी में उन्होंने क्या लिखा है क्या तुम जानते हो’? मैंने जवाब दिया कि ‘नहीं, ठीक-ठाक तो नहीं मालूम पर जो आपके पत्र का मजमून है करीब-करीब वही उनके पत्र का भी होगा’! मेरी बात सुन वे कुछ गौर में पड़ गए और देर तक सोचने के बाद बोले, ‘‘तुम जानते ही हो कि तिलिस्म कैसी भयानक जगह है और उसके अन्दर जाने वाला किस तरह कदम कदम पर खतरे में पड़ सकता है। पर खैर वे जब ऐसा चाहते ही हैं तो मैं तुम्हें ले चल कर वह स्थान दिखा दूँगा। मैंने खुश होकर कहा, ‘‘कब तक चलिएगा!’’ उन्होंने दूसरे दिन सुबह चलने को कहा।

दूसरे दिन सुबह मैं उनकी खोपड़ी पर फिर जा मौजूद हुआ। कुछ देर बाद वे उठे और मुझे लेकर तिलिस्म में चलने को तैयार हुए उस जगह पहुँचे जहाँ का हाल आपने बताया था, और एक बार आँख से देख लेने से मेरे मन में वहाँ का बिल्कुल नक्शा बैठ गया।जब उन्होंने पूछा कि ‘बस देख चुके न’? तो मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा कि ‘जी हाँ, बस अब मेरा काम बखूबी बन जायगा’। हम लोग वापस लौटे। उनसे छुट्टी ली और तुरन्त अपने काम में लग गया। उस मन्दिर के पास ही, जहाँ भूतनाथ अकसर टिकता है, मेरे आदमियों ने मिट्टी का एक बाड़ा तैयार कर रक्खा था जिसके बीचोबीच में वह रास्ता पड़ता है जिसकी राह हम लोग अभी-अभी आए हैं। मैंने उस स्थान को भीतर की तरफ से रंग-रंगा कर ठीक वैसा ही दुरुस्त कर लिया जैसा कि अपनी आँख से देख आया था। इस बीच हमारे आदमी उन सामानों को जुटाने की फिक्र में पड़े हुए थे जिनका पता आपने दिया था और जिनकी फिक्र में गोपाल शुरू से ही पड़ा हुआ था। इस काम में शिवदत्तगढ़ के आदमियों से इन लोगों को बहुत कुछ मदद मिली और थोड़ी कोशिश में वे सब चीजें इन लोगों के हाथ में आ गईं। इसी बीच में नन्होंजी भी अपना काम खतम करके आ गईं। वह सामान देख उन्होंने बहुत ताज्जुब प्रकट किया और उनके असली होने की ताईद की, अस्तु वह जगह ठीक होते ही वे सब कुछ चीजें लाकर ठीक उसी जगह सजा दी गईं जैसे कि आपने बताया था। इतना कर हम लोग इस बात की राह देखने लगे कि भूतनाथ आवे तो किसी तरह से उसे इस जगह ले चलें और देखें कि उस दृश्य को देख उसकी क्या हालत होती है। बारे बहुत जल्दी ही हमारी यह इच्छा पूरी हो गई। भूतनाथ अपने दो शागिर्दों के साथ उस मन्दिर में आ के टिका और हम लोग धोखा देकर उसे उस जगह ले आए।

रामचन्द्र : यह सब सामान देख कर उसकी क्या हालत हुई? घबड़ाया तो बेतरह होगा!

श्याम० : बेतरह पर उससे भी ज्यादा उन बातों से और वह विचित्र सूरत देख कर चकराया जो शायद आपकी कारीगरी थी।

राम० : (ताज्जुब से) सूरत और बातें कैसी? क्या वहाँ पर कोई और भी घटना हुई थी?

श्याम० : (आश्चर्य करता हुआ) क्या वह आपकी कारीगरी नहीं थी और क्या वह विचित्र आसेब जो उस जगह प्रकट हुआ और जिसने ‘रोहतासमठ के पुजारी’ के नाम से अपना परिचय दे कर भूतनाथ को परेशान कर दिया वह आप ही नहीं थे?

