लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 5

भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

108 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

नौवाँ बयान


जिस समय किसी का फेंका हुआ एक गोला आकर उस छत पर गिर कर फूटा और उसमें से बहुत-सा धुआँ निकल कर चारों तरफ फैल गया उसी समय इन्द्रदेव समझ गये कि यह धुआँ जहरीला और बहुत बुरा असर पैदा करने वाला है। इसके पहिले कि धुएँ का असर होने पाए उन्होंने वहाँ से हट जाने का इरादा किया और उन कागजों तथा सामानों को बटोर और मालती को अपने पीछे आने को कहते हुए वे फुर्ती के साथ नीचे उतर गये।

नीचे की मंजिल में पहुँच कर बल्कि कई कोठरियाँ में घूम-घूम कर वे उस तरफ से निश्चिन्त हुए, फिर भी उस कड़वे धुएँ का जो कुछ अंश आँखों में लगा था या साँस की राह भीतर गया था उसने उन्हें चक्कर दिला दिया और कुछ देर के लिए उनकी यह हालत हो गई कि सिवाय सिर पकड़ कर बैठ जाने के और कुछ नहीं कर सकते थे।

थोड़ी देर बाद जब उनके होश-हवास कुछ ठिकाने हुए तो उन्होंने अपने जेब से निकालकर कोई चीज सूँघी जिसने धुएँ के जहरीले असर को एकदम दूर कर दिया और तब वे इस लायक हुए कि कुछ कर सकें। सबसे पहिला तरद्दुद उन्हें मालती के विषय में हुए जिसे उन्होंने अपने पास कहीं न पाया। जिस धुएँ ने उनके मजबूत दिल व दिमाग पर इतना असर किया उसने कमजोर औरत पर कहीं ज्यादा असर किया होगा बल्कि ताज्जुब नहीं कि उसे छत से उतरने का भी मौका न दिया हो।

यह सोच इन्द्रदेव तुरन्त लौट पड़े और उन्हीं कोठरियों में घूमते-फिरते पुन: छत पर जाने वाली सीढ़ी के पास पहुँचे। वहाँ जमीन पर उन्हें बेहोश मालती दिखाई पड़ी और तब उनके जी में जी आया। उन्होंने उसे उठा लिया और बगल की एक कोठरी में ले जाकर उसे होश में लाने का उद्योग करने लगे।

जिस चीज को सूँघने से उन्हें फायदा पहुँचा था उसी को कुछ देर तक मालती को सुँघाने तथा उसकी आँखों पर मलने के कुछ देर बाद मालती की हालत सुधरती नजर आई। उसके बदन में एक हलकी कंपकंपी आ गई और साँस कुछ जोर से आने-जाने लगी। उसकी आँखें भी एक बार खुल कर पुन: बन्द हो गईं मगर इससे इन्द्रदेव को विश्वास हो गया कि अब कोई खतरा नहीं है और यह शीघ्र ही होश में आ जायगी।

इसी समय सीढ़ी पर से धमधमाहट की आवाज आई जिससे मालूम हुआ कि कई आदमी छत से उतर रहे हैं, आहट मिलते ही इन्द्रदेव चौंके और उन्हें उन दुश्मनों का खयाल आ गया। फुर्ती से कुछ सोच और तब मालती को पुन: गोद में उठा कर वे एक दूसरे स्थान में जा पहुँचे। यह एक छोटी कोठरी थी जिसमें चारों तरफ की दीवारों में हर तरफ एक दरवाजा और उसके बगल में दोनों तरफ दो-दो अलमारियाँ बनी हुई थीं। इन्द्रदेव ने पूरब तरफ वाले दरवाजे के बाईं तरफ वाली अलमारी का पल्ला किसी ढब से खोला।