राम० : यह क्या कह रहे हो तुम, मेरी समझ में कुछ नहीं आता! मैं तो तब से अपने काम में इस तरह फँसा रहा कि बस आज चूँकि तुमसे वहाँ पर मिलने का वादा कर चुका था इसीलिए वहाँ गया। आज के पहले दम-भर के लिए भी वहाँ जाने की मोहलत न मिली। तुम सब हाल खुलासा बयान करो तो पता लगे।

इसके जवाब में श्यामसुन्दर वह सब घटना पूरी-पूरी कह गया जो हम ऊपर सोलहवें भाग के अन्त में बयान कर आए हैं। रामचन्द्र ज्यों-ज्यों उसकी बातें सुनता था उसके चेहरे से घबराहट और परेशानी प्रकट होती जाती थी और अन्त तक सुनते-सुनते वह एकदम घबड़ा कर बोल उठा, ‘‘यह तुम सही हाल मुझसे कह रहे हो या कोई मनगढ़न्त कहानी सुना रहे हो!’’

श्याम० : मैं बिल्कुल ठीक हाल कह रहा हूँ। उस भयानक आसेब की सूरत ऐसी डरावनी थी कि अगर उस समय हम लोग इसी गुमान में न रहे होते कि यह आपकी की कोई कारीगरी है तो जरूर भूतनाथ की तरह हम भी बेहोश हो जाते, मगर अब जो आप यह कहते हैं कि वह आप नहीं थे तो मुझे बड़ा ताज्जुब मालूम होता है।

राम० : बेशक वह मैं नहीं था और मुझे इस बात पर विश्वास नहीं होता कि ऐसी विचित्र बात हुई होगी। मैं समझता हूँ कि जरूर तुम्हें किसी तरह का धोखा हुआ है।

श्याम० : मैं आपके चरणों की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं उस वक्त पूरे होशहवास में था जबकि वह घटना हुई। मैं ही क्यों, गोपाल तथा इन बाकी के सभी आदमियों ने भी वह विचित्र शक्ल देखी और मेरी तरह सभी अब तक इसी भ्रम में पड़े हुए हैं कि आपने ही भूतनाथ को छकाने के लिए किसी तरह की कारीगरी की थी।

राम० : अगर ऐसा है तो तुम मेरी यह बात अभी उन पर प्रकट न करो कि वह मैं नहीं था नहीं तो उन पर शायद इसका उलटा असर पैदा हो। मैं इसकी जाँच करूंगा और देखूँगा कि यह क्या बात हो सकती है।

मगर उस आसेब ने जो बातें भूतनाथ से कहीं उसे सुनकर भी मुझे ताज्जुब हो रहा है क्योंकि उनमें दो-चार बातें ऐसी हैं जिनके बारे में मैं भी कुछ नहीं जानता पर भूतनाथ पर उनका जो असर हुआ उससे जान पड़ता है कि वे जरूर उसके जीवन से कोई बहुत गहरा सम्बन्ध रखती हैं। एक बार फिर तो कह जाओ कि उस पिशाच ने भूतनाथ से क्या-क्या कहा?

श्यामसुन्दर फिर से उन बातों को दोहरा गया और रामदचन्द्र ताज्जुब और तरद्दुद के साथ इस पर देर तक गौर करता रहा कि असल मामला क्या हो सकता है पर उसकी समझ में ठीक तरह से कुछ भी न आया और आखिर उसने कहा, ‘‘मैं कुछ भी नहीं कह सकता कि वह आसेब क्या बला थी पर इसमें शक नहीं कि वह अगर कोई भूत-प्रेत या पिशाच नहीं है और सचमुच किसी की कारीगरी है तो उसका पैदा करने वाले को जरूर भूतनाथ की जीवनी की दो-एक घटनाएँ ऐसी मालूम हैं जिनके बारे में हम लोगों को कुछ भी खबर नहीं है और जिनके प्रकट होने से भूतनाथ घबड़ाता है, खैर इसके बारे में फिर पता लगाया जायगा।’’

श्याम० : जरूर पता लगाना चाहिए, लेकिन अब दो-एक सवाल मैं भी पूछना चाहता हूँ, अगर आज्ञा हो तो पूछूँ।

राम० : हाँ पूछो क्या पूछते हो।

श्याम० : जब वह आसेब आप नहीं थे तो मैं यह जानना चाहता हूँ कि उस स्थान की नकल करने और भूतनाथ को उसे दिखाने से आपका क्या अभिप्राय था जहाँ भूतनाथ द्वारा उस भयानक घटना के होने का हाल आप मुझसे कह चुके हैं।

राम० : यह बात तो मैं पहिले ही तुम्हें बता चुका हूँ, मेरा मुख्य अभिप्राय यही है कि भूतनाथ को डरा-धमका कर किसी तरह शिवगढ़ी की ताली उससे ले ली जाय।

श्याम० : लेकिन ऐसा वह करेगा ही क्यों?