अन्दर से यह अलमारी बहुत ही चौड़ी थी और इसमें दर या हिस्से बने हुए न थे जिससे यह इस लायक थी कि उसमें तीन-चार आदमी बखूबी खड़े हो सकते थे। इन्द्रदेव ने बेहोश मालती को इसी अलमारी में रखने के बाद अपने हाथ का सब सामान भी उसी जगह रख दिया और तब पल्ले बन्दकर देने के बाद कोई तर्कीब ऐसी कर दी की जिससे सिवाय उनके और कोई उसे खोल ही न सके।

यद्यपि यह सब काम उन्होंने बड़ी फुर्ती से किया, फिर भी वे आने वाले वहाँ तक आ ही पहुँचे। बगल की कोठरी में उनके आने की आहट मिल चुकी थी जब इन्द्रदेव मालती की तरफ से निश्चिन्त हुए और जैसे ही वे बगल के दरवाजे से दूसरी कोठरी में घुसे वैसे ही कई आदमियों ने इस कोठरी में पैर रक्खा।

ये आने वाले पाँच या छ: आदमी थे और सभों ही के चेहरे नकाब से ढके हुए थे। आगे-आगे एक लम्बा आदमी था जो सभों का सरदार मालूम होता था।

इसने आते ही कोठरी में चारों तरफ देखा और कहा, ‘‘यहाँ तो कोई नहीं है-- मालूम होता है वे दोनों कहीं दूसरी तरफ निकल गए। तुममें से एक-एक आदमी इन चारों दरवाजों के अन्दर जाकर तलाश करो और जिन-जिन कोठरियों को देख चुको उनकी जंजीर बाहर से बन्द करते जाओ।’’

हुक्म के मुताबिक चार आदमी उसको चारों तरफ के दरवाजों में चले गये, वह सरदार तथा केवल एक आदमी और उस कोठरी में रह गये जिसमें धीरे-धीरे बातें होने लगीं--

सरदार : न मालूम वे दोनों किधर से निकल गये!

साथी : यह तिलिस्मी इमारत है, इसमें पचासों ही गुप्त रास्ते और स्थान हैं जिनसे किसी का निकल जाना या छिपा रहना कोई भी ताज्जुब नहीं।

सरदार : मगर मुझे ताज्जुब तो यह है कि उस गोले के तेज असर से वे दोनों बचे किस तरह! उसके धुएँ का एक बार साँस के साथ जाना ही काफी था और मजबूत से मजबूत आदमी भी उसके असर से बच नहीं सकता था।

साथी : बेशक यह ताज्जुब तो मुझे भी है।

सरदार : अगर वे दोनों नहीं पकड़े गये तो उन चीजों का पता बिल्कुल लग न सकेगा जिनके पाने की आशा में हम लोग यहाँ आये और इतनी तकलीफें उठा...

इसी समय बगल की कोठरी से किसी आदमी के जोर से चिल्लाने की आवाज उनके कानों में पड़ी जिसे सुनते ही वे दोनों चौंके और यह कहते हुए कि ‘महावीर की आवाज है, मालूम होता है उस पर कुछ आफत आई है’ उसी तरफ लपके मगर जब वे उस कोठरी में पहुँचे तो किसी की सूरत दिखाई न पड़ी। ताज्जुब करते हुए वे अपने चारों तरफ देखने लगे क्योंकि उस कोठरी में सिवाय उस रास्ते के जिससे कि वे अभी-अभी यहाँ आये और कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता था और ऐसी अवस्था में उस आदमी का गायब हो जाना जो यहाँ आया था अथवा जिसके चीखने की आवाज अभी-अभी उनको कानों में गई थी वह ताज्जुब की बात थी।

फिक्र और तरद्दुद के साथ वे अपने चारों तरफ देख ही रहे थे यकायक बड़े जोर से उस कोठरी का दरवाजा बन्द हो गया और वे दोनों घने अन्धकार में पड़ गए, क्योंकि सिवाय उस दरवाजे के उस कोठरी में कहीं से चाँदना या हवा आने का कोई भी रास्ता न था। अपने को यकायक इस मुसीबत में पाकर दोनों घबरा गये और दरवाजा खोलने का उद्योग करने लगे पर उन्हें शीघ्र ही पता लग गया कि वह मजबूत दरवाजा उनके किसी भी उद्योग से शीघ्र खुलने वाला नहीं।