राम० : हमारी कार्रवाई से इतना तो वह समझ ही गया होगा कि उसके पुराने पापों का जानकार कोई ऐसा व्यक्ति पैदा हो गया है जिसको उसके विषय में सब बातों की पूरी-पूरी खबर है!

श्याम० : माना मैंने, मगर उससे फिर क्या? जो कुछ कार्रवाई की गई उससे वह काम क्योंकर निकलेगा जिसके लिए हम लोग यहाँ पर आये हैं? अपनी पिछली करतूतों का यह नाटक देखकर भूतनाथ डरे और घबरावे चाहे जितना भी पर उससे क्या वह शिवगढ़ी की ताली निकाल कर दे देगा! मैं तो समझता हूँ कदापि नहीं।

राम० : (हँसकर) तुम्हारी बुद्धि यों तो बहुत तेज है पर कभी-कभी मनुष्य की प्रकृति समझने में तुम बड़ी भारी भूल कर जाया करते हो। क्या तुमने भूतनाथ की तबीयत को इतने दिनों तक जाँच के भी यह नहीं समझा कि वह अपने पुराने पापों की छाया से भी डरने लगा है और केवल यही नहीं चाहता कि वे पाप ढके रहें बल्कि यह भी चाहता है कि वह दुनिया में नेकनाम और ईमानदार ऐयार कहला कर प्रसिद्ध हो।

श्याम० : बेशक इस कोशिश में तो वह जरूर है!

राम० : अस्तु इसी से यह बात भी सहज ही में समझी जा सकती है कि उसको जब इन दोनों बातों में से किसी एक को चुनना पड़े कि या तो उसका पिछला पाप दुनिया में प्रकट हो और या फिर उस पाप के सब सबूत उसके हाथ में इसलिए दे दिए जायं कि वह स्वयं उन्हें नष्ट करके हमेशा के लिए निश्चिन्त हो जाय मगर इसके बदले में शिवगढ़ी की ताली हमें दे-दे तो क्या वह बिना एक मिनट का भी आगा-पीछा विचारे यह दूसरी बात मंजूर न कर लेगा और ताली देकर अपनी नेकनामी कायम न रक्खेगा?

श्याम० : (कुछ सोचकर) हाँ यह बात तो आपकी ठीक मालूम होती है। तब शायद आपका इरादा यह है कि वह अगर ताली आपको दे दे तो आप यह सब चीजें जो हम लोगों को मिली हैं उसके सुपुर्द कर दें?

राम० : बेशक, अगर वह हमारी चीज हमें दे देगा तो हम लोग भी उसकी चीज उसे वापस कर देंगे।

श्याम० : लेकिन मान लीजिए कि उसने यह बात मञ्जूर न की?

राम० : उस हालत में हम लोग बराबर उसको तंग करते रहेंगे, जमाने-भर में उसकी बदनामी मशहूर करते रहेंगे, और तब तक उसके पीछे पड़े रहेंगे जब तक कि वह हमारी मन्शा पूरी नहीं करता। मगर तुम इस बात का कुछ भी अन्देशा न करो।मेरा दिल कहता है कि जहाँ एकाध बार और उसकी काली करतूतें याद कराई गईं और भुवनमोहिनी के सिर या तिलिस्म के भूतनाथ से उसकी भेंट कराई गई तहाँ वह मोम हो जायगा और धीरे-से हमारी चीज उगल देगा। मुझे इस बात का पूरा यकीन है, मगर खैर यह जिक्र इस वक्त जाने दो और यह बताओ कि नन्हों ने इन चीजों को देखकर क्या कहा?

श्याम० : वे इन चीजों को देखकर बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने विश्वास दिलाया कि इनकी मदद से हमारा काम जरूर निकल जायेगा। मेरी उनकी-बहुत-सी बातें हुईं और अब आगे क्या-क्या करना होगा इसके बारे में वे बहुत जल्द आपसे मिलने वाली हैं। मैंने उनको आपका वही पुराना ठिकाना बता दिया है और यह भी कह दिया है कि भरसक कल रात को आप वहाँ पर रहेंगे और उनसे मुलाकात कर सकेंगे, उन्होंने आने को भी कहा है।

राम० : बहुत ठीक किया, मैं खुद उससे मिलने को उत्सुक हूँ, कल जरूर मिलूँगा। हाँ, वह मनोरमा से मिली या नहीं?