पाठक तो समझ ही गये होंगे कि यह कार्रवाई इन्द्रदेव की थी जिनके लिए इस तिलिस्मी मकान में दस-पाँच आदमियों को पकड़ लेना या बन्द कर देना कोई भी मुश्किल की बात न थी। जो हालत इन दोनों आदमियों की हुई थी वही बाकी के चारों आदमियों की भी हुई और कुछ ही देर घूमने–फिरने के बाद उन चारों ने अपने को एक ऐसी कोठरी में पाया जिसमें केवल एक ही दरवाजा था और जो अन्दर पहुँचते ही इस तरह से बन्द हो गया कि उसका निशान तक बाकी न रह गया अर्थात् यह भी मालूम न होता था कि वह दरवाजा कहाँ है जिसकी राह-अभी-अभी उन्होंने इस कोठरी में पैर रक्खा है।

इन सब शैतानों को इस प्रकार बन्द करके भी इन्द्रदेव निश्चिन्त न हुए, क्योंकि उन्हें सन्देह था कि शायद अभी कुछ आदमी और बचे हों जो मौका पाकर उन्हें या मालती को तंग करें- अस्तु वे होशियारी के साथ चारों तरफ देखते हुए पुन: उस बंगले की छत पर चले गये और वहाँ पहुँचते ही एक अद्भुत और विचित्र तमाशा देखा।

छत पर चारों तरफ सन्नाटा था मगर पूरब की तरफ से किसी तरह की आहट मिल रही थी। अस्तु इन्द्रदेव की निगाह उधर ही को घूम गई और उस बंगले पर जा पहुँची जिसे हम लोग अब तक बन्दरों वाले बंगले के नाम से पुकारते चले आये हैं। पाठकों को मालूम होगा कि उसकी छत पर किसी धातु के बने हुए कई बन्दर थे जो कभी-कभी विचित्र प्रकार की हरकतें किया करते थे। इस समय इन्द्रदेव ने देखा कि वे बन्दर उस बंगले के बीचोंबीच की एक ऊंची छत पर इकट्ठे हुए भए हैं और उस पर खड़ी एक औरत के चारों तरफ विचित्र प्रकार से उछल-कूद मचा रहे हैं।

थोड़ा ही गौर करने से इन्हें मालूम हो गया कि वे बन्दर कवायद कर रहे हैं और उन्हीं में से एक सरदारी के तौर पर उस औरत के सामने खड़े होकर उन बाकी बन्दरों से कवायद करा रहा है।

यद्यपि आज से पहिले भी सैकड़ों बार इन्द्रदेव उन बन्दरों का विचित्र तमाशा देख चुके थे पर आज की इस कवायद में कुछ ऐसी विचित्रता थी और उन बन्दरों की उछल-कूद कुछ ऐसी हँसी पैदा करने वाली थी कि इन्द्रदेव अपने को रोक न सके और मजबूरन हँस पड़े।

परन्तु तुरन्त ही इन्द्रदेव ने अपने को सम्हाला और तब उन्हें यह जानने की फिक्र हुई कि वह औरत कौन है जो उन बन्दरों के बीच में बेखटके खड़ी हुई बल्कि ताली बजा कर हँसती हुई उनकी इस विचित्र उछल-कूद को देख रही है। वह बंगला यहाँ से बहुत ज्यादा दूर तो न था पर इतना नजदीक भी न था कि उसकी छत पर खड़े किसी नये आदमी की सूरत-शक्ल बखूबी देखी जा सके, अस्तु कुछ देर तक गौर के साथ देखने पर भी इन्द्रदेव यह न पहिचान सके कि वह कौन औरत है, अस्तु वे कुछ सोचते हुए छत के नीचे उतरे और किसी कोठरी में घुस गये।

थोड़ी देर बाद जब वे लौटे उनके हाथ में एक मोटा शीशा था जिसे आँखों के सामने रखने से दूर तक की चीजें साफ दिखाई पड़ती थीं। इस शीशे की मदद से उस औरत को बखूबी देख और पहिचान सकेंगे ऐसा इन्द्रदेव का विश्वास था पर अफसोस, अब उन्होंने उस बन्दरों वाले बंगले की तरफ निगाह की तो न उस औरत को वहाँ पाया और न उन बन्दरों ही की करामात देखी, सब-के-सब अपनी जगह पर पुन: पत्थर की मूरती की तरह बैठे हुए थे और उस औरत का कहीं पता न था। न जाने कुछ ही सायतों के बीच में वह कहाँ या किधर चली गई थी!

बड़ी देर तक इन्द्रदेव उस शीशे की मदद से दूर-दूर तक चारों तरफ उस घाटी और उसमें की इमारतों पर निगाह डालते रहे पर न तो वह औरत ही कहीं दिखाई दी और न किसी दूसरे आदमी पर निगाह पड़ी। लाचार वे वहाँ से हटे और बहुत-सी बातें सोचते हुए छत के नीचे उतर कर उस कमरे में पहुँचे जहाँ मालती को अलमारी के अन्दर बन्द कर गये थे।

उस कमरे में घुसते ही यह देख कर उनका कलेजा घड़क उठा कि उस अलमारी के दोनों पल्ले खुले हुए हैं और मालती का कहीं पता नहीं है। वे झपट कर उस जगह पहुँचे। देखा कि अलमारी बिल्कुल खाली थी, हाँ, उसके नीचे जमीन पर एक कागज का टुकड़ा पड़ा हुआ अवश्य दिखाई दिया जिसे इन्द्रदेव ने उठा लिया और पढ़ा।

मोटे-मोटे हरफों में लाल स्याही से यह लिखा हुआ था :-

‘‘आखिर कम्बख्त मालती मेरे हाथ लगी। मुझसे बच कर वह जा ही कहाँ सकती थी। इन्द्रदेव, तुम अपनी तिलिस्मी ताकत पर भूले हुए पर हो पर समझ रक्खो कि तुम्हारा ‘गुरु-घन्टाल’ आ पहुँचा! बस पहिचान जाओ और अपने को बचाओ। इस समय तो मैं केवल मालती और लोहगढ़ी की ताली लिए जाता हूँ पर मेरा दूसरा वार तुम्हीं पर होगा।

वही- तिलिस्मी शैतान।’’

यह विचित्र पत्र पा और खास कर यह देख कि वह गठरी जिसमें लोहगढ़ी की ताली तथा और सब सामान था इसमें नहीं है, इन्द्रदेव ताज्जुब में पड़ गये और बहुत देर के लिए न जाने किस गौर में डूब गए। न जाने यह तिलिस्मी शैतान क्या बला था जिसने उन्हें इतनी फिक्र में डाल दिया कि तनोबदन की सुध भुला दी। देर तक वे इसी तरह सोच में डूबे रहे मगर एक खटके की आवाज ने उन्हें चौका दिया और घूम कर देखने से उन्हें मालूम हुआ कि उस कोठरी का दरवाजा जिसमें कुछ ही देर पहिले वे उन बदमाशों के सरदार और उसके साथी को बन्द कर चुके थे, आप से आप खुल गया।

इन्द्रदेव को गुमान हुआ कि शायद उसमें से कोई दुश्मन आकर हमला करेगा और उन्हें नुकसान पहुँचावेगा पर ऐसा न हुआ। वह कोठरी बिल्कुल खाली थी, यहाँ तक कि उसमें वे दोनों आदमी भी नहीं दिखाई पड़ रहे थे जिन्हें कुछ देर पहिले उन्होंने बन्द किया था।