श्याम० : जी तब तक तो नहीं मिली थीं पर अब हम लोगों से मिलने और यह सब सामान देख लेने बाद गई हैं और आशा है जरूर मिली होंगी।

राम० : उससे क्या-क्या बातें होती हैं यह सुनने लायक होगा।

श्याम० : जरूर। कल वे आपसे मिलेंगी उसी समय पता लगेगा। (कुछ रुक कर) हाँ एक बात का जिक्र करना तो मैं बिल्कुल भूल ही गया।

राम० : सो क्या?

श्यामसुन्दर ने अपने चारों तरफ देखा। गोपाल तथा बाकी के सब इधर-उधर बैठे, लेटे या टहलते हुए सुस्ता रहे थे और इन दोनों के पास में कोई न था। श्यामसुन्दर ने यह देख धीरे से न-जाने कौन सी बात कही कि जिसे सुनते ही रामचन्द्र चौंक उठा और उसके चेहरे से परेशानी और घबराहट जाहिर होने लगी। उसने दबी जुबान से कुछ कहा और तब इन दोनों में बहुत ही धीरे-धीरे इस तौर पर कुछ बातचीत होने लगी कि हम भी न सुन सके। पर आखिर ये बातें खतम हुई और रामचन्द्र ने उठते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे आदमी सुस्ता चुके अब चलना चाहिए।’’

श्यामसुन्दर ने पूछा, ‘‘क्या अभी और कहीं जाना है!’’ रामचन्द्र ने जवाब दिया, ‘‘हाँ, यह सब सामान लोहगढ़ी पहुँचाना होगा।’’ जिस पर वह बोला, ‘‘जब लोहगढ़ी ही जाना था तो बाहर वहाँ क्यों नहीं हम लोगों को भेज दिया? वहाँ से वह इमारत बहुत नजदीक पड़ती है जहाँ वह नाटक किया गया था।

राम० : नहीं बाहर जाने में बहुत से खतरे थे जिनमें से सबसे बड़ा यह था कि शायद भूतनाथ ने इसलिए कुछ आदमी वहाँ पर छोड़ रक्खे हों कि कोई अगर उन चीजों को हटाने के लिए आवे तो उसके पीछे जायँ और देखें कि उन्हें कौन कहाँ ले जाता है। मुझे तो यही शक बना हुआ है कि तुम लोगों को उस जगह आते इन चीजों को उठाते उसने या उसके आदमियों ने देख न लिया हो।

श्याम० : नहीं, इसकी कोई सम्भावना नहीं जान पड़ती क्योंकि हम लोग पूरी तरह से चौकन्ने थे और इस बात से पूरे खबरदार भी कि कोई हमारा पीछा न करे। जहाँ तक मैं कह सकता हूँ हम लोगों को किसी ने नहीं देखा।

राम० : तभी खैरियत है, अच्छा चलो।

श्याम० : अब किस तरह चलिएगा?

राम० : वही बन्दरों वाले बंगले में, उसी जगह से लोहगढ़ी में जाने का रास्ता है। अपने साथियों को सब चीजें उठाकर पीछे-पीछे आने को कह रामचन्द्र और श्यामसुन्दर पुनः वहाँ से रवाना हुए।

यहाँ उस बँगले तक जाने के रास्ते का हाल जिसमें दयाराम-जमना और सरस्वती रहती थीं अथवा जिसकी छत पर बने हुए बन्दरों वाला बँगला रख दिया है हमारे पाठक जानते ही होंगे क्योंकि उन्हें कई बार हमारे साथ यहाँ से वहाँ तक आने-जाने का मौका पड़ चुका है अस्तु उसका हम कोई जिक्र न करेंगे, मुख्तसर यह कि उसी मामूली रास्ते से यह गिरोह उस बँगले के अन्दर जापहुँचा।उस कमरे में पहुँच कर जहाँ प्रभाकरसिंह की सूरत में आने के मौके पर भूतनाथ जोखिम में पड़ गया था या जहाँ वह

शीशे वाली पुतली थी रामचन्द्र ने बाकी लोगों को रुक जाने को कहा और श्यामसुन्दर को लिए हुए बँगले की एक कोठरी की राह होता हुआ उस बँगले की छत पर पहुँच गया।यहाँ छत के मुंडेर पर बने हुए वे बन्दर दिखाई पड़ रहे थे जिन्हें मालती ने पहिले-पहिल उस वक्त देखा था जब कि उसे इन्द्रदेव की बदौलत इस घाटी में कुछ दिन रहना पड़ा था और वह छत भी यहाँ से दिखाई पड़ रही थी जहाँ से मालती ने यह सब हाल देखा था। इस समय पौ फट चुकी थी और पूरब तरफ का आसमान लाली पकड़ रहा था। (१. देखिए भूतनाथ, आठवें भाग का अन्त। २.देखिए भूतनाथ तेरहवाँ भाग, आठवाँ बयान।)