बहुत कोशिश करके इन्द्रदेव ने उन खयालों को अपने से दूर किया और यह कहते हुए वहाँ से हटे, ‘‘भला बे शैतान! चाहे तू कोई भी क्यों न हो पर मैं तुझसे टक्कर जरूर लूँगा!’’ दो-चार कोठरियों में घूमने के बाद उन्हें मालूम हो गया कि वह तिलिस्मी शैतान उन सब आदमियों को छुड़ा ले गया जिन्हें कुछ ही देर पहिले उन्होंने बन्द किया था अस्तु फिर विशेष जाँच करने की जरूरत न समझ इन्द्रदेव उस बंगले के बाहर निकल आये और चारों तरफ गौर से देखते हुए उसी बन्दरों वाले बंगले की तरफ बढ़े। रास्ते में कहीं किसी आदमी की सूरत उन्हें दिखाई न पड़ी और वे बेखटके उस जगह पहुँच गये। पतली खूबसूरत सीढ़ियों के जरिये चढ़ कर बंगले के सदर दरवाजे के पास पहुँचे और किसी तर्कीब से उसे खोल ऊपर चले गये। अन्दर जाकर दरवाजा उन्होंने पुन: बन्द कर लिया।

यह एक बड़ा कमरा था जिसमें बैठने के लिए बहुत से कौच और कुर्सियाँ आदि रक्खी हुई थीं। किसी तरह की खास सजावट इसमें न थी और यह बिल्कुल सादे ढंग का था। इसमें तीनों तरफ कई दरवाजे थे जिनमें से बाई तरफ का दरवाजा खुला था। इन्द्रदेव उसी दरवाजे से अन्दर घुस गये और तरह-तरह के विचित्र सामानों से सजे हुए दूसरे कमरे में पहुँचे।

पाठक, इस कमरे का हाल विशेष रूप से लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि आप एक बार पहिले भी भूतनाथ के साथ इसमें उस समय आ चुके हैं जब वह मेघराज का पीछा करता हुआ प्रभाकरसिंह की सूरत बना इस घाटी में घुसा था। इसी कमरे में नकली जमना से उसकी मुलाकात हुई थी और यहीं पहुँच कर बेतरह झमेले में वह पड़ गया था। (१. देखिये भूतनाथ आठवाँ भाग, अन्तिम बयान।) अस्तु इस जगह के सामानों का हाल आपको बाखूबी मालूम है जिससे उसके दुहराने की कोई आवश्यकता नहीं है।

इन्द्रदेव के कमरे में घुसने के साथ ही सामने कोने में खड़ी एक शीशे की पुतली बड़ी तेजी के साथ चक्कर खाने लगी। इन्द्रदेव ने यह देख दरवाजे के बगल में बने एक आले में हाथ डाल कोई खटका दबा दिया जिससे उस पुतली का घूमना बन्द हो गया और साथ ही सामने की दीवार में एक रास्ता दिखाई पड़ने लगा।

इन्द्रदेव उस दरवाजे की राह आगे आने वाली कोठरी में चले गये और अपने पीछे के दरवाजे को किसी तर्कीब से बन्द करते गये। इस कोठरी में बन्द इन्द्रदेव ठहरे नहीं बल्कि एक गुप्त दरवाजे की राह बगल की एक दूसरी कोठरी में होते हुए सीढ़ियाँ पार कर नीचे के एक ऐसे कमरे में पहुँचे जो बहुत बड़ा था और जिसके बीच का हिस्सा तरह-तरह के कल-पुरजों तथा विचित्र-सामानों से भरा हुआ था। चारों तरफ बने कई रोशनदान से काफी हवा और रोशनी आ रही थी जिससे वहाँ की हर चीज साफ दिखाई पड़ रही थी। इन्द्रदेव ने कमरे में पहुँचते ही यहाँ के कल-पुर्जों में से एक को छेड़ दिया जिसके साथ ही कुछ पुरजे तथा पहिए तेजी के साथ घूमने लग गये और एक तरह की आवाज, जो वास्तव में पुरजों के घूमने ही से पैदा हुई थी, उस कमरे में गूंज उठी।

इन्द्रदेव ने पुन: किसी दूसरे पुरजे को हिलाया, और भी कई कलपुर्जे घूमने लगे और आवाज की तेजी बढ़ गई। इसी तरह धीरे-धीरे इन्द्रदेव की करतूत से उसे बड़े कमरे में जितने कल-पुरजे थे सभी चलने लगे और आवाज इतनी जोर से होने लगी कि कान के परदे फटने लगे।

इतना कर इन्द्रदेव अलग हो गये और कुछ खुशी भरी आवाज के साथ बोले- ‘‘अब कोई माई का लाल ऐसा नहीं है जो घाटी के किसी भी दरवाजे को खोल सके। भीतर से बाहर जा सके या बाहर से भीतर आ सके। मगर इस काम का नतीजा तभी निकलेगा जब कि वह कम्बख्त शैतान और उसकी मण्डली अभी तक इस घाटी में हो, अगर वे सब निकल गये होंगे तो मेरी कोशिश बिल्कुल फजूल होगी। खैर अब यह जानना चाहिए कि इस घाटी में कहाँ पर कौन-कौन है और यह बात ‘इन्द्र मण्डल’ में गए बिना मालूम न होगी!’’

इन्द्रदेव उस जगह से हटे और पूरब की तरफ दीवार के पास पहुँचे जिसमें तीन बड़े दरवाजे बने हुए थे। इनमें से बीच वाले दरवाजे को उन्होंने किसी तर्कीब से खोलना चाहा पर कई बार कोशिश करने पर भी वह न खुला जिससे वे बड़े तरद्दुद में पड़ गए पर फिर तुरन्त ही इसका कारण उनकी समझ में आ गया और वे हँस कर बोले, ‘‘ओहो, मैंने स्वयं ही तो सब दरवाजों का खुलना रोक दिया, वे खुल ही क्योंकर सकते हैं! अत: इसे खोलने के लिए दूसरी ही तर्कीब करनी होगी।’’

इन्द्रदेव ने अपने गले के साथ ताबीज की तरह लटकती हुई एक छोटी-सी ताली निकाल ली जो एक ही हीरे को काट कर बनाई गई थी। यह कीमती ताली खास जमानिया तिलिस्म के दारोगा के लिए बनाई गई थी और इसमें यह कुदरत थी कि तिलिस्म के किसी भाग के किसी भी ताले को जब हम चाहें खोल सकती थी।

इन्द्रदेव को दारोगा होने के कारण बतौर धरोहर के यह ताली मिली थी, इसे उन्हें हमेशा अपने गले में पहिने रहना पड़ता था। मगर साथ ही यह बात भी थी कि इसका इस्तेमाल केवल बहुत ही खास मौकों पर छोड़ कर हर समय करने की सख्त मुमानियत थी और इसकी मदद से किसी कैदी को निकाल देने की बिल्कुल इजाजत न थी।

इस समय इन्द्रदेव ने इसी ताली से काम लिया और इसकी मदद से दरवाजा खोल डाला। पर कमरे के अन्दर घुसते ही उनको एक ऐसी भयानक चीज दिखाई पड़ी कि उन्हें रोमांच हो गया और आप से आप उनके मुँह से एक चीख निकल गई।

वह भयानक चीज क्या थी? वह एक कटा हुआ सिर था जो इस कमरे के बीचोंबीच में एक संगमरमर की चौकी पर रखा हुआ था। लहू से तमाम चौकी और उसके नीचे की जमीन तर हो रही थी और सिर के लम्बे तथा लहू से सने हुए बालों ने चेहरे पर पड़ कर और भी भयानक बना रक्खा था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book