रामचन्द्र पश्चिम तरफ के मुंडेर की तरफ गया जिधर थोड़ी-थोड़ी दूर पर आठ बन्दर एक-दूसरे से बराबर फासले पर बैठाये हुए थे। ये बन्दर किसी धातु के बने हुए थे और साथ ही तिलिस्मी कारीगरी से खाली न थे। रामचन्द्र ने एक बन्दर का दाहिना कान पकड़ा और उसके बदन को जोर से धक्का दिया। वह अपनी जगह से खसक पड़ा। ढकेलते हुए वह उसको एक कोने की तरफ ले चला और वहाँ ले जाकर छोड़ दिया, इसके बाद दूसरे बन्दर को उसकी तरह वहाँ तक पहुँचाया, यहाँ तक कि एक-एक करके आठों बन्दर उसी स्थान इकट्ठे हो गए। रामचन्द्र ने अब उन सभों की गर्दन उमेठनी शुरू की जो जरा से जोर में ही घूम जाती थी। जब सबका मुँह पश्चिम और उत्तर के कोने की तरफ हो गया तो उन बन्दरों के मुँह से एक तरह की किलकारी की-सी आवाज सुनाई पड़ी जिसे सुन उसने कहा, ‘‘लोहगढ़ी में जाने का दरवाजा खुल गया। चलो नीचे चलो।’’

श्यामसुन्दर ने कहा, ‘‘उस रात को जब मैं आपके साथ यहाँ आया था तब आपने कोई तर्कीब ऐसी की थी कि इन बन्दरों की आँखों से चमक निकलने लगी थी और तब दरवाजा खुला था पर आज वैसा नहीं हुआ, इसका क्या सबब है?’’

रामचन्द्र ने जवाब दिया, ‘‘वह तर्कीब रात के वक्त काम लेने के लिए है। तुम देखते हो कि इन बन्दरों का मुँह हर तरफ को घूम सकता है। इस घाटी से आठ तरफ को जाने के लिए आठ सुरंगें निकली हैं। जिस तरफ की सुरंग का रास्ता खोलना हो उसी तरफ सब बन्दरों का मुँह हो जाने पर उस तरफ की सुरंग का दरवाजा खुल जायगा।इस समय चाँदना हो गया है इसलिए सहज ही में यह काम हो गया पर रात के वक्त अँधेरे में ऐसा करने में बहुत तरद्दुद हो सकता है क्योंकि किसी बन्दर का मुँह अगर जरा दूसरी तरफ घूमा रह जायगा तो दरवाजा न खुलेगा, उस समय काम में मदद करने के लिए इनकी आँखों से रोशनी की तर्कीब तिलिस्म बनाने वालों ने रक्खी है। रोशनी पैदा करने की तर्कीब देखो यह है।’’

कह कर रामचन्द्र ने एक बन्दर का बायाँ कान पकड़ा साथ ही उसकी आँखों से बहुत ही तेज और चकाचौंध कर डालनेवाली रोशनी निकलने लगी। कान उलटा घुमाते ही रोशनी बन्द हो गई। श्यामसुन्दर ने कहा, ‘‘ठीक है मैं समझ गया मगर यहाँ से जाने के पहिले एक बात मैं और पूछना चाहताहूँ, अगर कोई हर्ज न हो तो बता दीजिए।’’

राम० : (हँस कर) पूछो क्या पूछते हो?

श्यामसुन्दर : पिछली दफे हम सब लोग यहाँ उस वक्त आए थे जब मुन्दर और हेलासिंह भी यहाँ पर थे और जब नन्होंजी हम लोगों के साथ थीं। उस समय उन्होंने न-जाने क्या किया था कि सब बन्दर एक विचित्र रीति से कवायद करने लगे थे, वह क्या बात थी!

राम० : (हँस कर) मैं समझ रहा था कि यही बात तुम पूछोगे। वह कोई खास या विचित्र बात नहीं बल्कि यहाँ रहने वालों का मन बहलाने के लिए मजाक के तौर पर कारीगरों ने बना दी है। मैं उसकी भी तर्कीब अभी तुमको बताए देता हूँ पर इसके पहिले जब जिक्र आ ही गया है तो एक बात और भी कह दूँ जिसका पता शायद तुमको नहीं होगा और जिसको जानकर मुझे अफसोस हुआ क्योंकि उस मौके पर हम लोगों से एक भूंडी गलती हो गई जिसका नतीजा भयानक हो सकता था।

श्याम० : (ताज्जुब से) सो क्या?

राम० : जिन आदमियों को हमने हेलासिंह और मुन्दर समझ कर उन पर हमला किया था वे वास्तव में इन्द्रदेव और मालती थे।

श्याम० : (चौंक कर) हैं, इन्द्रदेव और मालती!

राम० : हाँ।

श्याम० : ओ हो, तब तो हम लोगों से भारी भूल हो गई। (कुछ सोचकर) अवश्य वे लोग हेलासिंह और मुन्दर न होंगे क्योंकि ये दोनों उस तरह आपके हाथ के बाहर न हो सकते थे जैसा कि वे हो गये और इन्द्रदेव के सिवाय किसी की मजाल भी न थी कि हमलोगों को इस तरह परेशान करता। आप उस वक्त बड़े मौके से पहुँचे थे नहीं तो जब मैंने अपने को कोठरी में बन्द होते देखा तो यही समझा कि बस हुआ, तिलिस्म के चक्कर में फँस गया अब जिन्दगी गई। मगर आपको यह बात किस तरह मालूम हुई!

राम० : तुम लोगों को छुड़ा कर रवाना कर देने के बाद जब मैंने आलमारी में बेहोश मालती और लोहगढ़ी की चाभी वाला डिब्बा पाया तब। उसी समय मैंने अपना रुख बदल दिया और दूसरे ढंग से काम करने लगा।

श्याम० : ठीक है, अच्छा अब यह बताइये कि इन बन्दरों को नचाने की तर्कीब क्या है?

रामचन्द्र श्यामसुन्दर को लिए हुए छत के एक कोने की तरफ गया जहाँ एक अकेला बन्दर जो औरों से कुछ बड़ा था बैठाया हुआ था। इसके पेट के पास एक छोटा-सा मुट्ठा लगा हुआ था जिसको रामचन्द्र ने घुमा दिया और अलग जा खड़ा हुआ। मुट्ठा घुमाते ही वह बन्दर उठ खड़ा हुआ और बाकी के सब बन्दरों के बदन में भी हरकत होने लगी। कुछ देर तक सब इधर-उधर उछलते-कूदते रहे और तब उस बड़े बन्दर ने उन सभों से कुछ इस ढंग से कवायद कराना शुरू किया कि देखते ही ये दोनों हँस पड़े।कुछ देर तक यह तमाशा देखने के बाद इसे बन्द कर वे दोनों नीचे उतरे और बाकी आदमियों को साथ लेने की नीयत से उस कोठरी में पहुँचे जहाँ उन लोगों को छोड़ गए थे, पर ताज्जुब की बात थी कि वहाँ उन चारों में एक भी आदमी न था। हाँ, वह सब सामान जो वे लोग उठा लाये थे वहीं जमीन पर जरूर पड़ा हुआ था। यह समझ कर कि शायद वे लोग बाहर कहीं निकल गए हों रामचन्द्र ने कमरे की खिड़की खोल उन लोगों को कई आवाजें दीं पर उनका कहीं पता न लगा।चारों तरफ के कमरे और कोठरियों में तलाश किया और तब बाहर निकल कर घाटी के चारों तरफ घूम-घूम कर भी खोजा पर कहीं भी ये लोग नजर न आए आखिर दोनों ताज्जुब करते हुए मैदान में खड़े हो गए और एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे।

इतना पढ़कर हमारे पाठक यह तो समझ ही गए होंगे कि ऊपर तेरहवें भाग के छठवें और नवें बयान में जो कुछ ताज्जुब की बातें हम लिख आए हैं वह इन्हीं रामचन्द्र, श्यामसुन्दर और गोपाल आदि की करतूत थी और इन्द्रदेव ने जिस औरत को छत पर देखा वह नन्हों थी।पर इस बात का अभी पता न लगा कि यह रामचन्द्र वास्तव में कौन है तथा वह श्यामसुन्दर, गोपाल और बाकी के लोग किसके नौकर या शागिर्द हैं। खैर कभी-न-कभी इसका पता लग ही जायगा। अब हम इनको इसी जगह छोड़ते हैं और पाठकों को एक दूसरे ही अनूठे स्थान की सैर कराते हैं।

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